बुन्देलखंण्ड़ का दरकता लोक जीवन


बुन्देलखंण्ड़ का दरकता लोक जीवन


किसी भी युग के साहित्य, भाषा, संगीत, कला, शिल्प, और इतिहास की दशा और दिशा को समझने के लिए समकालीन लोक जीवन की धारा को जानना-समझना आवश्यक होता हैं क्योंकि लाेक जीवन की आशा, निराशा, आकांक्षाएँ और विवशताएँ ही इन सब में प्रतिबिम्वित होती हैं।

वर्तमान समय मैं वैज्ञानिक और ओद्याेगिक विकास तथा बढ़ते हुए भैतिकवादी सोच और उपभा ेक्तावादी जीवन जीने की ललक के कारण समाज में तीव्र परिवर्तन हो रहा हैं। नैतिक मान्ताएँ शिथिल हो रही हैं और समाजिक मूल्य खंण्ड़ित हो रहे हैं। सोच की दिशायँ बदल रही हैं। आज समाज की दशा एक कटी हुई पतंग की तरह हो रही हैं, जाे अपने आधार से छिन्न हो गयी हैं और कोई दूसरा ठोस आकार नही पकड नही पा रही हैं।

यह एक ऐंसा त्रासद संक्रमण काल है जहाँ साहित्य, भाषा, शिल्प, इतिहास आदि सबकी मार्गी या शास्त्रीय परम्पराएँ भ्रष्ट हो रही हैं तथा लौकिक परम्पराएँ नष्ट हो रही हैं।

नगरीय संस्कृति सदा संक्रमित होती रहती हैं और कारोबारीपन के नीचे दबी रहती हैं कि हर जगह उसका औपचारिक स्वरुप ही अधिक रहता हैं। लाेगाे के हृदय में उसकी जड़े काफी उथली रहती है। उसका जितना और जो कुछ भी संरक्षण होता हैं वह महिलाओं के द्वारा धर के अन्दर होता हैं, जो धार्मिक आचरण, तीज-त्यौहारों के मनाने और किसी हद तक नैतिकता के रुप में बना रहता हैं। पुरुष वर्ग आधी-अधूरी आस्था के साथ उससे जुडा रहता हैं। आधुनिक स्त्री शिक्षा और महिला संगठनाें के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण उसमें भी औपचारिकता और परम्परा निर्वाह का रुप अधिक उभरने लगा हैं। समाज की वर्तमान आर्थिक संरचना के कारण परिवारों का विद्यटित होता संगठन भी इसका एक कारण हैं।

लोक संस्कृति के यथार्थ रुप को जांचने-परखने के लिए ग्रमीण जीवन में झांकना आवश्यक हैं। यद्यपि बढ़ती हुई वैज्ञानिक प्रगति और मूल्यहीन अधकचरी शिक्षा से प्रत्यक्ष और परोक्ष दाेनो रुपों में ग्रमीण जीवन भी प्रभावित और प्रदूषित हाे रहा हैं। इसी कारण लोक जीवन में दरारे आने लगी हैं और लोक सांस्कृतिक का रुप बदलने लगा हैं। सोच का विषय समाजपरक न होकर व्यक्तिपरक हो गया है। पुराने मुल्यों औंर आस्थाओं से लोग कट रहे हैं और नये मुल्यांे और आस्थाआे से पक्की तौर पर कही जुड नही पा रहें है।

सहयोग और समन्वय हमारे लाेक जीवन के दो मजबूत सुत्र थे, जिनसे समाज जुडा रहता था और सामान्यतः एक सौमनस्यपूर्ण वातावरण बना रहता हैं।

किसी के यहां विवाह-शादी होती थी तो गाँव के सभी लोग अपने-अपने स्तर पर उसमें सहयोग करते थे। लड़की की शादी में सहयोग करना तो पुण्य कार्य माना जाता था, शादी लड़की की हो या लड़के की, पाँव-पखराई, टीका, भेंट या अन्य किसी रुप में सहयोग दिया जाता था, जिसे व्यवहार करना कहाँ जाता था। इसके पीछे शादी जैसे खर्चीलें काम में थोंडें-बहुत सहयाेग की भावना रहती थी। आज भी व्यवहार दिया जाता हैं, किन्तु उसके पीछें की भावना नष्ट हो गयी हैं। अब उसे टैक्स या शादी में भोजन करने के बिल के रुप में लिये जाने लगा हैं।

इसका प्रमाण यह है कि शादी में व्यवहारियों को भोजन न दिया जाये तो लोग व्यवहार देने भी नही जाते हैं। शादी के निमंत्रण को भी लाेग वारण्ट, नोटिस आदि नाम देने लगे है। यद्यपि यह बात सही है कि ये शब्द मजाक में कहे जाते हैं तो भी पारस्परिक व्यवहार के प्रति लोगाे की बदलती हुई मानसिकता का परिचय भी इन शब्दो मे मिलता हैं।

गांव में किसी की मृत्यु हो जाने पर शवयात्रा में सम्मिलित होने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने धर से एक दाे लकड़िया या कंण्डे ले जाता था। पंचो द्वारा लाया गया ईधन ही शवदाह के लिये पर्याप्त हो जाता था। इसके साथ ही पंचाे द्वारा मृतक का सामाजिक सत्कार भी हो जाता था। इसी कारण पंचो द्वारा र्लाइ  जाने वाली लकड़ियो को पंच लकड़ी कहा जाता था। आज भी यह प्रथा रुढी के रुप में चल रही है किन्तु पंचो द्वारा लायी गयी लकड़ी का अर्थ हो गया हैं पांच लकड़ियां। लोग वही छोटी-छाेटी तीन चार इंच लम्बी सीकें इक्टठ्ी कर चिता पर फेंक कर इति कत्र्तव्य हो जाते हैं।

अस्थि विसर्जन के लिये प्रयाग जाते समय और लौटने पर गंगाजली-पूजन के समय लोग भेंट देते थे। अब यह प्रथा निकट संबंधियो तक सिमट गयी हैं।

ये सभी धटते हुये सामाजिक सहयोग के नमूने हैं। किसी के खेत का बतर (जुताई के लिए मिट्टी में नमी की उचित मात्रा की स्थिति) जा रहा हाे तो सहयोग की एक सामाजिक प्रथा थी- ‘नवरा‘। वह किसान दूसरे किसानों का ‘नवरा‘ करने के लिये आमंत्रित करता था और यदि किसी को कोई व्यक्तिगत अड़चन न हाे तो वे सब मिलकर एक ही दिन में उस का खेत जोत आते थे। उसकी कृतज्ञता ज्ञापन स्वरुप उन किसानो को रात्रि भाेज दिया जाता था। ये भाेज उनकी मजदूरी नही बल्कि कृतज्ञता ज्ञापन ही होता था। धीरे-धीरे ये भोज मजदूरी माने जाने लगा है। दूसरी बात यह भी है कि कुछ किसानों ने अपनी प्रतिष्ठा या अहंकार के कारण नवरा में भाग लेना बन्द कर दिया है। सहयोग की यह प्रथा भी लगभग समाप्त हो चुकी हैं। ग्रामों में किसी की म्यारी, करी या फर्सी चढ़ाना या ठाट बांधना हो, सब पारस्परिक सहयोग से हो जाता था। अब ऐसे अवसरों को लोग टालने का प्रयास करते हैं।

ग्रामों की जातीय संश्लिष्ट और पारस्परिक जुडाव की व्यवस्था की चर्चा कर लेना भी समीचीन है। विस्तार से इसकी चर्चा करना इसलिए आवश्यक है क्योकि काम-काज का यह जातीय आधार अब विश्रंखल होकर इतिहास बनता जा रहा है। कालान्तर में समाज के इतिहास की यह कड़ी लुप्त भी हाे सकती है। अतः इसको रिर्काड़ करना भविष्य के लिए उपयोगी हाेगा।

एक बात और भी हैं, अति प्राचीनकाल से समाज में वर्ण व्यवस्था लागू थी। इसके अंर्तगत शिक्षा और संस्कृति की रक्षा तथा समबर्द्धन का उत्तरदायित्व ब्राहा्रणाेंपर, समाज तथा देश की रक्षा का भार क्षत्रियों पर, समाज के भरण-पोषण की व्यवस्था करनें का भार वैश्यों पर कार्मिक सेवाआें का भार शुद्रों पर था।

इनके लिए संस्कृत के कर्मिन से अपभ्रंश कम्मिन और आगे कमिन तथा सुखोच्चार के कारण ‘कमीन‘ शब्द विकसित हुआ।

यह दुःखद सेयोग है कि फारसी का शब्द ‘कमीन‘ जिसका अर्थ है - छुपकर आधात करने वाला। गुणसाम्य के कारण इसका अर्थ विस्तृत होकर धोखेवाज और नीच भी हो गया हैं और यह गाली के रुप में प्रचलित हो गया। ध्वन्यात्मक एकरुपता के कारण यह उस कमीन शब्द से एकाकार हो गया जिसका अर्थ काम करने वाले था। इसका पुराना अर्थ ‘काम करने वाला‘ था। इसका पुराना अर्थ ताे भुला दिया गया और फारसी ‘कमीन‘ का अर्थ हावी हाे गया।

इस कारण निश्चित ही इनमें हीन भावना का उदय होगा। दूसरी तरफ उच्च वर्ग के लोगो ने भी इसी अर्थ को ग्रहण कर लिया। इस तरह दोनो वर्गो की साेच में दूरी भी बढ़ी, जबकि उनके पारस्परिक सम्मान की रुढ़िया यथावत रहीं। जैसे उच्च वर्णों में जब नयी व्याही बहू आती थी तो उसे इन सभी जातियों की स्त्रियों, जो उसके धर को कमायें होती थीं (धर में काम करती थी) के पैर पड कर आर्शीवाद लेना पड़ता था। चाहे भले ही दूर से पैंर पड़े जायें। मेहतरानी और बसोरन के भी पैर पड़ना पड़ते थें। आपसी दूरी बढ़ने के कारण यह परम्परा टूट गयी हैं।

इन जातियों के लिए आदरवाची सम्बोधन भी थें। जैसे लुहार और बढई के लिए - मिस्त्री, नाई के लिए खबास, ढीमर के लिए माते, बरउआ, कुमार के लिए परजापत (पं्रजापति), माली के लिए बागवान, धोबी के लिए बरेठा, चमार के लिए छीराई, चैधरी, बसोर के लिए धानक, दर्जी के लिए तरकशी। दूसरी जातियों के लिए भी आदरवाची सम्बोधन थें जैसे - अहीर को दउआ, सोंरिया को बर्रखा (वन रक्षक) आदि।

इनके साथ उनकी उम्र के अनुसार कक्का, बब्बा आदि आत्मीय सम्बोधन भी जोडे जाते थें।

ये आज भी प्रचलित हैं किन्तु वे औपचारिक ही अधिक रह गये हैं। उनसे आत्मीयता निकल गयी हैं।

ग्रामों मे कमाने अर्थात् किसानो की विशिष्ट सेवाएँ करने वाले - लुहार, बढ़ई, नाई, ढ़ीमर, कुम्हार, माली, धोबी, चमार, बसोर, आदि जातियों के लिए विशेष अवसरों पर अपने किसानों का काम करतें थे। जैसे-लुहार-हलों के फार, बखर की पाँसे, करें ओर दतुआ, सुरया, हैंसिया, कुल्हाड़ी आदि कृषि हथियार बनाते और उन पर धार करते, उन्हें ठीक करतंे। बैलगाडी के चाकांे पर धाऊ चड़ाते थें। शादी के कंगन लाते थें।

बढ़ई-हल, बखर, बैंलगाडी आदि बनाते थे और उनकी मरम्मत करतें थें। शादी में पलाश की लकड़ी का खाम (स्कमभ) बनाते थें। मण्डपाच्छादन के लिए मड़दाऊ लाते थें। मृत्यु पर अर्थी और अस्थि चयन के लिए चिमटा लाते थें।

नाई का काम सेवादार जातियों में सबसे अधिक रहता था। वर्ष भर बाल बनाते थे। शादी मे दोना-पत्तलाें की पूर्ती करते थें। निमंत्रण देते तथा टेरा-बुलाई का काम करते थें। कन्या की शादी में नाईन नेग-चार के अवसरों पर उसकी परिचर्या करती थी। शुभ अवसरों और त्योहाराें पर सौभाग्यवती स्त्रियों के पैंरों में हल्दी लगाकर तथा चिरैंयां निकालकर महावर (आलता) तथा कुमारियों के पैंरों में सादा ढंग से महावर लगाती थी। प्रसूता और नवजात शिशु को एक महीन तक (सोर के दिनों को छाेड़कर) मालिश करती थी। नाई की अधिक सेवाओं के कारण ही उसे खबास (खास-बरदार) कहा जाता था। यह शब्द देश में मुसलमानाें के आगमन के बाद चलन में आया। इसके पूर्व पुराने जमानें में धर के लोगाें के बिना ही नाई और पंण्डित ही कन्या की सगाई पक्की कर आते थें। सगाई के रस्म के बाद वह जाननें के लिए शादी कितनें की हाेगी अर्थात् दान-दहेज के रुप में कितना धन प्राप्त होगा? एक प्रथा थी - पंचो की उपस्थिति में ही वरपक्ष की ओंर से कन्या पक्ष के नाई के सामने रुपयो से भरा एक थाल रखा जाता था और नाई को उसमें से रुपये उठाने के लिए कहाँ जाता था। उसमें से नाई जितने रुपयें उठाता था। प्रति रुपया हजार की शादी होना का संकेत होता था। इस प्रथा काे ‘व्रत उठाना‘ (संकल्प प्रंकट) करना कहा जाता था। उठाये हुए रुपये उसी के होते थें। चाहने पर वह अधिक भी उठा सकता था, परन्तु मालिक के प्रति उत्तरदायित्वबोध के कारण कम से कम उठाता था। मजबूरी में उसे अधिक भी उठाना पडतें थे तो भी मालिक उन्हें स्वीकार करता था। व्रत जैसे उत्तरदायितवपूर्ण कार्य करने के कारण उसके लिए ‘विरतिया‘ जैसा सम्मानपूर्ण सम्बोधन प्रचलित था।

ढीमर का मुख्य काम पानी भरना, वर्तन साफ करना तथा शादी-विवाह में पालकी और डाेला उठाना था। कुम्हार बच्चों के जन्म के समय चरुआ, बाेनी के समय बिजा (खेतों पर बील जे जाने के लिए मिट्टी की गागर) अगती (अक्षय  तृतीय) पूजने पूने (हनुमान जंयती), गोवर्द्धन पूजा के लिए ‘कुड़वारौ, (चार घैला-मझौली गागर) दीवाली के लिए मिट्टी की दिया, गणगौर, महालक्ष्मी, गणेश नौरता के लिए गौर (गौरी) तथा पन्थौला (शिवलिंग) की मूर्तिया, नौरात में पूजन क लिए नौ मालियाँ (बड़ें आकार के दीय ें), बच्चों के खेलने के लिए मिट्टी के गड़िया-गुल्ला, चूलो-चकिया खिलौने, शादी में आवश्यक बर्तन चरुआ, पिटरे, डहरियां, मण्डप, के नीचे रखी जाने वाली बेरी (सात डबला) दावाजे के कौरे में रखे जाने वाले कलश या मंगल घट, मृत्यु के समय आड़ को घैला, अस्थि-चयन के लिए डबला और चिता-भूमि पर रखने को घट लाता था। बच्चा होने पर जच्चाघर में बांधने के लिए झाूमर भी कुम्हार लाता था। कुम्हार की सेवाएँ भी बहुत होती थी।

माली वर्ष भर त्यौहारों पर फूल-दूब की पुरिया रखता था। हरछट (हरषष्टि) की विशेष तरह की पुरिया तथा तीजा (हरतालिका व्रत) को फुलार (कुमुद के फूलाें से बना झूमर) और शादी में दूल्हा-दूल्हिन के लिए खजूर के पत्तों के बने मौर (एक प्रकार का मुकुट) तथा फूल मालाएं लाता था।]

धोबी साेर-सूतक के तथा दीवाली पर घर के सब कपड़े धाेता था। चमार दशहरा-दीवाली की छपाई-लिपाई में सहयोग करता था तथा किसानाें के मरे हुए पशुओं को ठिकानें लगाता था। उनके चमड़े को पकाता था। आधे चमड़ें पर पशु के मालिक का हक होता था और आधे पर चमार का। यदि वह उसके जूते बना कर देता था तो उसे तेल और बनवाई अलग से मिलती थी। विवाह में चमार दूल्हा-दूल्हिन के लिए कनोंरा और कनोंरिया (लाल तूस मढ़े हुए स्लीपरनुमा जूतें) लाता था।

बसोर-महिला बच्चों के जन्म के समय प्रजनन कराती, सोर उठने तक जच्चा-बच्चा को मालिश करती, बसोर सोर उठने के समय, देवी-देवताओं के आयोनन-मय पूजन के समय से लेकर आयुवृद्ध सम्भ्रान्त व्यक्ति की शवयात्रा तक बाजे बजाते थे। शादी के अवसर पर बड़ी मात्रा में भात पसाने के लिए परेना, आवश्यक छबला, टोकरी आदि बांस के बर्तनों के अतिरिक्त लड़के की शादी में मण्डप मारने के लिए बिजना (पंखा) और लड़की की शादी में लड़की के साथ जाने वाले पकवान को रखने के लिए बड़ा टिपरा, खलिहान में अनाज नापने के लिए ढुलिया देते थे।

दर्जी लड़के की शादी में दूल्हें के लिए बागी (एक प्रकार का सुनहले गोटें लगाकर सिला एक अंगरखा, जाे पैर के पंजो तक नीचा होता था। सिलता था। दुलिहन का लंहगा-पोलका सींता था,) नाई माली और दर्जी, शुभ अवसरों पर दरबाजे पर बन्दनवार बांधते थें। कुम्हार और दर्जी, बच्चें के जन्म के दस दिन बाद होने वाले उत्सव ‘दस्टोन‘ में प्रसूतिगृह में बांधने के लिए कलात्मक झूमर लाते थे। ग्रामों में मेहतर की सेवा की कम आवश्यकता होती थी। इस कारण बहुत से ऐसे गाँव है जहां मेहतर हैं ही नही।

इन सभी सेवाओं के लिए इन्हें सेवा उपलब्ध कराते समय ही नेग-दस्तूर के रुप में नकद तथा अखौती के रुप से अनाज, विशेषकर चावल तुरन्त दिया जाताथा। जन्म-मरण, शादी विवाह के सभी अवसरों पर संबंधित लोगाें को सपरिवार भोजन कराया जाता था। साल भर तीज-त्योंहाराे के अवसर पर पावन (सम्बन्धित पूजा का प्रसाद पकवान, पूड़ियां आदि) दिया जाता था। नाई जिस दिन किसान के यहाँ बाल बनवाने जाता था शाम को उसी दिन कलेवा के नाम से पका हुआ भोजन या अनाज दिया जाता था। इन सबके साथ ही रबी और खरीफ की फसलें आने पर किसान इन सबको पूर (अनाज के पौधों का गटठ्ा) या एक पैला (लगभग दस किलो) अनाज देता था।

इस तरह समाज में उत्पादन औंर सेवाओं के दान-प्रतिदान की संश्लिष्ट व्यवस्था थी। नगरो के कृषि व्यवसाय की कमी के कारण सेवाआें के बदले नकद पैंसा कुछ अधिक मिल जाता था। नेग-दस्तूर के रुप में मिलने वाली राशि के तेजी से होते हुए अवमूल्यन और दातव्य राशि में धीरें-धीरें हाेनें वाली वृद्धि ने एक ओर इन जातियों में असन्तोष पैदा किया। दूसरी ओर इनमें अर्थप्रदान दृष्टिकोण के अधिक विकसित हो जाने के कारण सभी कामकाजी जातियां अपनी हरेक सेवा का नकद भुगतान भी चाहने लगी हैं औंर परम्परा से जो मिल रहा है यदि उसे भी छोडना चाहती हैं तो यह स्वाभाविक है कि सेवाएं देने वाला यदि अपनी सेवाओं का नगद मूल्यांकन कर पैसा

वसूलना चाहेगा ताे देने वाला किसान भी पारम्परिक बन्धान क्यों देगा? इस तरह दोनों तरफ असन्तोष की जड़ जम गयी। दूसरी तरफ औद्योगिक क्रान्ति और आधुनिकतावादी दृष्टिकोण पैदा हाे जाने के कारण स्थानीय सेवाओं का महत्व भी धटता जा रहा है फिर भी काफी अंशो में में अभी भी जारी हैं। इनकी उपयोगिता धटने के कारण इनकी अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हुई है और असन्तोष भी बढा है।

इस तरह सामाजिक सौमनस्य और सहयोग के वातावरण में दरारें पड़ने लगी हैं। जातिवाद, तथाकथित राजनीति करने वाले लाेग इन्हें निरंतर चैड़ा कर रहे हैं और उनमें उस धास के बीज भी बो रहे हैं जिससें यादवी संधर्ष हुआ था।

अपने पेशों की गन्दगी ओर उसी के अनुरुप अपने रहन-सहन को ढालेने के कारण कुछ जातियाँ, निश्चित ही समाज में पिछड़ेपन के साथ ही अस्पृश्य हाे गया थी। ऐसी जातियों को, देश की नब्ज को ठीक-ठाक समझने वाले, महात्मा गांधी ने हरिजन जैसा पवित्र नाम दिया था और उनके उत्थान के लिए विभन्न कार्यक्रम बना कर उस पर तेजी से अमल किया था। इनके कारण उनकी दशा में परिवर्तन होने लगा था तथा समाज के सोच में भी एक सकारात्मक बदलाव आना शुरु हो गया था। परन्तु उन्हीं में से कुछ लोगाे ने अपने व्यक्तिगत अहंकार की तृप्ति और राजनैतिक स्वार्थो की सिद्धि हेतु गांधी को गालियाँ देकर हरिजनों को उनके कार्यक्रमों से न केवल विमुख किया बल्कि हरिजन उत्थान के लिए कोई विकल्प भी प्रस्तुत नही किया। केवल आरक्षण की भीख मांगने के स्वर को तेज कर दिया।

गाँधी जी द्वारा दिये गये ‘हरिजन‘ नाम को न केवल मैटा गया बल्कि कुर्सीजीवियों की मदद से उनके प्रयोग को गैर कानूनी तक धोषित करवा कर उनको दलित शब्द दिया। दलित अर्थात् कुचले हुए। जब कुचले हुए हैं तो कोई कुचलने वाले भी तो होगें, वे कौन हैं? प्रश्न के इस अहसास को निरन्तर हवा देकर उनमें धृणा औंर प्रतिहिंसा की आग भड़काई जा रही हैं जो सामाजिक सौहार्द को नष्ट कर रही हैं।

उनमें प्रतिहिंसा की भावना से शायद उन्हीं का अधिक नुकसान हो रहा हैं। वे उन्हीं बुराईयों की तरफ लौटने लगे हैं जिनसे, गांधी के प्रभाव से, वे दूर होने लगे थे। 

इससे थाेडी भिन्न स्थिति आदिवासियों की हैं। आदिवासियों के उत्थान के सम्बन्ध में कोई निश्चित नीति नही बनी। इस कारण सरकार का अरबों रुपया खर्च हो जाने पर भी उनकी स्थिती में कोई विशेष परिवर्तन नही हुआ। पहले उन्हें सेठ-साहूकार लूटते थे अब उन्हें सरकारी अंमला लूटता है, जो उनके नाम पर मिलने वाले सरकारी धन को हड़पता है।

इसकी परिणति यह हुई कि नक्सलवादी और पब्लिक वार ग्रुप जैसे दलों का प्रादुर्भाव हुआ जो उन्हें हत्या और लूट के मार्ग पर धकेल रहे हैं। दनके प्रभाव से बिहार आन्ध्र और मध्यप्रदेश का कुछ क्षेत्र काफी अशान्त हो गया है।

तीसरा वह वर्ग है जो अपनी आर्थिक व्यवस्था से संतुष्ट रहने के कारण पढ़ाई-लिखाई से दूर रहा और सामाजिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से पिछड़ गया। उसमें ब्राहा्रण-क्षत्री भी हैं और दूध में पानी, सोने में पीतल, शराब में पानी मिलाकर तथा लम्बी-चैडी जोतों पर खेती कर धन इकटठ्ा करने वाली जातियां भी हैं। राजनैतिक स्वार्थो को दृष्टि में रखकर जातिवादी कूटनीतिज्ञों ने जो नीति उनके उत्थान के लिए बनाई उसका आधार आर्थिक न रखकर जातियां रखा जिसके कारण सामाजिक विद्वेष को बढ़ावा मिला। स्वाभाविक है कि गरीब होने पर भी यदि किसी जाति विशेष में जन्म लेने के कारण किसी को अपनी प्रतिभा का विकास करने का अवसर न मिले और किसी जाति विशेष में जन्म लेने के कारण धनी होने पर भी बजीफा मिले औंर अयोग्य होने पर भी उत्तरोत्तर उन्नति का मौका मिलता जाये तो न केवल वंचित व्यक्ति में बल्कि उसके वर्ग में आक्रोश, व्यवस्था के प्रति धृणा और विद्रोह भावना तो पैदा होगी ही।

चैथा वर्ग अल्पसंख्यक का है। आज की स्थिति में अल्पसंख्यक का मतलब मुख्यतः मुसलमानों से उसी तरह है जैसे दलितों का चमारों से और पिछड़ों का यादवों से।

देश के विभाजन के बाद जो मुसलमान देश छोड़कर नहीं गये थे वे स्थानीय समाज से और भी अच्छी तरह समायोजन कर रहे थे। कारण यह भी हो सकता है कि वे विभाजन की त्रासदी भी देख चुके थे। उनमें बहुसंख्यकों के साथ मिल-जुल कर रहने का संस्कार पहले से ही था। उसकी उपयोगिता को उन्होंने नए सिरे से पहचान लिया था, किन्तु राजनीति के कुचक्र ने उनके समाज को ‘वोट बैंक‘ में बदल दिया। उस समय के एक सबसे बडे़ं और प्रभावशाली राजनैतिक दल ने छठवें दशक में (सन् याद नही है) दिल्ली में एक मुस्लिम कन्वेशन बुलाया, जिसमें पं0 जवाहर लाल नेहरु, सुभद्रा जोशी तथा अन्य कई बड़ें-बड़ें नेंताआें ने ऐसे-एेसे भाषण दिये जिनसे उनमें अपने अल्पसंख्यक असुरक्षित होने का अहसास जगाया गया और यह विश्वास जगाया गया कि उस दल के अतिरिक्त उनका और कोई संरक्षक नही हैं। उसके बाद के दिनों में एक दूसरें दलों ने भी एक सूत्र की उपयोगिता समझ कर मुसलमानों को अपने वोट.-नीति का खिलौना बनाये रखने का प्रयास जारी रखा और उनमें पृथ्कता, असुरक्षा और आशंका का भाव कमजोर नही पड़ने दिया, इसके लियें चाहे उन्हें महमूद गजनवी को ही उनका उद्धारक क्यों न बताना पड़ा हो। इस भ्रम से वे, आधी शताब्दी बीत जाने पर भी, पूर्णतः नही उबर सके हैं।

प्राचीन काल से चली आ रही ग्रामीण जीवन में प्रभावी अनुशाासन, पारस्परिक सद्भाव, सहयोग और नैतिक आचरण की रक्षा करने वाली संस्था सार्वजिनक पंचायत तथा जातीय पंचायतो की व्यवस्था नष्ट हो गयी। सार्वजनिक पंचायतो का रुप संगठित नहीं होता था, फिर भी अत्यनत प्रभावशाली होती था। जातीय पंचायतो के माते-मुखिया चुने हुए और खानदानी भी होते थे। खानदानी व्यक्ति भी जाति की स्वीकृति के बिना पद पर नही रह सकता था, किन्तु सरकारी पंचायत व्यवस्था ने समाज को बुरी तरह तोड़ दिया है। राजनैतिक वैर, उसी में गुटीया वैर, जातिय वैर, व्यक्तिगत वैर और भ्रष्टाचार को इस व्यवस्था में इस कदर बढ़ावा मिला है कि भ्रष्टाचार पंचायतो का और वैर-विरोध ग्रामीण जीवन का पर्याय लगने लगा है।

इस तरह दंेश सेवा का दम भरने वाले तथाकथित राजनेताओं ने देश की एकता, अखण्डता, दलित, आदिवासी, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक शब्दों का जाप करते हुए समाज के सौमन्सय को नष्ट कर उसमें न केवल बैर भावना और कुण्टा भर दी ब्ल्कि, धुसपैठियों, अपराधियों और माफियाओं को संरक्षण दे आशंका और आतंक से भयभीत कर दिया हैं। देश के शीर्षस्थ पदों पर बैंठे लोगाें ने हवाले-धुटाले करके तथा प्रदेशों के उच्च पदों पर बैंठे लोगों ने जनता की कमाई और विदेशी ऋणों से भरे खजानों को बेरहमी से लूटकर भ्रष्टाचार का ऐसा माहौल बना दिया कि आम आदमी की आस्था टूट गयी है। थोड़ी बहुत बची भी है ताे उच्च स्तर की अदालतों में जहां उसकी पहुँ नहीं हैं।

आज न केवल बुन्देलखण्ड बल्कि पूरा देश आपसी वैमन्सय, कुण्ठा, असुरक्षा और डांवाडा ेल आस्था की मानसिकता में जीवन काट रहा हैं। यह देश के समाजिक स्वास्थ्य के लिए भयावह स्थिती है और देश के अधोगामी भविष्य का भी संकेत है। गनीमत है इस देश का आदमी भाग्यवादी है अन्यथा....................।

By- डाॅ0 कैलाश बिहारी द्विवेदी