बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय - बुन्देली संस्कृति का लोकोत्सव नौरता (Bundeli culture folk festival Nourta)

बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय 

बुन्देली संस्कृति का लोकोत्सव नौरता (Bundeli culture folk festival Nourta)

अश्वनि शुक्ल प्रतिपदा से पूरे नौ दिन तक ब्रह्ममुहूर्त में गांव की चौपालों या नगरों के बड़े चबूतरों पर अविवाहित बड़ी बेटियों द्वारा सरजित एक रंग बिरंगा ऐसा संसार दिखता है जिसमें एक व्यवस्था होती है, संस्कार होते हैं। रागरंग और लोकचित्रों में बुन्देली गरिमा होती है। हमारी बेटियां एक साथ गीत संगीत, नृत्य चित्रकला और मूर्ति कला, साफ-सफाई संस्कारों से मिश्रित लोकोत्सव नौरता मनाती है। चौरस लकड़ी के तख्ते पर या दीवार पर अथवा नीम के ही मोटे तने पर मिट्टी से बनाई गयी एक विराट दैतयाकार प्रतिमा जिसका श्रृंगार चने की दाल, ज्वार के दाने, चावल, गुलाबास के फूलों से सजाया और अलंकृत किया जाता है। इसके चबूतरे की रंगोली के समान निर्मित दुदी एवं सूखे रंगों से चौक पूरा जाता है। लड़कियों की स्वर लहरी फूट पड़ती है।

"नाय हिमांचल जू की कुंवर लडॉयती,
नारे सुअटा, गौरा देवी क्वांरे में नेहा तोरा।

बुन्देली में सुअटा का अर्थ बेएंगा है। शिवजी का स्वरुप बेढव है। यह लोकोत्सव बुन्देलखण्ड की मात्र कुआँरी कन्याओं के लिए आरक्षित है। इसमें देवी पार्वती की आराधना का स्वरुप कुंआरी अवस्था का ही है।

सामान्य रुप से नौरता का अर्थ एक दैत्य था (सुअटा का भूत) जो कुंआरी कन्याओं को खा जाता था। लड़कियों ने उससे प्राण बचाने के लिए माता पार्वती की आराधना नवरात्रि में की और वे सुरक्षित हो गयीं। यह कुंवारी कन्याओं का ही पर्व है। गौर का ही कुंवारा स्वरुप इसमें आया है। सामान्य गीतों में ""नारे सुअटा"" में वही भूतनाथ का विचित्र स्वरुप है जो गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरित मानस में शिव विवाह के वर्णन में दूल्हारुपी शिव का लिखा है।

""मूंगा मुसैला, चनन कैसी घैंटी, सजन ऐवी, बेटी।
दूर दिसंतर दई है गौरा बेटी, को तोय लियावन जैहे।
बुलावन जैहे, ले पियरी पहरावन जैहें।


मामुलिया :

क्वाँर मास के कृष्ण पक्ष में क्वाँरी कन्याएं मामुलिया, महबुलिया या माबुरिया खेलती है। कन्याएं बेरी की कांटेदार शाख लेकर, उसे विभिन्न प्रकार के पुष्पों से सजाकर, फल मेवादि खोंसकर लंहगा और ओढ़नी में मानवीकृत कर देती हैं। लिपे स्थान पर चौक पूर कर उसे प्रतिष्ठित करने के बाद हल्दी, अक्षत, पुष्पादि से पूजती हैं और अठवां पंजीरी, हुलआ फलादि का भोद लगाती है, तब वे देवी सिद्ध होती हैं और पूरा खेल उनकी उपासना हो जाता है, अतएव मामुलिया की पहचान एक प्रमुख समस्या हैत्र यदि वह नारी रुपा मानवी है, तो यह निश्चित है कि कन्याएँ उसकी पूजा नहीं कर सकतीं, क्योंकि बुन्देलखण्ड में कन्या के चरणस्पर्श सभी स्री-पुरुष करते हैं। यह बात अलग है कि मामुलिया कोई सती या विशिट आदर्श का प्रतीक नारी हो जैसा कि एक गीत की पंक्ति से लगता है ""मामुलिया के आ गये लिवौआ, झमक चली मोरी मामुलिया""।

मामुलिया में नारीत्व की प्रतीकात्मक हे, जैसे पुष्पों की कोमलता, सुन्दरता और प्रफुल्लता, कांटो की प्रखरता,संघर्षशीलता औरवेदना तथा फलों की संघर्षशीलता और वेदना तथा फलों की सृजनशीलता, उदारता और कल्याण की भावना सब नारी में निहित है। इन गुणों के साथ उसमें पातिव्रत्य की साधना के लिए पूरी-पूरी तत्परता है। सतीत्व की संकल्पधर्मिता के कारण वह नारी का अनुकरणी मॉडल बन जाती है। इस प्रकार समन्विता नारी मूर्ति देवी ही है। संज्ञा या संजा को देवी रुप माना गया है, इस दृष्टि से मामुलिया को देवी की लोकमान्यता निश्चित ही मिली थी।

एक प्रतीकात्मकता यह भी है कि पुष्प रुपी सुख और काँटे रुपी दुख से यह जीवन बना है। जीवन का जब तक श्रृंगार होता है, तब तक उसके लिबौआ (विदा कराने वाले) आ जाते हैं। यह क्षण भंगुरता, जीवन की अस्थिरता को संकेतित करती है। इस प्रकार मामुलिया में दार्शनिक महाबोल (आर्ष सत्य) की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति हुई है, इसीलिए इसे बहाबुलिया, माबुलिया, मामुलिया कहा जाता है।

(डॉ नर्मदा प्रसाद गुप्त "बुन्देलखण्ड के लाकोत्सव") 

 

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Courtesy: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र