(Article) पृथक प्रान्त बुंदेलखण्ड

पृथक प्रान्त बुंदेलखण्ड

एक नये प्रांत के रूप में बुंदेलखण्ड की हदबंदी की जाये, इस बात का आंदोनल उठ खड़ा हुआ है। जबई-गांव में जमीन के लिये होने वाले झगड़ों से इसकी तुलना नहीं की जा सकती।
बटवारे के मूल में ऊपर भी विभिन्नता की, विच्छिन्नता की, भावनारहती है, इतना मेरा है, इसके साथ ही इतना तुम्हारा नहीं है न कहकर भी कह दिया जाता है।

आरंभ से ही र्मैंने अखण्ड भारत कु सम्मलित गौरव का अनुभव किया हैं यिद मैं उसे प्रान्त-प्रान्त में विभाजित कर देता तो हिमालय से लेकर सागर पर्यन्त फैली हुई कितनी ही कीर्ति कथाओं और वैभव सम्प्रदायों को किसी न किसी रूप में परकीय कर देना पड़ता। मेवाड़ और पूरा आगरा और दिल्ली, की बात ही क्या, मथुरा, अयोध्या, और काशी तक किसी ऊँची दीवार के बाहर बहुत दूर पहुंच गये होते।

इसी से प्रान्त निर्माता की बात मेरे मन में कभी नहीं उठी है। फिर भी देश में कितने ही प्रान्त है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। उनमें से कई भाषाओं में प्राचीन और आधुनिक साहित्य की समृद्धि और सम्पदा भी है। जो बुंदेलखण्ड प्रान्त निर्माण के लिये आंदोलित प्रान्त निर्माण के लिये आंदोलित हैं वह स्पष्ट नहीं बताते कि जब बुंदेलखण्ड एक नया प्रान्त बन जायेगा, तब यहां किस भाषा के द्वारा हमारा प्रान्तीय कारबार चलेगा। पाठशालाओं, अदालतों और धारा सभा की भाषा कौन सी होगी? प्रान्त निर्माण पर बुंदेलखण्ड में बुंदेलखण्डी होनी ही चाहिये। इसके बिना प्रान्त की विशेषता का बोध कैसे होगा?
यहां की बोली मुधर हैं, उसमें रची गई कुछ कविताओं में हृदय को छू लेने की शक्ति का परिचय भी हमें मिल चुका है। पर इतने से ही वह प्रान्त की राजवाणी होने का अधिकार नही ले सकती। इसके लिये बहुत कुछ करना पड़ेगा। भूगोल, इतिहास, दर्शन और विज्ञान आदि की प्रारंभिक पुंस्तकों का निर्माण भी कुछ छोटा काम न होगा। इस सबके लिये आंदोलन के समर्थकों की और से कोई भी तैयार नहीं दीख पड़ता। इससे अनुमान होता है कि इस प्रांत में हिन्दी जहां की तहां रहने दी जायेगी। यह आबत आगे चलकर खटक सकती है। बुंदेलखण्ड में बुंदेलखण्डी को प्रतिष्ठित करने की कामना प्रांत प्रेमी उसी स्वाभाविकता से कर सकते है, जिसके भक्त प्रज्ञा राजा के साथ रानी को भी सिंहासन पर देखना चाहती है।

यह सब व्यापक दृष्टि से ठीक नहीं है, हिन्दी भाषी प्रदेश ही ऐसा देश है, जहां प्रान्तीयता का विष अभी तक नहीं फैला।

यह इसलिये कि हिन्दी प्रान्तीय न होकर राष्ट्रीय भाषा है और इसके बोलने वालों के रक्त तक में यह भावना घुल-मिलकर एक हो गई है। यह बहुत बड़ी वस्तु है, जिसका छोटी-मोटी सविधा के लिये बलिदान कर बैठना युक्ति संगत न होगा।

प्रान्त विभाजन की योजना सांस्कृतिक आधार पर उठाई गई बताई जाती है। बुंदेलखण्डी बोली के शब्द कोष का निर्माता यहां की लोक गाथाओं और कहावतों के संग्रह यहां के साहित्यिक कृतियों के अध्ययन और प्रकाशन आदि के कार्य वास्तव में अभिनंदनीय है। पर इतने के ही लिये प्रान्त के विभाजन की आवश्यकता नहीं पड़ती। दूर विदेशों में बैठकर कितने ही विदेशियों ने संस्कृत साहित्य की गवेषणा करके अमूल्य सांस्कृतिक कार्य किया हैं।

प्रान्त विभाजन सदा से राजनीतिक दृष्टिकोण के सामने रखकर किये जाते है। राजनीतिक का काम पृथककरण रहा है और सांस्क तिक का सयोंजन। संस्कृति ने ही हमें बताया है कि सारा भारत वर्ष एक हैं उसने प्रान्त की बात को कभी महत्व नहीं दिया। प्रान्त निर्माता की चर्चा से यह स्थिति सामने आ जायेगी कि हम बुंदेलखण्डी आगे चलकर यह कहेंगे, हिन्दी हमारी मातृभाषा नहीं है। प्रान्तीय बोली का आदर उचित है, पर उसे इस सीमा तक पहुंचाने के लाभ के लिये बदले हानि ही स्पष्ट है। गौतम बुद्ध जैसे असामान्य पुरूष के उपदेश पाली में किये जाने से उनके धर्म की जड़े गहराई तक नहीं पहुंच सकी और इस देश से उसका प्रायः लोप हो गया। यदि उनकी वाणी संस्कृत में भी होती तो ऐसा न होता।

प्रान्त निर्माता की समस्या शुद्ध राजनैतिक समस्या है। उसका संबंध साहित्य से इतना नहीं है जितना किसी दरबार में राजा से दरबारी कवि का होता हैं इस आंदोलन के विषय में विकेन्दीकरण के सिद्धान्त का उल्लेख किया गया है। यह यथा स्थन और यशोपयुक्त नहीं। सांस्कृतिक दृष्टि से भी इस समय एकीकरण की आवश्यकता प्रमुख है। देश में इतने अधिक अनैक्य पहले से ही है, जिनके दूर करने में आशातीत समय और घनीभूत शक्ति का उपयोग करना पड़ेगा। वर्तमान में तो न जोन कितनी निरंकुश सत्ताओं ने इस भूमि भाग को खण्डित कर रखा है। ऐसे में प्रान्त निर्माण का यह आंदोलन लंकाकाण्ड का पाठ छोड़कर उत्तर काण्ड का खंडित पारायण जैसा है।

गहरी अशंका है जबतकि विभिन्न स्तानों की चर्चा यहां-वहां बड़े जोरों से चल पड़ी है तब कही बुंदेलखण्ड की बात बुदेलिस्त जैसी बात न हो जाये। हम जानते है कि बुंदेली में कुछ वंदनीय पुरूष उत्पन्न हुये हैं उनकी विशेषताओं के लिये व्यक्तिगत रूप से उनका सम्मान बराबर किया जायेगा। पर इसके लिये मैं यह पसंद न करूंगा कि इस भूमि-भाग का नाम बुंदेलस्तान या इससे मिलता-जुलता रहे। सामंतशाही के सम्मान की यह विधि मेरी कम से कम मेरी, रूचि की नहीं है।

-सियाराम शरण गुप्त
(यह आलेख मधुकर पत्रिका के 16 मई 1943 में प्रकाशित बुन्देलखण्ड प्रान्त अंक से साभार प्रस्तुत है।)

संकलन एवं प्रस्तुति
सुरेन्द्र अग्निहोत्री, लखनऊ