बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय - हिन्दी साहित्य में रासो काव्य परम्परा (Raso poetry tradition in Hindi literature)

बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय 

हिन्दी साहित्य में रासो काव्य परम्परा (Raso poetry tradition in Hindi literature)

रासो (Raso) :

आदिकाल के हिन्दी-साहित्य में वीर गाथायें प्रमुख हैं। वीर गाथाओं के रुप में ही "रासो' ग्रन्थों की रचनायें हुई हैं।

हिन्दी साहित्य में "रास' या "रासक' का अर्थ लास्य से लिया गया है जो नृत्य का एक भेद है। अतः इसी अर्थ भेद के आधार पर गीत नृत्य परक रचनायें "रास' नाम से जानी जाती हैं "रासो' या "रासउ' में विभिन्न प्रकार के अडिल्ल, ढूसा, छप्पर, कुण्डलियां, पद्धटिका आदि छन्द प्रयुक्त होते हैं। इस कारण ऐसी रचनायें "रासो' के नाम से जानी जाती हैं।

"रासो' शब्द विद्वानों के लिए विवाद का विषय रहा है। इस पर किसी भी विद्वान का निश्चयात्मक एवं उपयुक्त मत प्रतीत नहीं होता। विभिन्न विद्वानों ने अनेक प्रकार से इस शब्द की व्याख्या करने का प्रयास किया है। कुछ विद्वानों ने अनेक प्रकार से इस शब्द की व्याख्या करने का प्रयास किया है। कुछ विद्वानों ने "रासो' की व्युत्पत्ति "रहस्य' शब्द के "रसह' या "रहस्य' का प्राकृत रुप मालूम से मानी जाती है। श्री रामनारायण दूगड लिखते हैं- "रासो' या रासो शब्द "रहस' या "रहस्य' का प्राकृत रुप मालूम पड़ता है। इसका अर्थ गुप्त बात या भेद है। जैसे कि शिव रहस्य, देवी रहस्य आदि ग्रन्थों के नाम हैं, वैसे शुद्ध नाम पृथ्वीराज रहस्य है जोकि प्राकृत में पृथ्वीराज रास, रासा या रासो हो गया।

डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल और कविराज श्यामदास के अनुसार "रहस्य' पद का प्राकृत रुप रहस्सो बनता है, जिसका कालान्तर में उच्चारण भेद से बिगड़ता हुआ रुपान्तर रासो बन गया है। रहस्य रहस्सो रअस्सो रासो इसका विकास क्रम है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल "रासो' की व्युत्पत्ति "रसायण' से मानते हैं। डॉ उदयनारायण तिवारी "रासक शब्द से रासो' का उदभव मानते हैं।

वीसलदेव रासो में "रास' और "रासायण' शब्द का प्रयोग काव्य के लिए हुआ है। ""नाल्ह रसायण आरंभई'', एवं ""रास रसायण सुणै सब कोई'' आदि।

रस को उत्पन्न करने वाला काव्य रसायन है। वीसलदेव रासो में प्रयुक्त "रसायन' एवं "रसिय' शब्दों से "रासो' शब्द बना।

प्रो. ललिता प्रसाद सुकुल रसायण को रस की निष्पत्ति का आधार मानते हैं।

मुंशी देवी प्रसार के अनुसार-""रासो के मायने कथा के हैं, वह रुढि शब्द है। एक वचन "रासा' और बहुवचन "रासा' हैं। मेवाड, ढूढाड और मारवाड में झगड़ने को भी रासा कहते हैं। जैसे यदि कई आदमी झगड़ रहे हों, या वाद विवाद कर रहे हों, तो तीसरा आकर पूछेगा "कांई रासो है' है। लम्बी चौडी वार्ता को भी रासो और रसायण कहते हैं। बकवाद को भी रासा और रामायण ढूंढाण में बोलते हैं। कांई रामायण है? क्या बकवाद है? यह एक मुहावरा है। ऐसे ही रासो भी इस विषय में बोला जाता है, कांई रासो है?''

महामहोपाध्याय डॉ. हरप्रसाद शास्री-""राजस्थान के भाट चारण आदि रासा (क्रीडा या झगड़ा) शब्द से रासो का विकास बतलाते हैं।''

गार्सा-द तासी ने रासो शब्द राजसूय से निकला बतलाया है।

डॉ. ग्रियर्सन "रासो' का रुप रासा अथवा रासो मानते हैं तथा उसकी निष्पत्ति "राजादेश' से हुई बतलाते हैं। इनके अनुसार-""इस रासो शब्द की निष्पत्ति "राजादेश' से हुई है, क्योंकि आदेश का रुपान्तर आयसु है।''

महामहोपाध्याय डॉ गौरीशंकर हीराचन्द ओझा हिन्दी के "रासा' शब्द को संस्कृत के "रास' शब्द से अनुस्यूत कहते हैं। उनके मतानुसार-"" मैं रासा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के रास शब्द से मानता हँ। रास शब्द का अर्थ विलास भी होता है (शब्द कल्पदुम चतुर्थ काण्ड) और विलास शब्द चरित, इतिहास आदि के अर्थ में प्रचलित है।''

डॉ. ओझा जी ने अपने उपर्युक्त मत में रासा का अर्थ विलास बतलाया है जबकि श्री डी. आर. मंकड "रास' शब्द की उत्पत्ति तो संस्कृत की "रास' धातु से बतलाते हैं, पर इसका अर्थ उन्होंने जोर से चिल्लाना लिया है, विलास के अर्थ में नहीं।

डॉ. दशरथ शर्मा एवं डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन है कि "रास' परम्परा की गीत नृत्य परक रचनायें ही आगे चलकर वीर रस के पद्यात्मक इति वृत्तों में परिणत हो गई। ""रासो प्रधानतः गानयुक्त नृत्य विशेष से क्रमशः विकसित होते-होते उपरुपक और किंफर उपरुपक से वीर रस के पद्यात्मक प्रबन्धों में परिणत हो गया।''

""इस गेय नाट्यों का गीत भाग कालान्तर में क्रमशः स्वतन्त्र श्रव्य अथवा पाठ्य काव्य हो गया और इनके चरित नायकों के अनुसार इसमें युद्ध वर्णन का समावेश हुआ।''

पं. विन्ध्येश्वरी प्रसाद द्विवेदी रासो शब्द को "राजयश' शब्द से विनिश्रत हुआ मानते हैं।
साहित्याचार्य मथुरा प्रसाद दीक्षित रासो पद का जन्म राज से बतलाते हैं।
इन अभिमतों के विश्लेषण का निष्कर्ष रासो शब्द "रास' का विकास है।

बुन्देलखण्ड में कुछ ऐसी उक्तियाँ भी पाई जाती है, जिनसे रासो शब्द के स्वरुप पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ता है, जैसे ""होन लगे सास बहू के राछरे''। यह "राछरा' शब्द रासो से ही सम्बन्धित है। सास बहू के बीच होने वाले वाक्युद्ध को प्रकट करने वाला यह "राछरा' शब्द बड़ी स्वाभाविकता से रायसा या रासो के शाब्दिक महत्व को प्रगट करता है। वीर काव्य परम्परा में यह रासो शब्द युद्ध सम्बन्धी कविता के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इसका ही बुन्देलखण्डी संस्करण "राछरौ' है।

उपर्युक्त सभी मतों के निष्कर्षस्वरुप यह एक ऐसा काव्य है जिसमें राजाओं का यश वर्णन किया जाता है और यश वर्णन में युद्ध वर्णन स्वतः समाहित होता है।

परम्परा (Tradition) :

रासो काव्य परम्परा हिन्दी साहित्य की एक विशिष्ट काव्यधारा रही है, जो वीरगाथा काल में उत्पन्न होकर मध्य युग तक चली आई। कहना यों चाहिए कि आदि काल में जन्म लेने वाली इस विधा को मध्यकाल में विशेष पोषण मिला। पृथ्वीराज रासो' से प्रारम्भ होने वाली यह काव्य विधा देशी राज्यों में भी मिलती है। तत्कालीन कविगण अपने आश्रयदाताओं को युद्ध की प्रेरणा देने के लिए उनके बल पौरुष आदि का अतिरंजित वर्णन इन रासो काव्यों में करते रहे हैं।

रासो काव्य परम्परा में सर्वप्रथम ग्रन्थ "पृथ्वीराज रासो' माना जाता है। संस्कृत, जैन और बौद्ध साहित्य में "रास', "रासक' नाम की अनेक रचनायें लिखी गईं। गुर्जर एवं राजस्थानी साहित्य में तो इसकी एक लम्बी परम्परा पाई जाती है।

यह निर्विवाद सत्य है कि संस्कृत काव्य ग्रन्थों का हिन्दी साहित्य पर बहुत प्रभाव पड़ा। संस्कृत काव्य ग्रन्थों में वीर रस पूर्ण वर्णनों की कमी नहीं है। ॠगवेद में तथा शतपथ ब्राह्मण में युद्ध एवं वीरता सम्बन्धी सूक्त हैं। महाभारत तो वीर काव्य ही है। यहीं से सूत, मागध आदि द्वारा राजाओं की प्रशंसा का सूत्रपात हुआ जो आगे चलकर भाट, चारण, ढुलियों आदि द्वारा अतिरंजित रुप को प्राप्त कर सका। वीर काव्य की दृष्टि से "रामायण' में भी युद्ध के अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन हैं। "किरातार्जुनीय, में वीरोक्तियों द्वारावीर रस की सृष्टि बड़ी स्वाभाविक है। "उत्तर रामचरित' में जहाँ "एको रसः करुण एव' का प्रतिपदान है वहीं चन्द्रकेतु और लव के वीर रस से भरे वाद विवाद भी हैं। भ नारायण कृत "वेणी संहार' में वीर रस का अत्यन्त सुन्दर परिपाक हुआ है। इससे स्पष्ट है कि हिन्दी की वीर काव्य प्रवृति संस्कृत से ही विनिश्रित हुई है। डॉ. उदय नारायण तिवादी ने "वीर काव्य' में हिन्दी की वीर काव्यधारा का उद्गम संस्कृत की वरी रस रचनाओं से माना है।

रासो परम्परा दो रुपों में मिलती है-प्रबन्ध काव्य और वीरगीत। प्रबन्ध काव्य में "पृथ्वी राज रासो' तथा वीर गीत के रुप में "वीसलदेव रासो' जैसी रचनायें हैं। जगनिक का रासो अपने मूल रुप में तो अप्राप्त है किन्तु, आल्ह खण्ड' नाम की वीर रस रचना उसी का परिवर्तित रुप है। आल्हा, ऊदल एवं पृथ्वीराज की लड़ाइयों से सम्बन्धित वीर गीतों की यह रचना हिन्दी भाषा क्षेत्र के जनमानस में गूंज रही है।

आदि काल की प्रमुख रचनायें पृथ्वीराज रासो, खुमान ख्रासो एवं वीसलदेव रासो हैं। हिन्दी साहित्य के प्रारम्भ काल की ये रचनायें वीर रस एवं श्रृंगार रस का मिला-जुला रुप प्रस्तुत करती हैं।

जैन साहित्य में "रास' एवं "रासक' नम से अभिहित अनेक रचनायें हैं जिनमें सन्देश रासक, भरतेश्वर बाहुबलि रास, कच्छूलिरास आदि प्रतिनिधि हैं।
आदि काल की बहुत सी रचनायें तो अनुपलब्ध ही हैं। संकेत सूत्रों के आधर पर सूचना मात्र मिलती है अथवा काल क्रमानुसार कुछ रचनाओं का रुप ऐसा परिवर्तित हो गया है कि उनके मूल रुप का अनुमान भी लगाना कठिन हो गया है। "पृथ्वीराज रासो' जैसी वहदाकार रचनाओं की ऐतिहासिकता संदिग्ध है। उसकी तिथियों, घटनाओं आदि के विषय में विद्वानों में मतभेद हैं।

पृथ्वीराज रासो एवं वीसलदेव रासो को कुछ विद्वान सोलहवीं एवं सत्रहवीं शताब्दी की रचना मानते हैं। डॉ. माताप्रसाद गुप्त इन्हें १३ वीं १४ वीं शताब्दी का मानते हैं।

यह रासो परम्परा हिन्दी के जन्म से पूर्व अपभ्रंश में वर्तमान थी तथा हिन्दी की उत्पत्ति के साथ'साथ गुर्जर साहित्य में।

अपभ्रंश में "मु"जरास' तथा "सन्देश रासक' दो रचनायें हैं। इनमें से मुंजरास अनुपलब्ध है। केवल हेमचन्द्र के "सिद्ध हेम' व्याकरण ग्रन्थ में तथा मेरु तुंग के प्रबन्ध् चिन्तामणि में इसके कुछ छन्द उद्धृत किए गये हैं। डॉ. माता प्रसाद गुप्त "मुंजरास' की रचना काल १०५४ वि. और ११९७ वी. के बीच मानते हैं, क्योंकि मुंज का समय १००७ वि. से १०५४ वि. का है। "संदेश रासक' को विद्वानों ने १२०७ वि. की रचना माना है। पृथ्वीराज रासो की तरह "मुंजरास' एवं "संदेश रास भी प्रबन्ध रचनायें हैं। पृथ्वीराज रासो दुखान्त रचना है। वीसलदेव रासो सुखान्त रचना है एवं इसी तरह "संदेश रासकद्' सुखान्त एवं "मुंजरास' दुखान्त रचनायें हैं।

अपभ्रंश काल की एक और रचना जिन्दत्त सूरि का "उपदेश रसायन रास' है। यह भक्ति परक धार्मिक रचना है। डॉ. माता प्रसाद गुप्त जिनदत्त सूरि का स्वर्गवास सं. १२९५ वि. में मानते हैं। अतः रचना सं. १२९५ वि. के कुछ पूर्व की ही होनी चाहिए। अपभ्रशं की उपर्युक्त रचनायें रासो काव्य की मुख्य प्रवृत्तियों की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं करतीा

गुर्जर साहित्य में लिखी रासो रचनायें आकार में छोटी हैं। इनके रचयिता जैन कवि थे और उन्होंने इनकी रचना जैन धर्म सिद्धान्तों के अनुसार की।
सर्वप्रथम "शालिभ्रद सूरि' की "भरतेश्वर बाहुबलि रास' एवं "वद्धि रास' रचनायें उपलब्ध होती है। "भरतेश्वर बाहुबलि रास' राजसत्ता के लिए हुआ भरतेश्वर एवं बाहुबलि का संघर्ष है जो जैन तीथर्ंकर स्वामी ॠषभदेव के पुत्र थे। इसकी रचना वीर रस में हुई है। "बुद्धि रास' शान्त रस में लिखा गया उपदेश परक ग्रन्थ है। 

रासो या रासक रचनायें Raso or Rasak compositions) :

सन्देश रासक - यह अपभ्रंश की रचना है। रचियिता अब्दुल रहमान हैं। यह रचना मूल स्थान या मुल्तान के क्षेत्र से सम्बन्धित है। कुल छन्द संख्या २२३ है। यह रचना विप्रलम्भ श्रृंगार की है। इसमें विजय नगर की कोई वियोगिनी अपने पति को संदेश भेजने के लिए व्याकुल है तभ कोई पथिक आ जाता है और वह विरहिणी उसे अपने विरह जनित कष्टों को सुनाते लगती है। जब पथिक उससे पूछता है कि उसका पति कि ॠतु में गया है तो वह उत्तर में ग्रीष्म ॠतु से प्रारम्भ कर विभिन्न ॠतुओं के विरह जनित कष्टों का वर्णन करने लगती है। यह सब सुनकर जब पथिक चलने लगता है, तभी उसका प्रवासी पति आ जाता है। यह रचना सं ११०० वि. के पश्चातद्य की है।

मुंज रास(Munj Ras) :- यह अपभ्रंश की रचना है। इसमें लेखक का नाम कहीं नहीं दिया गया। रचना काल के विषय में कोई निश्चित मत नहीं मिलता। हेमचन्द्र की यह व्याकरण रचना सं. ११९० की है। मुंज का शासन काल १००० -१०५४ वि. माना जाता है। इसलिए यह रचना १०५४-११९० वि. के बीच कभी लिखी गई होगी। इसमें मुंज के जीवन की एक प्रणय कथा का चित्रण है। कर्नाटक के राजा तैलप के यहाँ बन्दी के रुप में मुंज का प्रेम तैलप की विधवा पुत्री मृणालवती से ही जाता है। मुंज उसको लेकर बन्दीगृह से भागने का प्रस्ताव करता है किन्त मृणालवती अपने प्रेमी को वहीं रखकर अपना प्रणय सम्बन्ध निभाना चाहती थी इसलिए उसने तैलप को भेद दे दिया जिसके परिणामस्वरुप क्रोधी तैलप ने मृणालवती के सामने ही उसके प्रेमी मुंज को हाथी से कुचलवाकर मार डाला। कथा सूत्र को देखते हुए रचना छोटी प्रतीत नहीं होती।

पृथ्वीराज रासो(Prithviraj Raso)- यह कवि चन्द की रचना है। इसमें दिल्लीश्वर पृथ्वीराज के जीवन की घटनाओं का विशद वर्णन है। यह एक विशाल महाकाव्य है। यह तेरहवीं शदी की रचना है। डा. माताप्रसाद गुप्त इसे १४०० वि. के लगभग की रचना मानते हैं। पृथ्वीराज रासो की एतिहासिकता विवादग्रस्त है।

हम्मीर रासो(Hammeer Raso) - इस रचना की कोई मूल प्रति नहीं मिलती है। इसका रचयिता शाङ्र्गधर माना जाता है। प्राकृत पैगलम में इसके कुछ छन्द उदाहरण के रुप में दिए गये है। ग्रन्थ की भाषा हम्मीर के समय के कुछ बाद की लगती है। अतः भाषा के आधार पर इसे हम्मीर के कुछ बाद का माना जा सकता है।

बुत्रद्ध रासो(Butraddh Raso)- इसका रचयिता जल्ह है जिसे पृथ्वीराज रासो का पूरक कवि भी माना गया है। कवि ने रचना में समय नहीं दिया है। इसे पृथ्वीराज रासो के बाद की रचना माना जाता है।

परमाल रासो(Parmal Raso)- इस ग्रन्थ की मूल प्रति कहीं नहीं मिलती। इसके रचयिता के बारे में भी विवाद है। पर इसका रचयिता ""महोबा खण्ड'' को सं. १९७६ वि. में डॉ. श्यामसुन्दर दास ने ""परमाल रासो'' के नाम से संपादित किया था। डॉ. माता प्रसाद गुप्त के अनुसार यह रचना सोलहवीं शती विक्रमी की हो सकती है। इस रचना के सम्बन्ध में काफी मतभेद है। श्री रामचरण हयारण ""मित्र'' ने अपनी कृति ""बुन्देलखण्ड की संस्कृति और साहित्य'' मैं "परमाल रासो'' को चन्द की स्वतन्त्र रचना माना है। किन्तु भाषा शैली एवं छन्द में -महोवा खण्ड'' से यह काफी भिन्न है। उन्होंने टीकामगढ़ राज्य के वयोवृद्ध दरवारी कवि श्री ""अम्बिकेश'' से इस रचना के कंठस्थ छन्द लेकर अपनी कृति में उदाहरण स्वरुप दिए हैं। रचना के एक छन्द में समय की सूचना दी गई है जिसके अनुसार इसे १११५ वि. की रचना बताया गया है जो पृथ्वीराज एवं चन्द के समय की तिथियों से मेल नहीं खाती। इस आधार पर इसे चन्द की रचना कैसे माना जा सकता है। यह इसे परमाल चन्देल के दरवारी कवि जगानिक की रचना माने तो जगनिक का रासो कही भी उपलब्ध नहीं होता है।

स्वर्गीय महेन्द्रपाल सिंह ने अपेन एक लेख में लिखा है कि जगनिक का असली रासो अनुपलब्ध है। इसके कुछ हिस्से दतिया, समथर एवं चरखारी राज्यों में वर्तमान थे, जो अब नष्ट हो चुके हैं।

राउजैतसी रासो(Raujaitsi Raso)- इस रचना में कवि का नाम नहीं दिया गया है और न रचना तिथि का ही संकेत है। इसमें बीकानेर के शासक राउ जैतसी तथा हुमायूं के भाई कामरांन में हुए एक युद्ध का वर्णन हैं जैतसी का शासन काल सं. १५०३-१५१८ के आसपास रहा है। अत-यह रचना इसके कुछ पश्चात की ही रही होगी। इसकी कुल छन्द संख्या ९० है। इसे नरोत्तम स्वामी ने राजस्थान भारतीय में प्रकाशित कराया है।

विजय पाल रासो(Vijay pal Raso) - नल्ह सिह भाट कृत इस रचना के केवल ४२ छन्द उपलब्ध है। विजयपाल, विजयगढ़ करौली के यादव राजा थे। इसके आश्रित कवि के रुप में नल्ह सिह का नाम आता है। रचना की भाषा से यह १७ वीं शताब्दी से पूर्व की नहीं हो सकती है।

राम रासो(Ram Raso) - इसके रचयिता माधव चारण है। सं. १६७५ वि. रचना काल है। इस ग्रन्थ में रामचरित्र का वर्णन है तथा १६०० छन्द हैं।

राणा रासो(Rana Raso) - दयाल दास द्वारा विरचित इस ग्रन्थ में शीशौदिया वंश के राजाओं के युद्धें एवं जीवन की घटनाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन १३७५-१३८१ के मध्य का हो सकता है। इसमें रतलाम के राजा रतनसिंह का वृत्त वर्णित किया गया है।

कायम रासो(Kayam Raso) - यह रासो ""न्यामत खाँ जान'' द्वारा रचा गया है। इसका रचना काल सं. १६९१ है किन्तु इसमें १७१० वि. की घअना वाला कुछ    अंश प्रक्षिप्त है क्योंकि यदि कवि इस समय तक जीवित था तो उसने पूर्व तिथि सूचक क्यों बदला। यह वैसा का वैसा ही लिखा है इसमें राजस्थान के कायमखानी वंश का इतिहास वर्णित है।

शत्रु साल रासो(Shatrusal Raso)- रचयिता डूंगरसी कवि। इसका रचना काल सं. १७१० माना गया है। छंद संख्या लगभग ५०० है। इसमें बूंदी के राव शत्रुसाल का वृत्त वर्णित किया गया है। 

आंकण रासो(Ankan Raso) - यह एक प्रकार का हास्य रासो है। इसमें खटमल के जीवन चरित्र का वर्णन किया गया है। इसका रचयिता कीर्तिसुन्दर है। रचना सं. १७५७ वि. की है। इसकी कुल छन्द संख ३९ है।

सागत सिंह रासो(Sagar Singh Raso)- यह गिरधर चारण द्वारा लिखा गया है। इसमें शक्तिसिंह एवं उनके वंशजों का वृत्त वर्णन किया गया है। श्री अगरचन्द्र श्री अगरचन्द नाहटा इसका रचना काल सं. १७५५ के पश्चात का मानते हैं। इसकी छन्द संख्या ९४३ है।

हम्मीर रासो(Hammeer Raso)- इसके रचयिता महेश कवि है। यह रचना जोधराज कृत्त हम्मीर रासो के पहले की है। छन्द संख्या लगभग ३०० है इसमें रणथंभौर के राणा हम्मीर का चरित्र वर्णन है।

खम्माण रासो(Khammad Raso) - इसकी रचना कवि दलपति विजय ने की है। इसे खुमाण के समकालीन अर्थातद्य सं. ७९० सं. ८९० वि. माना गया है किन्तु इसकी प्रतियों में राणा संग्राम सिंह द्वितीय के समय १७६०-१७९० के पूर्व की नहीं होनी चाहिए। डॉ. उदयनारायण तिवारी ने श्री अगरचन्द नाहटा के एक लेख के अनुसार इसे सं. १७३०-१७६० के मध्य लिखा बताया गया है। जबकि श्री रामचन्द्र शुक्ल इसे सं. ९६९-सं. ८९९ के बीच की रचना मानते हैं। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर इसे सं. १७३०-७९० के मध्य लिखा माना जा सकता है।

रासा भगवन्तसिंह(Rasa Bhagvant singh) - सदानन्द द्वारा विरचित है। इसमें भगवन्तसिंह खीची के १७९७ वि. के एक युद्ध का वर्णन है। डॉ. माताप्रसाद गुप्त के अनुसार यह रचना सं. १७९७ के पश्चात की है। इसमें कुल १०० छन्द है।

करहिया की रायसौ(Karahiya ki Raysao) - यह सं. १९३४ की रचना है। इसके रचयिता कवि गुलाब हैं, जिनके श्वंशज माथुर चतुर्वेदी चतुर्भुज वैद्य आंतरी जिला ग्वालियर में निवास करते थे। श्री चतुर्भुज जी के वंशज श्री रघुनन्दन चतुर्वेदी आज भी आन्तरी ग्वालिया में ही निवास करते हैं, जिनके पास इस ग्ररन्थ की एक प्रति वर्तमान है। इसमें करहिया के पमारों एवं भरतपुराधीश जवाहरसिंह के बीच हुए एक युद्ध का वर्णन है।

रासो भइया बहादुरसिंह(Raso bhaiya Bahadur singh)- इस ग्रन्थ की रचना तिथि अनिश्चित है, परन्तु इसमें वर्णित घटना सं. १८५३ के एक युत्र की है, इसी के आधार पर विद्वानों ने इसका रचना काल सं. १८५३ के आसपास बतलाया है। इसके रचयिता शिवनाथ है।

रायचसा(Raychasa) - यह भी शिवनाथ की रचना है। इसमें भी रचना काल नहीं दिया है। उपर्युक्त ""रासा भइया बहादुर सिंह'' के आधार पर ही इसे भी सं. १८५३ के आसपास का ही माना जा सकता है, इसमें धारा के जसवंतसिंह और रीवां के अजीतसिंह के मध्य हुए एक युद्ध का वर्णन है।

कलियंग रासो(Kaliyang Raso) - इसमें कलियुगका वर्णन है। यह अलि रासिक गोविन्द की रचना हैं। इसकी रचना तिथि सं. १८३५ तथा छन्द संख्या ७० है।

वलपतिराव रायसा(Valpatirao Raysa) - इसके रचयिता कवि जोगींदास भाण्डेरी हैं। इसमें महाराज दलपतिराव के जीवन काल के विभिन्न युद्धों की घटनाओं का वर्णन किया गया है। कवि ने दलपति राव के अन्तिम युद्ध जाजऊ सं. १७६४ वि. में उसकी वीरगति के पश्चात् रायसा लिखने का संकेत दिया है। इसलिये यह रचना सं. १४६४ की ही मानी जानी चाहिए। रासो के अध्ययन से ऐसा लगता है कि कवि महाराजा दलपतिराव का समकालीन था। इस ग्रन्थ में दलपतिराव के पिता शुभकर्ण का भी वृत्त वर्णित है। अतः यह दो रायसों का सम्मिलित संस्करण है। इसकी कुल छन्द संख्या ३१३ हैं। इसका सम्पादन श्री हरिमोहन लाल श्रीवास्तव ने किया है, तथा "कन्हैयालाल मुन्शी, हिन्दी विद्यापीठ, आगरा नसे भारतीय साहित्य के मुन्शी अभिनन्दन अंक में इसे प्रकाशित किया गया है।

शत्रु जीत रायसा(Shatrujeet Raysa) - बुन्देली भाषा के इस दूसरे रायसे के रचयिता किशुनेश भाट है। इसकी छन्द संख्या ४२६ है। इस रचना के छन्द ४२५ वें के अनुसार इसका रचना काल सं. १८५८ वि. ठहरता है। दतिया नरेश शत्रु जीत का समय सं. १८१९ सं. १९४८ वि. तदनुसार सनद्य १७६२ से १८०१ तक रहा है। यह रचना महाराजा शत्रुजीत सिंह के जीवन की एक अन्तिम घटना से सम्बन्धित है। इसमें ग्वालियर के वसन्धिया महाराजा दौलतराय के फ्रान्सीसी सेनापति पीरु और शत्रुजीत सिंह के मध्य सेवढ़ा के निकट हुए एक युद्ध का सविस्तार वर्णन है। इसका संपादन श्री हरि मोहनलाल श्रीवास्तव ने किया, तथा इसे ""भारतीय साहित्य'' में कन्हैयालालमुन्शी हिदी विद्यापीठ आगरा द्वारा प्रकाशित किया गया है।

गढ़ पथैना रासो(Gadh Pathaina Raso)- रचयिता कवि चतुरानन। इसमें १८३३ वि. के एक युद्ध का वर्णन किया गया है। छन्द संख्या ३१९ है। इसमें वर्णित युद्ध आधुनिक भरतपुर नगर से ३२ मील पूर्व पथैना ग्राम में वहां के वीरों और सहादत अली के मध्य लड़ा गया था। भरतपुर के राजा सुजारनसिंह के अंगरक्षक शार्दूलसिंह के पूत्रों के अदम्य उत्साह एवं वीरता का वर्णन किया गया है। बाबू वृन्दावनदास अभिनन्दन ग्रन्थ में सन् १९७५ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद द्वारा इसका विवरण प्रकाशित किया गया।

पारीछत रायसा(Parichhat Raysa) - इसके रचयिता श्रीधर कवि है। रायसो में दतिया के वयोवृद्ध नरेश पारीछत की सेना एवं टीकामगढ़ के राजा विक्रमाजीतसिंह के बाघाट स्थित दीवान गन्धर्वसिंह के मध्य हुए युद्ध का वर्णन है। युद्ध की तिथि सं. १८७३ दी गई है। अतएव यह रचना सं. १८७३ के पश्चात् की ही रही होगी। इसका सम्पादन श्री हरिमोहन लाल श्रीवासतव के द्वारा किया गया तथा भारतीय साहित्य सनद्य १९५९ में कन्हैयालाल मुन्शी, हिन्दी विद्यापीठ आगरा द्वारा इसे प्रकाशित किया गया।

बाघाट रासो(Baghat Raso) - इसके रचयिता प्रधान आनन्दसिंह कुड़रा है। इसमें ओरछा एवं दतिया राज्यों के सीमा सम्बन्धी तनाव के कारण हुए एक छोटे से युद्ध का वर्णन किया गया है। इस रचना में पद्य के साथ बुन्देली गद्य की भी सुन्दर बानगी मिलती है। बाघाट रासो में बुन्देली बोली का प्रचलित रुप पाया जाता है। कवि द्वारा दिया गया समय बैसाख सुदि १५ संवत् १८७३ विक्रमी अमल संवत १८७२ दिया गया है। इसे श्री हरिमोहनलाल श्रीवास्तव द्वारा सम्पादित किया गया तथा यह भारतीय साहित्य में मुद्रित है। इसे ""बाघाइट कौ राइसो'' के नाम से ""विंध्य शिक्षा'' नाम की पत्रिका में भी प्रकाशित किया गया है।

झाँसी की रायसी(Jhansi ki Raysi) - इसके रचनाकार प्रधान कल्याणिंसह कुड़रा है। इसकी छन्द संख्या लगभग २०० है। उपलब्ध पुस्तक में छन्द गणना के लिए छन्दों पर क्रमांक नहीं डाले गये हैं। इसमें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई तथा टेहरी ओरछा वाली रानी लिड़ई सरकार के दीवान नत्थे खां के साथ हुए युद्ध का विस्तृत वर्णन किया गया है। झांसी की रानी तथा अंग्रेजों के मध्य हुए झांसी कालपी, कौंच तथा ग्वालियर के युद्धों का भी वर्णन संक्षिप्त रुप में इसमें पाया जाता है। इसका रचना काल सं. १९२६ तदनुसार १९६९ ई. है। अर्थातद्य सन् १९५७ के जन-आन्दोलन के कुल १२ वर्ष की समयावधि के पश्चात् की रचना है। इसे श्री हरिमोहन लाल श्रीवास्तव दतिया ने ""वीरांगना लक्ष्मीबाई'' रासो और कहानी नाम से सम्पादित कर 
सहयोगी प्रकाशन मन्दिर लि. दतिया से प्रकाशित कराया है।

लक्ष्मीबाई रासो(Laxmibai Raso) - इसके रचयिता पं. मदन मोहन द्विवेदी ""मदनेश'' है। कवि की जन्मभूमि झांसी है। इस रचना का संपादन डॉ. भगवानदास माहौर ने किया है। यह रचना प्रयाग साहित्य सम्मेलन की ""साहित्य-महोपाध्याय'' की उपाधि के लिए भी सवीकृत हो चुकी है। इस कृति का रचनाकाल डॉ. भगवानदास माहौर ने सं. १९६१ के पूर्व का माना है। इसके एक भाग की समाप्ति पुष्पिका में रचना तिथि सं. १९६१ दी गई है। रचना खण्डित उपलब्ध हुई है, जिसे ज्यों का त्यों प्रकाशित किया गया है। विचित्रता यह है कि इसमें कल्याणसिंह कुड़रा कृत ""झांसी कौ रायसो'' के कुछ छन्द ज्यों के त्यों कवि ने रख दिये हैं। कुल उपलब्ध छन्द संख्या ३४९ हैं। आठवें भाग में समाप्ति पुष्पिका नहीं दी गई है, जिससे स्पष्ट है कि रचना अभी पूर्ण नहीं है। इसका शेष हिस्सा उपलब्ध नहीं हो सका है। कल्याण सिंह कुड़रा कृत रासो और इस रासो की कथा लगभग एक सी ही है, पर मदनेश कृत रासो में रानी लक्ष्मीवाई के ऐतिहासिक एवं सामाजिक जीवन का विशद चित्रण मिलता है।

छछूंदर रायसा(Chhachhundar Raysa) - बुन्देली बोली में लिखी गई यह एक छोटी रचना है। छछूंदर रायसे की प्रेरणा का स्रोत एक लोकोक्ति को माना जा सकता है- ""भई गति सांप छछूंदर केरी।'' इस रचना में हास्य के नाम पर जातीय द्वेषभाव की झलक देखने को मिलती है। दतिया राजकीय पुस्तकालय में मिली खण्डित प्रति से न तो सही छन्द संख्या ज्ञात हो सकी और न कवि के सम्बन्ध में ही कुछ जानकारी उपलब्ध हो सकीफ रचना की भाषा मंजी हुई बुन्देली है। अवश्य ही ऐसी रचनाएं दरबारी कवियों द्वारा अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करने अथवा कायर क्षत्रियत्व पर व्यंग्य के लिये लिखी गई होगी।

घूस रासा(Ghoos Rasa) - यह भी बुन्देली की एक छोटी सी रचना है। इसमें हास्य के साथ व्यंग्य का भी पुट है। रचनाकार को काव्य शिल्प की दृष्टि से अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई है। छन्दों के बंध, भाषा व शैली पर कवि का पूर्ण अधिकार है। उपलब्ध छन्द संख्या कुल ३१ है। प्रतिपूर्ण लगती है। यह भी दतिया राज्य पुस्तकालय की हस्तलिखित प्रतियों में प्राप्त हुई है। रचना के एक छन्द द्वारा कवि का नाम पृथीराज दिया गया है, परवर्ती रचना है। रचना काल अज्ञात है।

कटक रचनाऐं(Katak compositions) :

पारीछत कौ कटक - यह श्री द्विज किशोर द्वारा विरचित बुन्देली की छोटी सी रचना है। यह ""बेला ताल कौ साकौ'' के नाम से भी प्रसिद्ध है क्योंकि इस काव्य में बेला ताल की लड़ाई का वर्णन है। इस रचना में जैतपुर के महाराज परीछत के व्यक्तित्व और उनके द्वारा प्रदर्शित वीरता का वर्णन किया गया है। सन् १८५७ से भी पहले महाराज पारीछत ने अंग्रेजी शासन के विरुद स्वाधीनता का बिगुल बजाया था। ""पारीछत कौ कटक'' अधिकतर जनवाणी में सुरक्षित रहा। सम्भवतः अग्रेजी शासन के भय से इसे लिपि वद्ध न किया जा सका होगा। लोक रागिनी में कई छन्द लुप्त होते चले गये हों तो आश्चर्य क्या। 

झांसी की कटक - यह झांसी के तात्कालीन अखाड़िया कवि ""भागी दाऊजी ""श्याम'' विरचित है। जो १८५७ की क्रान्ति के प्रत्यक्षदर्शी थे। डॉ. वृन्दावन लाल वर्मा ने अपेन प्रसिद्ध उपन्यास ''झांसी की रानी'' के समकालीन कवियों में भग्गी दाऊजू का उल्लेख किया है। यह कक डॉ. भगवानदास माहौर झांसी द्वारा संपादित ""लक्ष्मीबाई रासो'' के परिशिष्ट में दिया गया है। कटक बीच में दो स्थानों पर खण्डित है। १ से ३३ तक छन्दों के बाद ३६ से ३८ छन्द तक है। ३९ वाँ छन्द अधूरा है फिर प्रति खण्डित है। फिर ४० से ४२ तक छन्द है। यहीं ""कटक्'' समाप्त हो गया है। समाप्ति पुष्पिका इस प्रकार दी गई है--

भिलमलसांय की कटक - इसके रचनाकार कवि भैरोंलाल हैं। बुन्देल वैभाव सं. गौरीशंकर द्विवेदी ""शंकर'' झांसी में कवि का जन्म स्थान श्रीनगर बताया गया है। श्रीनगर बुन्देलखण्ड के किसी साधारण ग्राम का नाम रहा होगाा संभव है, कवि ने और भी रचनायें लिखी हों। द्विवेदी जी के अनुसार भैरोंलाल का जन्म सं. १७७० में हुआ तथा इनका कविता काल सं. १८०० विक्रमी थाा इस रचना में अजयगढ़ राज्य के दीवान केशरी सिंह और बाधेल वीर रणमतसिंह के युद्ध का वर्णन दिया गया है। बाबा रणतसिंह ने सन् १८५७ में स्वतन्त्रता संग्राम में अंग्रेजी शासन का डटकर विरोध किया था/ यह रचना भी उस समय अधिकतर जनवाणी में ही सुरक्षित रही, परन्तु अजयगढ़ राज्य के एक नरेश श्री रणजोर सिंह ने ""भिलसांय को कटक'' अपनी एक पुस्तक के परिशिष्ट के रुप में मुद्रित कराया है जो आज भी अजयगढ़ राज्य पुस्तकालय में सुरक्षित है। इस रचना को उपलब्ध कराने का श्रेय श्री अम्बिकाप्रसाद ""दिव्य'' अजयगढ़ को है। रचना छोटी है पर भाषा, छन्द एवं विषय की दृष्टि से महत्वूपर्ण है।

महत्व
रास तथा रासो या रासक रचनायें प्रमुखतः दो रुपों में उपलब्ध होती है। १. धार्मिक रचनायें २. ऐतिहासिक कोटि की रचनाएं। धार्मिक रचनाओं के अनतर्गत रास ग्रन्थों में जैन कवियों द्वारा लिखित जैन धर्म से सम्बन्धित रचनायें आती हैं। इन रचनाओं में जन तीर्थकरों तथा जैन धर्म के सिव्द्धान्तों के धार्मिक विश्वासों आचार एवं व्यवहारों पर प्रकाश डालती हैं तथा जैन साहित्य को भी इन रचनाओं के द्वारा पर्याप्त संरक्षण प्राप्त हुआ है। धार्मिक रचनाओं के ही अन्तर्गत दूसरा स्थान बौद्ध सिद्धान्तों का विवचेन किया गया है। इसके अतिरिक्त पौराणिक आधार पर स्थित -पंच पाण्डव रास' पाँचों पाण्डवों के सम्बन्ध में लिखा गया है। ऐतिहासिक कोटि में आने वाले रासो या रासक ग्रन्थों के वर्ण्य विषय भी विभिन्न दिखलाई पड़ते हैं। कुछ रचनाओं में शृंगार रस को प्रधानता मिली है, जैसे सन्देश रासक मुंजरास तथा वीसलदेव रास। इन ग्रन्थों का कथानक किसी न किसी प्रमाख्यान से सम्बन्धित है। मांकण रासो, छछूंदर रायसा, गाडर रायसा व धूस रायसा हास्य रस की राचनायें हैं, परन्तु अधिकता वीर रस की रचनाओं की ही है। युग विशेष की संस्कृति, धर्म, इतिहासतथा राजनीति आदि की परिस्थितियों का एक लिपिबद्ध विवरण प्रस्तुत करने में इन रासो ग्रन्थों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

रासो कावें का मूल प्रतिपाद्य (Rasa cawen's original rendering) :

सामाजिक - देश के अधिकांश भूभाग पर मुगल सत्ता का प्रभाव था। चंपत राय और छत्रासाल जैसे थोड़े क्षत्रिय थे, जो सुख-वैभव का त्याग कर तथा भारी कष्ट झेलकर आजीवन मुगलों से लोहा लेते रहे। अधिकांश राजवंशों में फूट एवं वैमनस्य था, जिससे वे आपस में लड़कर नष्ट होते रहते थे।

अधिकांश क्षत्रिय राजाओं और सामन्तों पर मुस्लिम शासकों की संप्रभुता का प्रभाव छा चुका था। अपने सीमित स्वार्थों की सुरक्षा के लिए विदेशियों के प्रति अटल और असीम निष्ठा पर वे गर्व करते थे। साम्राजय की रक्षा के लिए वे सुदूर दक्षिण में तथा उतर में बलख-बदख्शां तक भी रक्त का बहाना अपना वीरोचित धर्म समझते थे। बुन्देला राजपूतों में एक उल्लेखनीय विशेषता यह अवश्य रही कि वे अपने रक्त सम्बन्ध पर गर्व करते रहे। यहाँ मुसलमानों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये जाने जैसे किसी भी उदाहरण का नितान्त अभाव है। बलात् धर्म-परिवर्तन की धटनायें भी नगण्य ही रहीं। टिकैत मधुकर शाह जैसे कुछ उदाहरण भी पाये जाते हैं, जिनमें मुगल दरबार के प्रति भक्ति के साथ ही स्वधर्म पालन के प्रति कट्टरता का अच्छा निर्देशन हुआ है। शुभकरन और दलपतिराव जैसे सामन्त किन्हां अवसरों पर मुगल सेना के प्रभावशाली नायकों से खुलकर मतभेद प्रकट कर सकते थे। अधिकांश अवसरों पर सम्राट बुन्देली आनबान का ध्यान रखते हुए उनका विरोध करने का साहस नहीं कर पाते थे।

बुन्देलखण्ड के सभी राज्यों में मुगलों के समान शान शौकत एवं विलास-प्रियता का दौर था। यह प्रभाव उनके अन्तःपुरों में एक से अधिक रानियों के परिवारों में कभी कुछ स्प्श्ट देखने को मिल जाता था। गृह कलह् भी देखा जाता था। सामान्ती वातावराण के राज्य-कर्मचारी विलासमय जीवन बिताते थे। निम्न वर्ग की जनता की दशा सोचनीय थी। समाज के गरीब तबके के लोग सुखी न थे, परन्तु किसी प्रकार निर्वाह करते जाने को ही भाग्य-विधान मानते थे। अधिकांश लोग राजा की नौकरी करना पसन्द करते थे, जिससे उनहें अर्पेक्षाकृत अधिक सुविधायें मिल सकें। मध्यम वर्ग सुखी था। हिन्दू समाज में बाल विवाह प्रचलित था। सती प्रथा भी थी। उच्च घरानों में पर्दा प्रथा भी प्रवेश पा चुकी थी।

युद्धों के समय मंहगाई हो जाती थी। रासो ग्रन्थों में कहीं-कहीं इसका उल्लेख मिलता है-

""तेरह दिनानों भयौ नाज तीन रुपै सेर,
पानी घास मिलै नाहीं कीनौ दष्षिनीन घेर।
करत विचार तहाँ भए हैं मुकाम तीन,
डेरन पे सत्रसेन रही चहुँ ओर फेर।।''
एक अन्य उदाहरण-
""मरे ऊट अरु बाज मिले आनउन घास तहं।
पानी के आगे नहिं सपावै उसांस तहं।।

उपर्युक्त विवरण के अनुसार स्पष्ट होता है कि राजाओं तथा सामान्त, सरदारों का जीवन अधिकांशतः युद्धों में उलझा रहता था। सामान्य जनता के कष्टों की ओर दृष्टिपात करने का प्रायः उन्हें कम ही अवसर प्राप्त होता था।

राज्य कर्मचारी सुखमय जीवन व्यतीत करते हुये, साधारण प्रजा के साथ मनमाना व्यवहार करते थे। समाज में विभिन्न प्रकार की प्रथायें तथा लोक रीतियाँ भी प्रचलित थीं।

 

धार्मिक - उत्तर भारत में भक्ति युग में एक लम्बी सनत परम्परा रही है, जिसका देश के अन्य भागों पर भी स्पष्ट प्रभाव पड़ा इस समय में अनेक सम्प्रदायों की स्थापना की गई। साधु संतों के वाद-विवादों के अखाड़े हुआ करते थे, जहाँ खण्डन मण्डन की रीतियों द्वारा अपने सम्प्रदाय को श्रेष्ठ सिद्ध किया जाता था। लोगों में अन्ध विश्वास बहुत था।

बुन्देलखण्ड में उत्त्र मध्यकाल में अनेक प्रसिद्ध सन्त हुए, जिन्हें राज्याश्रय भी प्राप्त था। महात्मा अक्षर अनन्य योग और वेदान्त के अच्छे ज्ञाता थे। राजयोग के उनके उपदेश का ही परिणाम था कि सेंवढ़ा नरेश राजा पृथ्वीसिंह ने कर्मयोग स्वीकार करते हुए वैराग्य का विचार त्याग दिया। यही पृथ्वीसिंह हिन्दी साहित्य में "रतन हजारा' के रचयिता "रसनिधिद्ध कवि के नाम से विख्यात हुए। इन्होंने अपने काव्य में प्रेम योग की एक सुन्दर धारा वहाई है। अनन्य जी एक बोर किसी बात पर रुष्ट होकर वन में चले गये। राजा पृथ्वीसिंह उनसे क्षमा मांगने पहू#ुाचे, परन्तु उन्हें एक झाड़ी के पास बड़े आराम से लेटा हुआ देखा, तो अपना अपमान समझकर पूछा-""पाँव पसारा कब से'' उत्तर मिला-""हाथ समेटा तब से''।

अनन्य जी ने इसी समय से वैराग्य ले लिया, पर राजा का मन रखने के लिए वचन दिया कि वे विचरते हुए कभी'कभी दर्शन देंगे। पश्चात् बुन्देल केशरी छत्रसाल से भी उनकी भेंट हुई। महाराज छत्रसाल और अक्षर-अनन्य के बीच पत्राचार की बात प्रसिद्ध है। अनन्य जी के लिखे हुए चिट्ठे ऐतिहासिक महत्व से परिपूण्र हैं। निर्गुण मागीं सन्त कवियों में अनन्य का अपना स्थान है। उनकी रचा शैली थोड़े में बहुत कुछ बता देती है। उदाहरण-

""आवै सुगन्ध कुरंग की नाभि कुरंग न सो समुझै मनमाही।
दूध सुधाहिं धरै सुरभी, न सवाद लळे सुरभीतिहिठाही।।
जान कों सार असार अजान कौं, जाने बिना सब बात वृथा हीं।।
ईश्वर आप अनन्य भने इमिहै सबमें सब जानत नाहीं।।''

स्वामी प्राणनाथ धामी प्रणामी सम्प्रदाय के प्रवर्तक हुए हैं जिन्होंने बुन्देल केशरी छत्रसाल को अपना शिष्य बनाते हुए आशीर्वाद दिया कि वे औरंगजेब के विरुद्ध अपने अभियान में स्थाई सफलता प्राप्त करें, उनके राज्य में सुख समृद्धि की कभी कोई कमी न हो और हिन्दुत्व की रक्षा में उनका नाम अमर हो। सर्व साधारण में यह विश्वास प्रचलित है कि पन्ना नगरीमें हीरों का पाया जाना स्वामी प्राणनाथ के आशीर्वाद का ही परिणाम था, जिससे महाराज को अपनी लड़ाइयों के लिए तथा प्रजा पालन एवं दान शीलता आदि कर्तव्यों के लिए धन की कमी न होने पावे। बताया जाता है कि स्वामी प्राणनाथ जी की सेवा में दक्षिणा भेंट करते हुए छत्रसाल ने निम्नलिखित दोहा कहा-

""यह टीका यह पांवड़वो, यही निछावर आय।
प्राननाथ के चरन पर, छत्ता बलिबलि जाय।।

राजा की नीति धर्म समन्वित थी। राजा लोग राज्य के कार्यों में भी अपने धर्म गुरुओं से सलाह लेते थे। इस युग में ब्राह्मण धर्म का ही बोल बाला था। ब्राह्मणों के आशीर्वाद और प्रचार से ही राजा आन्तरिक व्यवस्था में स्वतंत्र थे। नरेशों के व्यवहार का प्रभाव साधारण जनता पर भी विशेष रुप से व्यक्त होता था। उसमें भी धर्म भीरुता, दानशीलता की प्रवृतियाँ बनी हुई थीं। नरेशों में राज धर्म के अनुसार अन्य सम्प्रदायों के प्रति धार्मिक उदारता का भाव बना हुआ था।

शरणागत वत्सलता का भाव अधिकांश बुन्देला नरेशों में विद्यमान था। उनकी आपसी लड़ाइयों का एक बड़ा कारण यह भी रहा है कि वे किसी के पीछे संधर्ष मोल लेने से नहीं चूकते थे। छोटे से दतिया राज्य के अधिकपत्य शत्रुजीत ने महादजी की विधवा बाईयों का पक्ष लेकर अपने से कहीं बड़े वैभव से टक्कर ली थी।

 

राजनैतिक - बुन्देला राजवंश का इतिहास मुख्यत मुगलों के उत्कर्ष से ही प्रारम्भ होता है। मुगलों का तृतीय सम्राट अकबर जिस समय सिंहासन पर बैठा, उस समय भारत छोटे-छोटे अनेक स्वतन्त्र राज्यों में विभाजित था। अकबर ने कई स्वतन्त्र राज्यों पर विजय पाते हुए मुगल साम्राज्य को सुदृढ़ बनाया। उसने बिखरे हुए इन राज्यों को राजनैतिक एकता में बाँधकर देश में शान्ति और सुव्यवस्था की स्थापना का प्रयास किया। बुन्देलखण्ड को भी उसने राजस्थान, उत्तर-पश्चिम-सीमान्त-प्रदेश, गोंडवान आदि के साथ अपने साम्राज्य का अंग बनाया। यहाँ बुन्देलखण्ड में उसने प्रत्यक्ष अधिकार जमाने की विशेष चिंता नहीं की। राजधानी आगरा का निकटवर्ती यह प्रदेश दक्षिण के उसके अभियानों के लिए सहज सीधा मार्ग था। अतएव उसने ओरछा के बुदेला शासक से मैत्री स्थापित करने में ही अपने उद्देश्य की पूर्ति देखी। मधुकर शाह और वीरसिंह देव जेसे बुन्देलखण्ड का राज्य कई जागीरों में बँट गया। स्वभावतः इन छोटे राजाओं के स्वार्थ मुगलसत्ता से मिलकरचलने में ही पूरे हो सकते थे। अतः ये राज्य साम्राजय की शक्ति पर अधिक निर्भर रहने लगे और इस प्रकारइनकी दासता का अध्याय प्रारम्भ हुआ। अधिकांश बुन्देला राजाओं ने मुगल साम्राज्य के प्रति वफादारी को अपना राजनीतिक धर्म मानकर उसके लिए गर्व करने की नीति अपनाई।

प्रबल प्रतापी वीरसिंह देव एक अत्यन्त महत्वकांक्षी योद्धा थे। बादशाह अकबर और शाहजादा सलीम में जब मतभेद उभर कर प्रकटहुए और सलीम ने अकबर के अत्यन्त विश्वासपात्र मंत्री और सेनापति अबुल फजल को अपने मार्ग की एक बड़ी बाधा समझा, तो सलीम को वीरसिंह देव का ही एकमात्र सहारा समझ पड़ा। उसने अबुल फजल को मार डालने के लिए वीकिंरसह देव से सम्पर्क स्थापित किया। बुन्देलों की प्रधान गद्दी ओरछा पर अधिकार पाने की महत्वाकांक्षा लेकर वीरसिंह देव ने सहज ही यह काम कर डाला। अबुल फजल का वध करने के पश्चात् उन्होंने उसका सिर काटकर जहाँगीर के पास इलाहाबाद भेज दिया। सलीम फूला न समाया। उसने अपने मित्र वीरसिंह देव को भरपूर पुरस्कार देने की नीति बना ली। परन्तु सम्राट अकबर के जीवन काल में वीरसिंह देव को उसके रोष का सामना करते हुए अनेक कठिनाइयों को झेलना पड़ा। सलीम जब जहाँगीर के नाम से गद्दी पर बैठा, तो उसने वीरसिंह देव को पुरस्कृत करने में कमी नहीं की। कालान्तर में वीरसिंह देव के उत्तराधिकारी सम्राट से मैत्री के इस आदर्श के नाम पर हीं मुगलों के ऊपर अधिकाधिक निर्भर रहने लगे। वीरसिंह देव के बड़े बेटे तथा ओरछा के राजा जुझारसिंह को साम्राज्य की दासता कुछ अखरने लगी। उन्होंने शाहजहाँ के शासन काल में दो बार मुगल सम्राट के विरुद्ध विद्रोह भी खड़ा किया, परन्तु वे बुरी तरह परासत हुए। संभवतः इसीलिए आगे के अन्य राजाओं ने मुगलों से बनाये रखने में ही कुशलता समझी।

शाहजहाँ में धार्मिक कट्टरता का अंश अवश्य था। तभी जुझारसिंह को विद्रोह करने की आवश्यकता पड़ी, परनतु उसके बाद औरंगजेब ने सम्राट बनते ही अकबर के समय से चली आने वाली नीतियों को एकदम बदल दिया। कट्टर सुन्नी मुसलमान औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीतियों को एकदम बदल दिया। कट्टर सुन्नी मुसलमान औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीतियों ने उत्तर में सिक्खों से लेकर दक्षिण में मराठों तक ग्रान्ति कीचिनगारी प्रज्जवलित कर दी। सिक्ख, मराठा और सतनामी मुगल साम्राज्य के प्रलि बैरी बन बैठै। तभी राजा चम्पतराय और उनके पुत्र छत्रसाल नामक बुन्देला वीरों ने हिन्दुत्व की रक्षा के लिए मुगल सत्ता को उखाड़ फेंकने का व्रत लिया। वीर छत्रसाल तो छत्रपति शिवाजी के आदर्श से विशेष रुप से अनुप्राणित थे। अपने पिता चम्तराय से भी अधिक नाम उन्होंने पाया है। बुन्देलखण्ड की स्वाधीनता के लिए उनका योगदान किसी प्रकार कम नही। अपने ही वंश के कुछ अन्य शासकों से बुन्देल केशरी छत्रसाल को समुचित सहयोग मिल पाता, तो इस मध्यवर्ती भूभाग से मुगलों की सत्ता कभी की उठ गई होती। महाराज छत्रराज ने अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाया, परन्तु अपने वंश के अन्य नरेशों के प्रति विशेज्ञ सख्ती नहीं बरती। यपि औरंगजेव के बाद मुगल साम्राज्य दिन प्रतिदिन अशक्त होता गया, तथापि ओरछा, दतिया आदि के राजघराने मुगलों के आश्रित बने रहे।

मुहम्मद खाँ वंगश के आक्रमणों का सफल प्रतिरोध करने के लिए महाराजा छत्रसाल ने वृद्धावस्था के अन्तिम दिनों में पेशवा बाजीराव से सहायता चाही। पेशवा को अपना तीसरा बेटा मानते हुए उन्होंने अपने राज्य का एक तिहाई भाग भी सौंप दिया था। फलतः इस भूभाग में मराठों को पैर जमाने का अवसर मिल गया। झांसी और ग्वालियर मराठों की, इस क्षेत्र में दो बड़ी राजधानियाँ स्थापित हुई। इन राज्यों से बुन्देलखण्ड के नरेशों के सम्बन्ध बनते और बिगड़ते रहे। कभी किसी राजा का व्यवहार मैत्रीपूर्ण होता और कभी कोई शत्रुता मानता। समय-समय पर कोई मराठा सरदार इन राज्यों पर छापा मारते रहते।

शृंगारिक - रासो काव्यों की परम्परा में कुछ ऐसे रासो ग्रन्थ है जिनका वर्ण्य-विषय ही शृंगार-परक रहा है। वीसल देव रासो एवं सन्देश रासक तो पूर्णतया शृंगार रचनायें ही है, जैसा पहले रासो काव्य परम्परा में लिखा जा चुका है। वीसलदेव रासो में वीसलदेव के जीवन के १२ वर्षों के कालखण्ड का वर्णन किया गया है। वीसलदेव अपनी रानी की एक व्यंग्योक्ति पर उत्तेजित होकर लम्बी यात्रा पर चला गया और एक राजा की रजाकुमारी के साथ विवाह करके भोग विलास के जीवन में निरत हो गया। इस प्रकार इस ग्रंथ शृंगार के दोनों ही पक्षों का सुन्दर समन्वय है। वियोग शृंगार एवं संयोग शृंगार का अच्छज्ञ चित्रण इस काव्य ग्रन्थ में किया गया है।

पृथ्वीराज रासो को पढ़ने से ज्ञात होता है कि महाराजा पृथ्वीराज चौहान ने जितनी भी लड़ाइयाँ लड़ीं, उन सबका प्रमुख उद्देश्य राजकुमारियों के साथ विवाह और अपहरण ही दिखाई पड़ता है। इंछिनी विवाह, पह्मावती समया, संयोगिता विवाह आदि अनेकों प्रमाण पृथ्वीराज रासो में पृथ्वीराज की शृंगार एवं विलासप्रियता की ओर संकेत करते हैं। मुंजरास में मुंज और तैलप की विधवा बहिन मृणालवती ही प्रणय कथा शृंगार का अनुपम उदाहरण ही है।

उपर्युक्त विवरणों से स्पष्ट होता है कि रासो काव्यों में वर्णित सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक एवं शृंगारिक प्रवृतियाँ विविधता से पूर्ण थीं। 

कटक ग्रन्थ (Katak Volume) :

परिचय
वीर काव्य के अन्तर्गत रासो ग्रन्थों का प्रमुख स्थान है। आकार की बात इतनी नहीं है जितनी वर्णन की विशदता की है। छोटे से छोटे आकार से लेकर कई कई ""समयों'' अध्यायों में समाप्त होने वाले रासो ग्रन्थ हिन्दी साहित्य में वर्तमान हैं। सबसे भारी भरकम रासो ग्रन्थ, सिने अधिकांश कवियों को रासो लिखने के लिये प्रेरित किया, चन्द वरदाई कृत पृथ्वीराज रासो है। इससे बहुत छोटे पा#्रयः तीन सौ चार छन्दों में समाप्त होने वाले रासो नामधारी वीर काव्य भी हैं, जो किन्हीं सर्गो या अध्यायों में भी नहीं बांटे गये हैं- ये केवल एक क्रमबद्ध विवरण के रुप में ही लिखे गये हैं।

रासों ग्रन्थों की परम्परा में ही ""कटक'' लिखे जाने की शैली ने जन्म पाया। कटक नामधारी तीन महत्वपूर्ण काव्य हमारी शोध् में प्रापत हुये हें। बहुत सम्भव है कि इस ढंग के और भी कुछ कटक लिखे गये हों, परन्तु वे काल के प्रभाव से बच नहीं सके। कटक नाम के ये काव्य नायक या नायिका के चरित का विशद वर्णन नहीं करते, प्रत्युत किसी एक उल्लेखनीय संग्राम का विवरण प्रस्तुत करते हुए नायक के वीरत्व का बखान करते हैं।

ऐतिहासिक कालक्रम के अनुसार सर्वप्रथम हम श्री द्विज किशोर विरचित ""पारीछत को कटक'' की चर्चा करना चाहेंगे। ये पारीछत महाराज बुन्देल केशरी छत्रसाल के वंश में हुए, जैतपुर के महाराजा के रुप में इन्होंने सन् १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम से बहुत पहले विदेशी शासकों से लोहा लेते हुये सराहनीय राष्ट्भक्ति का परिचय दिया। ""पारीछत को कटक"" आकार में बहुत छोटा है। यह ""बेलाताल को साकौ'' के नाम से भी प्रसिद्ध है। स्पष्ट है कि इस काव्य में बेला ताल की लड़ाई का वर्णन है। जैतपुर के महाराज पारीछत के व्यक्तित्व और उनके द्वारा प्रदर्शित वीरता के विषय में निम्नलिखित विवरण पठनीय है-

महाराज छत्रसाल के पुत्र जगतराज जैतपुर की गद्दी पर आसीन हुए थे। जगतराज के मंझले पुत्र पहाड़सिंह की चौथी पीढ़ी के केशरी सिंह के पुत्र महाराज पारीछत जैतपुर को गद्दी के अधिकारी हुए। इन्हीं महाराज पारीछत ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सत्ता के विरुद्ध सन् १८५७ से बहुत पहले विन्ध्यप्रदेश में प्रथम बार स्वाधीनता का बिगुल बजाया। महाराज पारीछत की धमनियों में बुन्देल केसरी महाराज छत्रसाल का रक्त वे#्र से प्रवाहित हो उठा, और वे यह सहन न कर सके कि उनके यशस्वी पूर्वज ने अपनी वृद्धावस्था में पेशवा को जो जागीर प्रदान की थी, उसे व्यापारियों की एक टोली उनके मराठा भाइयों से छीनकर बुन्छेलखण्ड पर अपना अधिकार जमावे। महाराज पारीछत ने कई बार और कई वर्ष तक अंग्रेंजों की कम्पनी सरकार को काफी परेशान किया, और उन्होंने झल्लाकर उन्हें लुटेरे की संज्ञा दे डाली।

जान सोर, एजेन्ट ने मध्यप्रदेश में विजयराघव गढ़ राज्य के तत्कालीन नरेश ठाकुर प्रागदास को २० जनवरी, सन् १८३७ ई. को उर्दू में जो पत्र लिखा, उससे विदित होता हे कि महाराज पारीछत १८५७ की क्रान्ति से कम से कम २० वर्ष पूर्व विद्रोह का झण्डा ऊंचा उठा चुके थे। उक्त पत्र के अनुसार ठाकुर प्रागदास ने पारीछत को परास्त करते हुए उन्हें अंग्रेज अधिकारियों को सौंपा, जिसके पुरस्कार स्वरुप उन्हें अंग्रेजों ने तोप और पाँच सौा पथरकला के अतिरिक्त पान के लिए बिल्हारी जागीर और जैतपुर का इलाका प्रदान किया।

ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि महाराज पारीछत चुप नहीं बैठै। उन्होंने फिर भी सिर उठाया, और इस बार कुछ और भी हैरान किया। उर्दू में एक इश्तहार कचहरी एजेन्सी मुल्क बुन्देलखण्ड, मुकाम जबलपुर खाम तारीख २७ जनवरी सन् १८५७ ई. पाया जाता है, जिसमें पारीछत, साविक राजा जैतपुर और उनके हमाराही पहलवान सिंह के भी नाम है।

उर्दू में ही एक रुपकार कचहरी अर्जेन्टी मुल्के बुन्देलखण्ड इजलास कर्नल विलियम हैनरी स्लीमान साहब अर्जेन्ट नवाब गवर्नर जनरल बहादुर बाके २४ दिसम्बर, सन् १८५७ के अनुसार- ""अरसा करीब २ साल तक कम व वैस पारीछत खारिजुल रियासत जैतपुर किया गया। सर व फशाद मचाये रहा और रियाया कम्पनी अंग्रेज बहादुर को पताया किया और बाजजूद ताकीदाद मुकर्रर सिकर्रर निस्वत सब रईसों के कुछ उसका तदारुक किसी रईस ने न किया हालांकि बिल तहकीक मालूम हुआ कि उसने रियासत ओरछा में आकर पनाह पाई''। इस रुपकार के अनुसार पारीछत के भाईयां में से कुंवर मजबूत सिंह और कुंवर जालिम सिंह की योजना से राजा पारीछत स्वयं अपने साथी पहलवानसिंह पर पाँच हजार रुपया इनाम घोषित किया था। राजा पारीछत को दो हजार रुपया मासिक पेंशन देकर सन् १८४२ में कानपुर निर्वासित कर दिया गया। कुछ दिनों बादवे परमधाम को सिधार गये। उनकी वीरता की अकथ कहानियाँ लोकगीतों के माध्यम से आज भी भली प्रकार सुरक्षित हैं। इन्हीं में ""पारीछत कौ कटक'' नामक काव्यमय वर्णन भी उपलब्ध है।

सन् १८५७ की क्रान्ति में लखैरी छतरपुर के दिमान देशपत बुन्देला ने महाराज पारीछत की विधवा महारानी का पक्ष लेकर युद्ध छेड़ दिया और वे कुछ समय तक के लिये जैतपुर लेने में भी सफल हुए। दिमान देशपत की हत्या का बदला लेने के लिए अक्टूबर १९६७ में उनके भतीजे रघुनाथसिंह ने कमर कसी।

 ""पारीछत कौ कटक'' अधिकतर जनवाणी में सुरक्षित रहा। ऐसा जान पड़ता है कि इसे लिपितबद्ध करने के लिए रियासती जनता परवर्ती ब्रिथ्टिश दबदबे के कारण घबराती रही। लोक रागिनी में पारीछत के गुणगान के कतने ही छन्द क्रमशः लुप्त होते चले गये हों, तो क्या अचरज है। कवि की वर्णन शैली से प्रकट है कि उसने प्रचलित बुन्देली बोली में नायक की वीरता का सशक्त वर्णन किया है। महाराज पारीछत के हाथी का वर्णन करते हुए वह कहता है-

""ज्यों पाठे में झरना झरत नइयां,
त्यों पारीछत कौ हाथी टरत नइया।।

पाठे का अर्थ है एक सपाट बड़ी चट्टान। शुद्ध बुन्देली शब्दावली में ""नइयाँ'' नहीं है की मधुरता लेकर कवि ने जो समता दिखाई है, वह सर्वथा मौलिक है, और महाराज पारीछत के हाथी को किसी बुन्देलखण्उ#ी पाठे जैसी दृढ़ता से सम्पन्न बतलाती है।

चरित नायक महाराज पारीछत की वीरता और आत्म निर्भरता से शत्रु का दंग रह जाना अत्यन्त सरल शब्दावली में निरुपित हुआ हैं।

""जब आन पड़ी सर पै को न भओ संगी।
अर्जन्ट खात जक्का है राजा जौ जंगी।।''

बुन्देली बोली से तनिक भी लगाव रखने वाले हिन्दी भाषी सहज ममें समझ सकेंगे कि पोलिटिकल एजेन्ट का भारतीय करण ""अर्जन्ट'' शब्द से हुआ है। जक्का खाना एक बुन्देली मुहावरा है जिसका बहुत मौजूं उपयुक्त प्रयोग हुआ है- "चकित रह जाना' से कहीं अधिक जोर दंग रह जाने में माना जा सकता है, परन्तु हमारी समझ में जक्का खाना में भय और विस्मय की सम्मिलित मात्रा सविशेष है।

पारीछत नरेश में वंशगत वीरता का निम्न पंक्तियों में सुन्दर चित्रण हुआ है।

""बसत सरसुती कंठ में, जस अपजस कवि कांह।
छत्रसाल के छत्र की पारीछत पै छांह।।''

पारीछत के कटक का निम्नलिखित छन्द वर्णन शैली का भली प्रकार परिचायक है-

""कर कूंच जैतपुर से बगौरा में मेले।
चौगान पकर गये मन्त्र अच्छौ खेले।।
बकसीस भई ज्वानन खाँ पगड़ी सेले।
सब राजा दगा दै गये नृप लड़े अकेले।।
कर कुमुक जैतपुर पै चढ़ आऔ फिरंगी।
हुसयार रहो राजा दुनियाँ है दुरंगी।।
जब आन परी सिर पै कोऊ न भऔ संगी।
अर्जन्ट खात जक्का है राजा जौ जंगी।।
एक कोद अर्जन्ट गऔ, एकवोर जन्डैल।
डांग बगोरा की घनी, भागत मिलै न गैल।।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि ""पारीछत को कटक'' का बुन्देली रचनाओं में महत्वपूर्ण स्थान है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस रचना का हिन्दी साहित्य में विशिष्ट महत्व है।

झांसी को कटक (Jhansi ke Katak) :

दूसरा महत्वपूर्ण कटक भग्गी दाऊजू "श्याम' कृत "झांसी कौ कटक' है। भग्गी दाऊजू झांसी के जनकवि थे, जो सन् १८५७ की क्रान्ति के प्रत्यक्षदर्शी थे। स्व् डॉ. वृन्दावन लाल वर्मा ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ""झांसी की रानी'' में महारानी लक्ष्मीबाई के समकालीन कवियों में इनका उल्लेख किया है। डॉ. भगवानदास माहौर ने "मनदेश' कृत "लक्ष्मीबाई रासो ' नामक ग्रन्थ में इनके सम्बन्ध में विस्तृत प्रकाश डाला है। भगगी दाऊजू जू एक अखाड़िया उस्ताद कवि विख्यात थे। कहा जाता है कि भग्गी दाऊजू ने राजनी लक्ष्मीबाई के विषय में पूरा रायसा लिखा थ, परन्तु ""रायसा'' कहा जाय अथवा उसका छोटा रुप ""कटक'' उसके केवल ४ छन्द विनाश से बच सके हैं। जितना कुछ अंश एक खझण्डत प्रति से श्री भगवानदास माहौर को उपलब्ध हो सका है, उससे तो यह एक ""कटक'' ही सिद्ध होता है- ""रायसा'' नहीं ""इति कटक संपूर्ण। पौष सुदी १४ संवत १९५७ मु. झाँसी महारानी के समकालीन इस जनकवि ने चार चरण वाले ""मंज'' छन्द में जितना भी कुछ गेय प्रबन्ध रचा होगा वह रानी लक्ष्मीबाई तथा ओराछा के दीवान नत्ये खाँ के बीच होने वाले युत्द्ध के तुरन्त बाद रचा गया होगा-

""धन्य प्रताप श्री बाई साव कौ ऐसो नाव निकारौ।''

इस पंक्ति के पश्चात् यह रचना खण्डित है। संभवतः बाद की रचना में कवि ने १८५७ के स्वातनत्र्य युद्ध का थोड़ा बहुत वर्णन अवश्य किया होगा, परन्तु वह सब लुप्त हो चुका है। "भग्गी दाऊजू' के कटक का बहुत कुछ अंश हमारे अनुमान से बहुत समय तक उनके द्वारा अथवा उनके शिष्यों के द्वारा मौखिक रुप से सुनाया जाता रहा होगा। स्मृति में जो कुद सुरक्षित रह सका, उसे लिपिबद्ध करने का प्रयास उनके बाद ही किसी भक्त द्वारा हुआ है। खेद है कि वह प्रितिलिपि भी केवल खण्डित रुप में बच पाई। कवि ने झाँसी की भूमि के प्रति अपने ममत्व का बहुत ओजपूर्ण वर्णन किया है। अधिकांश छन्दों की समाप्ति का चौथा चरण कवि की भावना का परिचय देते हुए अपने आप में बहुत कुछ बता देता है-

""जो झाँसी की लटी तकै सुन ताय कालिका खाई।''

"लटी का अथ्र् है अवनति, "तकै' का अर्थ है देखना, छन्द की मात्रा के विचार से सनु' शब्द का प्रयोग हुआ है। इस प्रकार कवि की घोषणा है कि जो भी कोई झाँसी की अवनति देखना या सुनना चाहेगा, उसे कालिका खायेगी अर्थांत वह जगदम्बा का कोप भाजन होगा।

"कटक' में झाँसी के बसाये जाने का भी उल्लेख कवि ने बड़े स्वाभिमान से किया है-

""जा झाँसी सिव राव हरी की अतिशुभ घरी बसाई।''

अर्थात् झाँसी को शिव राव हरी नेवालकर नाम के एक मराठा सरदार ने बसाया था।

नत्थे खाँ द्वारा सागर पर अधिकार करने के कारण पर "भग्गी दाऊ जू' नत्थे खाँ को सागर पर विजय प्रापत हुई।

कटक ग्रंथ में झाँसी के प्रमुख सरदारों की वीरता का कवि ने अत्यन्त ओज पूर्ण वर्णन किया है।अपने पक्ष की बढ़ती तथा शत्रु पक्ष की दीनता का निम्न पंक्तियों में वर्णन देखने योग्य है-

""इतै चैन दिन रैन ज्वान सब खाते माल मिठाई।
उतै खपरियन में लयै महुआ भूंजत फिरै सिपाई।।

इस कटक में युद्ध क्षेत्र की संक्षिप्त सी मारकाट का वर्णन है एवं वीभत्स चित्रणों का भी प्रायः अभाव ही है। फिर भी सम्पूर्ण रचना ओज से पूर्ण है।

बुन्देली शब्दों के प्रयोग की दृष्टि से झाँसी कौ कटक एक समृद्ध रचना है। बुन्देली बोली के कुछ शब्द बड़ी स्वाभाविकता तथा उपयुक्ता के साथ प्रयुक्त किए गए हैं, जैसे -ठक्का ठाई लड़ाई, ठकुरास क्षत्रियत्व, खपरियन फूटे घड़ों के नीये के अर्ध वृर्त्ताकार टुकड़े, धुकाई धोकना, न्याउ युद्ध, बकबकाय क्रोधित होकर, मिसमिसाय दांत पीसकर क्रोधित होते हुए लसगरी लश्करी, सेना के अर्थ में, झींकत परेशान होते हुए, डिगरत "डगर' का कर्ता, चलने के अर्थ में झड़झड़ात ध्वन्यार्थक शब्द, सुमर स्मरण, अगारी अग्र भाग, जड़के कसकर मारने के अर्थ में आदि।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि झाँसी कौ कटक भाषा, शब्द प्रयोग, छन्द शैली आदि दृष्टियों से एक विशिष्ट रचना है। इसके साथ ही स्वातन्त्र्योन्मुख जन भावना तथा वीरता बढ़ाने वाली प्रेरणा उत्पन्न करने में इस रचना जैसी काव्य कृतियों का हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है।

 

भिलसांय कौ कटक

बुन्देलखण्ड के उपलब्ध "कटक' ग्रंथों में "झाँसी कौ कटक' के पश्चात् "भिलसांय कौ कटक' आता है। इसके रचयिता भैरों लाल हैं। ये जाति के ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम द्विज दुर्गा प्रसाद है। भैरों लाल का जनम बुन्देलखण्ड में महोबा, जिला हमीरपुर के निकट श्रीनगर नामक ग्राम में हुआ था। "भिलसांय कौ कटक' में इन्होंने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है-

""दुज दुरगा परसाद के सुत कवि भैरो लाल।
जन्म भूमि श्रीनगर है, सुखद विशाल।। ""

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि भैरोलाल अजयगढ़ दरबार में जाकर रहे और अजयपाल महाराज की प्रशंसा में काव्य रचना की। "भिलसांय कौ कटक' की भाषा प्रवणता देखकर यह कहा जा सकता है कि भैरोलाल एक सिद्धहस्त कवि थे। अवश्य ही इन्होंने "भिलसांय कौ कटक' के अतिरिकत और भी रचनायें लिखी होंगी। इन्होंने "भिलसांय कौ कटक' के अतिरिक्त और भी रचनायें लिखी होंगी। इनकी काव्य भाषा संस्कृत निष्ठ खड़ी बोली से प्रभावित बुन्देली है। कहीं-कहीं एकाध शब्द अवधि का भी मिल जाता है।

"भिलसांय कौ कटक' अन्य कटक ग्रन्थों की अपेक्षा आकार में कुछ बड़ा है। जन कवियों की ये रचनायें अधिकतर लोगों के द्वारा सुनी सुनाई जाकर, केवल कण्ठ पर विद्यमान रही। बहुत पीछे उनका संकलन किया गया। यही कारण है कि बहुत कम रचनायें अपने मूल रुप में उपलब्ध हो सकी हैं। अजयगढ़ के नरेश रणजोर सिंह ने "भिलसांय कौ कटक' अपनी एक पुस्तक के परिशिष्ट में मुद्रित कराते हुए उसे भली प्रकार सुरक्षित कर दिया है।

"भिलसांय कौ कटक' में बुन्देलों और बघेलों की पारस्परिक शत्रुता का वर्णन किया गया है। इसमें कुटरा नामक स्थान पर हुए युद्ध का वर्णन है तथा कवि ने अर्जुनसिंह दीवान की आज्ञा से इस युद्ध का विवरण लिपिबद्ध किया जैसा कि प्रसतुत कटक के एक छन्द से ज्ञात होता है-

सुकवि सो भैरोलाल को-हुकुम दियो सुख पाय।
कुटरे कौ संग्राम यह-कहै विचिर्त बनाय।।
अर्जुन सिह दिमान की, सुन आयसु अनुकूल,
वीर बुन्देल बघेल कर, सुयश कहौं सुख मूल।।''

भिलसांय कौ कटक में अजय गढ़ के दीवान केशरी सिंह और बाघेल वीर रणमतसिंह के युद्ध का वर्णन किया गया है। बाबा रणमतसिंह बधेलखण्ड क्षेत्र के माने हुए क्रान्तिकारी थे। ये कोठी, जिला सतना के निकटवर्ती एक ग्राम "मनकहरी' के रहने वाले थे, जहाँ इनकी गढ़ी का ध्वंस आज भी विद्यमान है। सन् १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में इन्होंने अत्यन्त नृशंसतापूर्वक अंग्रेजों का वध किया था। जब ब्रिटिश सरकार ने इनके द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों का उततरदायित्व रीवा महाराज पर डाला तो वहाँ के दीवान दीनबन्धु ने इन्हें आत्म समपंण के लिए बाध्य कर दिया था। बाबा रणमतसिंह और उनके कतिपय साथियों को ब्रिटिश सरकार ने प्राण दण्ड दिया था। अजयगढ़ के बुन्देली राज्य से रणमत सिंह की लड़ाई काव्य के अन्तर्साक्ष्य के अनुसार इन्हीं दिनों की है। "भिलसांय कौ कटक' में युद्ध तिथि एक छन्द में निम्न प्रकार दी हुई है-

""संवत् उन्नीस सै सुनौ- शुभ चौदहा की साल।
कुटरे के मैदान में, ऐसौ बीतौ हाल।।''

अर्थात् यह युद्ध संवत् १९१८ विक्रमी तदनुसार सन् १९५७ ई में कुटरे के मैदान में हुआ था। इस लड़ाई में जीत अजयगढ़ की ही हुई थी। बाद में अंग्रेजों ने भी बाघेल वीर रणमतसिंह को दण्ड दिया था। वर्तमान में बाबा रणमतसिंह को बघेलखझ क्षेत्र में एक महान स्वतन्त्रता सेनानी के रुप में स्मरण किया जाता है।

भिलसांय कौ कटक में कवि द्वारा अजयगढ़ की सेना तथा रणमतसिंह की सेना, दोनों का ही वर्णन किया गया है, पर अजयगढ़ की सेना की कुछ अधिक प्रशंसा की गई है। इस रचना में युद्धस्थल की मारकाट के वर्णन का साधारण रुप ही देखने को मिलता है फिर भी कवि ने प्रमुख सरदारों और सामन्तों के नामों का विवरण दिया ही है। सेना प्रयाण के समय ललकारते हुए, उत्साह भरे वीरों से युक्त का वर्णन निम्न छन्द में देखिये-

""कर शोर महा घनघोर घनो ललकार परी अलवेलन की।
भर बांह तिवालन भालन सौं बगमेल चली हटहेलन की।
भट हांकत हूंकत हूलत सूलत रुलन रेल सकेलन की।
रणधीर बुन्देल अधीर भए, लख धावन वीर बघेलन की।।''

उपर्युक्त छन्द में अन्तिम पंक्ति में कवि ने बघेला वीरों की भी प्रशंसा कर दी है। ऐसे वर्णनों की इस रचना में कमी नहीं है।
"भिलसांय कौ कटक' भाषा प्रयोग एवं छन्द विधान की दृष्टियों से, "पारीछत कौ कटक' तथा "झाँसी कौ कटक' की अपेक्षा उत्कृष्ट रचना है। रचना को और अधिक विस्तार देकर कवि इसे एक रासो का रुप भी दे सकता था। "पारीछत कौ कटक' तथा "झाँसी कौ कटक' जन गीतात्मक शैली में लिखे गए काव्य हैं, परन्तु "भिलसांय कौ कटक' में दोहा, कवित्त, छप्पय, कुण्डलियाँ, घनाक्षरी, सवैया, सोरठा तथा मंज आदि छन्द प्रयुक्त किए गए हैं तथा इसे इतिवृत्तात्मक शैली में लिखा गया है। निष्कर्ष रुप में कहा जाता है कि "भिलसांय कौ कटक' ऐतिसाहिसक एवं साहित्यिक महत्व की रचना है।

हास्य रासो (Comic raso):

परिचय
रासो काव्यों का प्रमुख उद्देश्य है, समर भूमि में चरित्र-नायक के शैर्य का उच्चतम निदर्शन। उनका प्रमुख लक्षण है नायक द्वारा शत्रु को पराजित करने के प्रयासों के साथ युद्ध भूमि में स्वयं सो जाना। परन्तु हास्य रायसे दुखानत न होकर सुखान्त ही होते हैं। वीरता के जोशीले वर्णन सुनते सुनाते हुए बुन्देली रसज्ञों में ऐसा अनूठा जोश उमड़ा कि उन्होंने असम्भव को सम्भव कर दिखाया। रामायण की लोकप्रियता से रीझ कर जिस प्रकार लोगों ने मनोरंजन के लिए कुछ विशेष चौपाइयों की पैरोडी के द्वारा गड़बड़ रामायण की सृष्टि की, उसी प्रकार बुन्देलखण्ड के कुछ थोड़े से रचनाकारो ने ""हास्ये-रासो'' के रुप में एक नवीनता की सृष्टि की। आचार्यो ने वीर रस और हास्य रस के बीच प्रबल विरोध माना है, परन्तु हास्य रासो में दोनों के समन्वय का प्रयत्न किया गया है। उत्साह यदि धमनियों में रक्त का संचार बढ़ा सकता है, तो हास समस्त जीवन का पौष्टिक है।

मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी ""हास्य'' जीवन के लिये अत्यन्त आवश्यक है। कोई भी व्यक्ति कैसे भी चिन्तित अवस्था में क्यों न हो, हास्य का पुट अवश्य ही कुछ समय के लिये उसे अपना दु:ख भुलाकर प्रसन्नता प्रदान करता है। इसी महत्वपूर्ण उद्देश्य की पूर्ति के लिये संस्कृत नाटकों में विदूषक नाम के एक पात्र की योजना की गई है। इसके अतिरिक्त बड़े बड़े महाकाव्यों, नाटकों ,उपन्यासों व चलचित्रों आदि में बीच-बी में हास्य का थोड़ा बहुत विधान उ#ुबे हुए पाठकों व दर्शकों के मन को जाजगी व शक्ति देने के लिए किया गया है। मानसिक थकान के साथ-साथ शारीरिक थकान को भी दूर करने में हास्य रस का अपना महत्वपूर्ण स्थान है।

बुन्देली बोली में लिख गये छोटे बड़ तीन हास्य रासो उपलब्ध हुए हैं। 

छछूंदर रायसा

गाडर रायसा एवं

धूस रायसा

यह रासो ग्रन्थ हास्य रस के सुन्दर परिपाक से युक्त किसी सरस कथानक के साथ रचे गये हैं।

इन बुन्देली प्रतीक रचनाओं में बुन्देली कवियों द्वारा ""वीरता'' और ""हास्य'' का अद्भूत समन्वय बड़ी मौलिक सूझ-बूझ के साथ किया गया है। इनके सम्बन्ध में श्री हरिमोहन लाल श्रीवास्तव लिखते है-""विरोधों को चुनौती देते हुए बुन्देली कवियों ने पिछले समय में ""छछूंदर रायसो, गाडर रायसो, और घूंस रायसो नामक कृतियों द्वारा मौलिक सूझ-बूझ का परिचय दिया।'' वह वरीता का युग था। सर्वत्र वीरतापूर्ण कार्यों की चर्चा एक आम जन भावना बन गई थी। आधुनिक फैशन की भाँति उस युग में शौर्य वर्णन भी एक आम फैशन की तरह हो गया था।

हास्य रासो ग्रन्थों में जो प्रतीक अपनाये गये हैं और जिस प्रकार के कथानक की सृष्टि की गई है, उससे वीरत्व का उपहास भले होता है, पर प्रबुद्ध वर्ग के लिए वे स्वस्थ मनोरंजन हैं एवं रासो काव्य रचना प्रियता के स्पष्ट प्रमाण भी हैं। उपलब्ध रासो काव्यों पर पृथक-पृथक विवेचन निम्नानुसार प्रस्तुत किया जा रहा है-

छछूंदर रायसा

छछूंदर रायसा आकार में बहुत ही छोटा है। इस रचना के लगभग ७-८ छन्द ही उपलब्ध हैं जिनमें इसका कथानक पूर्ण हो गया है। छछूंदर एक घृणा पैदा करने वाला प्राणी है जो एक विशेष प्रकार की दुगर्ंध छोड़ता है। इस व्यंग्य रचना में एक लोकोक्ति ""भई गति सांप छछूंदर केरी।'' को आधार माना गया है। छछूंदर की यह विशेषता है कि यदि सांप उसे निगल ले तो या तो वह अन्धा हो जाता है अथवा मर जाता है, तो दांतों की विशेष बनावट के कारण छछूंदर की बाहर उगल नहीं सकता एवं प्राण हानि के भय से वह उसे निगलना भी नहीं चाहता ऐसी परिस्थिति में फंसे साँप की गति को समान परिस्थितियों में फंसे व्यक्ति की तुलना में प्रतीक माना जाता है। गोस्वामी तुलसीदास ने इस लोकोक्ति को अपने रामचरित मानस में द्विविधा की स्थिति में फंसी कौशिल्या के लिय प्रयुक्त किया है। तुलसी के शब्दों में -

""धरम सनेह उभय मति घेरी। भइ गति साँप छछूंदर केरी।
राखउ सुतहिं करउं अनुरोधू। धरम जाइ अरु बन्धु विरोघू।।''

धर्म और स्नेह के बीच कौशिल्या की बुद्धि घिरी हुई थी और उनकी दशा साँप छछूंदर जैसी हो रही थी। यदि वे हठपूर्वक राम को वन जाने से रोक लेती तो धर्म चला जाता और भाइयों से विरोध होता और यदि वे उन्हें वन जाने के लिए कहती तो इसमें बड़ी हानि थी। यह स्थिति बड़े धर्म संकट की थी। अतः साँप छछूंदर की गति वाली कहावत धर्म संकट की स्थिति के लिए ही उपयुक्त प्रतीत होती है।

""छछूंदर रायसा'' में भी छछूंदर एक ऐसे विजातीय किन्तु शक्ति सम्पन्न सामन्त अथवा सरदार का प्रतीक होता है जो किसी गढ़ में सुरक्षित होकर रह गया था किन्तु अपनी कुटिलता की विषाक्त गन्ध से शासक वर्ग को प्रभावित करता रहता था। पर यहाँ इस रायसे के प्रारम्भ की पंक्तियों से विदित होता है कि छछूंदर कुए में गिर पड़ी उसे बाहर कौन निकाले किसकी भुजाओं में इतनी शक्ति है

""गिरी छछूंदर कूप में भयौ चहूं दिसि सोर।
जो बाहर काड़ै कुआ को है भुजबल जोर।।''

धर्मपाल नामक व्याल छछूंदर से युद्ध करने को तैयार होता है। यहाँ पर धर्मपाल साँप के स्वभाव वाले किसी व्यक्ति का प्रतीक है। छछूंदर कुएं में गिरे तो यह स्पष्ट ही है कि वह पानी में भंग जायेगी तथा यह चूहे की तरह का ही प्राणी है अतः पानी में गिरते ही शक्ति हीन हो जाता है जबकि सपं पानी में भी शक्ति सम्पन्न रहता है। इस प्रकार सपं के स्वभाव वाले किसी सामन्त द्वारा कुंए में पड़ी हुई अशक्त छछूंदर के समान किसी दूसरे सरदार परविजय पा लेने के प्रसंग पर ""छछूंदर रायसा'' तीव्र व्यंग्य है। झूठी प्रशंसा के युग में जब कविता भाजी रोटी हो गई थी ऐसे समय में इन हास्य रचनाओं के रचनाकारों द्वारा उन कवियों और कुपात्र शासकों पर कठोर व्यंग्य है।

युद्धस्थल में दो वीरो के युद्ध के साथी भी होते हैं। छछूंदर रायसे में साँप और छछूंदर के मध्य हुए युद्ध के गवाह मेंढ़क और कैंकड़े हैं। कुएं में पड़ा हुआ मेंढ़क -""कूप मूण्डूक'' विवेहीनता या सीमित ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। इस व्यंग्य रचना में भी कवि का यही दृष्टिकोण प्रतीत होता है। अर्थात् साँप और छछूंदर के स्वभाव वाले दो शासकों के इस युद्ध के साक्षी विवेक रहित या अल्पज्ञ व्यक्ति ही रहे होंगे।

छछूंदर पर विजय प्राप्त करने धर्मपाल व्याल कुंए से बाहर निकला तो सारे जहान में सह संवाद फैल गया। उस समय धर्मपाल की स्थिति काली नाग को नाथ कर यमुना से बाहर निकले कृष्ण के समान थी। रासो की पंक्तियां इस प्रकार हैं-

""धरम पाल बाहर कढ़ौ, जानी सकल जहांन।
ज्यों काली कौ नाथ के, बाहिर आयौ कान।।''

परन्तु उपर्युक्त पंक्तियों में भी विजेता के ऊपर तीक्ष्ण व्यंग्य है। छछूंदर के समान दुर्बल एंव बल वैभव रहित किसी छोटे-छोटे मोटे सामंत को विजित कर लेने पर धर्मपाल व्याल के प्रतीक व्यक्ति के किसी खुशामदी कवि द्वारा उसकी विजय का अत्यन्त अतिरंजित वर्णन किया गया होगा। यहाँ खुशामदी कवि द्वारा उसकी विजय का अत्यन्त अतिरंजित वर्णन किया गया होगा। यहाँ इस रचना में धर्मपाल को अपना धर्म पालन करने अर्थात् छछूंदर के ऊपर विजय प्राप्त करने में श्रीकृष्ण तथा छछूंदर को काली नाग की उपमा देने में रचनाकार का झूठा विरुद ढोने वाले किसी व्यक्ति के ऊपर करारा व्यंग्य है। सम्पूर्ण उक्ति अभिधा में न होकर शुद्ध व्यंजना में है।

छछूंदर रायसे के रचनाकार के जीवन वृत्त एवं उसकी जाति-पांति के विषय में बहुत प्रयास किए जाने पर भी कुछ पता नहीं चल सका। परन्तु धर्मपाल नामक कवि के कल्पित व्याल को प्रधान वंश का बली बताया जाना सुरुचि का परिचायक नहीं है। यहाँ बुन्देलखण्ड में प्रधान वंश का आशय कायस्थ जाति से ग्रहण किया जाता है, और पिछले समय में कायस्थ प्रतीक रहा है अधिकारी वर्ग का जन साधारण को अधिकारी वर्ग से सामान्यत- एक खीझ रही है। बहुत सम्भव है कि रचनाकार को राज्य शासन से कुछ विशेष चिढ़ रही हो। 

गाडर रायसा

""छछूंदर रायसा'' के पश्चात हास्य रासो क्रम में ""गाडर रायसा'' है। बुन्देली बोली में ""गाडर'' शब्द ""भेड़'' के लिये प्रयोग किया जाता है। भेड़ एक नितान्त कायर, शक्ति हीन और अहिंसक पशु होता है। तथा यह समूहगामी प्राणी भी है। भेड़ की इसी प्रवृत्ति को लेकर ""भेड़ियाधसान'' मुहावरा बना।

""गाडर रायसा'' एक व्यंग्यात्मक हास्य रचना है। रचनाकार का मूल उद्देश्य बुन्देलखण्ड के किसी बनिया स्वभाव वाले ठाकुर पर व्यंग्य करना है। प्रारम्भ से लेकर अन्त तक सम्पूर्ण कथानक व्यंग्य से पूर्ण है। ""गाडर'' किसी शक्तिहीन सामन्त का प्रतीक है, तथा बनियां निर्बल ठाकुरों का प्रतीक है, जो अपनी मि प्रशंसा के आदी हो चुके थे। ऐसे ठाकुरों को यहाँ बुन्देलखण्ड में बनिया ठाकुर कहा जाता था। जाति शूर होने का उन्हें कोरा ही दंभ था पर सचमुच वे बनिया जाति की भाँति कायर थे। इस रायसा में वैश्य जाति के जो आस्पद चुने गए हैं उनका भी एक विशेष अर्थ है, ""गाडर'' के विरुद्ध बनियों की जो फैज तैयार हुई, उसमें मोर कीसी सजगता व तीक्ष्णता वाले ""मोर'', बिलैया जैसी चालाकी वाले ""बिलेया'', नाहर जैसी शक्ति के प्रतीक ""नाहर'' तथा इसी भाँति गंधी, नगरिया आदि विशेष वर्ग के वैश्य थे। ये सभी वैश्य जातियां ठाकुरों की विशेष उपजातियों पर व्यंग्य हैं। वीरता क्षत्रियों का स्वाभाविक गुण माना जा सकता है पर नाम और जाति से भी वीरता का बाना धारण करते हुए कायरता दिखलाने वाले ठाकुर को यहाँ व्यंगय का विषय बनाया गया है।

श्री हरिमोहन लाल श्रीवास्तव इसे कोरा हास्य एवं मात्र मनोरंजन मानते हैं। इनका मत है-""हमारा तो विश्वास यही हे कि वीरता जैसे किसी भी सद्गुण पर किसी जाति-उपजाति का एकाधिकार नहीं। परन्तु वैश्यों की व्यवसायिक शांतिप्रियता का किसी अज्ञात पुराने कवि ने मखौल उड़ाने के लिये ही उनके द्वारा इस प्रकार युद्ध का रुपक रच डाला है, जो मात्र मनोरंजक के नाते क्षम्य है।''

""गाडर रायसा'' को ""मजाकिया रायसा'' कहा जाना भी उपयुक्त नहीं है, जैसा कि श्री हरिमोहन लाल जी ने लिखा है। और न यह मखौल उड़ाने के लिये लिखा गया मनोरंजन काव्य है। बुन्देलखण्ड के इतिहास में अवश्य ही ऐसी कोई घटना घटित हुई होगी, जिसमें किसी भेड़ शक्तिहीन समान्त ने बनिया जैसे निर्बल और डरपोक ठाकुरों पर आक्रमण किया हो और उन बनिया ठाकुरों ने उससे टक्कर लेने के लिए अपनी सेना इकट्ठी की हो, परंतु फिर भी पराजय हाथ लगी हो, और डाड़ चुकाना पड़ गया हो।

गाडर रायसा में बनिया ठाकुरों की वीरता एवं सेना का जो चित्रण कवि द्वारा किया गया है, वह इस प्रकार है-

""जहं कौन की है बात, उठ सेर मारे प्रात।
लीनी सवारी वेस, ओढ़ चिलता खेस।।
जुर चले सजकै सेन, कासी कहै जब वैन।
अब खबर ले अमगाइ, हुन नाउऔ पइवाइ।।''

भला बनिया ठाकुर प्रातः काल उठकर शेर मार सकता है, उपर्युक्त पंक्तियों में व्यंग्यात्मक दृष्टिकोण है। गाडर जैसे निरीह प्राणी के लिऐ ऐसे-ऐसे व्यक्तियों का सेना सजाकर जाना जो शेर मारने की शक्ति रखते हों। ऐसे लोग भी लड़ने की योजना पर घर के कोने में बैइकर काना फूसी करें। ""ठाकुर और चाकर'' सब एक स्वरुप दिखलाई पड़ते हैं। अर्थात् वैश्य वर्ग की पोषाक लगभग उस जमाने में एक सी ही हुआ करती थी। नीचे लिखी पंक्तियों कमें यह विवरण देखिये।

रासो में एक स्थान पर कवि ने बगली, कतैया, पाग या पगड़ी, तथा धोती आदि वस्रों की चर्चा भी की है। बगली व कतैया नाम का ढीलाढाला कुर्ता आमतौर पर बुन्देलखण्ड के बनियों द्वारा पहना जाता था।

""ठाकुर चाकर चीन न परें, एक रुप पनमेसुर करे।
लरबे की मसलत सब ध्रै, काना फूसी बैठे करे।।''

इस प्रकार लड़ने का कोरा दंभ रखने वाले झूठी प्रशंसा चाहने वाले कायर और सामर्यिहीन लोग ही कोने में बैठकर कानाफूसी करने वाले होते हैं। जब ये बनिया ठाकुर ""गाडर'' से युद्ध के लिए प्रस्थान करते है, तब कुंजो नाम की स्री भूमियां नामक स्थानीय देवता से प्रर्थाना करती है, कि जब साहु बनिया ठाकुर जीत कर घर आवेंगे तो गुरया को रोट चढ़ा गा-बजाकर सती की पूजा कर्रूंगी, ""आसो'' की पूजा उसारकर रख दूगी। इस प्रकार अपने गुरु के चरणों की वन्दना करके परतैया नामक वयक्ति के नायकत्व में बनिया ठाकुरों की वह सेना जब सरकती हुई ""गाडर'' की तरफ जाती है, तब तक "विघना'' भेड़िया गाडर पर हमला कर देते हैं। ""विघना'' यहाँ तीसरे किसी अधिक शक्ति सामन्त का प्रतीक है, जिसके अचानक आक्रमण से ""गाडर'' के प्रतीक सामन्त मैदान छोड़कर भाग निकलते हैं। इस स्थिति को बनिया ठाकुर अपने ऊपर गाडरों का हमला समझ बैठे और घबड़ा कर इधर-उधर भागने लगे।

""गाडर रायसा'' में इस स्थिति का वर्णन निम्न पंक्तियों में देखिए-

""सरकत चले बानियां जबै,
सरकौआं दृग मूंदे तबै।
जै लौ विघना परै बजाई,
गाडर रा भागै अकुलाई।
झपट गई भरका की गैल,
परी बानियन के दल ऐल।।''

गाडर तो विघना के डर से भाग रही थी पर बनियों के समूह में खलबली मच गई। गाडरों ने तो मनुष्य समझकर सहारे की कामना से बनिया ठाकुरों का सामीप्य पकड़ा था।

""मानस जान आसरौ लयौ।
बनियन पसर जान भगदयौ।।''

परन्तु ये बनिया ठाकुर इतने भीरु थे कि स्वयं भी इतने भयभीत हो गये कि वे कुंए में गिर पड़े और ""विघना'' के डर के से ""गाडर'' भी ऊपर से गिर पड़ी। कुएं में पड़े हुए बनिया ठाकुरों की दयनीय दशा का कवि ने बहुत ही रोचक चित्रण किया है।

""लख कासी रोवन जब लागौ,
बचौ कुआ न इनपै भागौ।
हाथ जोर जब ही चिचियाई,
आज न बा दल के हम आई।।'

उपर्युक्त पंथ्कतयों में बनिया ठाकुर गाडर से प्रार्थना करता है कि मुझे बचने दो मैं उस दल का नहीं हूं। यहाँ उस दल से अभिप्राय गाडर से युद्ध करने आई बनिया ठाकुरों की सेना से हैं।

गाडर कुंए के जल में स्वयं भयभीत होकर तैर रही थी और बनिया ठाकुर करुणा कर के उसके पैरों पर गिर रहा था तभी-

""चरन छुवत गाडर सिर चढ़ी,
बिनवत करुना करके बड़ी।।''

गाडर बनिया ठाकुर के सिर पर च्ढ़गई और वह अपने पुत्र की सौगन्ध खाकर पुनः कहने लगा कि मैं उस दल का नहीं हूं। इस पंक्तियों में कायरता की पराकाष्ठा है। वह "गाडर राय' से दण्ड भरने के लिए कहता है। तब गड़रिया आकर रस्सा का फँदा बनाकर गाडर को कुंए से निकाल लेता है तथा बनिया ठाकुरों को निकाल देता है। बहुत पुराने समय से ही बुन्देल खण्ड के राज्यों में दण्ड भरने या चौथ वसूल करने की प्रथा विद्यमान थी। पराजित शासक विजेता राजा को चौथ देना स्वीकार कर सन्धि कर लेता था और एक-दूसरे के सहयोगी हो जाते थे। "गाडर रायसा' में भी कवि ने ऐसा ही वर्णन उपस्थिति किया है।
कवि के द्वारा दिया गया विवरण निम्न प्रकार है-

""घर तै ले रुपया जब दये,
मिला वेग परताई लये।
न मिलक सबहीविधि करी,
हिए भक्ति गाडर की परी,
करी खातरी धिक जब, बसौ खुसी सों जाइ।
पटी हमारी में बसौ, बाखर लेउ बनाय।।

"गाडर रायसा' विशुद्ध बुन्देली बोली में लिखा गया है। लिपिकारों ने अज्ञातवश इस रचना के कुछ शब्दों में मनमाने हेर फेर कर लिए हैं, जिनकी पाठ शुद्धि आवश्यक है। उदाहरण के लिए "दगली' शब्द अशुद्ध है, इसके स्थान पर "बगलीद्ध शब्द होने चाहिए, जिसका अर्थ एक वस्र विशेष से है, जो पुराने लोग "कतैया' नाम के वस्र की तरह प्रयोग करते थे। इसी तरह "दहेड़ा' का "दहोंड़ा' गहरा भरा हुआ पानी का स्थान, "बाजियों का "बानियों' बनियो का बहुवचन क्योंकि बुन्देली में "बाजियों' कोई शब्द नहीं है, होना चाहिए। एक शब्द "धूं का' जिसका अर्थ श्री हरिमोहन लाल श्रीवास्तव ने "धक्का' से लिया है ,जबकि यह शब्द विशुद्ध बुन्देली की बोली का है और इसका अर्थ एक "जोरदार आवाज' है, जो गड़रियो लोग प्राय- भेड़ों को हांकने के लिए प्रयोग करते हैं। ठेठ बुन्देली के कुछ शब्द सरसता और माधुर्य के साथ कवि द्वारा ओचित्यपूर्ण ढंग से प्रयुक्त किए हैं, जैसे-"खेसन के टूंका हो गए' अर्थात् "खेस७ नामक वस्रों के टुकड़े-टुकड़े हो गए। "खेस' बिल्कुल ग्रामीण बोली का शब्द हेफ इसी प्रकार "सरकौआ' सरकते हुए, किंरगचले' चल दिए, "भरका' बीहड़ में टीलों के बीच की ऊबड़ खाबड़ ऊँची नीची जगह, "आसरौ' सहारा, "पसर आदि शब्द हैं, जो बड़ी स्वाभाविका के साथ प्रयुक्त हुए हैं।

घूस रायसा

गाडर रायसा के पश्चात् घूस रायसा भी बुन्देली की एक व्यंग्य कृति ही है। इसके रचनाकार के विषय में कुछ भी विवरण उपलब्ध नहीं हो सका है, पर रासो की एक पंक्ति ""को बरनै पृथीराज कहि, फिरकै निकसी घूंस'' के अनुसार "पृथीराज' को इसका कवि माना जाना चाहिए। यह किसी कवि द्वारा धारण किया हुआ कलिपत नाम भी हो सकता है। इस सम्बन्ध में श्री हरिमोहन लाल श्रीवास्तव का मत निम्नानुसार है-""यह "घूंस रायसा' "पिछले समय में लिखे गए "गाडर रायसा' के कवि की एक अन्य रचना है, जिसमें कुंजों नामक बुन्देलीखण्डी स्री और कासी नामक सेठ के प्रतापी पुत्र "परतैंया' के शौर्य का ही वर्णन है, इस कवि का असली नाम तो हमें विदित नहीं हो सका, परन्तु उसने "रासो' काव्य को मजाक का विषय बनाते हुए "पृथीराज' का कल्पित नाम भी धारण कर रखा था।'' परन्तु "घूस रायसा' के कवि की अन्य रचना होने में सन्देह है, क्योंकि एक तो गाडर रायसा में कवि के कल्पित नाम "पृथीराज' का कहीं उल्लेख नहीं पाया जाता, दूसरे भाषा एवं छन्द शैली में भी दोना#े#ं रचनाओं में पर्याप्त अन्तर है। गाडर रायसा तथा घूस रायसा एक ही काल में लिखी गई रचनायें तो हो सकती हैं, पर यह दोनों एक ही कवि की दो रचनायें नहीं सकतीं। दोनों कृतियों में पात्रों के नाम के साम्य के कारण ही श्री हरिमोहन लाल ने इन्हें एक ही कवि के द्वारा लिखी गई माना है पर एक कवि के द्वारा चुने गए नामों को किसी अन्य कवि द्वारा भी तो अपनाया जाना सम्भव है।
घूस रायसा भी छोटी रचना ही है। इसमें कुल ३१ छन्द है। घूस चूहे के आकार का एक बड़ा जन्तु होता है। घूस के विकराल स्वरुप व उसके उत्पातों का वर्णना करके, कुंजोंनाम की स्री और परताईं नामक वेश्य का जो कथानक इसके साथ जोड़ा गया है, उसमें हास्य की अपेक्षा व्यंग्य ही अधिक है। उस युग में जबकि हर आम व खास में युद्ध व युद्ध की चर्चायें मानव जीवन का प्रमुख अंग थीं, प्रत्येक सामन्त, सरदार अथवा क्षत्रिय को युद्ध लड़ने ही पड़ते थे। युद्धों में मारकाट की भयंकरता कायरों को युद्ध क्षेत्र से भागने के लिए विवश कर देती थी, क्योंकि सभी क्षत्रिय शूप सूपत नहीं होते थे। बहुत से कायर सरदारों के युद्ध छोड़कर भागने के उदाहरण इतिहास में मिल जायेंगे। घूस रायसा में परतैयां को ऐसे ही किसी भगोड़े सरदार का प्रतीक माना गया है, जो शत्रु का सामना न कर पीठ देकर भागा हो।

रायसे में कवि ने कुंजों के द्वारा अपने पति की वीरता पर किए गए व्यंग्य को निम्न प्रकार चित्रित किया है-

""पिया अधिक सुकुमार,
करौ घूंस सौं रार जिन।
खाल डार है फार,
तुम रोवत लम्पा लगे।।''

उपर्युक्त पंक्तियों में कायर क्षत्रियत्व पर तीव्र व्यंगय है। भारी-भारी हथियार धारण करने वाले तथा दुर्दान्त शत्रुओं का सामना करने वाले क्षत्रियों और सरदारों को कोमलता नहीं कठोरता शोभा देती है। परतांई की तरह वे लम्पा लगने पर रोते नहीं हैं। हथियारों के व खाकर वे मुस्कराते हैं पर कुंजो के सामने निरीह परताई भी अपनी बाहदुरी का सिक्का जमाना चाहता है। ऐसे लोगों को घर का शेर कहते हैं। अपने घर में बैठकर दुनियाँ को जीतने की योजनायें गढ़ेंगे, पर मोर्चे पर जाने में इनकी पिंडलियाँ काँपती हैं। ऐसे लोग अपने घर की स्रियों पर ही रोब जमा लेते हैं। घूस रायसा में कवि ने इस स्थिति को इस प्रकार स्पष्ट किया है-

""सुन दौकरन नारी सौ लगौ,
कबै देख संग्राम में भगौा''

उपर्युक्त उदाहरण की दूसरी पंक्ति से यह स्पष्ट होता हे कि परताई अपनी पत्नी पर रौब जमाता हुआ कहता है कि संग्राम को देखकर मैं कब भागा हूँ यहाँ अप्रत्यक्ष रुप से युद्ध से भागने की स्थिति पर ही व्यंग्य है।

घूंस रायसे में युद्ध का वर्णन भी बड़ा विचित्र एवं व्यंग्यपूर्ण है। जब "दौआ' एक विशिष्ट व्यक्ति या मुखिया, जो प्राययः अहीर या यादव जाति से सम्बन्ध रखता है से पुकार की गई, तो तलवारें ले लेकर घूस को मारने के लिए मर्द वीर पुरुष दौड़ पड़े। बड़े-बड़े मंच बनाकर उन पर योद्धा लोग डट गए और पनालों की राह रोकरकर बैठ गए। इसी समय दीपक बुझ गया और घूसों का "घेरा प् गया, अर्थात् घूसों ने निकल कर हमला कर दिया। परिणाम यह हुआ कि सारे योद्धा एक-दूसरे को रगड़ने और कुचलने लगे। वे सब लोग आपस में ही लड़ बैठे। यहाँ पर व्यंग्यात्मक दृष्टिकोण यह है कि जब विवेक का दिया दीपक बुझ गया तो वे सब योद्धा घर में आकर आपस में ही लड़ मरे। रायसे में उल्लिखित पंक्तियाँ निम्नानुसार हैं-

"दिया बुझौ तिहि बार''
""आपसु ही में लर मरे,
हम घर ही में आइ।''
और आगे कवि लिखता है-
""राइकपरिया झूट,
कहा करतार बनाई।
आपुस ही में लर मरे,
मूंढ़ बानि में मूंस।''

उपर्युक्त पंक्तियों में किन्हीं सामन्तों, सरदारों आदि की विवेक शून्यता पर स्पष्ट व्यंग्य है।

रायसो के अन्तिम वर्णन में दिखलाया गया है कि दोनों पक्षों में सुलह हो गई। घूस कृपाल हो गई। उसने साहु को पगड़ी दी। जमीन दी और अभय किया। सहुआइन मीदिन को रेशमी लंहगा तथा चुनरी दी।

घूस रायसे में कवि को भाषा में पर्याप्त सफलता मिली है। कुछ बुन्देली के ग्रामीण माधुर्य युक्त सम्बोधन बड़ी स्वाभाविकता से प्रयुक्त किए गए हैं- जैसे मोदिन साहु अर्थांत वैश्या की पत्नी लांगा लहंगा गदवद शीघ्रता पूर्वक, चियांइ चिल्लाये आदि। इसी प्रकार कुछ पंक्तियों में भी अर्थवत्ता एवं भाषा सौन्दर्य देखा जा सकता है। जैसे -

 . ""तुम रोवत लंपा लगे।''
२. ""मेरा परे जुझार।''
३. ""मसडद्या मैड़ी भई।'' आदि

निष्कर्ष रुप में यह कहा जा सकता है कि हास्य व्यंग्य काव्य की दृष्टि से छछूंदर रायसा, गाडर रायसा तथा घूंस रायसा का महत्वपूर्ण स्थान है।

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Courtesy: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र