(Article) सीमित होते फाग के स्वर 

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सीमित होते फाग के स्वर 

जब मौसम में मादकता हो, पलास फूला, हो आम बोराया हो और खेत पर गदराई फसल खडी हो तब किसका मन मस्ती में नहीं डूबेगा | बुंदेलखंड की लोक परम्परा में फाग का अपना महत्व रहा है | कभी यह परम्परा बसंतोत्सव से शुरू हो जाती थी | बसंत के आगमन के साथ गाँव -गाँव में फाग के स्वर सुनाई देने लगते थे जो बसंत पंचमी तक चलते रहते | अब ये सिर्फ होलिका दहन के आस पास तक सिमित हो कर रह गए हें | शुद्ध शात्रीय शैली की फागों का स्थान अब अश्लील फागों और फागों की सी.डी.ने ले लिया है | इस अंचल में बसंत पंचमी के साथ ही मस्ती का आलम शुरू हो जाता था, मस्ती के रस में सराबोर गाँव -गाँव में फागों की फड बाजी होती थी | जबाबी फागों की यह शैली अरसे से समाप्त हो चुकी है |

गाँव की चौपालों पर नगड़िया -ढोलक , झींका, मजीरा, की लय पर फाग की तान अब कम सुनाई पड़ती है | बुन्देली लोक जीवन से जुडी फागों का अपना एक सम्रद्ध इतिहास है | फाग की वर्तमान परम्परा ईसुरी और गंगा धर व्यास की फागों तक सिमित सिमित हो कर रह गई हें | गाँव -गाँव में मूलतः ईसुरी रचित फागें ही गई जाती हें |ठेट- बुन्देली समरसता वा माधुर्य के साथ ईसुरी की फागों में श्रृंगार वा भावों की अभिव्यक्ति का अनूठा सम्मिश्रण देखने को मिलता है | ईसुरी रचित फागों को चोकडिया फाग भी कहते हें, फागों को गाने वाले फगुवारे लक्ष्मण सिंह (८५) इस उत्सव में अपनी उम्र को बाधक नहीं मानते | वे कहते हें की फागों की मस्ती का आलम ही कुछ और होता है ,हम तो वेसा ही आनंद लेते हें जैसा जिन्दगी भर होली के माह में लेते रहे हें | काल गी गति के साथ अब सब कुछ बदल गया है ,अब वैसा उत्साह और उल्लास लोगों में नहीं रहा |

बुंदेलखंड में डेढ़ सौ वर्ष पूर्व ईसुरी रचित फागों की श्रन्गारिता ने इसे लोक जीवन की फागें बना दिया | इस दौर में लोग प्राचीनतम छंद माऊ, डिडखुरयाऊ, पयाऊ, लापडिया, और खडी फागों को भूल गए |यह ईसुरी की फागों की ही खासियत थी की लोक जीवन से सीधी जुड़ गई |फाग मंडलियों की प्रतियोगी फाग गायन के आयोजन से इसको व्यापकता मिली |पर समय के साथ यह परम्परा समाप्त हो रही है |अब गांवों में साहित्यिक  और लोक जीवन की फागों का स्थान अश्लील फागों ने और सी.डी.ने ले लिया है |

प्रमुख साहित्यकार सुरेन्द्र शर्मा "शिरीष"अश्लील फाग गायन को श्रृंगार की ही उपाधि देते हें, वे कहते हें की यह भी जीवन का एक अंग है | और इसका कोई बुरा भी नहीं मानता | है की अब गांवों की चौपालों पर फागों के फड नहीं जमते धोके से ही कुछ गाँवों में फागों के स्वर सुनाई देते हें |जब की बुन्देल्खाद की यह लोक परम्परा फाग गायन सबसे निराली है,यह ब्रज की होली से भी कहीं ज्यादा आकर्षक है | होली पर लोक गायन की जो परम्परा बुंदेलखंड में है, वह अन्यत्र कहीं नहीं है | फिर भी इसे वह स्थान नहीं मिल पाया जो इसे मिलना चाहिए था | ईसुरी की फागों में लोक जीवन ही नहीं देखने को मिलता है बल्की करारा व्यंग्य भी देखने को मिलता है | 

अब लोगों के पास वक्त की कमी है, आपसी मेल जोल का भी समय नहीं है, घर-घर टी.वी., सी.डी.प्लेयर पहुँच गए हें एसे में गाँव की चौपाल पर भला किसे बैठने की फुर्सत है | 

रवीन्द्र व्यास 

Comments

रवीन्द्र व्यास Ji
Bundelkhand apne aap me ek itehas. Phir bhi Gov. ki traph se
Bundelkhand ke leye kuch bhi nahi kyaa gyaa.

Your
Anand Dwivedi
Chitrakoot Dhaam U.P.