बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - एक ऐतिहासिक बुढ़वामंगल (Ek Aitihasik Budhava Mangal)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

एक ऐतिहासिक बुढ़वामंगल (Ek Aitihasik Budhava Mangal)

सबरे राजा जुरे चरखारी, बुढ़वा मंगल कीन।
पुन सब बैठ जाय गढ़ियन में, पारीछत को मुहरा दीन।।

लोकगीत की इन कड़ियों को गुनगुनाता मैं जितना सोचता हूँ, उतना ही गहरे उतरता जाता हूँ, इतिहास की उस ठोस तलहटी तक, जिस से सच्चाई का सोता फूटता है। मुश्किल यह है कि इधर-उधरऊ पर से आने वाली तथाकथित प्रामाणिक धारायें उसे इतनेऊ पर तक भर देती हैं कि गोताखोर चाहे जितना कुशल हो, उसे खोज नहीं पाता। फिर बीच से लौटकर वह इतने प्रामाणिक दावे पेश करता है कि उनके घटाटोप में सच्चाई गुम हो जाती है। इस भोगी अनुभूति को बावजूद मेरा अपना कोई दावा नहीं है, फिर भी आपके सामने एक ऐसी घटना का रेखांकन उचित समझता हूँ, जो बार-बार मेरे दिमाग में घुमड़ती है और बाहर आने को मचलती है, और न कहूँ, तो कौंचती है।

संवत् 1893 वि. की होली के बाद पहले मंगल की वासंती संध्या पर चरखारी रियासत का बुढ़वामंगल। वैसे तो बुढ़वामंगल बुंदेलखंड अंचल में लोकप्रचलित नहीं है, पर उस दिन बहुत चहल-पहल थी। 42-43 राज्यों के नरेश अपने ताम-झाम के साथ आये थे और उन्हें देखने की उत्सुकता आम आदमी को कितनी सीमा तक होती है, असका अंदाज उस समय की जनता की मानसिकता में पैठकर ही लगाया जा सकता है। फिर एक राजा का वैभव-प्रदर्शन ही उनके लिए कौतूहल का विषय होता है, पर इस बार का जमावड़ा ही विचित्र था। हर समझदार के मन में एक प्रश्न बार-बार कौंधता था कि सभी राज्यों के गदूदीधारी क्योंइ कट्ठे हो रहे हैं। जैतपुर, सरीला, जिगनी, ढुरवई, बिजना, चिरगाँव, ओरछा, छतरपुर, पन्ना, बिजावर, शाहगढ़, बानपुर, दतिया, समथर, अजयगढ़, गौरिहार, कालिंजर आदि अनेक राज्यों की कोई-न-कोई खासियत चर्चा का मुद्दा बनकर उभर आती थी।

संधियों और सनदों का बाजार

1802-03 ई. की ऐतीहासिक 'बेसिन संधि' के बाद अंग्रेजों ने बुंदेलखंड पर दबाव डालकर अनेक राज्यों से संधियाँ की थीं। जब मराठों ने इस भू-भाग को 'सोने की नदी' और 'सामरिक महत्त्व' का स्थल माना था (पेशवा बालाजी बाजीराव द्वारा बुंदेलखंड से लिखित 22 दिसम्बर, 1742 ई. का पत्र), तब अंग्रेजों की पैनी आँख से वह कैसे बचता। उन्होंने अपनी एक खास ढंग की कूटनीति और अवसरवादिता से 1812 ई. तक बड़े-बड़े राज्यों जैसै ओरछा, पन्ना, दतिया आदि के साथ संधियाँ कर लीं और छोटे-छोटे राज्यों को सनद लेने के लिए मजबूर कर दिया। बहरहाल, 1823 ई. तक सनदों का बाजार गर्म रहा। एक तरफ हर राजा सनद पाने की कोशिश करता था, तो दूसरी तरफ उसके कंधों पर रखा अंग्रेजी शासन का जुआ उसे गड़ता था।इ सीलिए खेतसिंह, भीम दऊआ, गोटई दौआ, परसराम, कम्मोदसिंह, राजाराम, लछमन दौआ, दीवान गोपाल सिंह, दरयाव सिंह चौबे आदि ने समय-समय पर अंग्रेजों से टक्कर लेना उचित समझा। इस तरह की अंदरूनी समझ तो बुंदेलखंड के हर राजा में थी, पर समस्या थी-एक जुट होने की और यही टेढ़ी खीर थी।

कवियों की प्रेरणा

बुंदेलखंड का कविइ स रहस्य को अच्छी तरह समझता था। यह सही है कि वह किसी प्रेम-कथा या श्रृंगारिक वर्णन अथवा वीरता की प्रशस्ति से राजा को प्रसन्न करने का अथक प्रयास करता था, पर यह भी सच है कि युग के अनुरूप कवि-कर्म का निर्वाह भी उसने किया था। यह सोचने की बात है कि राजा को खुश किये बिना इस धर्म का पालन संभव नहीं था। चरखारी-नरेश रतनसिंह के दरबारी कवि बिहारी लाल ब्राहृभट्ट बहुत मुँहलगे थे, इसी कारण संवत् 1891 वि. में बुंदेलखंड के कुछ राजाओं ने बनारस के बुढ़वामंगल में भाग लिया था। गंगाजी की पवित्र धारा की साक्ष्य में सजी-धजी नौका के भीतर क्या निर्णय हुआ, उसका विवरण तो नहीं मिलता, किंतु यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि चरखारी का बुढ़वामंगल उसी का अंकुर था। नरेंद्र-मंडल के सभापति बने थे-जैतपुर-नरेश महाराज पारीछत, जिससे इतना स्पष्ट है कि उनमें एकता और देशभक्ति का जोश लहरें मार रहा था।

महाराज पारीछत को भी किसी कवि से प्रेरणा मिली थी। जैतपुर के प्रसिद्ध कवि ठाकुर तो उस समय मौजूद न थे, पर उनके संबंध में एक जनश्रुति लोकमुख में जीवित रही है। कहा जाता है कि बाँदा के नवाब हिम्मतबहादुर ने पारीछत को बाँदा बुलवाया और वे जैतपुर से चल दिये। जब कवि ठाकुर को मालूम हुआ, तब वे उनके बंदी होने या मारे जाने की कल्पना से दुखी होकर उनके पीछे-पीछे गए। श्रीनगर (जिला हमीरपुर) में उन्हें पाकर कवि ने चेतावनी दी-

कैसे सुचित भये निकसौ बिलसौ जु हँसौ सबसों गलबाँही।
जे छल छुद्रन की छलता छल ताकतीं है हित सों अवगाही।
'ठाकुर' ते जुर येक भर्इं परपंच कछू रचहैं ब्राज माँही।
हाल चबाइन कौ दहचाल सौ लाल तुमै जो दिखात कै नाहीं।।

ठाकुर कवि ताड़ गए थे कि हिम्मत बहादुर और अंग्रेजों ने मिलकर यह षड़यंत्र रचा है, अतएव उन्होंने अन्योक्ति द्वारा पारीछत को संकेत कर उन्हें बांदा जाने से रोक लिया था। यह घटना सच हो या कल्पित, पर इतना सत्य है कि तत्कालीन कवि व्यंजना में सबकुछ कह देते थे। इससे यह भी सिद्ध है कि 19वीं शती के श्रृंगारी कवि तक देशभक्ति की प्रेरणा देते थे और इसी तरह की प्रेरक मनःस्थिति से प्रभावित महाराज पारीछत भी थे।

आजादी का संकल्प

बुढ़वामंगल की संगोष्ठी का लिखित विवरण प्राप्त नहीं है, लेकिन इस संबंध में दो जनश्रुतियाँ आज तक प्रचलित हैं। एक के अनुसार नरेन्द्र-मंडल द्वारा पहले बुंदेलखंड की और बाद में भारत की स्वतंत्रता के लिए क्रांति का प्रस्ताव पारित हुआ था, जिसके सूत्रधार बनाये गये थे पारीछत। सबने बारी-बारी से शपथ लेकर संकल्प किया था कि वे पारीछत के नेतृत्व में अंग्रेजों को देश से निकालकर ही दम लेंगे। दूसरी लोकश्रुति में चरखारी के राजा रतनसिंह का वि·ाासघात झलकता है, क्योंकि उन्होंने छाती में लवा (पक्षी) छिपाकर कहा था कि जब तक यह जान बाकी है, तब तक वे आजादी के लिए
लड़ेंगे। इन जनश्रुतियों की प्रामाणिकता इतिहास से पुष्ट नहीं होती, परंतु लोककवि द्विज किशोर के हस्तलिखित ग्रंथ-'पारीछत कौ कटक' की एक पंक्ति है-'सब राजा दगा दै गये, नृप लड़े अकेले', जिससे स्पष्ट है कि महाराज पारीछत का साथ देने का संकल्प बुंदेलखंड के सभी राजाओं ने किया था।
म्र् इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करणः 1995

क्रांति की चैयारी

तीन-चार वर्षों तक चुपचाप तैयारी, किसी को खटका तक नहीं। सेना की भरती होती रही, गढ़ी-गढ़ औक किले में मोर्चा बनते रहे, हथयार ढलते रहे और मंत्र चलते रहे। दिन में अस्त्र-शस्त्र और मल्लविद्या के अखाड़े जमते और रात में काव्य-संगीत एवं नृत्य के। कवियों की समाजें जुड़ी और धीरे-धीरे लोककवि और लोकगायक हरबोले बनकर गाँव-गाँव घूमने लगे। जन-जन में शौर्य और उत्साह के स्वर फूँककर पिरंगियों से संघर्ष की प्रेरणा देने लगे। महाराज पारीछत अपने राज्य की प्रजा में स्वतंत्रता की अलख जगाने निकल पड़े और उन्होंने उन स्थानों का भी भ्रमण किया, जो मराठों
द्वारा अंग्रेजों को सौंप दिये गए थे (1802 ई. की पेशवा से अंग्रेजों की संधि)

अंग्रेजों को गुप्तचरों से सैनिक-तैयारी की सूचना कुछ देर से मिली, लेकिन तुरंत ही कैथा में एक छावनी बनी। कैथा वर्मा नदी के पास राठ से जैतपुर जाने वाले मार्ग पर है और छावनी के अवशेष औज भी देखे जा सकते हैं। पारीछत पर दबाव डालने के लिए मेजर स्लीमैन ने उनके सामने सहायक संधि का प्रस्ताव रखा, जिसके अनुसार राज्य की रक्षा का भार अंग्रेजों पर होता था और उसके बदले अंग्रेज सेना का व्यय राज्य को चुकाना पड़ता था। इस गुलामी को क्रांति के सपनों में जीने वाला कैसे स्वीकारता । वह तो अपने संकल्प में जुटा रहा, पर अंग्रेजों ने पनवाड़ी पर आक्रमण कर उसे छेड़ा और फलस्वरूप जैतपुर और चरखारी की सम्मिलित सेना ने उन्हें पराजित कर खदे ड़ दिया। अंग्रेजों की नीति कली को खौंट कर नष्ट करना थी, जिससे क्रांति का शतदल अपनी सौरभ न बिखेरे और मँडराते भैरि उपवन की बीरानी से डर कर चुपचाप बैठे रहें। इसीलिए जैतपुर में ही रची गयी युद्ध की रंगभूमि, जिससे क्रांति का मुखिया सबसे पहले सबक सीखे और क्रांति की द्रौपदी का चीरहरण हो सके।

जैतपुर पर चढ़ाई

स्लीमैन नेइ लाहाबाद से और सेना बुलाकर कैथां से प्रयाण किया और लाहौर जाती सेना नौगाँव छावनी में रोक उसे पूर्व की तरफ से हमला करने का आदेश दिया। महाराज पारीछत ने सभी राजाओं को संदेश भेजकर बिलगाँव में मोर्चा जमाया, ताकि उन सबके आने पर क्रांति का बिगुल बजाया जा सके। तब तक स्लीमैन को रोकना जरूरी थी। वर्मा नदी के किनारे बिलगाँव का मैदान चुना गया और उत्तर की तरफ मार करने के लिए रुईभरी गाँठों की दीवार खड़ी की गयी। दूसरी कतार थी रेतभरे बोरों की। पुरैनी, बिलगाँव, सिवनी, मुस्करा और पास-पड़ोस के गाँवों के जवान मरने-मारने को इकट्ठे हो गए। पुरैनी और बिलगाँव में उपलब्ध जनश्रुतियों से पता चलता है कि जैतपुर के गोलंदाजों के सामने अंग्रेज सेना न ठहर सकी। पारीछत ने अपने सैनिकों से ललकार कर कहा था-"भगवान् के घर से जिकी चिठियाँ न फटी हूहैं , उनकौ बार न बाँको हूहै। जवानो, अपनी धरती के लानें मर जैहौ, तौ सीदे सरगै जैहौ। ईसें मारो तौ फिरंगियन खाँ खरेद कें।" सं. 1808 के चैत में घमासान युद्ध और अंग्रेज सेना की पराजय आज भी वर्मा की लहरों में अभिलिखित है। सिर्फ समस्या है उसे पढ़ने की।

माहिलों की करामात

विजय की खुशी में डूबा जैतपुर और करारी हार से चौकन्ने अंग्रेज। स्लीमैन वेष बदलकर रियासत के दीवान से मिला और उसे जागीर के प्रलोभन का टुकड़ा फेंका। फिर शब्दबेधी गोलंदाज के स्वर्णमाल की पहली किश्त। दोनों के गले में सोने की जंजीर और राज्य के सब भेद बाहर। फुर गया अंग्रेजों का मंत्र और रातों-रात घिर गया जैतपुर का कठिन मवास। लोकगायक ललकार उठा-"जैतापुर कठिन मुहीम, फिरंगी धोके ना रइयो...। "

लोकगीत की आवाज कूटनीति के बीहड़ जंगल में फँस गई। दीवान ने पारीछत से मंत्र किया-"महाराज, सब राजा सुख की नींद लै रये, कोऊ खाँ का परी कै जैतपुर में का हो रओ। देव जू सें जेई बिनती है कै फिरंगिन से अकेलें पार नई पा सकत। हुकम होय तौ बात करी जाय।" पारीछत ने उसे डाँटकर भगाया, पर दीवान तो प् ाढ़ा-पढ़ाया दूत था।

बोला-"देव जू, मौपे भरोसो नई होत, तौ महाराज चरखारी खाँ फिर सें कहवा दई जाय।" चरखारी-नरेश रतनसिंह और उनकी सेना की कोई खबर नहीं थी, पारीछत ने स्वयं जाने का फैसला सुना दिया और दीवान की आँखें चमक उठीं। इधर पारीछत वेष बदलकर चरखारी पहुँचे, उधर दीवान स्लीमैन के पास। सारा नाटक पर्दे के पीछे खेला जा रहा था,
लेकिन सूत्रधार का कोई पता न लगा।

चरखारी में महाराज की आवभगत, स्वागत-सम्मान और आ·ाासनों की पुष्पमालाएँ। दरबार लगा, मंत्र हुए और फरमान निकले। एक दिन लग गया, लेकिन सेना की कोई हलचल नहीं। कका जू खाली हाथ लौटे, जबकि भतीजा झोली भरे खड़ा रहा। उधर दीवान जू के इशारे पर तोपों के गोले जैतपुर पर बरसने लगे। माहिलों से यह धरती कभी सूनी नहीं रही, उनके चमत्कार इतिहास के नामी अध्याय बन गए। दरअसलइ स देश के इतिहास को मोड़ दे ने वाले माहिल ही थे।

जैतपुर का रनखेत

अंग्रेजों ने दुर्ग की रक्षा-दीवारों और महल की प्राचीरों पर जबर्दस्त हमले किए। युद्ध का संचालन कर रही थी महारानी, पर दीवान का जादुई हाथ सेनानायक और गोलंदाज पर था। धीरे-धीरे अंग्रेजी सेना निकट आ गई और उन्होंने किले का एक बुर्ज तथा उससे जुड़ी दीवार ढहा दिए। लोकश्रुति के अनुसार वह बुर्ज और प्राचीर आज भी पश्चिम की तरफ मध्य में, जहाँ से नगरवासी बेलाताल सरोवर में जाते हैं, विनष्ट और भूमिसात् स्थिति में पड़े हैं। कहा जाता है कि पारीछत युद्ध की पराकाष्ठा के समय लौटे थे और उन्होंने किले से नीचे उतरकर फिरंगियों से लड़ने का आदेश दिया था। यह भी लोकप्रचलित है कि पारीछत ने ऐसी मार-काट मचा दी कि अंग्रेजों को भागना पड़ा। एक लोकगीत में युद्ध का वर्णन मिलता है-

पारीछत बड़े महाराज, किले के लानें जोर भँजाई राजा नें।। टेक।।
चरखारी मंगल रची, सब राजा लये बुलाय।
पारीछत मुजरा करे, राजा रये मुख जोर।।
गुर्जन गुर्जन रोई पतुरिया, गजमाला रोई सबास।
ठाँड़ी बिसूरे मानिक चौक में, कोउ नईयाँ पीठ रनबास।।
किले पार खाई खुदी, दोरें हते मसान।।
भैंसासुर छिड़ियाँ थपे, दरवाजें पवन हनुमान।।
कै सूरज गाहन परे, कै नगर मचाई हूल।
कोउ ऐसो दानो पजो, सूरज भये अलोप।।
ना सूरज गाहन परे, ना नगर में मच गई हूल।
महाराजा उतरे किले सें, सूरज भयेर अलोप ।। 5 ।।
पैली न्याँव धँधवा भई, दूजी री कछारन माँह।
तीजी मानिक चौक में, जहँ जंग नची तलवार।। 6 ।।
अरे बावनी में जोर भँजा लई राजा नें।।

लोकगीत गवाह है कि चरखारी में बुढ़वामंगल हुआ था और उसके बाद जैतपुर का युद्ध, जिसमें किले के लिए राजा पारीछत ने सारी शक्ति लगा दी थी। दूसरे छंद से जाहिर है कि एक समय गुर्ज में नाचने वाली नर्तकी गुर्ज, गजमाला और मानिक चौक में रोती हुई महसूस करती थी कि रनवास (रानियों का अंतःपुर) का रक्षक कोई नहीं है, केवल किले की खाई है और द्वार पर मसान, भैंसासुर और पवनगति वाले हनुमान थपे हैं। लेकिन पारीछत के आने पर सेना के प्रयाण से सूर्य का प्रकाश विलुप्त हो जाता है और धँधवा, कछारों तथा मानिक चौक में भयंकर युद्ध होता है, जिनमें राजा पारीछत बावनी (52 गाँव की जागीर) में अपने बल पर विजयी होते हैं।

इतिहास वि·ाास करे या न करे, पर यह लोकगीत प्रस्तर अभिलेख से भी अधिक कीमती है, क्योंकि उसी समय से वह लोकप्रचलित है (बाद में रचने के लिए किसे पड़ी थी ?)। दूसरे अभिलेख तो राजा-महाराजाओं द्वारा गढ़े गए हैं, इसलिए उन्हीं के पक्षधर हो सकते हैं, जबकि लोकगीत लोककंठ में बसी लोक की आवाज है। लोककवि राजाश्रित चारण भी नहीं है, जो सिर्फ राजा की प्रशस्ति को अपनाकर लिखे। वह तो लोक का इतिहास लिखता है, इतिहास उसे माने या न माने।

एक लोकश्रुति और लोकगीत से यह पता चलता है कि पारीछत ने यह विजय बल्लमों (भालों) और बड़गैनों (एक प्रकार की बंदूक) से प्राप्त की थी। 'जैतापुर बल्लम टेरी मारी, जैतापुर बल्लम टेर मारी' गीत पारीछत की वीरता का साक्ष्य देता है।इ तना ही नहीं, कई लोकोक्तियाँ और लोकगीत उनके दर-दर मारे फिरने की कथा भी कहते हैं, जो लोक और इतिहास का कड़वा सच है।

बगौरा का डँगाई युद्ध

जैतपुर की जीत की रात खामोशी में कट गई। राजा पारीछत को माहिली मंत्र का पता चल चुका था और साथ में अपनी सही हैसियत का। इसलिए अंधकार का लबादा ओढ़े चुने हुए वीर बगौरा की डाँग की तरफ रेंग गए और दूसरी तरफ चला रनिवास का काफिला, अपने सैनिक दल से घिरा हुआ। अंग्रेजों को जैसे ही दुर्ग सूना लगा, उन्होंने तुरंत उस पर अधिकार कर लिया। यूनियन जैक फहराने लगा और प्रजा की लूट का इशारा मिल गया। स्लीमैन ने फौज का एक दस्ता महारानी के पीछे भेजा और एक महाराज के। दीवान और गोलंदाज को मौत का पुरस्कार मिला, ताकि वे इतिहास को कलंकित न करें। उजला इतिहास गतिशील हुआ, कुछ छुटपुट लड़ाइयों में। पहली लड़ाई हुई ज्योराहा के पास बुकराखेरे में, जहाँ रानी के साथ झौमर के जागीरदार बहादुरसिंह भी लड़े थे। अंग्रेजी सेना बुरी तरह पराजित होकर जैतपुर लौटी, रानी के शौर्य की गाथा कहती हुई। दू सरी हुई बारीगढ़ में और वहाँ भी अंग्रेज हारे जबकि तीसरी हुई झौमर में, जहाँ बहादुरसिंह के बलिदान ने रानी को जंगल की तरफ भागने के लिए मजबूर कर दिया। इधर बगौरा की डाँग (जंगल) में पारीछत ने युद्ध की तैयारी की, उधर अंग्रेज भी फौज लेकर चढ़ आए। कई युद्ध हुए, क्योंकि पारीछत गुरिल्ला या छापामार हमला का सहारा ले रहे ते। लाहौर को जाने वाली फौज भी नौगाँव से चलकर डाँग में प्रवेश कर चुकी थी। कई बार राजा जीते, कई बार हारे। कहाँ तक अकेले जूझते अखिरकार कुछ  साथियों के सहित अदृश्य हो गए।

किशोर कवि की गवाही

बगौरा के युद्ध का वर्णन न तो किसी इतिहास-ग्रंथ में है और न किसी लेख में। गवाह है, द्विज किशोर की लोककाव्य की एक विधा-सैर में लिखी 'पारीछत कौ कटक' काव्य-रचना, जो हस्तलिखित रूप में इतिहास की अदालत में खड़ी है-न्याय पाने के लिए ललकारती हुई। उसकी गवाही के कुछ चुने हुए अंश प्रस्तुत हैं-

1. कर कूँच जैतपुर मैं बगौरा पै मेले।
चौगान पकर गये मंत्र अच्छौ खेले।
बगसीस भई ज्वानन खाँ पगड़ी सेले।
सब राजा दगा दै गये नृप लड़े अकेले।।
2. एक कोद अरजंट गओ एक कोट जरनैल।
डाँग बगौरा की घनी भागत मिलै न गैल।।
नृप पारीछत के लरे गओ निस्चर कौ तेज।
जात हतो लाहौर खाँ अटक रहो अंगरेज।।
पैल बगौरा में राजा की भई फतै।
3. सब राजा रानी भये, पर पारीछत भूप।
जात हती हिंदुवान की, राखो सब कौ रूप।।
4. काऊ नैं सैर भाखे काऊ नें लावनी।
अब के हल्ला में फुँकी जात छावनी।।
दो मारे कवि तान बिगुल बाँसुरी वालौ।]

पहले उदाहरण में बगौरा में राजा के आने और मैदान चुनकर युद्ध की तैयारी का संकेत है, तो दूसरे में उनकी विजय तथा अंग्रेंजों को खदेड़ने का। तीसरे में देश की आन-बान सुरक्षित रखने से पारीछत की राष्ट्रीय-चेतना और देशभक्ति का पक्ष मुखर होता है और चौथे में राष्ट्रीय लोककाव्य-धारा का। लोककविता राष्ट्रीय-चेतना की मुखर व्यंजना में कभी पीछे नहीं रही, भले ही परिनिष्ठित काव्य हिचका हो। इसी तरह लोककवि संघर्ष और युद्ध के मा ैके पर आगे आया है और कभी तो उसकी कविता से छावनी फुँकी है और कभी उसके हाथों के कौशल से।

दर-दर भटकती क्रांति

आजादी का परिंदा गुलामी के पिंजड़े में रहना कैसे पसंद करता ! उसने पहाड़ों और जंगलों की खाक छानना बेहतर समझा। राजा और रानी, दोनों खानाबदोशों की तरह एक जगह से दूसरी जगह फिरते रहे। स्लीमैन ने घोषणा कर दी थी कि जहाँ पारीछत मिलेंगे, वह राज्य अंग्रेजी राज्य में शामिल कर लिया जाएगा। इस वजह से सभी रियासतों में भय व्याप्त था, पर प्रजा ने उनकी कई मौकों पर मदद की। राजा-रानी को बमीठा में मिलवा दिया और राजगढ़ के जंगल में रहवास का प्रबंध कर दिया। गर्रौली के जागीरदार गोपाल सिंह भी विद्रोही रहे थे, इसलिए उनके पौत्र पारीछत में भी क्रांति के अंकुर थे। गर्रौली के पारीछत ने क्रांतिकारी पारीछत की मुसीबतें देखकर मदद की। जंगल को अंग्रेज ी सेना ने घेर लिया, पर उन्होंने आगे भढ़कर कप्तान हडसन से कहा कि उन्हें गर्रौली के पारीछत से धोखा हुआ है। पर हडसन वापिस न जाकर फौज को सतर्क किये रहा और अंत में जैतपुर की टुकड़ी से युद्ध हुआ, जिसमें हडसन मौत के घाट उतार दिये गये। उनकी सुरई (स्मारक) भी वहाँ बनी हुई है। पारीछत अनेक स्थानों में रुकते हुए चरखारी पहुँचे और राजा रतनसिंह से निवेदन किया कि अंग्रेजों के कृपापात्र होने से उन्हें (चरखारी-नरेश) कोई आँच न आएगी, अगर वे अपनी काकी को रनिवास में बुला लें। असल में वे रानी के कष्टों से दुखी थे और उन्हें सुरक्षा में रखकर स्वच्छंद होना चाहते थे। बातचीत चल ही रही थी कि किले से 11 तोपों की सलामी दी गई। पारीछत चौंके, लेकिन रतनसिंह बोले-"काका जू की अवाई होबै और जो कैसें हो सकत कै सलामी न दई जाए ! " पारीछत ने उत्तर दिया-"कका जू खाँ पकड़बे इसारौ दैबे को बंदोबस्त खूब करो, फिर कभऊँ भैंटक्वार हूहै।" पारीछत चले आए और सब लोग आलीपुरा के पास जोरन के महलों में रहने लगे। महारानी महलों में थोड़े से सैनिकों के पहरे में वास करती और महाराज दिन भर जंगलों में रहकर रात को लौटते। इस तरह पारीछत के रूप में सजीव क्रांति ही दर-दर भटकती रही।

जंगल का राजा पिंजड़े में

पारीछत की खबर देने या गिरफ्तारी करवाने पर इनाम की घोषणा हुई और लालची जागीरदार टोह लेने लगे। जासूसी रंग लाई और एक प्रातः स्लीमैन वेश बदलकर पहुँच गया। पारीछत पूजा कर रहे थे। उन्हें स्लीमैन को देखकर षड¬ंत्र की गंध का अहसास हुआ और उन्होंने आँखों से ही रानी की तरफ संकेत किया। आखिर मेहमान का स्वागत तो रानी के जिम्मे था ही। रानी जहाँ वीर थी, वहाँ चतुर थी। उसने झरोखे से झाँक लिया था कि महल चारों तरफ से मशीनगनों से घिरा हुआ है। वह एक कमरे में गई और बारूद का भयानक विस्फोट सारे महल को कँपा गया। भाग्य कहें या दुर्भाग्य कि पारीछत और स्लीमैन बच गये। मशीनगनें आवाज सुनकर महल के सामने खड़ी हो गर्इं और शेर  िंपजड़े में बंद हो गया।

रानी की तलाश की गई पर शायद वे गुलामी का तौक पहनना पसंद न करतीं। उनके शाहीद होने पर पारीछत की आँखों से आँसू निकल पड़े। शायद शाहादत की खुशी में, शायद बंदी होने की पीड़ा में। स्लीमैन ने रानी को न पाकर दासी को कैद कर लिया और उसे ही रानी बनाकर नौगाँव में रखा गया, ताकि उसके द्वारा जैतपुर के राज्य को आसानी से हड़पा जा सके।

जैल के सीखचों का हुनर

इतिहासकार पं. गोरे लाल तिवारी के अनुसार पारीछत के विद्रोह के बाद सं. 1899 (1842 ई.) में जैतपुर की सनद जब्त कर जागीर दीवान खेतसिंह को दे दी गई, लेकिन हमीरपुर गजैटियर में स्पष्ट उल्लेख है कि राजा को जंगल से  पकड़कर कानपुर ले जाया गया और उनका राज्य खेतसिंह को दिया गया, जोकि चरखारी राज्य काइ च्छुक था। एक जनश्रुति के अनुसार पारीछत अंग्रेजों के चंगुल से आजाद हो गए और बमीठा के पास घाटी में उनकी मृत्यु हुई। दूसरी जनश्रुति है कि बंदी पारीछत कानपुर से हाता सवाई सिंह में नजर कैद रखे गये और वहीं सं. 1910(1853र्इ .) में स्वर्गवासी हुए। तीसरी किंवदंती के अनुसार उन्हें कानपुर में फाँसी दी गई। सच की खोज तो भविष्य काइ तिहास करेगा,  पर लोकश्रुतियों में पारीछत के कुछ चमत्कार आज भी स्मृति में मँडराते रहते हैं।

सवाई सिंह हाता में महाराज पारीछत ध्यानमग्न थे कि उनके सामने प्राणदंड प्राप्त अपराधी ब्रााहृण लाया गया, क्योंकि उसकी अंतिम इच्छा महाराज के दर्शन करना थी। महाराज ने जब उसे देखा तब वह बोला-"आपके दर्शन के बाद फाँसी लगेगी।" महाराज ने उत्तर दिया-"हमारा मुख ऐसा है कि दर्शन करने वाले को फाँसी लगे ? " ब्रााहृण चुप रहा, पर महाराज के कहने से वह छूट गया या न्यायाधीश को ऐसी अज्ञात प्रेरणा हुई कि उसकी सजा माफ हो गई। दूसरी जनश्रुति है कि किसी अंग्रेज अफसर के पुत्र को सर्प ने काट लिया। जब वह किसी भी दवा से ठीक न हुआ, तब पारीछत की मौन प्रार्थना पर उठ खड़ा हुआ। अफसर दंग रह गया और कृतज्ञता से भरकर बोला-"आप कहें, तो आपका राज्य दिलवा दूँ।" पारीछत ने उत्तर दिया-"अब मुझे राज्य से कोई मोह नहीं, मेरा देश स्वतंत्र करवा दें।" लोकप्रचलित है कि  माघ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी सं. 1910 को प्रातः पूजा के बाद पारीछत ने ब्रााहृण को बुलवाया और कहा किउनका अंतिम क्षण है। शरीर त्यागते समय लोगों ने सुना कि वे कह रहे थे-"देश को स्वतंत्र करने के लिए दुबारा यहीं जन्म लूँगा।"

लोक में रमी आजादी की मूरत

लोक की आवाज लोकप्रचलित उक्तियाँ और गीत हैं और उनमें पारीछत आजादी की मूर्ति की तरह बैठे हुए हैं। लोकगीत का नमूना पहले ही दिया जा चुका है, परंतु यहाँ कुछ उक्तियाँ दी जा रही हैं, जिनमेंइ तिहास के तथ्य बीज रूप में छिपे हैं। जैतपुर के युद्ध में पारीछत की चम्पा हथिनी की वीरता का संकेत इन दो पंक्तियों में मिलता है-

पाठे पै झिरना झिरत नइयाँ।
पारीछत को हाथी टरत नइयाँ।।

जिस प्रकार पठार पर झरना झरता नहीं है, उसी प्रकार पारीछत का हाथी टलता नहीं है। हाथी की दृढ़ता के साथ पारीछत की वीरता उल्लेख्य है, क्योंकि उन्होंने पिररंगियों को मौत के घाट उतारा है, उन्हें खदेड़ा है -

फिरंगियन की सेना गरद मिल जाय।
पारीछत को तेगा कतल कर जाय।
भागे फिरंगी महोबे को जायँ।
पारीछत राजा खदेड़त जायँ।
सब के मारे रस-बस जाय।
पारीछत मारे कहाँ भग जायँ।
बगौरा के युद्ध की दशा विचित्र थी। पारीछत भूखे-प्यासे जूझ रहे थे-
महुआ भूँजे खपरिया में।
पारीछत ने धमके दुफरिया में।
अंग्रजों ने भले ही गेहूँ का भोजन किया हो और सभी साधनों का उपभोग, लेकिन महुआ खाने वाले पारीछत ने 
उन्हें खासी चुनौती दी थी-
गोहुँन की रोटी मारू भटा।
पारीछत के मारे कड़ आये गटा।।
पारीछत की इसी क्रांति और वीरता के कारण लोग उन्हें अमर मानते हैं,इ तिहास चाहे उनका उल्लेख न करे।
लोकमुख का भरत वाक्य है-
राम रची सो होय, लड़ाई तैनें खूब लड़ी।
जुग-जुग जियो पारीछत, लड़ाई तैनें जेर करी।

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Courtesy: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र