(Poem "कविता") लेखक की खामोशी


(Poem "कविता") लेखक की खामोशी


खामोसियों के आगोश मे पन्ना पलट रहा हूं ,
ये सोंचकर कहीं कि बरसात हो ना जाये |
आंखे तरस गई हैं कुछ धार छोड़ने को ,
इक धूल सी जमी है इंतजार की घडी में ,
खामोश सा समां है और रात भी अभी भी,
इंतजार है सुबह का सूरज न डूब जाये ,
ये सोंचकर कहीं कि बरसात हो न जाये |
गुजरा हूं उस गली से जो अंत बन चुकी थी,
उस अंत की गली में जीवन कभी था ठहरा,
गुजरे हुवे समां की यादें हुई हैं ताज़ा ,
यादों के बोझ से अब नदियां बना रहा हूं
ये सोंचकर कहीं कि बरसात हो न जाये |
कुछ बात सोंचता हूं शब्दों को जोड करके ,
अल्फाज मिल रहे हैं सबको निचोड़ करके ,
कुछ मिल रहे नये हैं कुछ हैं बहुत पुराने ,
कुछ दर्द के गमों से निर्माण कर रहें हैं ,
ये सोंचकर कहीं कि बरसात हो न जाये |
इक आस सी जगी थी बेआस जिंदगी में ,
जो सो रही है अब जैसे आग सी बुझी है ,
राखों के ढेर से अब टुकडे चुरा रहा हूं
चिंगारी ढूंढता हूं टुकडों को तोड़ करके .
ये सोंचकर कहीं कि बरसात हो न जाये |
फ़िर से अब चला हूं मंजिल की खोज करने ,
तारों से पूंछता हूं अब राज जिंदगी का ,
कैसे गुजारते हो सब साथ छोड़ करके,
खामोंशियों से मिलके गूंगे हुवे हो क्यों तुम ,
दो.बून्द की जुबां से तुमसे भी बात कर लूं ,
ये सोंचकर कहीं कि बरसात हो न जाये |
जीवन चरित्र क्या है ?ये सोंचकर हूं सहमा ,
कुछ राज छोड़ करके सब कुछ समझ गया हूं ,
होंठो से बात करके सब रूठते यहां हैं ,
कुछ टूटते यहां हैं कुछ गिर-गिर के गिर गये हैं ,
जिन्दा वही जमीं पर जो वक्त से लडा है ,
अब हर हारते हुवे को सांसे उधार दूंगा ,
ये सोंचकर कहीं कि बरसात हो न जाये ||

By: चन्द्रहास पांडेय (रचनाकार)