भारतीय राजनीति में बुन्देलखण्ड़ की ऐतिहासिक भूमिका


भारतीय राजनीति में बुन्देलखण्ड़ की ऐतिहासिक भूमिका


कभी चेदि, कभी दशार्ण, कभी चन्द्रावती तो कभी जुझौती4 , या जैजाकभुक्ति के नाम से जाना जाने वाला बुन्देलखण्ड़ क्षेत्र आज भले ही भारत में विशिष्ट स्थान न रखता हो ऐतिहासिक काल में इसका महत्वपूर्ण स्थान रहा हैं, इतना ही नहीं यह लम्बें समय तक भारतीय राजनीति तथा कला का केन्द्र रहा हैं।

बुन्देलखण्ड़ की युमना, टोंस वेतवा2 , धसान3 , केन तथा काली सिन्ध नदियों के किनारे प्राप्त पाषाण कालीन संस्कृति के अवशेष तथा बांदा4 , सागर5 , ललितपुर एवं छतरपुर जिले के विभिन्न क्षेत्रों से प्राप्त शैल चित्र इस बात में प्रमाण हैं कि यह क्षेंत्र सभ्यता के विकास के प्रारम्भिक काल से ही मानव को विकसित होने के अवसर प्रदान करता रहा हैं।

ऋग्वेद में चेदि का उल्लेख मिलता हैं। रामायण महाभारत, जातक कथाआें तथा सोलह महाजन पदों की सूची6 , में चेदि का वर्णन उस काल में इस क्षेंत्र के महत्व को रेखांकित करता हैं। महाभारत काल में उपरिचर, शिश्ुपाल, धृष्टकेतु तथा सुबाहु जैसे राजाआें ने बुन्देलखण्ड़ को भारतीय राजनीति में उल्लेखनीय स्थान प्रदान किया था। महाभारत में उपरिचर की राजधानी के समीप से शुक्तिमती नदी के बहने की जानकारी मिलती हैं।7 पार्जीटार ने शुक्तिमती की पहचान केन नदी से की हैं।8 इसकी राजधानी का भी नाम शुक्तिमती था ये केन नदी के किनारे स्थित आधुनिक बांदा नगर के समीप कहीं स्थित थी। महाभारत काल में चेदि राज्य (बुन्देलखण्ड) भारत के महत्वपूर्ण राज्य में से एक था। श्री कृष्ण की बुआ का पुत्र शिशुपाल यहाँ का प्रतापी राजा था, उसने अनेक महत्वपूर्ण विजयें प्राप्त की थीं। शिशुपाल श्री कृष्ण से शत्रुता रखता था। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय जब भीष्म के कहने पर युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण ने अग्रपूजा की, तब शिशुपाल अन्यन्त क्रोधित हुआ और उनकी आलोचना करते हुये अपशब्द कहे परिणामतः श्री कृष्ण ने उनकी वही वध कर दिया।

ई.पू. छठी शताब्दी में स्थित सोलह महाजन पदों में चेदि एक शक्तिशाली महाजनपद था। नन्दों तथा मौयाेर् के समय बुन्देलखण्ड़ का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रहा, यह क्षेत्र इन सामा्रज्यों के अधीन ही शासित रहा। टॉलमी ने सन्द्रावर्ताज (चन्द्रावती) नामक राज्य का वर्णन करते हुये उसकी जो सीमायें दी हैं वे बुन्देलखण्ड़ से मेल खाती हैं। उसने यहां के जिन चार नगरों तमसिस, कारपोर्निया, इमलथ्रो तथा नन्दवग्दुर का उल्लेख किया है इनकी पहचान क्रमशः कालिंजर, खजुराहो, महाेबा, तथा नरवर से की गई हैं।9 ये चारों नगर बुन्देलखण्ड के महत्वपूणर् नगरों में रहे हैं। टॉलमी द्वारा इन नगरो का उल्लेख करना बुन्देलखण्ड के तत्कालीन भारत में महत्व को रेखांकित करता हैं। मौर्यो के बाद यह क्षेत्र शुंगों, सातवाहनों, इण्डाेग्रीक, भारशिव तथा गुप्त शासकों के अधीन रहा। गुप्तो के अधीन इस क्षेंत्र में शासन करने वाले परिव्राजक राजाओं ने स्थाप्तय तथा मूर्तिकला की दृष्टि से बुन्देलखण्ड को सम्पन्न किया। व्हेनसांग ने बुन्देलखण्ड़ काे चि-चि-टाे कहां हैं। उसके अनुसार इस राज्य की राजधानी (खजुराहों) लगभग ढाई मील के धेरे में थी तथा यहां लगभग एक हजार ब्रहा्रण 10 मंदिरो में पूजा करते थे। यह राज्य अपनी उपज के लिए प्रसिद्ध था तथा भारत के सभी भागाें के विद्वान यहां आते थें।‘‘11

हर्ष की मृत्यु के बाद त्रिपुरी के कलचुरियों ने कालिजंर का पर अधिकार कर बुन्देलखण्ड में अपना प्रभुत्व स्थापित किया। इस अधिकार से कलचुरियों के गौरव तथा प्रतिष्ठा में भारी वृद्धि हुयी तभी तो अनेक कलचुरी शासकों ने कालंजरपुर वराधीश्वर की उपाधि धारण करते हुयें अपने आपको गौरान्वित महसूस किया।

कलचुरियों के बाद बुन्देलखण्ड क्षेत्र में प्रतिहारों का शासन स्थापित हुआ। प्रतिहार शासक महेन्द्रपाल के समय तक प्रतिहारों की सत्ता इस क्षेत्र में दृढ़ रही। प्रतिहार शासक नागभट्ट।। के उत्तराधिकारी रामभद्र के समय इस क्षेत्र में प्रतिहाराें का नियंत्रण12 कुछ ढीला पड़ गया। इसकी जानकारी मिहिर भोज के बराह अभिलेख से मिलती हैं। इसमें कहा गया है ‘‘ उसने (मिहिर भाेज) कान्यकुब्ज मुक्तिके कालंजर मण्डल के उदुम्बर विषय में स्थित बलाकाग्रहार के उस दान को पुनः चालू किया जो सर्व प्रथम सर्ववर्मन द्वारा दिया गया था बाद में नागभट्ट द्वितीय के समय पुर्नस्वीकृत हुआ था किन्तु रामभद्र के समय व्यवहारिक नामक अधिकारी की अयोग्यता क े कारण विहत हो गया था।‘‘13ए

प्रतिहार शासक महीपाम प्रथम क े समय बुन्देलखण्ड भारतीय राजनीति के रंगमंच में पहली बार निर्णायक भूमिका में उभरकर सामने आया। नागभट्ट द्वितीय के समय से ही चन्देल प्रतिहारों के अधीन शासन करते आ रहें थें महीपाल के समय

By: - ड- डॉ0 सी.एम.शुक्ल