बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - लोकोत्सव (Lokotsav)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

लोकोत्सव (Lokotsav)

किसी भी अंचल के लोकोत्सव लोक के वे उत्सव हैं, जो लोक द्वारा लोकहित के लिए आयोजित होते हैं । सामूहिकता उनकी पहली शर्त है । समूचा लोक एक विशेष कर्म से गतिशील होकर अद्भुत एकता का बानगी पेश करता है और यह एकता बाहर और भीतर, दोनों तरफ से होती है । असल में, लोकोत्सव लोकमन के मनोविज्ञान का जीता-जागता उदाहरण है । अनेक व्यक्ति एक ही भावना और एक ही लक्ष्य से संप्रेरित हो कर्म करते हैं, जिसे देखकर और महसूस कर अकेला व्यक्ति या उसका मन सहजतः वही करने लगता है । इस तरह व्यक्ति का सामाजिक मन सामूहिक संकेत पा लेता है और स्वतः अनुसरण की क्रिया प्रारंभ हो जाती है । इस रूप में भावात्मक और क्रियात्मक एकरसता का सही साक्ष्य खड़ा हो जाता है । एकता का शारीरिक और मानसिक पक्ष लोकोत्सव के दर्पण में साफ-साफ दिखाई पड़ता है और किसी को यह कहने में कठिनाई नहीं है कि जातीय या राष्ट्रीय एकता का इतिहास लोकोत्सवों के जन्म से ही शुरू हो गया था । मकरसंक्रांति के पर्व पर जब लाखों-करोड़ों एक ही तिथि और समय पर पवित्र जल में डुबकी लगाते हैं, तब ऐसा महसूस होता है कि सारा राष्ट्र ही एक संकेत पर जाग गया हो ।

पूजा-पाठ और जप-तप एकांतिक हैं । वे अकेले व्यक्ति के द्वारा किये जा सकते हैं और उनकी साधना व्यक्तिगत हित के लिए होती है । लोकोत्सव एक व्यक्ति के मनाने से नहीं होता, वरन् उसमें अनेक की भागीदारी जरूरी है । हर व्यक्ति में एकदेव और एक दानव पैठा होता है । सामूहिकता के व्यवहारों में उसका दानव छिप जाता है और देवता बाहर आ जाता है । यदि राष्ट्र के नागारिकों का दानवत्व इन लोकोत्सवों से मार्गीकृत होकर बदल जाता है, तो निश्चित ही उनकी उपयोगिता है । उदाहरण के लिए, होली में कीचड़ डालना, मुखों को बदरंग करना और गधे पर सवारी करते हुए गलियों में घूमना, गाली-गलौज करना आदि से पशुप्रवृत्ति तृप्त हो जाती है और व्यक्ति में पारस्परिक प्रेम की सद्वृत्ति जाग जाती है ।

लोकोत्सव केवल उल्लास और आनन्द की अभिव्यक्ति नहीं हैं, वरन् लोकसंस्कृति के संस्थान भी हैं । उनमें जहाँ रहन-सहन, वेश-भूषा, खान-पान, रीति-रिवाज और चाल-ढाल की झाँकी मिलती है, वहाँ लोकादर्श, लोकधर्म, लोकदर्शन और लोकसंबंधों की सीख भी अनायास प्राप्त हो जाती है । इस दृष्टि से लोकोत्सव आज के मशीनी युग में आस्था और वि·ाास के प्रतीक हैं । यदि वर्तमान लोकजीवन में लोकसंस्कृति की तस्वीर देखनी हो, तो वह लोकोत्सवों के समय घरों के भीतर आँगन या पूजागृह में नारियों के अनुष्ठान, त और त्योहार से संबंधित क्रियाकलापों, आलेखनों एवं कथाओं तथा घरों के बाहर पुरुषों के क्षणिक उल्लासमय परम्परा-पालन में ही मिलेगी । सिद्ध है कि आज की इस संकटकालीन स्थिति में लोकोत्सव ही हमारी संस्कृति के आधार-स्तम्भ हैं ।

लोकजीवन की सरिता सुख और दुःख के दो किनारों के बीच निरंतर बहती रहती है । यह सही है कि लोकोत्सव सुख के तट पर उगे हरे-भरे वृक्ष हैं, जो अपनी खुराक सुख-दुःख से बँधी जलराशि से ही लेते हैं, लेकिन यह भी असत्य नहीं है कि दुःख का किनारा टूट जाने पर सरिता की अस्मिता खत्म हो जाती है और फिर वृक्षों के उगने का सवाल ही नहीं उठता । मतलब यह है कि लोकोत्सवों का जन्म जीवन की उन घटनाओं से जुड़ा हुआ है, जो सुख-दुःख पर निर्भर न होकर उनकी उपयोगिता के महत्त्व से संबद्ध हैं । राम् ानवमी और जन्माष्टमी राम और कृष्ण के महत्कार्यों और लोकादर्शों को सामने रखकर मनायी जाती हैं । महापुरुषों की जयंतियाँ मृतकों के प्रति श्रद्धा -सम्मान का नैवेद्य है । मृतकों या उनकी स्मृति से जुड़ी दुःख की अनुभूति धीरे-धीरे उनके कार्यों, आदर्शों और तज्जन्य यश पर केन्द्रित होकर सुखात्मक हो जाती है । फिर इस देश की संस्कृ ति में मृत्यु मोक्ष का द्वार मानी गयी है । जायसी ने भी 'नाच-नाच जिउ दीजिय' की परम्परा को स्वीकारा था ।

कृषि-युग में फसल बोने, उसकी हरियाली, समृद्धि और घर आने तक की क्रियाओं को प्रधानता देने से विभिन्न लोकोत्सवों का उदय हुआ था । इसी तरह ऋतु-परिवर्तन की घटनाएँ महत्त्वपूर्ण उत्सवों का आधार बनी थीं । धीरे-धीरे धार्मिकता का वैशिष्ट¬ बढ़ा और उत्सवों में धार्मिक मूल्यों का प्रवेश हुआ । धार्मिक नेताओं और कार्यों को उत्सवों का प्रमुख आधार स्वीकारा गया । सामाजिक उत्सवों की परम्परा बहुत पुरानी है और आज भी पारिवारिक या सामाजिक घटनाओं को लोकोत्सवों की प्राणशक्ति माना जाता है । वर्तमान भावात्मक और राष्ट्रीय एकता के प्रमुख साधन ये उत्सव ही हैं ।
लोकोत्सव मनाने की रीतियाँ भी विविधरूपा हैं । उपवास, अनुष्ठान, पूजन, बलिदान, सहभोज, क्रीड़ा, नृत्यगीत, संग् ाीत, काव्यकथा आदि द्वारा मनाना आज भी प्रचलित है ।

वात्स्यायन के कामसूत्र के अनुसार उत्सवों के दो प्रकार थे-एक सार्वजनिक, जैसे-यक्षरात्रि, कौमुदी जागर, सुवसन्तक आदि और दूसरा स्थानीय, जैसे-नवपत्रिका, उदकक्ष्वेड़िका, एकशाल्मली, यवचतुर्थी, आलोल, चतुर्थी, मदनोत्सव, पुष्पावचायिका आदि । सार्वजनिक से आशय राष्ट्रव्यापी समानता से है, जबकि स्थानीय से आंचलिक भिन्नता प्रकट होती है । कुछ उत्सव देश भर में एकरूपता बनाये हुए थे, जबकि कुछ में स्थान के अनुरूप अन्तर रहता था । कभी कुछ उत्सव प्रमुख होकर राष्ट्रीय बन जाते थे और कभी वे गौण होकर विलुप्त हो जाते थे । समय -समय पर उत्सवों के स्वरूप में परिवर्तन भी होता रहता था । उदकक्ष्वेड़िका जैसा स्थानीय उत्सव धीरे-धीरे होली के राष्ट्रीय उत्सव में कैसे परिवर्तित हो गया, उसका अपना एक अलग इतिहास है । हर लोकोत्सव का एकइ तिहास है और हर युग के अपने खास लोकोत्सव रहे हैं । दोनों रूपों में किसी भी अंचल के लोकोत्सवों का इतिहास लिखा जा सकता है जो तत्कालीन लोकसंस्कृति का प्रामाणिक साक्ष्य उपस्थित करने में पूर्ण सक्षम है और जिससे लोकसंस्कृ ति केइ तिहास की गतिशील धारा का पता भी चलता है ।

यहाँ लोकोत्सवों के अंतर्गत त, पर्व और त्यौहार लिये गए हैं । त में सम्यक संकल्प से किया गया अनुष्ठान होता है, जो उपवास आदि के रूप में निवृत्तिपरक और विशिष्ट भोजन, पूजन आदि के रूप में प्रवृत्तिप रक कहा जा सकता है । कुछ त सामान्यतः हमेशा रखे जाते हैं क्योंकि उनसे मोक्ष मिलता है, जबकि दूसरे किसी -न-किसी कारण से किये जाते हैं । कुछ विशेष फल या इच्छापूर्ति की आशा से प्रेरित होते हैं और कुछ आत्मशुद्धि या साधना -पूर्व की पवित्रता के उद्देश्य पर बल देते हैं । त के उपवास को शारीरिक और मानसिक शुद्धि का कारण भी माना जाता है । तों के संबंध में बदुं ेल् ाी का एक लोकगीत देख्  

अँगना में ठाँड़ीं सासो हस्ँ ा पूछें, बह ू कौन-कौन ब्रात कीने लाल अति सदुं र हा े ।

कातिक अनाये मैंने माँव नहाये रई इतवार उपासी मैं नइँ जानों एइ गुन हो ।

तों के साथ-साथ पर्वों का महत्त्व है । पर्व या परबी पर तीर्थों, गंगा या त्रिवेणी में स्नान करने से पुण्य होता है ,वांछित फल की प्राप्ति होती है और मोक्ष मिलता है । जेठ में गंगा दशहरा, क्वाँर में शरद पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा, मकरसंक्रांति, सोमवती अमावस्या आदि प्रमुख पर्व हैं । अद्र्ध कुंभ या कुंभी और कुंभ को महापर्व माना गया है । पर्व-स्नान में उपवास और त रखने का विशेष पुण्य होता है । इसी तरह त्योहारों में भी त, उपवास, अनुष्ठान और स्नान को समाविष्ट किया गया है । उदाहरण के लिए, दीपावली महापर्व है, लक्ष्मी का त है और दीपों के प्रकाश का त्योहार है । उसमें यक्षरात्रि के दीपदान से लेकर आज के प्रकाश-पर्व तक न जाने कितने अनुष्ठान, त, पूजन, तंत्र-मंत्र, कथाएँ, नृत्य-गीत, जुआ-क्रीड़ा आदि घुल-मिल गये हैं । इसीलिए लोकोत्सवों में तों, पर्वों और त्योहारों को सम्मिलित करना उचित है ।

बुंदेलखंड में वर्ष भर में ऋतुओं के अनुसार अपने त, पर्व, त्यौहार हैं और उनसे संबंधित लोकगीत, लोककथाएँ, लोककलाएँ, लोकरंजन और लोकरस हैं, जिनसे ऋतुचक्री लोकसंस्कृति का पूरा मानचित्र रेखांकित हो जाता है । उसके गतिशील विकास और इतिहास की खोज से यहाँ के लोक, लोकमन और लोकसंस्कृति के क्रमिक आरोह-अवरोह का रेखाचित्र उभरना सहज-स्वाभाविक है । इस आलेख में यही प्रयत्न किया गया है और यह रसिद्ध किया गया है कि लोकोत्सव किसी अंचल केइ तिहास के प्रमुख साधन हैं ।

लोकोत्सवों की प्राचीनता

गुहा और आखेट युग में लोकोत्सव की चेतना का निश्चय कठिन है । एक समूह का अपने शिकार को अग्नि की ज्वालाओं में रखकर उसके चारों तरफ घेरा बनाकर नाचना-गाना ओर प्रसन्न होना लोकोत्सवों की भूमिकामात्र है, उसे लोकोत्सव नहीं कहा जा सकता । गुहाचित्रों में भी नृत्य के दृश्यों का अंकन हुआ है, लेकिन उनमें उत्सव का संकेत नहीं है । उत्सवी चेतना का उदय कृषि युग में ही हुआ है । बुंदेलखंड में कृषि युग देर में आया, इसलिए दीर्घकाल तक आदिम जातियों का बोलबाला रहा और उनके उत्सव प्रचलित रहे । आदिवासियों के उत्सव आर्यों से भिन्न थे, इसी कारण आर्य उन्हें अन्यत वाले (अन्यताः) कहा करते थे । इतना निश्चित है कि मृतकों के प्रति श्रद्धा बहुत पुरानी है और इस आधार पर 'चैत्यमह' लोकोत्सव बहुत प्राचीन ठहरता है । चिता से संबद्ध होने पर ही 'चैत्य' बना है । शवदाह-स्थल पर मृतक की स्मृति-सुरक्षा हेतु या तो वृक्ष लगाया जाता था या कोई स्तूप अथवा पत्थर खड़ा किया जाता था । पहले को चैत्यवृक्ष और दूसरे को चैत्यस्तूप कहा जाता था । उन्हीं को केन्द्र में रखकर चैत्यमह और स्तूपमह लोकोत्सव मनाये जाते ते । चैत्यवृक्ष से ही वृक्षपूजा और वृक्षमह का प्रारम्भ हुआ था । वृक्षमह से जुड़े वनमह, उद्यानमह, नदीमह, तड़ागमह, कूपमह आदि भी विकसित हुए । चैत्यमह से भूतमह का जन्म हुआ था, जिसमें मृतक की स्मृति का ही आधार लिया गया-था ।

आदिम जातियों में शारीरिक शक्ति की परिक्षा के लिए शस्त्र-संबंधी उत्सवों का आयोजन प्रचलित था । उनमें धनुर्मह प्रमुख था, जिसमें धनुष के द्वारा वीरों की परिक्षा ली जाती थी । नागमह और यक्षमह-दोनों बहुत पुराने लोकोत्सव हैं । नागदेवता के उत्सव को नागमह कहना सहज है । वह यक्षमह से बी पुराना है । नागमह की प्रधान विशेषता है-उसकी विकसनशीलता । उसमें वैदिक, बौद्ध और जैन मान्यताओं का भी मसन्वय होता गया है । यक्षमह में भी नागमह की तरह व्यापकता है । गोंड़ों के दोवता 'ठाकुर' के बाद 'यक्ष' ही पूरे अंचल में सम्मानित रहे थे । यक्षों के बाद शिव आये, इसलिए रुद्दमह और शिवमह जैसे उत्सवों की नींव पड़ी । 'शक्तिमह' या देवीमह इन सबसे पुराना था ।

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Courtesy: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र