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बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - कजरिया (Kajariya)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

कजरिया (Kajariya)

सन् 1182 ई. का सावन अपनी सारी रंगीनी और चहल-पहल के साथ उतरा था। उसे मालूम था कि चंदेलों की राजधानी महोबा में उसकी जितनी अगवानी होती है, उतनी और कहीं नहीं। इसीलिए कारी बदरिया, रिमझिम मेह, दमकन् बिजुरी, सजी-धजी हरयारी, रचनू मेंहदी, नचत-बोलत मोर-पपीरा और तीज-त्यौहार-सब अपने-अपने करतब दिखाने लगे थे। अलमस्त पहाड़ और अलगरजी ताल दुर्ग की तरफ आँखें गड़ाये खड़े थे। शायद सावन की दिखनौसी सौगातों की ललक से।

‘बुंदेली भाषा’ को मिलना चाहिये भारत के संबिधान की आठवीं अनुसूची में स्थान - राष्ट्रीय बुन्देली भाषा सम्मेलन 2017

‘बुंदेली भाषा’ को मिलना चाहिये भारत के संबिधान की आठवीं अनुसूची में स्थान -

राष्ट्रीय बुन्देली भाषा सम्मेलन 2017

बुंदेलखण्ड साहित्य एवं संस्कृति परिषद, भोपाल के तत्वाधान में बुंदेली भाषा का राष्ट्रीय सम्मेलन ओरछा में 20 तथा 21 दिसम्बर को आयोजित हुआ।

उद्घाटन सत्र :

https://bundelkhand.in/sites/default/files/national-bundeli-bhasha-sammelan-proceedings-2017-img1.jpg

बुंदेली भाषा के राष्ट्रीय सम्मेलन का उद्घाटन करते हुये ओरछेश श्री मधुकर शाह जी, काशी हिंदू वि.वि. के प्रो. कमलेश कुमार जैन, बुंदेलखण्ड वि.वि. के कुलपति प्रो. सुरेन्द्र दुबे जी, जर्मनी के होमवर्ग वि.वि. की प्रो. तात्याना, बुंदेलखण्ड साहित्य एवं संस्कृति परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री कैलाश मड़वैया जी आदि ने बुंदेली कवि श्री केशव जी के चित्र पर माल्यार्पण एवं दीप प्रज्ज्वलन कर कार्यक्रम शुभारंभ किया। लोक कलाकारों ने हमारी माटी बुंदेली गीत प्रस्तुत किया। श्रीमती कामिनी जी ने मंच संचालन किया।

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - लोकाभूषण (Lokabhushan)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

लोकाभूषण (Lokabhushan)

  • वर्गीकरण
  • आभूषणों का इतिहास
  • आभूषणों का स्वरुप
  • स्रियों के आभूषण

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - भोजन-पेय और वस्राभरण (Bhojan Pey Aur Vasrabharan)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

भोजन-पेय और वस्राभरण (Bhojan Pey Aur Vasrabharan)

 

  • प्रागौतिहासिक युग

  • महाभारत-काल

  • जनपद काल

  • मौर्य-शुंग काल

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - लोकरंजन (Lokranjan)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

लोकरंजन (Lokranjan)

  • आदिकालीन लोकरंजन

  • महाभारत-काल

  • महाजनपद काल

  • मौर्य-शुंग काल

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - लोकाचार (Lokaachaar)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

लोकाचार (Lokaachaar)

प्रागैतिहासिक युग

आदिवासी आचार

वैदिक और आदिम आचारों का सम्मिलन

महाभारत-काल

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - लोक विश्वास (Lok-Vishwaas)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

लोक-विश्वास (Lok-Vishwaas)

  • वर्गीकरण

  • परम्परा और प्रगति

  • आदिकाल

  • सांस्कृतिक संघर्ष

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - लोकधर्म (Lokadharam)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

लोकधर्म (Lokadharam)

  • स्वरुप और वैशिष्ट्य

  • उद्भव और विकास

  • गुफा-युग

  • कृषि-युग

  • रामायण-काल

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - लोकमूल्य (Lokmulya)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

लोकमूल्य (Lokmulya)

  • उद्भव और विकास
  • आदिकाल
  • महाभारत-काल
  • महाजनपद-काल
  • धार्मिक जागृति का युग
  • नाग-वाकाटक काल

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - लोक-दर्शन (Lok-Darshan)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

लोक-दर्शन (Lok-Darshan)

लोकदर्शन लोकसंस्कृति की आत्मा है, जो उसे चेतना की संजीवनी देकर हमेशा जीवित रखती है । प्राणद्रव होते हुए भी लोकदर्शन अभी तक अछूता रह गया । उस पर न तो दार्शनिकों का ध्यान गया और न लोकसंस्कृति के विद्वानों का । वे तो विशिष्ट दर्शनों के अनुशीलन में लगे रहे और सिद्धांतों के तंग गलियारों में भटकते रहे, लेकिन उन्होंने आम आदमी के दर्शन को न उठाकर नहीं देखा । अगर गहराई में जाएँ, तो लोकदर्शन लोकसंस्कृति का मस्तिष्क है और लोकदर्शन के बिना लोकसंस्कृति का अध्ययन करना संभव नहीं है । इस वजह से यहाँ पहली बार लोकदर्शन की आख्या और ऐतिहासिक विकास-दिशा का आकलन प्रस्तुत किया जा रहा है ।

  • स्वरुप और वैशिषट्य

  • उद्भव और विकास

स्वरुप और वैशिषट्य

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - बुंदेली लोक संस्कृति का उद्भव और विकास (Bundeli Loksanskrti Ka Udbhav Aur Vikas)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

बुंदेली लोकसंस्कृति का उद्भव और विकास (Bundeli Loksanskrti Ka Udbhav Aur Vikas)

  • प्रागैतिहासिक युग और लोकसंस्कृति

  • वैदिक युग

  • रामायण-काल

  • महाभारत-काल

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - बुंदेलखंड का सीमांकन (Bundelkhand Ka Seemaankan)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

बुंदेलखंड का सीमांकन (Bundelkhand Ka Seemaankan)

सीमांकन से मेरा तात्पर्य किसी ऐसी कृत्रिम रेखा खींचने से नहीं है, जो किसी राजनीतिक और विधिविहित दृष्टिकोण से नियमित की गयी हो, वरन् ऐसे प्राकृतिक सीमांत से है, जो उस क्षेत्र के ऐतिहासिक परिवेश, संस्कृति और भाषा के अद्भुत ऐक्य को सुरक्षित रखते हुए उसे दूसरे जनपदों से अलग करता हो । राजनीतिक भूगोल के विद्वानों ने सीमांत और सीमा के अंतर को भलीभाँति स्पष्ट किया है ।-१ भौगोलिक सरणियों के प्रति मेरा कोई विशेष आग्रह नहीं है, फिर भी जनपद की एकरुपता के अध्ययन में उसकी प्राकृतिक विशेषताएँ-स्थिति, धरातलीय बनावट, जलवायु आदि सहायक होति हैं । प्रत्येक जनपद भौगोलिक के साथ-साथ ऐतिहासिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और भाषिक इकाई भी होता है । इस दृष्टि से सीमांकन के तीन आधार प्रमुख हो जाते हैं-भु-आकारिक, प्रजातीय और कृत्रिम । भू-आकारिक आधार पर सीमा का निर्धारण पर्वत, नदी, झील आदि से होता है, क्योंकि वे अधिक स्थायी अवरोधक होते हैं । उदाहरण के लिए, बुंदेलखंड के दक्षिण में महादेव, मैकल ऐसे पर्वत हैं जिनको पार करना प्राचीन काल में अत्यंत कठिन था और उत्तर-पश्चिम में भी चंबल के खारों और बीहड़ों की एक प्राकृतिक रुकावट विद्यमान थी । प्रजातीय आधार में जाति, भाषा, संस्कृति और धर्म अर्थात् पूरा सांस्कृतिक वातावरण समाहित है । कभी-कभी जनपद की सांस्कृतिक इकाई भू-आकारिक सीमा को पार कर जाती है, किंतु उसके कुछ ठोस कारण होते हैं । कृत्रिम आधार से मेरा तात्पर्य उन सीमाओं से है, जिन्हें व्यक्ति राजनीतिक सुविधा के लिए स्वयं खींचता है अथवा जो दो भु-भागों के बीच समझौते या संधि से अंकित की जाति हैं । बुंदेलखंड के सीमांकन में इस आधार का महत्त्व नहीं है ।

सीमांकन के प्रयत्न

समशीला इकाई की खोज

सीमांकन के प्रयत्न

बुंदेलखंड के सीमांकन के अनेक प्रयत्न मिलते हैं, जिनके विवरण और विश्तेषण से भी एक स्पष्ट स्वरुप बिंबित होना स्वाभाविक है । भू-आकारिक सीमांकन नये नहीं है, किंतु भौतिक आधार वर निर्धारण नवीन होना संभव है । प्रसीद्ध भूगोलवेत्ता एस.एम. अली ने पुराणों के आधार पर विंध्यक्षेत्र के तीन जनपदों-विदिशा, दशार्ण एंव करुष की स्थिति का परिचय दिया है । उन्होंने विदिशा, का ऊपरी बेतवा के बेसिन से, दशार्ण का धसान और उसकी प्रमुख धाराओं की गहरी घाटियों द्वारा चीरा हुआ सागर प्लेटो तक फैले प्रदेश से तथा करुष का सोन-केन नदियों के बीच के समतलीय मैदान से समीकरण किया है । इसी प्रकार त्रिपुरी जनपद जबलपुर के पश्चिम में १० मील के लगभग ऊपरी नर्मदा की घाटी तथा जबलपुर, मंडला और नरसिंहपुर जिलों के कुछ भागों का प्रदेश माना है ।-२ वस्तुत: यह बुंदेलखंड की सीमा-रेखाएँ खींचने का प्रयत्न नहीं है, किंतु इससे यह पता चलता है कि उस समय बुंदेलखंड किन जनपदों में बँटा था । इतिहासकार जयचंद्र विद्यालंकार ने ऐतिहासिक और भौगोलिक दृष्टियों को संतुलित करते हुए बुंदेलखंड को कुछ रेखाओं में समेटने का प्रयत्न कीया है- " (विंध्यमेखला का) तीसरा प्रदेश बुंदेलखंड है जिसमें बेतवा (वेत्रवती), धसान (दशार्णा) और केन (शुक्तिमती) के काँठे, नर्मदा की ऊपरली घाटी और पचमढ़ी से अमरकंटक तक ॠक्ष पर्वत का हिस्सा सम्मिलित है । उसकी पूरबी सीमा टोंस (तमसा) नदी है ।" -३ यह सीमांकन पुराणों द्वारा नीर्देशित जनपदों की सम्मिलित रेखओं के बहुत नीकट है । वर्तमान भौतिक शोधों का आधार पर बुंदेलखंड को एक भौतिक क्षेत्र घोषित किया गया है और उसकी सीमायें इस प्रकार आधारित की गई हैं-" वह क्षेत्र जो उत्तर में यमुना, दक्षिण में विंध्य प्लेटो की श्रेणियों उत्तर-पश्चिम में चम्बल और दक्षिणा-पूर्व में पन्ना-अज़यगढ़ श्रेणियों से घिरा हुआ है, बुंदेलखंड के नाम से जाना जाता है । उसमें उत्तर प्रदेश के चार जिले-जालौन, झांसी, हमीरपुर और बाँदा तथा मध्यप्रदेश के चार जिले-दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर और पन्ना के अलावा उत्तर-पश्चिम में किंभड जिले की लहर और ग्वालियर जिले की भांडेर तरसीलें भी सम्मिलित है ।" -४ ये सीमारेखाएँ भू-संरचना की दृष्टि से उचित कही जा सकती है, किंतु इतिहास, संस्कृति और भाषा की दृष्टि से बुंदेलखंड बहुत विस्तृत प्रदेश है ।

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - स्वगत (Swagat)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

स्वगत (Swagat)

अपनी रचना के बारे में क्या कहूँ ? कहने से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं । इस वजह से स्वगत या अपने आप से कहना ज्यादा अच्छा है । यह सच है कि मैंने बाबा तुलसी की तरह स्वान्त:सुखाय कुछ भी नहीं लिखा । मेरी हर रचना के पीछे कोई-न-कोई धक्का रहा है । संघर्षों में जूझता जीवन कभी पटरी पर रहता है, तो कभी पटरी से नीचे । रास्ते में कुछ ऐसे अनुभव आते हैं, जो यात्री को धकियाकर एक नयी दिशा और नयी गति दे जाते हैं । मेरे सामने ऐसी कई घटनाएँ घटी हैं, जिन्होंने मेरी रचनाधर्मिता को जगाया है । एक-दो उदाहरण तो दे ही सकता हूँ ।
प्रेरणा की कोख

  • प्रेरणा की कोख

  • साधना के आयाम

  • अठकोणी योजना

  • कुछ विशेष विशेषक

  • एक महत् उपलब्धि

  • आभार

प्रेरणा की कोख

       ३५ वर्ष पहले की बात है । धवार गाँव में 'ईसुरी-जयंती'   का समारोह । महापंडित राहुल सांकृत्यायन और 'सरस्वती' के संपादक श्रीनारायण चतुर्वेदी   के पधारने की आशा । संयोजक पं. श्यामासुंदर बादल का आग्रह । आदरणीय कृष्णानंद   गुप्त के पीछे मैं भी हो लिया । रास्ते में मन-भर योजनाएँ, पर गाँव में हम सिर्फ तीन-संयोजक, गुप्त जी और मैं । ईसुरी के नाती पं. सुंदरलाल   शुक्ल आपबीती सुनाते रहे और मंच पर फागों का रस बरसता रहा । लेकिन कृष्णानंद जी बहुत परेशान थे । कुटकी, डँस बिच्छू-सा डंक चुभोकर सता रहे थे । रात-भर याद आते रहे ईसुरी । उनकी फागों के प्रामाणिक संकलन का संकल्प भी किया और 'ईसुरी-परिषद' का भार अपने कंधों पर रख लिया ।

       'ईसरी-परिषद' लोकसाहित्य या लोकवार्ता की अखिलभारतीय संस्था बन गयी । अध्यक्ष थे प्रसिद्ध उपन्यासकार वृंदावनलाल वर्मा और मंत्री बना मैं । देश-भर के बड़े-बड़े विद्वान थे उसकी कार्यसमिति में । मुझे बड़ा उत्साह था । सोचा कि 'लोकवार्ता' फिर प्रकाशित होने लगे, तो कई वर्षों से आया ठहराव तो टूटे । कृष्णानंद जी संपादन के लिए तैयार हो गये थे, पर वर्मा जी ने मीठी-मीठी जलेबियाँ खिलाते हुए मेरी मसीली बाहुओं का जोर आजमाकर कहा था-'कृष्णानंद, लोकवार्ता तौ तुमारी आय ।' इतना सुनते ही आदरणीय तुरंत मुकर गये और उस पहेली का व्यूह में आभिमन्यु की तरह फँसा मैं भीतर-ही-भीतर जूझता खाली हाथ लौटा था । मुझे अनमना देखकर पूज्य दद्दा (राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त) ने कहा था-'तुमें हिंदी के नेता बननें कै लिखनै-पढ़नै....' । फलस्वरुप ' आल्हा' की रचना हुई और १९६२ ई. में उसका प्रकाशन भी हुआ । बीस वर्ष का अंतराल जरुर आया, पर उस व्यूह का एक द्वार फिर टूटा और 'मामुलिया' का प्रकाशन शुरु हुआ ।

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