(Poem "कविता") स्वाभिमानी पंक्तियाँ/प्रेरक पंक्तियाँ
(Poem "कविता") स्वाभिमानी पंक्तियाँ/प्रेरक पंक्तियाँ
स्वाभिमान से सौदा करना जिसे कभी स्वीकार्य नहीं,
गैरों के उपकार में पलना सीखा जिसने कार्य नहीं,
देह कभी भी जटिल इरादे मोड़ नहीं पाती है ये,
मान और सम्मान व गरिमा तोड़ नहीं पाती है ये,
चार दशक तक आकर के जब पंख नहीं चल पाते हैं,
लम्बे पंजे जरा भी चलने से बेहद कतराते हैं,
आज स्वयं की चोंच उसे जब ज्यादा भारी लगती है,
ऐसी शून्य अवस्था उसको निज लाचारी लगती है,
अब या तो बस प्राण त्याग कर स्वयं सिद्ध बन जाए वो,
या मरे माँस को खाने वाला कोई गिद्ध बन जाए वो,
या फिर पाँच मास की भीषण पीड़ा जाकर झेले वो,
फिरसे पंजे चोंच पंख तब पावे नये नवेले वो,
ऐसी कठिन घड़ी में भीषण पीड़ा वो अपनाता है,
किसी बड़े पर्वत पर जाकर अपना ठौर बनाता है,
मार मार कर पत्थर पे ही तोड़ चोंच वो देता,
और बाद में परों को अपने स्वयं नोच वो देता है,
फिर पँजों को भी अपने वह चट्टानों में घिसता है,
दर्द कराहों के संग संग रक्त वहाँ से रिसता है,
किन्तु बाद में अपनी चाही मंजिल पा ही जाता है,
फिर वही ऊर्जा शक्ति अपने अंदर वो ले आता है,
सत्तर वर्षों तक भी अपना मर्म नहीं खोता है वो,
कष्ट झेल जाता है पर कुल धर्म नहीं खोता है वो,
इसीलिए तो स्वाभिमान का स्वामी बाज कहाता है,
सात दशक ऐसे ही जीकर पक्षीराज कहाता है,
By: 'चेतन' नितिन खरे