(Article) गौरवशाली बुन्देलखण्ड

गौरवशाली बुन्देलखण्ड

बुन्देलखण्ड शब्द मात्र से ही मानस पटल पर शौर्य, वीरता, ओज, देशभक्ति एवं त्याग का भाव अनायस ही चित्रित हो उठता है। यहाँ के विशाल दुर्ग, पत्थरों का सीना पार करती हुयीं खूवसूरत नदियां, प्राचीन मूर्तियों, विभन्य महलों एवं मंदिरों के भग्नावेष अतीत की गौरव की कहानी कहते है। इतिहास उद्धारित करता है कि बुन्देलखण्ड क्षेत्र जो कभी मुगल या बिट्रिश शासकों के पूणतः अधीन नहीं रहा, एक वीरता पूर्ण इतिहास रखता है। प्रथम स्वतंत्रता संगा्रम की महान नेत्री महारानी लक्ष्मीबाई के शौर्य तथा पराक्रम की अप्रियतम कथा एवं उनकी आत्माहुति युगांे.युगों तक जन मानस के लिये प्रेरणाश्रोत बनी रहेगी।

पौराणिक काल में इस भूमि का नाम जैजाक भुक्ति था। प्राचीन भारत के सोलह महाजनपदों में से एक चेदि बुन्देलखण्ड का ही प्रचीन नाम है । बुन्देलखण्ड को दशार्ण प्रदेश भी कहा जाता है। ईसा से पूर्व कात्यायन, कौटिल्य तथा कालिदास आदि ने अपने.अपने ग्रन्थों में दशार्ण का नाम का उल्लेख किया है। श्प्रष्त्सर तर कम्वल वसनार्णदशानामूणे, दशार्णाें देशः नदी च दशार्ण श्, यह पंक्ति सिद्धांत कौमुदी में कात्यायन के नाम से लिखी है। दशार्ण शब्द का अर्थ है दस जल वाला। इस प्रकार बुन्देलखण्ड का दशार्ण नाम दस नदियों के कारण पड़ा। बुन्देलखण्ड का वास्तविक नाम विन्ध्याइलखण्ड है और यह विन्ध्यांचल के तराई में बसने के कारण पड़ा है, संस्कृत में इला का अर्थ पृथ्वी है।

 बुन्देलखण्ड की सीमाओं के बारे में यह लाकोक्ति प्रायः उद्घृत की जाती है:.

इत यमुना उत नर्वदा, इत चंबल उत टोंस।
छत्रसाल सों लरन की, रहीं न काहूँ हौस।।

किन्तु यह बुन्देलखण्ड की सही सीमा नहीं है। यह बुन्देलखण्ड राज्य के विस्तारक महाराजा छत्रसाल के शौर्य की सीमा है। इसके अंतर्गत किसी को भी छत्रसाल से लड़ने का हौसला नहीं था। बुन्देलखण्ड की सीमा के निर्धारण में विद्वानों में मत भिन्यता है। कुछ विद्वान भौगोलिक आधार पर इसका सीमांकन करते है तो कुछ ऐतिहासिक आधार पर कुछ आबादी के आधार पर इसका निर्धारण करते है तो कुछ सांस्कृतिक एकरुपता के आधार पर। महाकवि अवधेश ने भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं भाषा के आधार की दृष्टि से बुन्देलखण्ड की सीमा का रेखांकन किया है:.

जमुना तट से जबलपुर , गोवर्घन से टोंस
धरा बुन्देली ना सही , कवहुँ काहू कि होंस

वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के सात जिले झाँसी, ललितपुर, जालौन, महोवा, हमीरपुर, बांदा तथा चित्रकूट एवं मध्य प्रदेश के पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़, सागर, दतिया, दमोह को ही सामान्यतः बुन्देलखण्ड क्षेत्र माना जाता है। इस प्रकार ढाई तीन करोड़ की आबादी का यह बुन्देलखण्ड शक्ति, शौर्य, शील, सौन्दर्य और पर्यटन की दृष्टि से अतुल्य है।

पौराणिक दृष्टि से बुन्देलखण्ड की महिमा अधिक विशाल एवं महान रही है। नारद और सनकादि ऋषियों ने साधना और तपस्या की धुनी यहीें रमाई है। समुद्र मंथन के के पश्चात महादेव शिव ने विष की अग्नि को शांत करने के लिये प्रसिद्ध कालिंजर को ही चुना। यहाँ का सौभाग्य है कि भगवान श्रीराम ने सीता एवं अपने भाई लक्ष्मण के साथ वनवास काल का अधिकांश समय चित्रकूट में ब्यतीत किया। इसी बुन्देली धरा पर पाण्डवों ने वनवास का बहुत समय व्यतीत किया। इस बुन्देल वसुन्धरा ने उनके विपत्तिकाल में अपना महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान कर उनके लक्ष्य को पूरा किया, हिन्दी के प्रसिद्ध कवि अब्दुल रहीम खानखाना ने बुन्देलखण्ड पर अपने भाव व्यक्त करते हुये कहा था

चित्रकूट में रह रहे रहिमन अवध नरेश
जपर विपदा परत है सो आवत यह देश

यह वही भूमि है जहाँ पूर्वकाल में भगवान ने नृसिंह रुप धारण कर ऐरच के शासक हिरण्यकश्यप का वध किया। गुरु द्रोणणचार्य जैसे महान व्यक्तित्व की जन्म दाता भी यही बुन्देली धरा है।

बुन्देलखण्ड के वातावरण में झाँसी की कसक, दतिया की ठसक ,बांदा की अकड़ और जालौन की पकड़ आज भी अपनी वास्तिविकता का परिचय देती हैं। बुन्देली वसुन्धरा ने अनेक वीर रत्नों और योद्धाओं को जन्म दिया है जिनकी वीर गाथायें इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं । चंद्रबर्मन, मदनबर्मन, धंग, महोवा के वीर यौद्धा आल्हा, ऊदल जिन्हे पृथ्वीराज ने अनेक बार पराजित करने की कोशिश की। यहाँ धामौनी में पैदा हाने वाले अकबर के नौ रन्नों में से एक अवुल फजल फैजी का बीर सिंह बुन्देला ने सिरकलम आंतरी(ग्वालियर) के निकट किया तो शेरशाह सूरी व कुतबद्दीन ऐबक जैसे समा्रटों को मृत्यु की सेज पर सुलाने का श्रेय इसी धरती को जाता है। प्रसिद्ध बुन्देला राजा मधुकरशाह, चम्पतराय, बुन्देलखण्ड के बोनापार्ट महाराज क्षत्रसाल एवं ब्रिट्रिश हुकूमत की जड़े हिला के रख देने वाली बीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी प0 परमानंद, भगवानदास माहौर, मास्टर रुद्रनारायन आदि वीर इसी वसुन्धरा की कोख में जन्में, बड़े हुये और वीरों की लीला का क्षेत्र भी यही धरा रही।

साहित्यिक दृष्टि से भी बुन्देलखण्ड का स्थान अधिक महत्वपूर्ण है। महर्षि वाल्मीकि, वेदव्यास, कृष्ण द्वैपायन, भवभूति आदि संस्कृत के कवियों का यहीं जन्म हुआ था। हिन्दी साहित्य को जगनिक, गोस्वामी तुलसीदास, केशव, विहारी, भूषण, पद्माकर, ईसुुरी, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, वियोगहरि, डा0 वृन्दावन लाल वर्मा जैसे सरस्वती के पुत्रो को पैदा करने का श्रेय बुन्देलखण्ड को ही प्राप्त है।

अनेक विशेषताओं को अपने में समेटे हुये बुन्देलखण्ड पर्यटन के लिये इन्द्र देश के नाम से जाना जाता है। यहाँ के विशाल किले, वेतवा की कललोल करती जल राशि, विशाल विन्ध्यान्चल पर्वतमाला वास्तव में इस धरती को इन्द्र का देश बनाती है। सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड में लगभग 200 छोटे.बड़े दुर्ग हैं जो कि अपने वैभवशाली इतिहास का अहसास कराते हैं। चंदेलकाल बुन्देलखण्ड का स्वर्णयुग कहा जाता है। इस युग में कला संस्कृति अपने चरम पर थी एवं विश्व प्रसिद्ध खजुराहो के विशाल मन्दिर इसी समय निर्मित हुये जो सम्पूर्ण विश्व को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और अपने अतीत के वैभव की सजीव गवाही देते है। कालिंजर का नीलकण्ड मंदिर एवं किला अत्यंत की रमणीक स्थल है, यहीं पर शेरशाह सूरी की मृत्यु हुयी । ओरछा में वेतवा नदी के किनारे के महल एवं रामराजा का मंदिर अपनी एतिहासिकता के साथ सिर उठाये खड़े है। आज भी नरबर, झांसी, गणकुण्डार, दतिया, बमनुआं, टहरौली, तालवेहट, टोड़ीफतेहपुर, धामोनी, चंदेरी, बरुआसागर, जगम्मनपुर, बेलाताल, छतरपुर एवं समथर आदि जगहांे के विशाल दुर्ग दर्शकों को प्रेरणा एवं प्रोत्साहन प्रदान करते है और अपने अंचल में छिपाये हुये वीरो की गाथायें कहते है। कालपी का व्यास टीला, ओरछा का चतुर्भज मंदिर, सेवड़े का सनकुआ, चरखारी के प्राचीन तालाव, गुप्तकालीन जराय का मठ, विश्व प्रसिद्ध दशावतार का मंदिर, प्राचीन जैन मंदिर, चित्रकूट की गुप्तगोदाबरी गुफायें, बरुआ सागर के झरने, पन्ना की हीरे की खदाने एवं राष्ट्रीय वाघ अभ्यारण, कीरत सागर झील पर्यटकों को अपनी ओर स्वतरू ही आकर्षित करते हैं।

बुन्देलखण्ड का इतिहास एवं प्राकृतिक वातावरण जितना वैभवशाली एवं रमणीक है, उतनी ही यहाँ की संस्कृति अतुलनीय है। बुन्देलखण्ड की लोक संसकृति लोक साहित्य, भी मनोरम है। आमोद प्रमोद के लिये यहाँ ललित कलाओं का भण्डार है। लगभग दो दर्जन से अधिक परंपरागत लोकनृत्यों के स्वरुप, सौ से अधिक लोक रागिनियों के भेद.प्रभेद, लोक नाट्य हजारों वर्षों की परंपरा में इतने रचे वसे है कि वे लोक रंजन का शसक्त माध्यम है। पर्यटकों को मुग्ध करने की अद्भुद क्षमता इनमें है।
बुन्देलखण्ड वैदिक काल से मध्यकाल की लम्बी विभिन्य परंपराओं में सारगर्भित नामों से जाना जाता रहा है। ललित कलाओं के नाम पर वास्तुकला मूर्तिकला केे साथ.साथ चित्रकला, संगीतकला के क्षेत्र में अतीत गौरवपूर्ण रहा है। बुन्देलखण्ड के बृहत क्षेत्र में कलापूर्ण व श्रेष्ठ हिन्दू मंदिर तथा जैन मंदिरों के साथ विशाल दुर्ग एवं महल जो प्राचीन काल से लेकर अब तक प्रत्यक्ष या अवशेष रुप में प्रप्त होते हंै। स्थापत्य अद्भुतताओं के साथ ही घने जंगलों, नदियों, अभ्यारणांें के प्रकृति.जन्य वरदानों से भी यह बहुत समृद्ध है। बुन्देली धरा है: स्थापत्य के वैभव की, पौराणिक विश्वासों की, शास्त्रीय कलाओं की, लोकगीतों की, वीरता पूर्ण इतिहास की, प्राकृतिक उदारता की, प्रदूषणमुक्त वातावरण की, रामायण के अनुष्ठानों की, तानसेन के संगीत की और महारानी के पराक्रम कीण्

बुन्देलों की सुनो कहानी, बुन्देलों की बानी में।
पानीदार यहां को पानी, आग यहाँ के पानी में।।

By
(अजय सिंह कुशवाह)
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय