(Article) बुन्देलखण्ड को तवाह किया! विकास के गलत माडल नें

बुन्देलखण्ड को तवाह किया! विकास के गलत माडल नें

अवधेश गौतम, बांदा
दुनियां में हमेशा ही मात्र दो ही तरह की संस्कृतियां रही हैं, एक पूर्वी संस्कृति और दूसरी पश्चिमी संस्कृति । इन दोनों प्रकार की संस्कृतियों का विकास और इन दोनों में अन्तर वहां की भौगोलिक और जलवावीय परिरिस्थितियों के कारण ही हुआ है। संस्कृतियों के विकास का क्रम क्षेत्र विशेष की परिस्थितियों में जीवन केलिए अपनाए गए तरीके से प्रारम्भ होता है। एक के द्वारा अपनाए गए तरीके को दूसरे ने, दूसरे के बाद तीसरे ने अपनाया और वह तरीका एक रीति बन गयी, रीति से प्रथा फिर परम्परा, इसके बाद सभ्यता का विकास हुआ। सभ्यताएं निन्तर परिमार्जित होते आगे बढ़ती गयी।

जब उस एक भूभाग विशेष के सभी लोगों नें उस सभ्यता को अपनी सहमति दे दी शताब्दियों का सफर तय करनें के बाद कोई सभ्यता संस्कृति का रूप ले पाती है। सांस्कृतिक विकास की इस प्रक्रिया में यदि जरा सा भी भटकाव आया तो रीति से रिवाज, रिवाज से पद्धति और पद्धति से धर्म विकसित हो जाता है। चूंकि दोनों का उद्देश्य एक ही है, जीवन की सहजता और सरलता तथा विकासक्रम भी एक ही जैसा यही कारण है कि आज लोग भ्रमित हैं। इस भ्रम के कारण ही लोग संस्कृति को धर्म के रूप में तथा धर्म को संस्कृति के रूप में परिभाषित कर झगड़ते रहते हैं।

पूर्वी दुनियां में प्रकृति स्वतः ही सहज और सरल है अतः यहां जीवन केलिए अधिक संघर्ष की आवश्यकता नहीं है। यहां के लोग प्रकृति को अपनी मां मानते हैं, और इसीलिए उसके सहचर बनकर जीवन के विकास की सम्भावनाएं तो तलाषते ही हैं साथ ही वह प्रकृति की भी सुरक्षा और विकास की सम्भावना तलाशते हैं। पश्चिमी दुनिया की प्रकृति बहुत ही जटिल है, जीवन की सहजता और सरलता तो दूर की बात है। यही कारण है कि पश्चिमी दुनिंयां के लोग प्रकृति को बड़े नाखूनों और दांतों वाली राक्षसी मानते हैं। सोचते हैं कि वह उन्हें मार कर खा जायगी अगर वह उसे नियन्त्रित नहीं करते हैं।

सहज ही आंकलन किया जा सकत है कि उपरोक्त दोनों अलग अलग परिस्थितियों में जिस संस्कृति का विकास होगा उनमें आपस में क्या और कितनें अन्तर होंगे। यही कारण है कि पूर्वी संस्कृति “ला आफ सेक्रीफाइज” से अनुशासित है। देखनें को भी मिलता है, प्रकृति के प्रति सेक्रीफाइज, परिवार के प्रति सेक्रीफाइज, समाज के प्रति सेक्रीफाइज, जन्मभूमि और मात्रभूमि के प्रति सेक्रीफाइज। लेकिन पश्चिमी संस्कृति “ला आफ एक्सप्लाइटेशन” के द्वारा अनुशासित है। पश्चिमी दुनियां में तो प्रकृति, परिवार, समाज, यहां तक की दुनियां में कहीं भी एक्सल्पाइटेशन से बाज नहीं आतें जहां कोई जरा सा भी मजबूर दिखा उसका शोषण कर लिया।

पूरी दुनियां में पूर्वी संस्कृति की अगुवाई करता है हिन्दुस्तान। अविकसित कहे जानें वाले इस देश के हिस्सों में आज भी पूर्वी संस्कृति के द्वारा जीवन की सहजता आसानी से खोजी जा सकती है। सांस्कृतिक समृद्धि के कारण ही यहां आर्थिक समृद्धि थी। जिसकी वजह से यहां लुटेरे हमेशा ही आकर्शित होते रहे। कई विदेशी लुटेरे आए और यहां से धन लूट कर चले गए उन्होंनें यहां की संस्कृति को बाधित नहीं किया। मुस्लिम आए तोथे लूट के इरादे से लेकिन यहां की प्राकृतिक सहजता को देख यहां रुक गए और देशी शासकों को पराजित कर अपनी सल्तनतें कायम कर लीं।

चूंकि प्रकृति और संस्कृति के बारे में उन्हें बहुत समझ नहीं थी उनमें केवल धार्मिक समझ ही थी और धर्म के प्रति वह बहुत रिजिड भी थे इस लिए धार्मिक परिवर्तन के नाम पर कुछ काम तो किया लेकिन पूर्वी संस्कृति को वह भी बहुत नुकसान नहीं पहुंचा पाए। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के माध्यम से पूरी दुनियां की सम्पत्ति और ज्ञान समेटने के बाद जब क्राउन नें कम्पनी के हाथ से हिन्दुस्तान की सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ली, उसी समय से सांस्कृतिक पराजय की शुरुवात होती है। हिन्दुस्तानियों नें अग्रेजों द्वारा धन की लूट का तो अहसास किया लेकिन दबे पांव देश में घुस रही सांस्कृतिक पराजय का अहसास किसी नें नहीं किया। उस समय के स्वनामधन्य कवियों नें भी तो लिखा, “अग्रेज राज सबै सुख भारी , धन विदेश चलिजात यहै बड़ ख्वारी,।”

हिन्दुस्तान में अग्रेज योजनाबद्ध तरीके से दो काम कर रहे थे। एक तो यहो का धन लूट रहे थे और दूसरा विकास के नाम पर यहां की संस्कृति के अनुरूप चल रही विकास पद्धति पर पश्चिमी संस्कृति की विकास पद्धित की ओरराइटिंग कर रहे थे। आजादी के दीवानों में केवल दो के पास ओवरराइट्रिग के पीछे की इबारत बांचने की सामर्थ थी, एक गांधी और दूसरे सुभाष। दोनों में बस एक फर्क था गांधी सम्पूर्ण स्वराज की बात कर रहे थे तो सुभाष पहले राजनीतिक आजादी फिर चीन की तरह देश की सीमाएं सील कर सांस्कृतिक आजादी की। देश की आजादी के दौरान की दो घटनाओं नें पूरी पूर्वी सभ्यता को बहुत छति पहुंचाई, एक तो हिन्दुस्तान पाकिस्तान का बटवारा और दूसरी गांधी को न जानने वाले, स्वार्थ बस केवल माननें वालों के हाथ में सत्ता की बाग डोर।

देश की आजादी के बाद सत्ता पाए लोगों नें यहां के संविधान की तरह ही विकास की अवधारणा तय करनें में भी पश्चिमी देशों की ही नकल उतारी। उस समय दुनियां में विकास के दो माडल विकसित हो चुके थे पहला पूंजीवादी माडल जिसे अमेरिकन माडल तथा दूसरा समाजवादी माडल जिसे रसियन माडल के नाम से जानते थे। हमारे तत्कालीन प्रधान मन्त्री पं0 जवाहर लाल नेहरू प्रभावित तो थे “लेडी माउण्टवेटिन से” लेकिन तब तक वह कई गलतियां कर चुके थे जिस कारण उनके खिलाफ बगावत की सुगपुगाहट शुरू हो चुकी थी अतः उन्होंनें रसियन माडल को ही चुना। ताकि विरोध के स्वर ज्यादा प्रखर न हो सकें।

उस समय शायद गांधी के अलावा इस तथ्य से कोई वाकिफ नहीं था कि अमेरिकन और रसियन दोनों ही माडल पश्चिमी संस्कृति से ही निकल कर आए थे। दोनों ही माडल बस पूंजी के बटवारे के मुद्दे को लेकर ही भिन्न थे बाकी सब समानता थे। “ला आफ एक्सप्लाइटेशन” के द्वारा ही अनुशासित थे। देश के विकास की स्वदेशी नींव रखते ही यहां शोषण पर आधारित विकास शुरू हो गया था। देश में इमरजेन्सी लगने तक ऐसे विकास माडल के दुष्परिणाम हमारे सामनें आनें लगे थे, और तभी लोगों नें गांधी को जानना भी शुरू कर दिया था।

विकास के परिणाम और गांधी को जाननें समझनें वालों की सरकार देश में पहली बार बनी जिसमें प्रधानमन्त्री मोरार जी देसाई थे। इस सरकार नें विकास के माडल की समीक्षा की और उसमें अमूलचूल परिवर्तन की प्रक्रिया भी प्रारम्भ करदी थी। लेकिन सरकार में तो अमेरिकन माडल के समर्थक और जो अपनें आप को राष्ट्रवादी कहते हैं, भी शामिल थे। वह मोरार जी की इस बात को क्यों बरदास्त कर लेते, इसलिए मोरार जी की सरकार कुछ समय बाद ही चली गयी। इस प्रकार प्राकृतिक संसाधन दोहन से जो विकास यात्रा इस देश नें शुरू की थी उसनें देश के आम आदमी के जीवन की कीमत कुछ लाख रुपयों के मुआवजे तक लाकर खड़ा कर दिया है।

देश के जो क्षेत्र और व्यक्ति अपनी प्रकृति और संस्कृति के साथ जितना अधिक नजदीकियां बना कर चला उस पर इस विकास का उतना ही अधिक प्रभाव पड़ा। उन्हीं मे से है देश का किसान और बुन्देलखण्ड। इस विकास माडल के समर्थकों को यह कहते शर्म नहीं आती कि विकास केलिए किसी न किसी को शहादत तो देनी ही पड़ेगी।