(Article) हिस्से की जमीन तलाशते, मोहताज ये शिल्पी

हिस्से की जमीन तलाशते, मोहताज ये शिल्पी

जिंदगी यूं हुई बसर तन्हा, काफिला साथ और सफर तन्हा.
(सुरेन्द्र अग्निहोत्री)

गुलजार के गीत की यह पंक्तियां कहते..

सुरेन्द्र अग्निहोत्रीपीतल के अनगढ़ टुकड़ों को अपने हुनर से मंदिर में भगवान के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने वाले ललितपुर जनपद के जखौरा ब्लाक के शिल्पी भूमण्डलीयकरण के कारण आज दाने-दाने को मोहताज हैं। सरकारी लालफीता शाही के चलते उनकी इस ढलवा मूर्ति शिल्प कला का लाभ दलाल खुलेआम लूट रहे हैं। जखौरा की पीतल शिल्पकृतियों की महीन कलात्मकता और पारम्परिक विशिष्टता ने ललितपुर के इन अनजान से कस्बे को ढलवा मूर्ति शिल्प जगत में नयी पहचान दिलायी है। बुन्देलखण्ड के खजुराहो, ओरछा, चन्देरी, देवगढ़ तथा झांसी आने वाले विदेशी सैलानी आये दिन ढलवा, पीतल की मूर्तियां तथा अन्य सामग्री खरीदने आते हैं लेकिन मूर्ति निर्माण से जुड़े जखौरा तथा ललितपुर के दर्जनों शिल्पी कड़ी मेहनत के बावजूद अपने परिवार का भरण-पोषण नहीं कर पा रहे हैं।

ललितपुर जनपद गुप्तकाल से ही मूर्ति गढ़ने के लिये प्रसिद्ध रहा है। पहले सेड स्टोन, ग्रेनाइट तथा गोरा पत्थर की मूर्ति गढ़ी जाती थी, इसलिए यहां के एक स्थान का नाम देवगढ़ पड़ा। पिछले सौ वर्षो से पीतल तथ अष्टधातु की मूर्ति की ढलवा विधि फल फूल रही थी। ललितपुर तथा जखौरा के शिल्पी अपनी अनूठी कला दक्षता के लिए उत्तर प्रदेश सरकार के विभिन्न पुरुस्कारों से सम्मानित हो चुके है। मूर्ति शिल्पी वृंदावन लाल सोनी बताते हैं कि ढलवा धातु शिल्प की कला उत्यन्त धैर्य और कौशल के बिना अंजाम तक नहीं पहुंचती है। सबसे पहले हम मिट्टी पर आकृति गढ़ते हैं तथा विभिन्न प्रकार की बारी नक्काशी करके मिट्टी की मूर्ति को सूखने के लिए रख दिया जाता है। जब मूर्ति सूख जाती है तो उस पर कच्चे मोम का लेप चढ़ा देते है। लेप सूख जाने के बाद उस पर मिट्टी चढ़ा कर सांचा तैयार करके पीतल डालने हेतु छोड़कर पूरी तरह बन्द करके सांचे को सूखने के लिए रख देते है। इसके बाद धरिया में पीतल के टुकड़े डालकर गर्म किया जाता है। जब धातु पानी की तरह तरल हो जाती है तो उसे सांचे में डालते हैं। गर्मी के कारण मोम जल जाता है और खाली स्थान पर पीतल के अपना अपना आकार ले लेता है। शिल्पी रमेश बताते हैं कि ढलाई के समय अत्याधिक सावधानी बरतनी पड़ती हे। यदि पीतल बीच में रूक गया अथवा ठंडा हो गया तो सारी मेहनत बेकार चली जाती है। मूर्ति की ढलाई पूर्ण हो जाने के बाद सांचा ठंडा करके तोड़ते हैं। मूर्ति की सफाई, छिलाई और पालिश करके बाजार में बेचने हेतु भेजा जाता है।

यहां के मूर्तिकार मात्र धार्मिक मूर्तियों के निर्माण के हुनर तक ही सीमित नहीं है वरन् वे आधुनिक सोच और बाजार की मांग के अनुसार अपनी कला में परिवर्तन के प्रति संवेदनशील भी हैं। बुन्देलखण्ड की प्राचीन परम्परा को ध्यान में रखकर आधुनिक प्रयोग करने वाले शिल्पकारों द्वारा निर्मित शिल्प में रथ आरूढ़ श्रीकृष्ण, मूषक रथ पर गणपति, नृत्य गणेश, उमा महोश्वर, नृवराह, विष्णु-लक्ष्मी, राम-जानकी के अलावा चार घोड़ों के रथ पर सवार कृष्ण-अर्जुन आदि प्रमुख हैं। कलात्मकता से परिपूर्ण शीशदान, पानदान, श्रृंगारदान, इत्रदान, फूलदान विभिन्न प्रकार के ऐस ट्रे आदि महत्वपूर्ण है। कड़ी मेहनत और हुनर की बदौलत देा वक्त की रोटी के लिए सृजनरत शिल्पकारों को जब कुरदते हैं तो उनका दर्द शब्दों के माध्यम से फूट पड़ता है। वे बताते हैं कि मुरादाबाद के पीतल शिल्प से तुलना किये जाने के कारण उनके श्रम का सही मूल्य मिलता नहीं है। मशीनों द्वारा निर्मित पीतल की सामग्री कभी कला का स्थान नहीं ले सकती है। हम प्रत्येक मूर्ति को गढ़ने के लिए हर बार नया सृजन करते हैं। पीतल की कीमत में निरन्तर आने वाले उछाल के साथ लकड़ी तथा कोयले की बढ़ती कीमत से हमारा मुनाफा घट रहा है। एक मूर्ति के निर्माण में चार से पांच दिन का समय लगता है। लगातार भट्टी के पास खड़े रहने के कारण अनेक जानलेवा रोग के शिकार होना शिल्पकारों की मजबूरी है, धातुकला की मजबूरी है। धातुकला की पारंगत विधि में दक्षता के लिए पुरस्कृत शिल्पकार राम बाबू स्वर्णकार कहते है कि हम सरकार से भीख नहीं मांग रहे हैं। हमें सिर्फ कच्चा माल खरीदने के लिए कम ब्याज पर ऋण उपलब्ध हो जाए तो हमारी शिल्प कला विदेशी मुद्रा कमाने का अच्छा श्रोत बन सकती है। आज हम साहूकार के कर्ज के कारण सस्ते मूल्य पर उन्हें ही अपनी मूर्ति बेचने को मजबूर हैं। साहूकार हमारी कलाकृतियों को दिल्ली, मुम्बई जैसे बड़े महानगरों के शोरूमों में ऊंची कीमत पर बेचते हैं। बिचैलियों की गिरफ्त में ढलाई मूर्ति कला के शिल्पकारों को अपने हक नहीं मिल पा रहे हैं। जिसके कारण अनेक शिल्पी परिवार अपनी पुस्तौनी व्यवसाय व हुनर से नाता तोड़ने को मजबूर हो गये हैं। राजशाही में पल्लवित और पोषित होने वाली धातु शिल्प कला लोकशाही के पांच दशक बाद भी अपनी संरक्षण का ठौर न पाने कारण दम तोड़ती नजर आ रही है। समय रहते इस कला के संरक्षण के लिऐ पहल नही की गई तो ढलवा मूर्ति शिल्प सिर्फ किताबांे में रह जायेगी। अपने हिस्से की जमीन तलाशते शिल्पकार नामचीन कलाकार की तरह अपनी कलाकृतियों के प्रदर्शन के लिऐ ऐसा मंच चाहते है जहां कला के पारखी पहुंच सके और उन्हें दो जून की रोटी के साथ कलाकार के रूप में पहचान मिल सके।

सुरेन्द्र अग्निहोत्री,
राजसदन 120/132 बेलदारी लेन, लालबाग, लखनऊ।
मोबाइलः- 9415508695, 9839320041