(BOOK) JANEU जनेऊ - by ​Kirti Dixit


(BOOK) JANEU जनेऊ - by ​Kirti Dixit


बुन्देलखण्ड की आंचलिक पृष्ठभूमि पर आधारित यह उपन्यास कथामात्र न होकर एक ऐसी मनोवृत्ति है, जो धीमे जहर की भाँति को समाज को निगलती जा रही है। गाँव की सरल सहज गलियों में असमानता, घृणा एवं आवेश के ऐसे पत्थरों का समावेश हो गया है, जो प्रतिपल इस धरती को रक्तरंजित करने में लगे हैं।

प्रस्तुत कथावस्तु एक ऐसे सवर्ण युवक गोकरन की है, जो समाज के नियमों में असहाय खड़ा, अपना सर्वस्व समाप्त होते देखता है। उसके पिता हल्केराम जो आजीवन समाजहित के लिए, अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर रहे, अन्ततः अपमान की ज्वाला उन्हें लील जाती है। गरीबी एवं समाज के कुप्रपंचों में परिवार समाप्त प्राय हो जाता है, तब उस युवक के मन में घृणा एवं निर्लिप्तता के कैसे भाव जन्म लेते हैं, इसका सजीव दृश्यांकन है।

ये उपन्यास एक विमर्श है कि क्या इतिहास के नाम पर वर्तमान का सजा दी जा सकती है? सियासत भी इतिहास के पन्ने, अपनी सहूलियत के अनुसार पलटती है वरना इतिहास दोगलापन कभी नहीं करता। उसमें तो दूध के लिये बिलखता द्रोणपुत्र भी है और कर्ण भी, सुदामा भी है और एकलव्य भी। कथित तौर पर हम समानता में विश्वास करते हैं, लेकिन समानता है कहाँ? योग्यता तो आज भी कराहती रंगभूमि में खड़ी है। बस अन्तर यही है कि तब सूतपुत्र कर्ण था और आज कोई और_ तैयार रहें, एक और इतिहास लिखा जा रहा है और अपमान की लेखनी से लिखा इतिहास कुरुक्षेत्र की पटकथा ही लिख सकता है।.

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