(Article) पैकेज की नहीं बेहतर प्रबंध की जरूरत है बुंदेलखंड को : Pankaj Chaturvedi
पैकेज की नहीं बेहतर प्रबंध की जरूरत है बुंदेलखंड को
पंकज चतुर्वेदी
खजुराहो एशिया का एकमात्र ‘गांव’ है, जहां बोईंग विमान उतरने की सुविधा है । यहां पांच पंचसितारा होटल हैं । यहां जमीन के दाम पचास लाख रूपए एकड़ पहुंच गए हैं । खजुराहो का जिला मुख्यालय मध्यप्रदेश का छतरपुर जिला है, जहां की बस्तियों में सारी रात हैंडपंप चलने की आवाजें आती हैं । नल सूख चुके हैं । लोग इस उम्मीद में रात दो-तीन बजे हैंडपंप पर आते है। कि कम भीड़ मिलेगी, लेकिन तब भी 20-25 डिब्बे-बाल्टी कतार में दिखते हैं । यह वे भी जानते हैं कि यह हैंडपंप अब ज्यादा दिन साथ नहीं देने वाले हैं । अभी गरमी बहुत दूर है । हल्की-हल्की ठंड ने दस्तक दे दी है । लेकिन कुंओं की तलहटी दिखने लगी है । जो तालाब साल भर लबालब भरे रहते थे, कार्तिक का स्नान करने वालों को उसमें निराशा दिख रही है । लोगों ने अपनी पोटलियां लेकर दिल्ली-पंजाब की राह पकड़ ली है । पेट की आग ऐसी है कि सुलगते जम्मू-कश्मीर जाने में भी कोई झिझक नहीं है । मध्यप्रदेश के बुंदेलख्ंाड के मुख्य हिस्से, सागर संभाग के पांच जिलों- छतरपुर, पन्ना,टीकमगढ़ सागर, दमोह, से अभी तक कोई आठ लाख लोग अपने घर-गांव छोड़ कर भाग चुके हैं । उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड के जिलों - झांसी, महोबा, हमीरपुर, बांदा, ललितपुर, चित्रकूट और जालौन के हालात भी ठीक ऐसे ही हैं । कई लोग केवल इसलिए पलायन नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि उनके पास बाहर जाने के लिए फूटी छदाम नहीं है ।
मध्यभारत के सबसे बड़े रेलवे जंक्षन झांसी में बीते कई महीनों से पोटलियां लिए बुंदेलखंडियों का कब्जा है - जहां रोजी-रोटी की आस उसी ओर चल दिए। कई जिले तो ऐसे हैं जहां की आधी आबादी भूख-प्यास के भय से पलायन कर चुकी है। झांसी और ललितपुर में कई किसान सूदखोरों को अपने घर की औरतें सौंपने को मजबूर हो गए हैं। मामले की जांच महिला अयोग कर रहा है। लेकिन असली संकट तो यह है कि अगली बारिष तक कैसे काम चलेगा।
हीरों की धरती कहलाने वाले पन्ना जिले में कुछ पानी तो बरसा , लेकिन ऐसा बरसा कि 71 प्रतिशत खेत सूखे रह गए । जिले में पत्थर खदानें बंद होने के कारण वैसे ही बेरोजगारी बढ़ गई है । सूखे के कारण कृषि-मजदूरी भी नहीं है, सो गांव के गांव महानगरों की ओर पलायन कर रहे हैं ।
छतरपुर व टीकमगढ़ जिले प्राकृतिक असंतुलन की त्रासदी भोगने को अभिशप्त हैं । प्रकृति के साथ किए गए खिलवाड़ के परिणामस्वरूप यहां हर दूसरे साल अल्प वर्षा का आतंक रहता है । इस बार छतरपुर जिले में करीब 27 इंच पानी बरसा, जो कि पिछले साल के बराबर ही है । उससे पिछले साल भी इंद्र की मेहरबानी लगभग इतनी ही थी । लगातार तीन साल से अल्प वर्षा का प्रकोप झेल रहे जिले की 80 फीसदी फसल चैपट हो चुकी है ।
छतरपुर शहर की प्यास बुझाने वाले दो स्त्रोतों में से एक खोंप ताल पूरी तरह सूख चुका है । बूढ़ा बांध में बामुश्किल दो महीने का पानी शेष है । भूगर्भ जल स्तर अचानक छह से 10 मीटर नीचे तक चला गया है । अकेले इस जिले से डेढ़ लाख लोगों के घर-बार छोड़ने की बात स्थानीय नेता राज्य सरकार को बता चुके हैं ।
जिले के आदिवासी बाहुल्य गांव बरानाद में घर-घर के बाहर पेड़ की छाल व बेल-फल सूखते मिल जाएंगे । पिछले तीन साल से पानी, ओला और सूखे से लगातार आहत आदिवासियों के पास खाने को अनाज नहीं बचा है । वे पेड़ की छाल व बेल को पीसकर काम चला रहे हैं । इस गांव में पसरट (किराना) की दुकान करने वालेों ने अपनी दुकान दीवाल पर भी बंद रखने की ठान ली है । उनका कहना है कि लोगों के पास खरीदारी के लिए पैसा है नहीं । भूखे लोग उधार मांगते हैं, वह कब तक उधार दे और किस-किस को मना करे ।
यही हाल निमानी, शोरा, मलार, लखनवा सहित तीन दर्जन गांवों के हैं। यहां मौसम की मार को भांपते हुए साहूकारों ने भी उधार पैसा देना बंद कर दिया है । सिग्रामपुर, भरवाना,मोहनपुरा,बिनेदा जैसे कई गांव वीरान हो गए हैं क्योंकि वहां पेय जल का एक भी स्त्रोत नहीं बचा है ।
संभागीय मुख्यालय सागर शहर में 140 लाख गेलन पानी की हर रोज जरूरत है, जबकि सप्लाई मात्र 25 लाख गेलन की है । सरकारी कागज सरकार की नाकामी का खुलासा करते हुए कहते हैं कि सागर में जल प्रदाय के पंपिंग स्टेशनों को पर्याप्त वोल्टेज के साथ बिजली ना मिलने के कारण पानी की सप्लाई बाधित है । यदि सागर के बीचों बीच फैले तालाब पर नजर डालें तो सोचने को मजबूर होना पडेगा कि इतनी विशाल जल-निधि के रहते हुए पानी का टोटा होना, कहीं मानव जन्य त्रासदी तो नहीं है?
पिछले साल वहां ठीक-ठाक बारिष हुई थी, पूरे पांच साल बाद। और एक बार फिर बुंदेलखंड सूखे से बेहाल है । लोगों के पेट से उफन रही भूख-प्यास की आग पर सियासत की हांडी खदबदाने लगी हैं । कोई एक महीने पहले बुंदेलखंड के अंतर्गत आने वाले मध्यप्रदेष और उत्तरप्रदेष के कांग्रेसी राहुल गांधी के साथ प्रधानमंत्री से मिले थे और क्षेत्र में राहत के लिए विषेश पैकेज और प्राधिकरण की मांग रखी थी। उधर म.प्र. और उत्तरप्रदेष की सरकारें इस तरह के विषेश पैकेज या प्राधिकरण को देष के गणतांत्रिक ढांचे के विपरीत मान रही हैं। मसला सियासती दांव-पेंच में उलझा है और दो राज्यों के बीच फंसे बुंदलेखंड से प्यासे, लाचार लोगों का पलायन जारी है। कई जिलॊ की तो आधी आबादी अपने घर-गांव छोड़ चुकी है। ईमानदारी से तो नेता बुंदेलखंड की असली समस्या को समझ ही नहीं पा रहे है।
बुंदेलखंड की असली समस्या अल्प वर्शा नहीं है, वह तो यहां सदियों, पीढ़ियों स होता रहा है। पहले यहां के बाषिंदे कम पानी में जीवन जीना जानते थे। आधुनिकता की अंधी आंधी में पारंपरिक जल-प्रबंधन तंत्र नश्ट हो गए और उनकी जगह सूखा और सरकारी राहत जैसे षब्दों ने ले ली। अब सूखा भले ही जनता पर भारी पड़ता हो, लेकिन राहत का इंतजार सभी को होता है- अफसरों, नेताओं-- सभी को। यही विडंबना है कि राजनेता प्रकृति की इस नियति को नजरअंदाज करते हैं कि बुंदेलखंड सदियों से प्रत्येक पांच साल में दो बार सूखे का षिकार होता रहा है और इस क्षेत्र के उद्धार के लिए किसी तदर्थ पैकेज की नहीं बल्कि वहां के संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की दरकार है। इलाके में पानी की बर्बादी को रोकना, लोगो को पलायन के लिए मजबूर होने से बचाना और कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देना; महज ये तीन उपचार बुंदेलखंड की तकदीर बदल सकते हैं।
मध्यप्रदेष के सा्रगर संभाग के पांच जिले - छतरपुर, पन्ना, टीकमगढ़, सागर और दमोह व चंबल का दतिया जिला मध्यप्रदेष के बुंदेलखंड में आते हैं। जबकि उत्तरप्रदेया का के झांसी संभाग के सभी जिले- झांसी, ललितपुर, बांदा, महोबा, चित्रकूट, उरई और हमीरपुर बुंदलेखंड भूभाग में हैं। यह तथ्य सर्वमान्य हैं कि बुंदेलखंड प्राकृतिक संपदा के मामले में संपन्न हैं, यह इलाका अल्प वर्षा का स्थाई शिकार हैं और यह भी कि यह इलाका लगातार सरकारी उपेक्षा का शिकर रहा हैं । आजादके बाद से ही जब सूखा चरम पर होता है तो दोनों प्रदेष की सरकारें कुछ राहत कार्य लगा देती है। जैसा कि पूरे देष में हाता है, असल राहत तो नेताओं व अफसरों के लिए होती है। सो कुछ दिनों बाद हालत जस के तस हो जाते हैं।
बुंदेलखंड की विडंबना है कि एक सांस्कृतिक और सामाजिक एकरूप भौगोजिक क्षेत्र होने के बावजूद यह दो राज्यों - मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में बंटा हुआ हैं । कोई 1.60 लाख वर्गकिमी क्षेत्रफल के इस इलाके की आबादी तीन करोड़ से अधिक हैं । सहां हीरा, ग्रेनाईट की बेहतरीन खदाने हैं, जंगल तेंदू पत्ता, आंवला से पटे पड़े हैं, लेकिन इसका लाभ स्थानीय लोगों को नहीं मिलता हैं । दिल्ली, लखनऊ और उससे भी आगे पंुजाब तक जितने भी बड़े निर्माण कार्य चल रहे हैं उसमें अधिकांश में ‘‘ गारा-गुम्मा’’(मिट्टी और ईंट)का काम बुंदेलखंडी मजदूर ही करते हैं । शोषण, पलायन और भुखमरी को वे अपनी नियति समझते हैं । जबकि खदानों व अन्य करों के माध्यम से बुंदेलखंड सरकारों को अपेक्ष से अधिक कर उगाह कर देता हैं, लेकिन इलाके के विकास के लिए इस कर का 20 फीसदी भी यहां खर्च नहीं होता हैं । इलाके का बड़ा हिस्सा रेल लाईन से मरहूम है, सड़कें बेहद खराब हैं । कारखाने कोई हैं नहीं । यहां की राजनीति ‘‘ कट्टे और पट्टे’’ यानी बंदूक का लाईसेंस व जमीन के पट्टे के इर्दगिर्द घूमती रहती हैं ।
बुंदेलखंड के पन्ना में हीरे की खदानें हैं, यहां का ग्रेनाईट दुनियाभर में घूम मचाए हैं । यहां की खदानों में गोरा पत्थर,, सीमेंट का पत्थर, रेत-बजरी के भंडार हैं । इलाके के गांव-गांव में तालाब हैं, जहां की मछलियां कोलकाता के बाजार में आवाज लगा कर बिकती हैं । इस क्षेत्र के जंगलों में मिलने वाले अफरात तेंदू पत्ता को ग्रीन-गोल्ड कहा जाता है । आंवला, हर्र जैसे उत्पादों से जंगल लदे हुए हैं । लुटियन की दिल्ली की विशाल इमारतें यहां के आदमी की मेहनत की साक्षी हैं । खजुराहो, झांसी, ओरछा जैसे पर्यटन स्थल सालभर विदेयाी घुमक्कड़ेां को आकर्षित करते हैं । अनुमान है कि दोनों राज्यों के बुंदेलखंड मिला कर कोई एक हजार करोड़ की आय सरकार के खाते में जमा करवाते हैं, लेकिन इलाके के विकास पर इसका दस फीसदी भी खर्च नहीं होता हैं ।
बुंदेलखंड के सभी कस्बे, षहर की बसाहट का एक ही पैटर्न रहा है - चारों ओर उंचे-उंचे पहाड, पहाड़ की तलहटी में दर्जनों छोटे-बड़े ताल-तलैयां और उनके किनारों पर बस्ती। टीकमगढ़ जैसे जिले में अभी तीन दषक पहले तक हजार से ज्यादा तालाब थे। पक्के घाटों वाले हरियाली से घिरे व विशाल तालाब बुंदेलखड के हर गांव- कस्बे की सांस्कृतिक पहचान हुआ करते थे । ये तालाब भी इस तरह थे कि एक तालाब के पूरा भरने पर उससे निकला पानी अगले तालाब में अपने आप चला जाता था, यानी बारिष की एक-एक बूंद संरक्षित हो जाती थी। चाहे चरखारी को लें या छतरपुर को सौ साल पहले वे वेनिस की तरह तालाबों के बीच बसे दिखते थे। अब उपेक्षा के षिकार शहरी तालाबों को कंक्रीट के जंगल निगल गए । रहे -बचे तालाब शहरांे की गंदगी को ढोनेे वाले नाबदान बन गए । गांवों की अर्थ व्यवस्था का आधार कहलाने वाले चंदेलकालीन तालाब सामंती मानसिकता के शिकार हो गए । सनद रहे बुंदेलखंड देश के सर्वाधिक विपन्न इलाकों में से है । यहां ना तो कल-कारखाने हैं और ना ही उद्योग-व्यापार । महज खेती पर यहां का जीवनयापन टिका हुआ है । कुछ साल पहले ललितपुर जिले में सीटरस फलों जैसे संतरा, मौसंबी, नीबू को लगाने का सफल प्रयोग हुआ था। वैज्ञानिकों ने भी मान लिया था कि बुंदेलखंड की पथरीली व अल्प वर्शा वाली जमीन नागपुर को मात कर सकती है। ना जाने किस साजिष के तहत उस परियोजना का न तो विस्तार हुआ और ना ही ललितपुर में ही जारी रहा।
कभी पुराने तालाब जीवन रेखा कहलाते थे । समय बदला और गांवों में हैंडपम्प लगे, नल आए तो लोग इन तालाबों को भूलने लगे । कई तालाब चैरस मैदान हो गए कई के बंधान टूट गए । तो जो रहे बचे, तो उनकी मछलियों और पानी पर सामंतोंका कब्जा हो गया । गौरतलब है बुंदेलखंड में सामंतशाही केवल क्षत्रियों की बपौती नही बल्कि जहां मौका मिला वहां ब्राहमण, वैश्य ही नहीं पिछड़े कहे जाने वाले लोधी, यादव और अनुसूचित अहिरवार भी पीछे नहीं है । तालाबों की व्यवस्था बिगड़ने से ढ़ीमरों की रोटी गई । तालाब से मिलने वाली मछली, कमल-गट्टे, यहां का अर्थ-आधार हुआ करते थे । वहीं किसान सिंचाई से वंचित हो गया । कभी तालाबों का रखवाला कहलाने वाला बुंदेलखंड का ढीमर अब सरकारी दफतरों में चपरासी, घरों में काम करने वाला माते या दिल्ली,लखनउ में रिक्शा खींचने की मशक्कत कर रहा है । जबकि किसान पेट भरने के लिए भवन निर्माण के कामों में मजदूरी करने पर विवश है । तालाब सूखे तो भूगर्भ जल का भंडार भी गड़बड़ाया । आज के अत्याधुनिक सुविधा संपन्न भूवैज्ञानिकों की सरकारी रिपोर्ट के नतीजों को बुंदेलखंड के बुजुर्गवार सदियों पहले जानते थे कि यहां की ग्रेनाईट संरचना के कारण भूगर्भ जल का प्रयोग असफल रहेगा । तभी हजार साल पहले चंदेलकाल में यहां की हर पहाड़ी के बहाव की ओर तालाब तो बनाए गए, ताकि बारिश का अधिक से अधिक पानी उनमें एकत्र हो, साथ ही तालाब की पाल पर कुंए भी खोदे गए । लेकिन तालाबों से दूर या अपने घर-आंगन में कुंआ खोदने से यहां परहेज होता रहा ।
गत् दो दशकों के दौरान भूगर्भ जल को रिचार्ज करने वाले तालाबों को उजाड़ना और अधिक से अधिक टयूब वेल, हैंडपंपों को रोपना ताबड़तोड़ रहा । सो जल त्रासदी का भीषण रूप तो उभरना ही था । साथ ही साथ नलकूप लगाने में सरकार द्वारा खर्च अरबों रूपये भी पानी में गए । क्योंकि इस क्षेत्र में लगे आधेेेेेेे से अधिक हैंडपंप अब महज ‘शो-पीस’ बनकर रह गए हैं । साथ ही जल स्तर कई मीटर नीचे होता जा रहा है । इससे खेतों की तो दूर, कंठ तर करने के लिए पानी का टोटा हो गया है ।
कभी बुंदेलखंड के 45 फीसदी हिस्से पर घने जंगल हुआ करते थे । आज यह हरियाली सिमट कर 10 से 13 प्रतिशत रह गई है । यहां के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों सौर, कौंदर, कौल और गोंड़ो की यह जिम्मेदारी होती थी कि वे जंगल की हरियाली बरकरार रखें । ये आदिवासी वनोपज से जीवीकोपार्जन चलाते थे, सूखे गिरे पेड़ों को ईधन के लिए बेचते थे । लेकिन आजादी के बाद जंगलों के स्वामी आदिवासी वनपुत्रों की हालत बंधुआ मजदूर से बदतर हो गई । ठेकेदारों ने जमके जंगल उजाड़े और सरकारी महकमों ने कागजों पर पेड़ लगाए । बुंदेलखंड में हर पांच साल में दो बार अल्प वर्षा होना कोई आज की विपदा नहीं है । फिर भी जल, जंगल, जमीन पर समाज की साक्षी भागीदारी के चलते बुंदेलखंडी इस त्रासदी को सदियों से सहजता से झेलते आ रहे थे । पेड़ों के घटने से यहां के ऊंचे-नीचे पथरीले पहाड़ नंगे हो गए । वैसे ही यहां की नदियां पहाड़ी थीं, जो चट दफनती और पट रीती हो जाती है । पेड़विहीन धरती को बारिश का पानी सीधे चोट पहुंचाता है और मिट्टी की ऊपरी उपजाऊ परत खुद कर पहाड़ी नदियों को और उथला बना देती है । इससे एक तो नदियों की जल ग्रहण क्षमता कम हुई, दूसरा भूमि की उर्वरा शक्ति भी चैपट हुई ।
कभी शौर्य और बलिदान के लिए पहचाने जाते बुंदेलखंड से लोगों का पलायन, वहां के सामाजिक विग्रह का चरम रूप है । स्थानीय स्तर पर रोजगार की संभावनाएं बढ़ाने के साथ-साथ गरीबों का षेाशण रोक कर इस पलायन को रोकना बेहद जरूरी है।यह क्षेत्र जल संकट से निबटने के लिए तो स्वयं ही समर्थ है, जरूरत इस बात की है कि यहां की भौगोलिक परिस्थितियों के मद्देनजर परियोजनाएं तैयार की जाएं । विशेषकर यहां के पारंपरिक जल स्त्रोतों का भव्य अतीत स्वरूप फिर से लौटाया जाए । यदि पानी को सहेजने व उपभोग की पुश्तैनी प्रणालियों को स्थानीय लोगों की भागीदारी से संचालित किया जाए तो बुंदेलखंड का गला कभी रीता नहीं रहेगा ।
यदि बंुदेलखंड के बारे में ईमानदारी से काम करना है तो सबसे पहले यहां के तालाबों का संरक्षण, उनसे अतिक्रमण हटाना, तालाब को सरकार के बनिस्पत समाज की संपत्ति घोशित करना सबसे जरूरी है। नारों और वादों से हट कर इसके लिए ग्रामीण स्तर पर तकनीकी समझ वाले लोगों के साथ स्थाई संगठन बनाने होंगे। दूसरा इलाके पहाड़ों को अवैध खनन से बचाना, पहाड़ों से बह कर आने वाले पानी को तालाब तक निर्बाध पहंुचाने के लिए उसके रास्ते में आए अवरोधों, अतिक्रमणों को हटाना जरूरी है। बुंदेलखंड में केन, केल, धसान जैसी गहरी नदियां हैं जो एक तो उथली हो गई हैं, दूसरा उनका पानी सीधे यमुना जैसी नदियों में जा रहा है। इन नदियों पर छोटे-छोटे बांध बांध कर पानी रोका जा सकता है। हां, केन-धसान नदियों को जोउ़ने की अरबों रूपए की योजना पर फिर से विचार भी करना होगा, क्योंकि इस जोड़ से बुंदेलखंड घाटे में रहेगा। सबसे बड़ी बात, स्थानीय संसाधनों पर स्थानी लोगों की निर्भरता बढ़ानी होगी। इन सब कामों के लिए कोई बहुत बउ़े बजट की जरूरत भी नहीं है।
दो राज्येंा में बंटे बंुदेलखंड की राज्य सरकारों ने इलाके को सूखाग्रस्त घोषित कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली है । कुछ जगह हो सकता है कि राहत कार्य चलें, हैंडपंप भी रोपे जाएं, लेकिन हर तीन साल में आने वाले सूखे से निबटने के दीर्घकालीन उपायों के नाम पर सरकार की योजनाउं कंगाल ही नजर आती है। । स्थानीय संसाधनों तथा जनता की क्षमता-वृद्धि, कम पानी की फसलों को बढ़ावा, व्यर्थ जल का संरक्षण जैये उपायों को ईमानदारी से लागू करे बगैर इस शौर्य-भूमि का तकदीर बदलना नामुमकिन ही है ।
पंकज चतुर्वेदी
Pankaj Chaturvedi
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