(पुस्तक -समीक्षा) भ्रान्त धारणाओं पर प्रहार | रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
पुस्तक -समीक्षा: भ्रान्त धारणाओं पर प्रहार
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
बात 1993 जनवरी की है, मेरी छात्रा मुमताज़ मिर्ज़ा की शादी की। 1992 की अयोध्या-दुर्घटना हो चुकी थी। मुमताज़ 1987 में मेरी छात्रा रह चुकी थी । उसके भाई बाबर मिर्ज़ा से आत्मीयता हुई तो मुमताज़ भी मेरे घर -परिवार की सदस्या की तरह घुल मिल गई। विवाह में हिन्दू-मुसलमान सभी आमंत्रित थे । हिन्दुओं के भोजन की देखभाल का प्रबन्ध मेरे जिम्मे था ।मुमताज़ को तैयार करने का जिम्मा उसकी मौसी ने मेरी पत्नी को सौंप दिया -आभूषणों से भरे पर्स के साथ । दिसम्बर की उथल-पुथल के बाद भी कितना गहरा था यह विश्वास ! 1972 में मेरे ही एक छात्र रहे ग़ालिब की साधारण परिवार में पली-बढ़ी पुत्री रज़िया सुल्ताना ने संस्कृत में एम ए किया और इस समय क़ुरआन-ए-पाक का संस्कृत में अनुवाद कर रही है । उसे 26 दिसम्बर,2009 को हरियाणा संस्कृत अकादमी ने सम्मानित किया । हमारी सोच का यह एक पक्ष है ।
दूसरा पक्ष वह है जो केवल नाक की सीध में ही चलने को महत्त्व देता है । वहाँ आदमी केवल आदमी नहीं-हिन्दू या मुसलमान है । हिन्दू या मुसलमान होना किसी अच्छे-बुरे आदमी की पहचान नहीं बन सकता । मिलावट करके लोगों केजीवन से खिलवाड़ करने वाला , जमाखोरी करके गरीबों का निवाला छीनने वाला,अरबों रुपये का घोटला करके लॉकर भरने वाला वाला , प्रान्तीयता और संकीर्ण क्षेत्रवाद की आँधी में सबकुछ तहस -नहस करनेवाला ,धर्म-सम्प्रदाय , जाति-पाँति की विषबेल लगाकर वोटों की फसल काटनेवाला,दंगों की भट्टी में दो जून की रोटी का जुगाड़ करने वाले को झोंककर -‘आग लगा जमालो दूर खड़ी ‘के अन्दाज़ में बिना खरोंच खाए सुरक्षित रहने वाला कौन है ? यह वही व्यक्ति है ; जिसका किसी धर्म से कोई नाता नहीं।इसके लिए इसका तुच्छ स्वार्थ ही सर्वोपरि है। दो टूक बात करने वाले श्री पंकज चतुर्वेदी जी ने अपनी इस शोधपूर्ण पुस्तक में ऐसे ही चेहरों को बेनक़ाब करने का प्रयास किया है ।
पूर्वोत्तर के आतंकवाद और विभिन्न प्रान्तों में पसरे नक्सलवाद के पीछे कोई धर्म नहीं,सम्प्रदाय नहीं वरन् वह भेदपूर्ण ,आर्थिक,सामाजिक एवं सांस्कृतिक भेद नीति है, जो विकास की एक मद्धिम -सी किरण को भी आम आदमी तक नहीं जाने देती । ठीक उसी की आँखों के सामने भ्रष्ट-तन्त्र की आड़ में छुपकर मुट्ठी भर लोग सामन्तों की तरह रह रहे हैं । आम आदमी का ध्यान विकास शिक्षा ,स्वास्थ्य और रोटी-रोज़ी से हटाकर सम्प्रदाय और क्षेत्रवाद की तरफ़ मोड़ना ऐसे ही लोगों का छुपा हुआ एजेण्डा है । लोग जितने अनपढ़ ,अभावग्रस्त और अविकसित रहेंगे, उनका शोषण करने के उतने ही द्वार खुले रहेंगे ।उनको जितना कबीलाई संस्कृति की ओर धकेला जाएगा ; समाज के इन रहनुमाओं का मार्ग उतना ही निष्कंटक होगा। पूर्वोत्तर का सामाजिक सन्तुलन बिगाड़ने के पीछे अल्पसंख्यकों का वोटबैंक ही मुख्य रहा है ,चाहे वह बांग्लादेशियों का अवैध प्रवेश ही क्यों न हों।
उर्दू लश्कर (फ़ौज)की भाषा थी । उसका हिन्दू -मुस्लिम से कुछ वास्ता नहीं था । भाषा का किसी धर्म-सम्प्रदाय या मत से कोई वास्त्ता होता तो बांग्लादेश पाकिस्तान से अलग न होता ।भारत और भारत से बाहर शिया-सुन्नी दंगे न होते । सारे मुस्लिम देश एक झण्डे के नीचे रहते ।प्रेमचन्द को आज भी हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं में समान रूप से पढ़ने वाले हैं ; यही नहीं कबीर भी हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं में समानरूप से पढ़ाए जा रहे हैं ।ज्ञानपीठ पुरस्कार रघुपति सहाय ‘फ़िराक़’ को मिलता है।अत: भाषा का सम्बन्ध किसी धर्म या मत से जोड़ना हठधर्मिता ही है।शिक्षा से जुड़ा आज़ादी से पहला वर्ग उर्दू पढ़ता ही था; चाहे वह पण्डित हो या मौलवी । मुसलमानों में आज की पीढ़ी के कितने लोग उर्दू जानते हैं , यह विचारणीय है ।
लेखक ने आतंकवाद के असली चेहरे को बेनकाब करने के साथ-साथ,मुसलमानों की घटती आबादी , उनके मन में पनपती असुरक्षा की भावना, उनकी जीविका पर किए जा रहे कुठाराघात,व्यापार को ठप्प करने की साजिश का भी खुलासा किया है। धीरे-धीरे सारे कुटीर उद्योग ठप्प होते गए। जो पहले बदतर थे अब बदतरीन हालत में पहुँच गए हैं। जिसको दो वक़्त की रोटी का इन्तज़ाम करना कठिन है , वह एक से अधिक बीवी का निर्वाह कैसे करेगा ? दंगो के समय पुलिस की मनमानी और उपेक्षा उनके मन में दहशत ही भर सकती है । आतंकवादी के नाम पर उन्हें जब चाहे तब जेल बन्द कर दिया जाता है । पुलिस द्वारा लगाए गए आरोपों को झुठलाने के लिए वे सुबूत कहाँ से लाएँ ? बेकसूर होने पर भी वे मनगढ़न्त आरोपों के लिए यातना झेलने को अभिशप्त हैं । सताधारी और विपक्ष समाज की सामान्य धारा में उनको शामिल करने प्रयास न करके सदैव उनके भय-दोहन का ही काम करते रहे हैं ।सत्ता के भूखों के लिए वे केवल सत्ता की ऊँचाई तक पहुँचाने वाली सीढ़ी भर हैं।
चाहे जिन्ना के बारे में बयान देना हो,चाहे मन्दिर -मस्ज़िद का शिग़ूफ़ा हो, चाहे आरक्षण का चारा हो , चाहे मुम्बई से चाहे पूर्वोत्तर से दूसरे प्रान्त के लोगों को भगाना हो , इस तरह के धत् कर्म के पीछे जनसामान्य न होकर अपराधी मानसिकता वाला वर्ग मिलेगा। तमिलनाडु में लिट्टे का खुलेआम समर्थन करने वाले नेता वाइको तिरंगा जलाकर छुट्टे घूम सकते हैं। ‘सामना’ के सम्पादकीय में हिन्दुओं के आत्मघाती दस्ते बनाने की बात की जाती है ।इस तरह के संविधान -विरुद्ध कार्य करने और बयान देने के विरोध में कितनी आवाज़ें उठती हैं ? क्या इन लोगों की ये करतूतें देश-प्रेम का सुबूत हैं ?क्या इन बेहूदे वाग्वीरों को जेल में बन्द किया जाता है ?
पुलिस और प्रशासन की कमज़ोर इच्छा -शक्ति ,ढुलमुल रवैये और अदूरदर्शिता को भी लेखक ने समस्या की जड़ बताया है ।‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर’जैसे पुलिसवाले फ़र्जी मुठभेड़ों को अंजाम दे रहे हैं । इसका सीधा-सा कारण है -मुसलमानों के प्रति अविश्वास और शंका का भाव। पुलिसिया सच पर टिकी सुरक्षा कितनी कारगर होगी , कहना कठिन है ।कारगिल में जो 540 शहीद हुए हैं , उनमें 52 मुसलमान भी थे -यह उजला तथ्य कितना उजागर किया गया है ! कमज़ोर वर्ग के हिन्दू आज भी जातिगत विद्वेष और कट्टरता से जूझ रहे है । विभिन्न जातियों के बेलगाम संगठन किसी तालिबान से कम क्रूर नहीं हैं ।
लेखक ने जहाँ मुसलमानों के विभिन्न वर्गों की वैमनस्यता को उजागर किया है , वहीं ‘वन्देमातरम् गान’ को लेकर कैली भ्रान्तियों का भी निराकरण किया है । आज तुष्टीकरण की नीति एक खतरनाक खेल बन गई है ।उर्दू को मुसलमानो की भाषा जताकर प्रोन्नत किया जाता है ।जो विकल्प होने पर भी पाकिस्तान नहीं गए ,उनकी बदहाली दूर करने के उपाय न करके ,तुष्टीकरण को आसान इलाज़ मान लिया गया है ।पाकिस्तान में मुहाज़िरों की हालत और उनकी सामाजिक स्थिति जग जाहिर है । आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी हालत का न सुधरना यह साबित करता है कि ऐसी तुष्टि से तो असन्तुष्टि ही भली है ।डॉ गोपालसिंह की अध्यक्षता में बनी समिति की रिपोर्ट का यह सुझाव विचारणीय है-“अल्पसंखयकों में अपने प्रति विभेद की भावना विद्यमान रहती है।यदि हम चाहते हैं किअल्पसंख्यक मुख्यधारा के प्रभावी भाग बनेंतो यह भावना जड़-मूल से खत्म करनी होगी।” लेखक ने नेहरू जी के ‘हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता’ लेख के माध्यम से खाते-पीते वर्ग की अंग्रेज़-भक्ति की भी खबर ली है ।लेखक ने आर्यसमाज के सम्मेलन में दिए गए मुंशी प्रेमचन्द के भाषण का उल्लेख किया है-‘हिन्दुस्तान सच्चे मानी में एक कौम बने । इसलिए हमारा कर्तव्य है कि भेद पैदा करने वाले कारणों को मिटाएँ और मेल पैदा करने वाले कारणों को संगठित करें।’ हमें अगर भारत को मज़बूत बनाना है ,तो इसी सूत्र पर चलना होगा ।
पंकज चतुर्वेदी जी की यह पुस्तक बहुत बेवाकी से भ्रान्त धारणाओं का निराकरण करने में सफल हुई है ।लेखक ने जो बात कही है ,उसके समर्थन में प्रमाण भी प्रस्तुत किए हैं ।‘असली चेहरा : सच्चर समिति’ चौंकाने वाला ऐसा ही तथ्यात्मक दस्तावेज़ है । प्रो विपिन चन्द्रा जी की भूमिका संक्षेप में सभी कारणों की पड़ताल करती है । मुख्य बात यह उभरकर आई है कि रंगभेद ,साम्प्रदायिकता और जातिवाद को हल्केपन से लेना आनेवाले समय में अनहोनी घटनाओं को जन्म दे सकता है ।हमें इस दिशा में गम्भीरता से सोचना और सही समाधान तलाशना है ।
Download This Story [Zipped PDF file]
क्या मुसलमान ऐसे ही होते हैं?
By : पंकज चतुर्वेदी,
भूमिका: प्रो विपिन चन्द्रा
प्रकाशक : शिल्पायन, 10295,
लेन नं 1वैस्ट गोरख पार्क शाहदरा दिल्ली-110032 ;
पृष्ठ:134 ,
मूल्य: Rs.175/-
संस्करण: 2010
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
37, B / 2 , रोहिणी सेक्टर-17 ,
नई दिल्ली-110089
E-mail:
rdkamboj@gmail.com
सम्पादक:
www.laghukatha.com
- Anonymous's blog
- Log in to post comments