बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय - चन्देलयुगीन ललित कलाएँ (Chandel Eugenic Fine Arts)

बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय 

चन्देलयुगीन ललित कलाएँ (Chandel Eugenic Fine Arts)

चन्देलों ने लगभग चार शताब्दियों तक बुन्देलखण्ड में शासन किया। वे केवल महान् विजेता तथा सफल शासक ही न थे। अपितु ललित कलाओं के प्रसार तथा संरक्षण में भी वे पूर्ण दक्ष थे। उनकेशान्तिपूर्ण शासन तथा देश की भौगोलिक स्थिति ने भी इस दिशा में पूर्ण योग दिया और खजुराहो के मंदिरों के रुप में कला अपने चरम लक्ष्य तक पहुंच गई थी। चन्देल काल में जनता की समृद्धि ने ललित कलाओं के इतिहास में एक अमिट छाप डाल दी थी। चन्देल युग में वास्तुकला तथा मूर्तिकला उन्नति के चरमबिन्दु पर पहुँच गई थी और उनके उत्कृष्ट नमूनों का बुन्देलखण्ड में बाहुल्य है।

स्थापत्य कला

सुप्रसिद्ध कला मर्मज्ञ परसी ब्राउन का मत है कि कला में भारतीयों के आदर्श विशिष्ट रुप से प्रतिस्फुटित होते हैं और चन्देल ललित कलायें इसकी अपवाद नहीं हैं। स्थापत्य कला के प्रत्येक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक विकास में कोई-न-कोई महत्वपूर्ण अनुभूत सिद्धान्त निहित है। ग्रीक के लोग उसके सौष्ठवपूर्ण पूर्ति पर अधिक बल देते हैं। रोमन वैज्ञानिक कौशल तथा इटैलियन, विद्वत्ता पर अधिक जोर देते हैं। किन्तु भारतीय आध्यात्मिक तुष्टि पर विशेष बल देते हैं। भारतीय कलाकृतियाँ भारतीयों की धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोप हैं। भारतीय स्थापत्य कला की इस विशेषता के कारण भारत में असंख्य मंदिरों का निर्माण हुआ और इसी कारण बुन्देलखण्ड में भी मंदिरों का बाहुल्य है।

चन्देल नरेश निर्माण की ओर विशेष ध्यान देते थे और उनके अधिकारी तथा जनता भी उनके आदर्शों का अनुसरण करती थी। किन्तु चन्देलों का निर्माण केवल मंदिरों तक ही सीमित न था। भवनों, तड़ागों तथा सैनिक-स्थापत्य कला की ओर भी उनकी विशेष रुचि थी। अध्ययन की सुगमता की दृष्टि से चन्देल स्थापत्य कला के निम्नलिखित विभाग किये जाते हैं--

धार्मिक स्थापत्य कला

चन्देल स्वयं ब्राह्मण धर्म के समर्थक थे, किन्तु अन्य धर्मों के प्रति वे सहिष्णु थे। विभिन्न धर्मों के अनुयायियों को अपने-अपने धर्मों के प्रसार एवं प्रचार की पूर्ण स्वतन्त्रता थी। इसी कारण विभिन्न धर्मों के मंदिर समस्त बुन्देलखण्ड में पाये जाते हैं। धार्मिक स्थापत्य कला पुनः (अ) ब्राह्मण स्थापत्य कला, (ब) बौद्ध स्थापत्य कला तथा (स) जैन स्थापत्य कला में विभक्त की जा सकती है:

(अ) ब्राह्मण स्थापत्य कला

ब्राह्मण स्थापत्य कला भी तीन भागों में विभक्त की जा सकती है। इस युग में ब्राह्मण धर्म के अन्तर्गत अनेक देवताओं का प्रादुर्भाव हो चुका था। अस्तु, इसी के आधार पर शैव, वैष्णव तथा सूर्य, दुर्गा, महेश्वरी आदि अन्य देवताओं के मंदिरों का निर्माण हुआ।
धार्मिक स्थापत्य कला में प्राधान्य मंदिरों का ही है। अस्तु, भारतीय कला के उत्कृष्ट नमूनों में मंदिरों का प्रमुख स्थान है। यद्यपि ये मंदिर समस्त बुन्देलखण्ड में पाये जाते हैं, किन्तु चन्देलों की धार्मिक राजधानी खजुराहो में हिन्दू तथा जैन मंदिरों के उत्कृष्ट नमूने हैं, जिनकी अपनी स्वयं की श्रेणी है। ये मंदिर चहारदीवारी (परिधि) के अन्दर नहीं हैं बल्कि प्रत्येक मंदिर एक ठोस तथा ऊँचे चबूतरे पर स्थित है। ये मंदिर अपनी विशालता के लिए ही प्रसिद्ध नहीं हैं। क्योंकि उनमें सर्वोच्च मंदिर सौ फीट से कुछ ही अधिक ऊँचा है। बल्कि इन मंदिरों की ख्याति इनकी कलापूर्ण कृति पर ही अवलम्बित है।

इन मंदिरों के तीन मुख्य भाग हैं १. गर्भगृह, २. मण्डप तथा ३. अर्द्ध मण्डप। इनके अतिरिक्त कुछ मंदिरों में अन्तराल का भी प्राविधान होता था और कुछ बड़े मंदिरों में महामण्डप तथा गर्भगृह की परिक्रमा का भी विधान था। प्रत्येक भाग की स्वतन्त्र अलग-अलग गोलाकार छत होती थी जो समान रुप से अर्द्ध मण्डप की छत से प्रारम्भ होकर गर्भगृह के उच्चतम शिखर तक जाती है। ये मंदिर अन्दर तथा बाहर दोनों ओर अलंकृत किये जाते थे। ये अलंकारिक मूर्तियाँ यद्यपि विशाल एवं सुन्दर होती थीं, किन्तु कभी-कभी उनसे अश्लीलता टपकती थी।

शैव मन्दिर

विष्णु मंदिर

ब्रह्मा मंदिर

शाक्त मंदिर

सूर्योपासना

जैन-मंदिर

शैव मन्दिर

१. कन्दरीय महादेव

खजुराहो के मंदिरों में यह सबसे विशाल है। यह १०९ फीट लम्बा तथा ९ फीट चौड़ा है। भूमि की सतह से इसकी ऊंचाई ११६ फीट तथा मंदिर के फर्श से इसकी ऊंचाई ८८ फीट है। इसमें अर्द्धमण्डप, मंडप, महामंडप, अन्तराल तथा गर्भगृह हैं और सभी के आमलक शिखर हैं। इन शिखरों का तारतम्य सिंहद्वार के शिखर से प्रारम्भ होकर गर्भगृह के उच्चतम शिखर तक जाता है। गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणापत्थ है जो दीपकों से प्रकाशित होता था। इस मन्दिर की छतें बहुत सुन्दर हैं। छतों तथा मंदिर की दीवारों पर हिन्दू देवी-देवताओं की बहुसंख्यक मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। मंदिर की कुर्सी १३ फीट ऊंची है और बड़े तथा मजबूत पत्थरों से बनी है। यह चौकी ऊपर की ओर ढालू होती गई है। कुर्सी के ऊपर मूर्तियों की तीन चौड़ी पट्टियां हैं जो मन्दिर के चारों ओर हैं। उत्कीर्ण मूर्तियों का यह सिलसिला शिखर तक जाता है। मूलतः यह शिव मन्दिर है और इसमें साढ़े चार फीट घेरे का संगमरमर का शिव लिंगम् है। इस मन्दिर के तिथि निर्धारण के सम्बन्ध में कोई शिलालेख नहीं है। किन्तु ग्यारहवीं शताब्दी के कुटिल लिपि में प्राप्त कुछ वर्णों से प्रतीत होता है कि इस मन्दिर का निर्माण काल लगभग ग्यारहवीं शताब्दी रहा होगा।

२. खजुराहो का महादेव मन्दिर

कंदरीय मन्दिर के निकट जीर्णावस्था में एक छोटा शिव मंदिर है जिसकी विगत शताब्दी में महाराजा छतरपुर ने जीर्णोद्धार कराया था। वर्तमान मंदिर देखने से यह नहीं ज्ञात होता कि इसके तीन भाग थे अथवा पांच। सिंहद्वार के मध्य में शिव प्रतिमा है और उसके दाहिने तथा बाईं ओर ब्रह्मा तथा विष्णु की मूर्तियाँ हैं।

३. खजुराहो का विश्वनाथ मंदिर

प्राचीन शिवसागर के पूर्वी किनारे में यह मंदिर स्थित है। इसके पांच भाग हैं और इसकी निर्माण कला कन्दरीय मन्दिर की ही भांति है। यह ८७ फीट लम्बा ४६ फीट चौड़ा तथा भूमि से १०३ फीट ऊंचा है। मंदिर के मण्डप में चार चौकोर स्तम्भ हैं और उन्हीं के आधार पर छत बनी हुई है। मंदिर की ३/४ ऊंचाई पर समान रुप से आठ दीवारगीर हैं। जिनमें स्री तथा सिंह की प्रतिमाएँ हैं। अब केवल दो प्रतिमायें शेष रह गयी हैं। खम्भों के ऊपर स्तम्भ शीर्ष अलंकृत किये गये हैं। उनके ऊपर चार बड़ी-बड़ी दीवारगीरें हैं जिनके आधार पर मेहराव बने हुए हैं कोनों की ओर चार छोटी-छोटी दीवारगीरें हैं, और उन्हीं के आधार पर चार नारी प्रतिमायें हैं। गर्भगृह की प्रवेशवद भी दो स्तम्भों पर आधारित है, किन्तु उनके ऊपरी भाग में कोई मूर्ति नहीं है। उनमें उसी प्रकार के चार दीवारगीर स्तम्भ हैं, जिनमें चार बड़े दीवारगीर मेहराव के लिए हैं और चार छोटे दीवारगीरों पर चार नारी प्रतिमायें हैं, किन्तु अब केवल तीन प्रतिमायें ही शेष बची हैं। मंडप की छत इस प्रकार बनी है मानो एक के बाद दूसरा पत्थर रख दिया गया हो। सिंहद्वार की छत दो वर्गों में विभक्त है और उसमें अनेक मूर्तियां उत्कीर्ण हैं।

यह मंदिर अच्छी दशा में है और इसमें पांच उपमन्दिर चार मुख्य मंदिर के चारों कोनों पर और एक सिंहद्वार के सामने अब भी विद्यमान है। गर्भगृह के मुख्यद्वार में नन्दी पर आरुढ़ भगवान शिव की मूर्ति है। इस मूर्ति के दाहिनी ओर हंसयुक्त ब्रह्मा तथा बाईं ओर गरुड़ युक्त भगवान विष्णु की मूर्ति है। मंदिर के अन्दर शिवलिंगम् भी है और मंदिर बहुसंख्यक मूर्तियों से अलंकृत है। इस मंदिर का शिखर एक बहुत बड़े आमलक के सदृश है और उसके चारों ओर अनेक छोटे-छोटे आमलक हैं। इस मंदिर में विक्रमाब्द १०५६ अथवा ९९९ ई. का धंगदेव का शिलालेख है। इस लेख का यह निर्देश है कि धंगदेव ने इस मंदिर का निर्माण किया था। यह मंदिर प्रमथनाथ के नाम से प्रसिद्ध था, किन्तु अब विश्वनाथ मंदिर केनाम से सम्बोधित किया जाता है। शिलालेख में उल्लिखित मरकत शिवलिंगम् अब उपलब्ध नहीं है, किन्तु मदिर अच्छी दशा में है।

४. विश्वनाथ मंदिर

दक्षिणी-पश्चिमी कोने पर भगवान् शिव का एक छोटा मंदिर और है। जिसके गर्भगृह के मुख्यद्वार पर भगवान् शिव की प्रतिमा है।

५. मृतंग अथवा मृत्युंजय महादेव मंदिर

यह चतुर्भुज मंदिर के समीप स्थित है और यह अन्दर से २४ वर्ग फीट है और बाहर से ३५ वर्ग फीट है। इसके ओसारे की लम्बाई १८ फीट तथा चौड़ाई ९ फीट है। इसकी छत पिरामिड के रुप में त्रिकोणाकार है जो धीरे-धीरे कम चौड़ी होती गयी है। इसके ऊपर स्वर्ण कलश बने हुए हैं। इस मंदिर में इतनी अधिक पुताई हुई है कि दीवारों तथा छतों की मूर्तिकला लुप्तप्राय है।

६. महोबा का नीलकण्ठ मंदिर

इस मंदिर का ध्वंसावशेष मात्र है। इसे सामने का भाग गिर गया है। केवल गर्भगृह मात्र शेष है। गर्भगृह के मुख्यद्वार 
पर शिव की मूर्ति है और उसके दाहिने तथा बायें ब्रह्मा तथा विष्णु की मूर्तियाँ हैं। गर्भगृह के अन्दर अर्घ भी अच्छी दशा में है। इस मंदिर में वि. ११७४ अथवा १११७ ई. का एक शिलालेख भी प्राप्त हुआ है। इसके कायस्थ नाजुक द्वारा भगवान् गौर अथवा शिव की पूजा का उल्लेख है।

७. कुँवर मठ

यह मंदिर बाहर से ६६ फीट लम्बा तथा ३३ फीट चौड़ा है और अन्दर से इसकी लम्बाई ४९ फीट तथा चौड़ाई २९ फीट है। इस मंदिर में पांचों भाग हैं, पर इसके छत का अलंकरण अन्य मंदिरों के अलंकरण से भिन्न है। इसकी छत के निर्माण में एक के बाद दूसरा पत्थर इस प्रकार रखा गया है कि इसके बड़े वृत्त धीरे-धीरे छोटे होते गये हैं। अन्य मंदिरों की भांति इसमें छोटे वृतों का विभाजन नहीं हुआ है। यह मंदिर कुँवर मठ के नाम से प्रसिद्ध है। गर्भगृह के मुख्य द्वार पर ब्रह्मा तथा विष्णु के बीच भगवान् शिव की प्रतिमा है। जनरल कनिंघम की धारणा है कि संभवतः इस मंदिर का निर्माण किसी चन्देल वंशीय कुमार ने किया था, जिससे यह कुँवर मठ के नाम से प्रसिद्ध है। राजगीर के चिह्मों से प्रतीत होता है कि इसका निर्माण १०वीं अथवा ११वीं शताब्दी में हुआ था। इस मंदिर की गणना खजुराहो के सर्वोत्तम मंदिरों में होती हैं।

८. जतकरी का शिव मंदिर

खजुराहो से १ मील दूर एक शिव मंदिर का भग्नावशेष है। इस मंदिर के अंदर संगमरमर का शिवलिंगम् विद्यमान है। जीर्ण-शीर्ण अवस्था में होने के कारण मंदिर के अन्य विवरण उपलब्ध नहीं हैं।

९. महोबा का ककरामठ अथवा ककरा मंदिर

मदनसागर के उत्तरी-पश्चिमी तट पर यह मंदिर एक शिला पर स्थित है। यह १०३ फीट लम्बा तथा ४२ फीट चौड़ा है। यह सख्त पत्थर से बना है अतः खजुराहो के अन्य मंदिरों की भाँति इसमें सजावट नहीं है। इसमें ५ भाग थे, किन्तु इसका महामंडप ाजुराहो के अन्य मंदिरों से बड़ा है। गर्भगृह के बाहर की ओर मूर्तियों को रखने के लिए तीन स्थान बने हुए हैं, किन्तु अब उन स्थानों में वे मूर्तियाँ प्राप्त नहीं 
हैं।

१०. दौनी का शिवमंदिर

इस मंदिर का ध्वंसावशेष मात्र है। इसका शिवलिंगम् भी अपने मूल स्थान से किंचित् हटा हुआ है। इसमें ५ भाग हैं, पर इसकी छत खजुराहो के मंदिरों की भाँति नहीं है। इसके मेहराब के ऊपर लम्बी शिलायें रखी हुई हैं, जिनमें किसी प्रकार की सजावट नहीं है। इसके स्तम्भ लगभग सादे हैं किन्तु बीच के खम्भे चार-चार मूर्तियों से अलंकृत हैं।

विष्णु मंदिर

चन्देल राज्यकाल में वैष्णव धर्म का भी बड़ा प्रचार था, किन्तु विष्णु की पूजा के साथ-ही-साथ उसके अवतारों की पूजा का भी प्रचार हो चुका था। अतः चन्देलकालीन मन्दिरों में विष्णु तथा उनके अवतार, दोनों के मंदिर पाये जाते हैं। कुछ विशिष्ट विष्णु मंदिरों का उल्लेख नीचे किया जाता है।

१. देवी जगदम्बी मंदिर

वास्तव में यह एक विष्णु मंदिर है, क्योंकि इसके गर्भगृह के मुख्य द्वार पर विष्णु की मूर्ति प्रतिष्ठित है, और उसके दाहिने ओर शिव तथा बाईं ओर ब्रह्मा की मूर्ति है। गर्भगृह के अन्दर भगवती लक्ष्मी की ५ फीट ८ इंच ऊंची विशाल मूर्ति भी है और संभवतः इसी कारण यह देवी जगदम्बी का मंदिर कहलाता है। इसमें चार भाग हैं, अर्द्ध मण्डप इस मंदिर में नहीं है। कन्दरीय मन्दिर की भाँति गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणापथ भी इसमें नहीं है। यह मंदिर ७७ फीट लम्बा तथा ४९ फीट चौड़ा है। यह बहुत अधिक अलंकृत है। राजगीर के चिह्मों से यह अनुमान किया जाता है कि इसका निर्माण १०वीं शताब्दी अथवा ११वीं शताब्दी में हुआ था।

२. खजुराहो का चतुर्भुज मंदिर

यह रामचन्द्र अथवा लक्ष्मण जी के मंदिर के नाम से भी प्रसिद्ध है, किन्तु वास्तव में इसे चतुर्भुज मंदिर ही कहना अधिक उपर्युक्त है, क्योंकि इसमें भगवान् विष्णु की चतुर्भुजी मूर्ति है। यह पच्चासी फीट चार इंच लम्बा तथा चौबालीस फीट चौड़ा है। खजुराहो के विश्वनाथ मंदिर की भांति इसमें पांच भाग हैं और इससे सम्बद्ध पांच उपमंदिर हैं। चार मंदिर इसके चारों कोनों में तथा पांचवां मन्दिर मुख्य द्वार के सामने स्थित है। यह मंदिर उत्कीर्ण मूर्तियों से बहुत अलंकृत है और इसमें चार फीट एक इंच ऊंची मूर्ति है। यह मूर्ति चतुर्भुजी है, उसके तीन सिर हैं। बीच का सिर मनुष्य का है, और शेष दो सिर सिंह के हैं। कुटिल अक्षरों में राजगीर के चिह्मों से ज्ञात होता है कि इसका निर्माण १०वीं अथवा ११वीं शताब्दी में हुआ था। चारों कोनों के मंदिरों का "विष्णु-मंदिर' रुप है। उनके मुख्य द्वार पर विष्णु की प्रतिमाएँ हैं। प्रत्येक मंदिर अठारह फीट लम्बा तथा ११ फीट चौड़ा है। प्रत्येक मंदिर के सामने दो खम्भों वाला एक-एक छोटा बरामदा है।

३. खजुराहो का वाराह मंदिर

यह चतुर्भुज मंदिर के पूर्व की ओर स्थित है। और इसमें भगवान् विष्णु के वाराह अवतार की एक विशाल मूर्ति है। यह एक छोटा मंदिर है। इसकी लम्बाई साढ़े बीस फीट है तथा चौड़ाई १६ फीट है। इसके प्रत्येक कोने में तीन-तीन स्तम्भ तथा पश्चिम की ओर दो स्तम्भ हैं, जिसके आश्रय से एक बरामदा तथा एक रास्ता बना हुआ है। इसकी छत एक के बाद दूसरे वर्गाकार पत्थर रखकर बनाई गई है। वाराह मूर्ति ८ फीट ९ इंच लम्बी तथा ५ फीट ६ इंच ऊंची है। इसमें खड़े हुए वाराह की मूर्ति है, जिसके दो पैर मूर्ति की पीठिका पर दिखलाये गये हैं। वाराह की मूर्ति के नीचे कुंडली बांधे हुए सपं की मूर्ति है, जिसकी पूंछ पर वाराह की पूंछ रखी हुई है और उसका सिर किसी बैठे हुए व्यक्ति द्वारा दब-सा गया है।

४. खजुराहो का वामन मंदिर

यह मंदिर खजुराहो ग्राम के उत्तरी किनारे पर स्थित है और यह ६० फीट लम्बा तथा ३८ फीट चौड़ा है। इस मंदिर की वाराह मूर्ति ४ फीट ८ इंच ऊंची है। खजुराहो के मन्दिरों के पश्चिमी मंदिर समूह की तुलना में इस मंदिर की अलंकारिता साधारण है और इसमें उत्कीर्ण मूर्तियाँ भी कम हैं। कुटिल वर्णों में कारीगरी के चिह्मों से इस मंदिर का निर्माण काल १०वीं अथवा ११वीं शताब्दी निश्चित किया जाता है।

५. खजुराहो का जबरा मंदिर

यह मंदिर खजुराहो के पूर्वी किनारे पर एक टीले पर बना हुआ है। यह ३८ फीट लम्बा तथा २६ फीट चौड़ा है। इसे ठाकुर जी तथा लक्ष्मण जी के मंदिर के नाम से पुकारा जाता है। जनरल कनिंघम का विचार है कि जब भूमि में स्थित होने के कारण यह जबरा मंदिर कहलाता है। इस मंदिर में खड़े हुए भगवान् विष्णु की चतुर्भुजी मूर्ति है। इस मंदिर में बहुत थोड़ा अलंकरण है।

६. खजुराहो का ब्रह्मा अथवा गदाधर मंदिर

यह खजूरसागर के पूर्वी किनारे में स्थित एक छोटा सूची स्तम्भाकार मंदिर है। मंदिर में चतुर्मुखी मूर्ति प्रतिष्ठित होने के कारण यह ब्रह्मा के मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। जनरल कनिंघम का विचार है कि यह विष्णु का मंदिर है, क्योंकि गदाधर की मूर्ति मुख्य द्वार के मध्य में स्थित है। यह मंदिर १९ वर्ग फीट है और अन्दर से इसका विस्तार १० वर्ग फीट है। इसकी छत सूची स्तंभाकार है जिस पर गुम्बज बने हुए हैं। यह मंदिर कड़ी चट्टानों तथा बालुका प्रस्तर से बनी है और पश्चिमी खजुराहो के मंदिरों से अलंकरण में भिन्न हैं। अत- जनरल कनिंघम का अनुमान है कि यह प्राचीन मंदिर है और इसका निर्माण ८वीं तथा नवीं शताब्दी में हुआ था।

७. खजुराहो का लक्ष्मीनाथ मंदिर

यह ८३ फीट लम्बा तथा ४५ फीट चौड़ा है और इसकी शैली प्राचीन चन्देल मंदिरों की भांति है। इस मंदिर में बड़ी अच्छी सजावट है और इसमें विक्रमाब्द १०११ अथवा सन् ९५४ ई. का बंगदेव का शिलालेख है।

८. जतकरी का चतुर्भुज मंदिर

जतकरी ग्राम खजुराहो से लगभग १ मील दूर है और वहीं पर यह मंदिर ध्वंसावशेष के रुप में स्थित है। यह ४० फीट लम्बा तथा २० फीट चौड़ा है। इसकी ऊंचाई ४४ फीट है। गर्भगृह के मध्य में विष्णु की मूर्ति है और उसके दोनों ओर ब्रह्मा तथा शिव की मूर्ति है। विष्णु की विशाल मूर्ति ९ फीट ऊंची है और उसका शिर नग्न है। मंदिर की छत तथा दीवारें अनेक मूर्तियां से अलंकृत है। जनश्रुति के आधार पर बनाकर सरदार आल्हा के भांजे सूजा ने इसका निर्माण किया था।

९. महोबा का मदारि मंदिर

यह महोबा के एक चट्टानी भाग पर स्थित है और अब यह भग्नावशेष मात्र है। यह १०७ फीट लम्बा तथा ७५ फीट 
चौड़ा है। यह मदारि कृष्ण के नाम से विख्यात है इसके पूर्वी द्वार के सामने एक अन्य मंदिर की नींव है जो १६ वर्ग फीट की है। कनिंघम का अनुमान है कि यह उपमंदिर वस्तुतः वाराह मंदिर था।

१०. गोंड का विष्णु मंदिर

यह ग्राम बाँदा जिले के अन्तर्गत कर्बी से तेरह मील दूर है। इस गांव में अनेक मंदिर हैं जो चन्देल मंदिर कहलाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि उन मंदिरों को आल्हा-ऊदल तथा राजा परमाल ने बनवाया था। इनमें सबसे बडे मंदिर में अर्द्ध-मंडप तथा गर्भगृह हैं। इसका मुख्य द्वार पूर्व की ओर है। वस्तुतः यह विष्णु मंदिर है, क्योंकि इसके मुख्य द्वार पर विष्णु की मूर्ति प्रतिष्ठित है। इसी के निकट एक छोटा मंदिर है जो भगवती लक्ष्मी का है। मुख्य विष्णु मंदिर का शिखर अब भी सुरक्षित है, जिसमें केवल कलश मात्र शेष है। यह मुख्य मंदिर ५५ फीट लम्बा, ४८ फीट ९ इंच चौड़ा और ४० फीट ऊंचा है।

११. विलहरिया का विष्णु मंदिर

यह ग्राम बांदा जिले में रसिन ग्राम से दस मील दूर है। यह मंदिर एक छोटी पहाड़ी पर बना हुआ है जो लगभग ७० फीट ऊंची है। यह एक छोटा मंदिर है किन्तु इसका अलंकरण बहुत सुन्दर है। इस मंदिर की उत्तम स्थिति ने इसे बड़ा आकर्षक बना दिया है इसमें केवल गर्भगृह हैं और उसके सामने ९ वर्ग फीट का बरामदा है। गर्भगृह बाहर से ११ फीट लम्बा तथा ४ फीट चौड़ा है। उसका शिखर अब भी मौजूद है, किन्तु उसका ऊपरी भाग नष्ट हो गया है। यह विष्णु मंदिर है। मंदिर के मुख्य द्वार में विष्णु की मूर्ति है और दाहिने तथा बाईं ओर क्रमशः ब्रह्मा तथा शिव की मूर्तियाँ हैं।

इन मंदिरों के अतिरिक्त और भी अनेक विष्णु मंदिर हैं, जिनके ध्वंसावशेष मात्र रह गये हैं। यह भग्नावशेष अजयगढ़, बिलहरिया, चांदपुर, दुघई तथा मदनपुर आदि स्थानों में पाये जाते हैं।

ब्रह्मा मंदिर

चन्देल काल में ब्रह्मा की पूजा का अधिक प्रचार न था और इसी कारण ब्रह्मा के मंदिरों की संख्या भी कम है। फिर भी कुछ उल्लेखनीय मंदिरों का विवरण नीचे दिया जाता है।

१. खजुराहो का ब्रह्मा मंदिर

यह खजुराहो का एक पुराना मंदिर है और यह एक झील के किनारे पर स्थित है। यह वर्गाकार छोटा मंदिर लाल पत्थर की कड़ी चट्टानों से बना है। जीर्ण-शीर्ण होने के कारण इस मन्दिर के अन्य विवरण संभव नहीं है।

२. दुघई का ब्रह्मा मंदिर

यह मन्दिर अन्य चन्देल मंदिरों की भांति है। इसमें सिंहद्वार, अर्द्धमंडप, महामंडप, अन्तराल, गर्भगृह आदि है। यह ४२ फीट लम्बा तथा २५ फीट चौड़ा है। इसका अलंकरण सुन्दर है। प्रत्येक मेहराब अनेक प्रकार की सुन्दर खुदाई से युक्त है तथा छत अनेक प्रकार के षट्कोणों से अलंकृत है। महामंडप के बीच के चारों स्तम्भ बहुत ही सुन्दर हैं, किन्तु वे एक छोटे मंदिर के लिए ऊंचाई में बहुत बड़े हैं फिर भी मंदिर सर्वांगीण सुन्दर हैं। गर्भगृह के मुख्यद्वार के मध्य में दाढ़ी युक्त त्रिशिर भगवान् ब्रह्मा की मूर्ति है और उसके साथ हंस की भी मूर्ति है। यह मूर्ति नवगृह के ऊपर है, चार गृह एक ओर तथा पांच गृह दूसरी ओर हैं। इस मंदिर में प्राप्त लेखों से ज्ञात होता है कि यशोवर्मन के पौत्र तथा कृष्ण के पुत्र देवलब्धि ने इस मंदिर का निर्माण किया था।

शाक्त मंदिर

ब्राह्मण धर्म में त्रिदेवों की पूजा के अतिरिक्त उनकी शक्तियों की भी उपासना होती थी, अतः उनके भी मंदिरों का निर्माण हुआ। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य देवी-देवताओं की भी पूजा होती थी, जिनके मंदिरों का भी निर्माण उस युग में हुआ।

१. खजुराहो का पार्वती मंदिर

यह विश्वनाथ मंदिर के दक्षिण की ओर स्थित है। यह एक छोटा मंदिर है और अब ध्वंसावशेष मात्र रह गया है। मंदिर के अन्दर ५ फीट ऊंची खड़ी हुई चतुर्भुजी देवी की मूर्ति है। यह पार्वती की मूर्ति कही जाती है किन्तु कनिंघम का अनुमान है कि लक्ष्मी की मूर्ति है, क्योंकि इस मूर्ति के शिर के ऊपर विष्णु की एक छोटी मूर्ति है।

२. खजुराहो का लक्ष्मी देवी मंदिर

खजुराहो में वाराह मंदिर के निकट स्थित एक छोटा मन्दिर है। इसमें चतुर्भुजी देवी की मूर्ति है। गर्भगृह के मुख्यद्वार के ऊपर विष्णु की मूर्ति है और उसके दाहिनी तथा बाईं ओर शिव और ब्रह्मा की मूर्ति है।

३. खजुराहो का देवी जगदम्बी मंदिर

यह एक बड़ा मंदिर है इसकी लंबाई ७७ फीट तथा चौड़ाई ४९ फीट है। मंदिर के अंदर हाथ में कमल लिये हुए, ५ फीट ८ इंच ऊंची खड़ी हुई चतुर्भुजी देवी की मूर्ति है। इस मंदिर में चार भाग हैं और इसकी पच्चीकारी बड़ी सुन्दर है। कनिंघम का अनुमान है कि यह विष्णु मंदिर है, क्योंकि गर्भगृह के मुख्यद्वार के मध्य में विष्णु की मूर्ति है और उसके दाहिनी और बाईं ओर शिव तथा ब्रह्मा की मूर्तियाँ हैं।

४. खजुराहो का दुर्गा मंदिर

वास्तव में यह एक शिव मंदिर था, क्योंकि गर्भगृह के मुख्य द्वार पर शिव की मूर्ति प्रतिष्ठित है। मंदिर के अन्दर त्रिशूल तथा खप्पर लिए हुए अष्टभुजी दुर्गा की मूति है।

५. चौंसठ-योगिनी मंदिर

खजुराहो का यह प्राचीन मन्दिर है। यह शिवसागर के दक्षिण-पश्चिम २५ फीट ऊंची चट्टान पर स्थित है। यह मंदिर कड़ी चट्टानों के पत्थर से बना है और अब ध्वंसावशेष मात्र रह गया है। इसकी चहारदीवारी में मूर्तियों को रखने के लिए ६४ छोटी-छोटी कोठरियाँ बनी हुई हैं। इसका सहन आयताकार है और इसकी लम्बाई १०२ फीट तथा चौड़ाई ५९ फीट है। इसमें ६४ कोठरियां चारों दीवारों पर बनी हुई हैं। पिछली दीवार के मध्य में एक बड़ी कोठरी है। प्रत्येक कोठरी २ फीट ४ इंच चौड़ी तथा ३ फीट ९ इंच गहरी है। इनका प्रवेशद्वार ३२ इंच ऊंचा तथा १६ इंच चौड़ा था और इसमें लकड़ी के दरवाजे थे जिनके अब चिह्म मात्र रह गये हैं प्रत्येक कोठरी की छत सूची स्तम्भाकार है जो ऊपर को संकरी होती चली गई है और उसके बाद एक के बाद दूसरे ३ आमलक तथा उसके ऊपर शिखर है। इस प्रकार प्रत्येक कोठरी की अपनी मंदिर रुपी सत्ता है। प्रत्येक मंदिर में एक योगिनी की मूर्ति थी। अब अधिकांश मूर्तियाँ उपलब्ध नहीं हैं। जनरल कनिंघम को सन् १८८३-८४ ई. की अध्ययन यात्रा में केवल तीन मूर्तियां प्राप्त हुई थीं, जिनमें सबसे बड़ी मूर्ति ३ फीट ऊंची और शेष दो में से प्रत्येक २ पीट ३ इंच ऊंची थी। बड़ी मूर्ति की आठ भुजायें थीं और भैंसासुरी देवी की मूर्ति थी, जो महिषासुर का वध करते हुए दिखलाई गई थी। मूर्ति के पाद पीठ के लेख की लिपि एवं जिस सामग्री से मंदिर का निर्माण हुआ है उसके विवेचन से स्पष्ट है कि यह खजुराहो का सबसे प्राचीन मंदिर है। जनरल कनिंघम का अनुमान है कि चौंसठ योगिनी मंदिर का निर्माण चन्देल-राज्य की स्थापना के समय अथवा नवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुआ था।

६. मनिया देवी का मंदिर

मनिया देवी चन्देलों की कुल देवी थीं। कनिंघम का अनुमान है कि मनिया देवी में भगवती पार्वती तथा गोडों में पूजित नग्नदेवी का सम्मिश्रण है। यह मंदिर केन नदी के तट पर स्थित मनिया गढ़ में ध्वंसावशेष के रुप में विद्यमान है। यह एक साधारण मंदिर है। इसमें खड्ग-धारिणी मनिया देवी की मूर्ति है। मंदिर के ध्वंसावशेष में बिना छत की कोठरी तथा अनेक मेहराब हैं। दौनी के जैन मंदिर की भांति इस मंदिर का गर्भगृह आयताकार है। मंदिर के निर्माण काल के सम्बन्ध में कोई साक्ष्य नहीं है। किन्तु यह सर्वमान्य है कि मनियादेवी चन्देलों की कुल देवी है। अस्तु, यह मन्दिर चन्देल-राज्य स्थापना के पूर्व अथवा उसी के आसपास बना होगा।

७. मैहर की शारदा देवी का मंदिर

यह मंदिर मैहर में एक छोटी पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। इसकी दशा बड़ी जीर्ण है मुख्य मूर्ति एक छोटे टीले पर रक्खी हुई है और वहां तक पहुँचने के लिए सीढियां बनी हुई है। मंदिर के सहन में एक वृक्ष है, जिसके चारों ओर एक कच्ची दीवार है जिस पर अनेक टूटी-फूटी मूर्तियां रखी हुई हैं और सहस्रों यात्री उनकी पूजा करते हैं। मुख्य मूर्ति तक जानेवाली सीढियों के लिए पत्थर पर खजुराहो शिलालेख की भांति कुटिल लिपि में एक लेख है।

८. रसिन का चण्ड-माहेश्वरी मंदिर

रसिन से एक मील पूर्व जंगल में एक पहाड़ी की चोटी पर यह मंदिर स्थित है। इसका मंडप १८ फीट ८ इंच लम्बा तथा १७ फीट ७ इंच चौड़ा है। यह दो ओर से खुला हुआ है। सामने की ओर ९ फीट लम्बा तथा ६ फीट चौड़ा एक छोटा बरामदा है। इसका गर्भगृह आठ फीट लम्बा तथा ७ फीट चौड़ा है, जिसमें २ फीट ऊंची भगवती चण्ड-माहेश्वरी की चतुर्भुजी मूर्ति है। मंदिर के निकट ही एक तालाब है, जो चट्टान काटकर बनाया गया है। यह ८० फीट लम्बा तथा ५० फीट चौड़ा है।

सूर्योपासना

बुन्देलखण्ड में सूर्योपासना का अधिक प्रचार न था। अस्तु, वहाँ सूर्य मंदिरों का नितान्त अभाव है। केवल खजुराहो में एक उल्लेखनीय सूर्य मंदिर है।

खजुराहो का "छत्र को पत्र' मंदिर    यह मंदिर शिवसागर के पश्चिम में स्थित है और "छत्र को पत्र' नाम से प्रसिद्ध है। यह ८७ फीट लम्बा तथा ५८ फीट चौड़ा है। इसका मूल प्रवेश द्वार गिर गया था, किन्तु मोटे गारे से उसका जीर्णोद्धार किया गया है। इसके महामण्डप की बनावट अन्य मंदिरों से भिन्न है। इसके किनारों को काटकर बीच के चार खम्भों के चारों ओर कष्टकोण बनाए गए हैं। इन खम्भों को सजावट छेनी से की गयी है और ऐसा प्रतीत होता है कि यह सजावट कारीगर की इच्छानुकूल पूर्ण नहीं हो सकी। मदिर के बाहर नींव के ऊपर मूर्तियों की तीन पंक्तियां हैं।

यह सूर्य मंदिर है। गर्भगृह के मुख्यद्वार पर सूर्य की तीन मूर्तियां हैं। मंदिर के अन्दर ८ फीट ऊंचा एक विशाल मूर्तिपट है, जिसमें एक पुरुष के रुप में सूर्य की मूर्ति है। यह मूर्ति ५ फीट ऊंची है और उसके दोनों हाथों में कमल के पुष्प हैं। मूर्ति की पीठिका में उसके रथ के सप्ताश्वीं की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। इसके अतिरिक्त उसमें और भी छोटी-छोटी मूर्तियाँ हैं। जिनमें ब्रह्मा और सरस्वती, शिव और पार्वती तथा विष्णु और लक्ष्मी विशेष उल्लेखनीय हैं। राजगीर के चिह्मों तथा कुटिल वर्णों में यात्रियों के नामांकन से प्रतीत होता है कि इस मंदिर का निर्माण १०वीं अथवा ११वीं शताब्दी में हुआ था।

जैन -मंदिर

चन्देल-काल में हिन्दू-धर्म के बाद जैनमत का ही प्रबल प्रचार था। अस्तु, उस युग में वहां अनेक जैन मंदिरों का निर्माण हुआ, जो समस्त बुन्देलखण्ड में पाये जाते हैं, किन्तु खजुराहो में प्राप्त जैन मंदिर अधिक उल्लेखनीय है। अनेक विशाल मंदिरों को मुस्लिम विजेताओं ने मस्जिदों में परिवर्तित कर दिया था और अनेक मंदिर प्रकृति ने नष्ट कर दिये।

जैन मंदिर अपनी बनावट में ब्राह्मण मंदिरों से भिन्न हैं। जैन मंदिरों में गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणापथ होता है। उनमें मंडप अन्तराल तथा गर्भगृह सब एक ही नाप के होते हैं। साधारण बनावट में जैन मंदिर के प्रत्येक अष्टकोण स्तम्भों में तीन दीवारगीरें होती हैं। इस प्रकार सभी जैन तीथर्ंकरों की मूर्ति रखने के लिए २४ दीवारगीरों का विधान जैन मंदिरों में होता है।

१. खजुराहों का घंटई मंदिर

अब यह खुले हुए स्तम्भों का मन्दिर है जो ४२ फीट साढ़े दस इंच लम्बा तथा २१ फीच साढ़े छः इंच चौड़ा है। किन्तु मंदिर के चारों ओर दीवारों के चिह्म पाये जाते हैं। मुख्य द्वार के मध्य में एक चतुर्भुजी देवी की मूर्ति है और उसके दोनों ओर एक नग्नपुरुष की छोटी प्रतिमा है। मंदिर के अंदर की बनावट तथा वहाँ की मूर्तिकला के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि यह जैन मंदिर है। इसमें आठ अष्टकोण स्तम्भ हैं, जिनकी ऊंचाई १४ फीट ६ इंच है और उनकी सजावट बड़ी सुन्दर है।

२. खजुराहो का पार्श्वनाथ मंदिर

यह मंदिर बड़ी ही जीर्णशीर्ण अवस्था में है और मूल मंदिर का गर्भगृह मात्र शेष है। गर्भगृह के द्वार के बाईं ओर एक नग्न पुरुष की प्रतिमा तथा दाहिनी ओर एक नग्न नारी प्रतिमा है और मध्य में तीन बैठी हुई नारी मूर्तियां हैं। गर्भगृह के अन्दर २३वें तीथर्ंर पार्श्वनाथ #ी एक छोटी मूर्ति है। मंदिर का बाहरी भाग छोटी मूर्तियों की तीन पंक्तियों से अलंकृत है। यात्रियों के लेखों की लिपि से यह अनुमान है कि मूल मंदिर का निर्माण १०वीं तथा ११वीं शताब्दी में हुआ था।

३. खजुराहो का जिननाथ मंदिर

यह खजुराहो समूह के जैन मंदिरों में सर्वाधिक विशाल एवं सुन्दर मंदिर है। इसकी लम्बाई ६० फीट तथा चौड़ाई ३० 
फीट है। सम्पूर्ण मंदिर का निर्माण विचित्र एवं आकर्षक है। मंदिर के भीतरी भाग में तीन कमरे, मंडप, अन्तराल तथा गर्भगृह हैं और इन तीनों के चारों ओर प्रदक्षिणा मार्ग है। मंदिर का बाहरी भाग अनेक उभरी हुई मूर्तियों से सुशोभित है और उसमें घंटई मंदिर की भाँति मूर्तियों की तीन पंक्तियाँ हैं। गर्भगृह के मुख्यद्वार पर एक बैठी हुई नग्नमूर्ति है और इसके दोनों ओर खड़ी हुई दो नग्न मूर्तियाँ हैं। इस मदिर के निर्माण काल का कोई अभिलेख नहीं है। किन्तु, विक्रमाब्द ११०१ अथवा सन् ९५४ ई. के पहिले के लेख से--जिसमें उसके दान में दिए हुए अनेक उद्यानों का विवरण है--स्पष्ट है कि इस मंदिर का निर्माण सन् ९५४ के पूर्व हुआ था।

४. खजुराहो का सेतनाथ मंदिर

यह एक प्राचीन जैन मंदिर है, जिसका हाल ही में जीर्णोद्धार हुआ है। इस मंदिर की मुख्य प्रतिमा आदिनाथ की है, जो १४ फीट ऊंची है। यह विशाल मूर्ति सेतनाथ के नाम से विख्यात है। इस मूर्ति की पीठिका में विक्रमाब्द १०५५ अथवा सन् १०२८ ई. का अभलेख है।

५. खजुराहो का आदिनाथ मंदिर

यह एक छोटा प्रचीन मंदिर है, जो आदिनाथ मंदिर कहलाता है। मंदिर के बाहर की ओर मूर्तियों की केवल एक पंक्ति है, जिनमें कुछ नारी प्रतिमाएँ भी हैं। इस मंदिर का अलंकरण बहुत साधारण है।

६. दौनी का जैन मंदिर

बाहर से यह मंदिर आयताकार है और इसमें केवल मंडप तथा गर्भगृह है। मंदिर के अंदर शान्तिनाथ की मूर्ति है, जिसकी पीठिका में एक तिथियुक्त लेख है। इससे ज्ञात होता है कि यह मन्दिर १३वीं शताब्दी में बना था। इसका गर्भगृह छिन्न-भिन्न हो चुका है और मुख्य मूर्ति के दोनों ओर अन्य मूर्तियाँ भी हैं।

७. दुधई का जैन मंदिर

इस मंदिर की निर्माण कला बड़ी विचित्र है। देखने में यह गुणा चिह्म (न्) की भाँति है, जिसकी दो भुजाएँ मध्य में मिलती हैं। मध्य भाग में दो कमरे हैं जो एक दरवाजे से संयुक्त हैं। इस कारण इसमें पीछे वाली दीवार नहीं है, जहां मूर्ति रखी जा सके। इस मंदिर की लम्बाई ५२ फीट तथा चौड़ाई ३० फीट है। ऊंचाई इसकी लम्बाई से भी अधिक है।

८. कुण्डलपुर का नेमिनाथ मंदिर

हाटा के निकट ही कुण्डलपुर जैनियों का एक तीर्थ स्थान है। वहां बहोरी वन में एक पहाड़ी की चोटी पर कुछ जैन मंदिर हैं। मुख्यमंदिर में नेमिनाथ की एक विशाल मूर्ति है, मंदिर में पहुँचने के लिए सीढियां बनी हुई हैं। यह मंदिर बटियों के पत्थर तथा गारे से बना हुआ है। मोटी पुताई के कारण दीवारों पर उत्कीर्ण मूर्तियों के सम्बन्ध में कोई प्रकाश नहीं पड़ता है।

९. मदनपुर का जैन मंदिर

मदनपुर में तीन प्राचीन मंदिर हैं जो छिन्न-भिन्न दशा में हैं। इसमें मुख्य जैनमंदिर ३० फीट ८ इंच लम्बा तथा १४ फीच २ इंच चौड़ा है। इसमें दो अन्तराल हैं। गर्भगृह अन्दर से ८ फीट लम्बा तथा ८ फीट चौड़ा है। उसमें एक नग्नमूर्ति है और उसकी पीठिका में विक्रमाब्द १२१२ अथवा सन् ११५५ ई. का एक लेख है। निकट ही एक अन्य जैन मंदिर है, जिसमें पांच जैन मूर्तियां हैं और उनमें से तीन मूर्तियाँ क्रमश- आदिनाथ, तारा तथा शंभुनाथ की हैं।

१०. चांदपुर का जैन मंदिर

चांदपुर में भी अनेक जैन मंदिरों के चिह्म पाये जाते हैं किन्तु वे सभी अब नष्ट हो चुके हैं। एक छोटे कमरे में एक विशाल नग्न मूर्ति रखी है और उसकी चहारदीवारी में असंख्य जैन मूर्तियाँ हैं।

नागरिक स्थापत्यकला

चन्देलों ने पूर्णवैभव के साथ चिरकाल तक राज्य किया। उन्होंने अनेक आततायी शत्रुओं का दमन कर शांति एवं सुव्यवस्था स्थापित की। विदेशी आक्रमणों तथा आन्तरिक उपद्रवों के समय राष्ट्र की समग्र शक्तियाँ दुर्गों के निर्माण तथा उनके जीणोद्धार में लगी थीं, किन्तु जब देश में शांति तथा सुव्यवस्था का राज्य था उस समय राष्ट्र का धन तथा ध्यान मन्दिर तथा 
भवनों के निर्माण की ओर उन्मुख हुआ। तत्कालीन मध्य युग में धार्मिकता अपनी चरमसीमा पर थी और लोग धर्म को तर्क से अधिक श्रेयस्कर समझते थे। तत्कालीन दृष्टिकोण पत्थर में मूर्तिमान हो उठा। फलतः विभिन्न मतों के विशाल मंदिर अपनी विविधताओं के साथ सर्वत्र ही बहुतायत से पाये जाते हैं। परन्तु राजप्रासादों तथा अन्य भवनों की भी कमी नहीं है। चन्देल नरेश अनेक प्रकार की सुख-सुविधाओं से युक्त सुन्दर प्रासादों में निवास करते थे। उस समय प्रासादों को बैठक भी कहते थ्ज्ञे। अनेक प्रासादों के चिह्म आज भी पाये जाते हैं। अनेक प्रासाद प्रकृति के थपेडों को सह न पाने से विलीन हो गये। कुछ प्रासादों को मुस्लिम विजेताओं ने नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और कुछ मस्जिद में परिवर्तित कर दिये गये। फिर भी जो प्रासाद बचे हैं, उनसे चन्देल नरेशों की रुचि तथा तत्कालीन कारीगरी के कौशल का बोध होता है। चन्देल-युग में अनेक तड़ागों का भी निर्माण हुआ और वे नागरिक वास्तुकला के मुख्य अंग हैं। इसके अतिरिक्त अनेक स्तम्भों का भी निर्माण हुआ। अस्तु, चन्देल नागरिक स्थापत्य-कला तीन भागों में विभक्त की जाती हैं- 

प्रासाद अथवा बैठक

चन्देल प्रासादों का निर्माण आयोजन साधारणतः एक ही प्रकार था। एक खुले आंगन के चारों ओर कमरे बने होते थे। उनमें खुले हुए स्तम्भ युक्त बरामदे भी होते थे। राज महिषियों के एकान्त के विचार से लकड़ी अथवा कपड़े के पर्दे का प्रबन्ध किया जाता था, जिसके चिह्म अब परिलक्षित नहीं होते हैं।

१. महोबा का राजप्रसाद

महोबा परवर्ती चन्देल नरेशों की राजधानी थी। अस्तु, वहां मन्दिरों तथा भवनों का बाहुल्य था, किन्तु प्रकृति के प्रतिरोध में न ठहर सकने के कारण परमर्दिदेव के पूर्व की कोई भी इमारत उपलब्ध नहीं है। महोबे में एक प्रासाद था, जिसे मुस्लिम विजेताओं का कोपभाजन बनना पड़ा। कहा जाता है कि यह परमर्दिदेव का राज प्रासाद था। यह दुर्ग की पहाड़ी पर स्थित है और अब उसका भग्नावशेष मात्र रह गया है। इसमें केवल एक बारादरी है जो ८० फीट लम्बी तथा २५ फीट चौड़ी है। बाद में यह मस्जिद में परिवर्तित कर दिया गया था। उसके खम्भे अब भी सुरक्षित हैं। ये पत्थर से काटकर बनाये गये हैं और इनकी ऊंचाई १२ फीट है। ये अनेक मूर्तियों तथा ज्यामितीय चित्रों से अलंकृत हैं। भवन की लम्बाई में इस प्रकार के स्तम्भों की ८ पंक्तियां तथा चौड़ाई में तीन पंक्तियां हैं। उनसे मस्जिद के अग्रभाग के सात दरवाजों का निर्माण होता है।

२. जबलपुर का मदन महल

यह चन्देल नरेश मदनवर्मन का राजप्रसाद कहा जाता है, किन्तु यह अत्यन्त साधारण भवन है। यह एक बड़ी गोल चट्टान पर बना हुआ है। इसमें अनेक छोटे-छोटे कमरे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इस भवन में दो खण्ड थे। इसमें एक आंगन था और उसके चारों ओर साधरण कमरे थे। अब आंगन के केवल दो ओर कमरे बचे हैं। छत की छपाई उत्तर है और उसमें सुन्दर चित्रकारी है। यह छत फलक युक्त वर्गाकार स्तम्भों पर आश्रित है।

३. गढ़कोट महल

गढ़कोट नामक दुर्ग में यह महल जीर्ण-शीर्ण दशा में स्थित है। महल में जाने का मार्ग लम्बा, संकरा तथा वक्र है। अस्तु, आक्रमण आदि के समय सुरक्षा के विचार से इसकी स्थिति बड़ी उत्तम है। यह महल किले की उच्चतम भूमि पर बना है। महल की दो चहारदीवारें ईंट तथा पत्थर की बनी है और शेष दो ओर सोन तथा उसकी सहायक नदियाँ उसकी सुरक्षा करती है।

४. हाटा के दो बाराखम्भा महल

ये दोनों महल प्राचीन है। हिन्दू तथा मुसलमान दोनों इस पर अपना स्वत्व प्रकट करते हैं। इसके कमरे अब छत विहीन हैं और केवल स्तम्भ मात्र शेष है। स्तम्भ अपने मूल-स्थान पर ही प्रतीत होते हैं। खम्भे तथा उनके फलक सुरक्षित हैं। सूक्ष्म निरीक्षण से प्रतीत होता है कि सभी स्तम्भों के फलक समान माप के नहीं हैं।

५. मदनपुर बारादरी

मदनपुर नगर की सबसे अधिक महत्वपूर्ण इमारत यह बारादरी है। इसमें पृथ्वीराज चौहान का शिलालेख है जिसमें उसकी विजय तथा परमर्दिदेव की पराजय का उल्लेख है। यह एक छोटी तथा खुली हुई बारादरी है, जिसमें छह स्तम्भ हैं।

६. हाटा का महल

यह महल हाटा दुर्ग के अन्दर है।। इसमें पत्थर के वर्गाकार ऊंचे स्तम्भ हैं, जो अलंकृत नहीं हैं। इन स्तम्भों पर मेहराव बना हुआ है और इसके खुले हुए आँगन के चारों ओर कमरे हैं।

७. चिल्ला का महल

यमुना के दाहिने किनारे में इलाहाबाद से १० मील पश्चिम चिल्ला एक छोटा-सा गांव है। यहां बनाफर सरदार आल्हा-ऊदल के महल थे।। यह महल एक सुरक्षित चहारदीवारी में है, जिसको कोट कहते हैं। इस कोट की दीवार मिट्टी की बनी हुई है पर बाहर तथा अन्दर की दीवार का अग्रभाग पत्थर से बना हुआ है। इस कोट के चोरों कोनों पर बुर्ज बने हुए हैं। यह महल ४६ वर्ग फीट है और इसकी प्रत्येक भुजा स्तम्भों तथा दीवारों से विभक्त है। दोनों ओर पांच-पांच पंक्तियाँ होने के कारण उसमें पच्चीस खुले स्थान हैं। उत्तर की ओर मुख्यद्वार हैं, जिसके दोनों ओर पत्थर की एक-एक बैठक बनी हुई है और उनमें छोटे-छोटे स्तम्भों पर आश्रित नीची छतें हैं। मध्य में एक खुला हुआ आंगन है और उसके चोरों ओर कमरे हैं। प्रत्येक ओरपांच कमरे हैं, जिनके दरवाजे अलग-अलग हैं। कमरों को प्रकाशित करने के लिए दीपदान बने हुए हैं, जिनमें से प्रत्येक ८ फीट १० इंच ऊंचा है।
इसकी छत चौरस है। चार स्तम्भ छत के कुछ टूटे हुए भाग को संभाले हुए हैं। सभी दरवाजे, देहली तथा स्तम्भ थोड़े बहुत अलंकृत हैं। इस भवन का महत्व इसलिए है कि यह प्राचीन भारतीय साधारण भवन का एक उदाहरण है। विजेताओं की विध्वंसक नीति के कारण ऐसे भवन कम पाये जाते हैं।

चन्देल -स्तम्भ

देश के इतिहास में स्तम्भों का विशिष्ट स्थान होता है और इसी कारण उनकी रक्षा अतीत काल से होती चली आई है। मौर्य तथा गुप्त स्तम्भों की भाँति चन्देल स्तम्भों का बुन्देलखण्ड के इतिहास में बड़ा महत्व है उनका प्रयोग जय-स्तम्भ, तीर्थ स्तम्भ तथा सीमा द्योतक चिह्मों के रुप में होता था।

जय-स्तम्भ

जय स्तम्भों की स्थापना विजेताओं की कृतिओं को अमरत्व प्रदान करने की दृष्टि से होती है यद्यपि इस प्रकार के अधिकांश चन्देल स्तम्भ अब सुरक्षित नहीं हैं, फिर भी इस कोटि के प्राप्त एक स्तम्भ का निर्देश आवश्यक है।

१. अकोरी का जयस्तम्भ

अकोरी ग्राम उरई के निकट स्थित है। वहाँ पृथ्वीराज तथा परमर्दिदेव का भयंकर युद्ध हुआ था जनश्रुतियों के आधार पर ज्ञात होता है कि वहां पर एक जयखम्भा अथवा जयस्तम्भ था, किन्तु अब उस स्तम्भ के कोई चिह्म प्राप्त नहीं हैं। यह बतलाया जाता है कि इस जयस्तम्भ को पृथ्वीराज ने स्थापित किया था। अब उसके स्थान पर एक नीम का वृक्ष है, जिसे यात्री लोग अपनी पूजा समर्पित करते हैं।

तीर्थ-स्तम्भ

ये स्तम्भ किसी तीर्थ अथवा मंदिर आदि के सूचक होते हैं और ये बहुतायत से पाये जाते हैं। बुन्देलखण्ड में अनेक झील तथा तालाब हैं और प्रत्येक नवनिर्मित तड़ाग के पास स्तम्भ स्थापित करने की प्रथा थी। इनमें से अधिकांश स्तम्भ अब नष्टप्राय हैं, लेकिन थोड़े-से स्तम्भ अपने मूल स्थान में अब भी स्थित हैं।

१. महोबा का दिया अथवा दीवट

झील के उत्तरी किनारे पर स्थित मनियादेवी मंदिर के सामने एक पाषाण स्तम्भ है। यह दिया अथवा दीवट इसलिए कहा जाता है कि निर्धारित तिथियों में इसकी चोटी पर दीपक रखने की प्रथा है, किन्तु यह इस स्तम्भ का मूल उद्देश्य नहीं प्रतीत होता, क्योंकि इसमें दीपक रखने का एक भी स्थान नहीं है। यह स्तम्भ १८ फीट ऊंचा तथा आधार १ वर्ग फीट है। इसका मध्यभाग अष्टकोण है, किन्तु ऊपर जाकर यह गोल हो गया है। स्तम्भ का आधार तथा मध्यभाग बिल्कुल सादा है, किन्तु ऊपरी भाग बहुत अलंकृत है। इसके फलक के नीचे चार सिंहों के शिरों में बंधी हुई चार घंटियां उत्कीर्ण हैं। स्तम्भों के ऊपर चौड़ा तथा उठा हुआ चारस फलक है।

२. चांदपुर का गज-स्तम्भ

चांदपुर दुबई के सात मील उत्तर-पश्चिम में स्थित है। यह स्तम्भ ब्रह्मानन्द मण्डप नामक शिव मंदिर के सम्मुख स्थित है। आधार पर यह १ फीट ८ वर्ग इंच है। ऊपर ३ फीट की ऊंचाई पर यह अष्टकोण में परिवर्तित हो जाता है और फिर ३ फीट की ऊंचाई पर षट्कोण हो जाता है और पुनः तीन फीट की ऊंच�ब्र्ऱ्ह पर गोल हो जाता है। स्तम्भ की पूरी लम्बाई १४ फीट है। यह गज स्तम्भ कहलाता है और यह बिल्कुल सादा है। आधार के समीप के एक वर्ग में इसके निर्माण कर्ता की प्रशस्ति है। लेख का प्रारम्भ ""ओम् नमः शिवाय ब्रह्माण्ड मंडप'' से होता है। इस लेख की लिपि से अनुमान यह है कि यह स्तम्भ ११वीं अथवा १२वीं शताब्दी में स्थापित किया गया था।

अन्य स्तम्भ

उपर्युक्त दो प्रकार के स्तम्भों के अतिरिक्त अन्य प्रकार के भी स्तम्भ पाये जाते हैं जिनका उद्देश्य भली भाँति ज्ञात नहीं होता है। सम्भवतः उनका उपयोग सीमा द्योतक चिह्मों तथा अन्य इसी प्रकार के कार्यों के लिए होता था।

१. आल्हा की गिल्ली

महोबा का दक्षिणी-पूर्वी भाग दरीबा कहलाता है। वहीं एक स्तम्भ है जो ""आल्हा की लाट'' अथवा ""आल्हा की गिल्ली'' कहलाता है। यह लाट अथवा गिल्ली ९ फीट ऊंची तथा इसका व्यास १३ इंच है। यह एक चट्टान में कटे हुएचौकोर छिद्र में इस प्रकार रक्खा हुआ है कि तनिक से स्पर्श मात्र से यह घूमने लगता है।
इस स्तम्भ के सम्बन्ध में एक किम्वदन्ती है। जिसके आधार पर कहा जाता है कि जब आल्हा आगरा अथवा मथुरा में गिल्ली खेल रहा था तब अपने डंडे से इतने जोर से मारा कि गिल्ली महोबे में उसके अकवाड़े में गिरी यह भी कहा जाता है कि जिस डंडे से आल्हा ने गिल्ली मारी वह इस स्तम्भ से कहीं बड़ा है, और वह आगरा अथवा मथुरा में है, किन्तु वहां इस डंडे अथवा स्तम्भ का कोई चिह्म नहीं है।

२. महोबे का चण्ड मतावर

यह स्तम्भ आल्हा की गिल्ली के निकट ही है। यह भूमि के अन्दर गड़ा हुआ है और दो वर्ग फीट है। इसमें एक अश्वारोही की मूर्ति है जो चंड मतावर कहलाता है। उसकी पूजा भी अब होती है, किन्तु इस स्तम्भ का उद्देश्य ज्ञात नहीं है।

चन्देल तड़ाग

बुन्देलखण्ड में अनेक तालाब और झील हैं और इनकी बहुलता का एक कारण भी है। यद्यपि बुन्देलखण्ड में अनेक छोटी नदियाँ हैं, पर वहाँ वर्षा की कमी होत है। अस्तु अनावृष्टि आदि उत्पातों से मुक्ति पाने के लिए चन्देल नरेशों ने अनेक तड़ागों का निर्माण किया। सौभाग्य से बुन्देलखण्ड एक पहाड़ी देश है और वहां तड़ाग निर्माण के सभ्ज्ञी साधन सुलभ हैं। अस्तु, प्रत्येक मंदिर के साथ एक तड़ाग का निर्माण उस युग में एक नियम-सा बन गया था, मानो दर्शनार्थियों को मंदिर प्रवेश के पूर्व पाद-प्रक्षालन के लिए ये निर्मित हुए हों। इस प्रकार का प्रबन्ध दक्षिण भारत के कुछ मंदिरों में है। मैदान तथा पहाड़ियों में समान रुप से बुन्देलखण्ड भर में तालाब पाये जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि चन्देलों के पास अनेक कुशल शिल्पी थे, जिनकी सेवाओं का उपयोग उन्होंने जिस क्षेत्र में भी चाहा, सफलतापूर्वक किया।

चन्देल तड़ागों की मुख्य विशेषता उनका मंदिरों से संयोजन था। इन तड़ागों में गढ़े हुए पत्थरों का उपयोग किया गया है। अधिकांश तड़ाग किसी-न-किसी देवी-देवताओं के नाम से प्रसिद्ध हैं, जैसे "शिवसागर', "रामसागर' आदि। किन्तु ऐसे भी तड़ाग हैं, जो अपने निर्माणकर्त्ता अथवा जिस स्थान में स्थित हैं, उसके नाम से प्रसिद्ध हैं। बुन्देलखण्ड में अनेक तड़ागों में से कुछ विशेष उल्लेखनीय तड़ागों का वर्णन नीचे दिया जा रहा है।

१. खजूर सागर

यह नैनोरी ताल के नाम से भी पुकारा जाता है। यह एक मील लम्बा और पौन मील चौड़ा है। यह खजुराहो के समीप स्थित है। गर्मियों में इसका क्षेत्रफल बहुत कम हो जाता है और यह अपने मूल क्षेत्रफल के केवल आधे में रह जाता है।

२. शिवसागर

यह उत्तर से दक्षिण तक लगभग पौन मील लम्बा और खजुराहो से लगभग पौन मील ही दूर है। गर्मियों में यह लगभग ६०० वर्ग फीट रह जाता है। खजुराहो के पश्चिमी समूह के हिन्दू मंदिर इसी के तट पर स्थित है।

३. मदन सागर

महोबा नगर के दक्षिण चन्देल नरेश मदनवर्मन द्वारा निर्मित "मदन सागर' स्थित है। यह लगभग ३ मील के घेरे में है। यह अपनी निर्माण कला के लिए प्रसिद्ध है। यह बुन्देलखण्ड का सर्वाधिक सुन्दर एवं विशिष्ट तड़ाग है। इसके पश्चिम में गोकर पहाड़ी है। दक्षिण-पूर्व की ओर तीन अन्य पहाड़ी श्रेणियां हैं। ये श्रेणियां मध्य झील में बाहर निकल आई है। इस झील का उत्तरी किनारा घाटों तथा मंदिरों से अलंकृत है। झील के मध्य में "ककरामढ़ा' नामक मंदिर है।

२. शिवसागर

यह उत्तर से दक्षिण लगभग पौन मील लम्बा और खजुराहो से लगभग पौन मील ही दूर है। गर्मियों में यह लगभग ६०० वर्ग फीट रह जाता है। खजुराहो के पश्चिमी समूह के हिन्दू मंदिर इसी के तट पर स्थित हैं।

३. मदन सागर

महोबा नगर के दक्षिण चन्देल नरेश मदनवर्मन द्वारा निर्मित "मदन सागर' स्थित है। यह लगभग ३ मील के घेरे में है। यह अपनी निर्माण कला के लिए प्रसिद्ध है। यह बुन्देलखण्ड का सर्वाधिक सुन्दर एवं विशिष्ट तड़ाग है। इसके पश्चिम में गोकर पहाड़ी है। दक्षिण-पूर्व की ओर तीन अन्य पहाड़ी श्रेणियाँ हैं। ये श्रेणियाँ मध्य झील में बाहर निकल आई हैं। इस झील का उत्तरी किनारा घाटों तथा मंदिरों से अलंकृत है। झील के मध्य में "ककरामढ़ा' नामक मंदिर है।

४. कीरत सागर

महोबा नगर के पश्चिम कीर्तिसागर है, इसे महाराज कीर्तिवर्मन ने बनवाया था। इसका घेरा लगभग डेढ़ मील है।

५. कल्याण सागर

महोबा के पूर्व एक छोटी झील है, जिसे राहिल सागर कहते हैं। इसकी निर्माण शैली साधारण है।

६. विजय सागर

यह कल्याण सागर के पूर्व में स्थित है और इसका निर्माण चन्देल नरेश विजयपाल ने करवाया था। इसका घेरा लगभग ४ मील है और यह महोबे की सबसे बड़ी झील है।

७. राहिल ताल

यह तालाब राहिल अथवा राहिल्य नगर में स्थित है। चन्देल नरेश राहिल्य वर्मन ने इस तालाब का निर्माण किया और उसने राहिल्य नगर भी बसाया था जो अब उजड़े हुए ग्राम के रुप में शेष रह गया है। चन्दबरदाई का कथन है कि इस तालाब का निर्माण बनाफर सदार आल्हा-ऊदल के पिता दशरथ अथवा दस्सराज ने किया था, किन्तु इस कथन की पुष्टि का कोई प्रमाण नहीं है।

८. रसिन का अधिक ताल

बांदा से २९ मील पूर्व एक छोटी पहाड़ी पर स्थित रसिन एक छोटा ग्राम है। वहां अनेक सुन्दर तालाब हैं। किम्बदन्ती के आधार पर वहां ८० तालाब थे। जनरल कनिंघम ने अपनी रिपोर्ट में १९ तालाबों की एक अपूर्ण सूची दी थी। उन सबमें "अधिक ताल' अति प्रसिद्ध है। इन तड़ागों के निर्माण कर्ता के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं है, किन्तु निश्चय है कि चन्देल राज्य में रसिन एक महत्वपूर्ण स्थान था।

९. अजयगढ़ के तड़ाग

अजयगढ़ में भी अनेक तड़ाग हैं। इनमें सबसे बड़ा तालाब एक ठोस चट्टान काटकर बनाया गया है और वह टेढ़ा-मेढ़ा है। अनुमान यह है कि भवनों के निर्माण के लिए खोदकर पत्थर निकाले जाने से यह तालाब अपने आप बन गया था। यह तालाब कभी सूखता नहीं है और सदा १० फीट से अधिक पानी रहता है। इसके तटों पर अनेक क्षत-विक्षत मूर्तियां बिखरी पड़ी हैं।

१०. दुधई का रामसागर

यह एक बड़ी झील है जो लगभग एक मील लम्बी तथा आधा मील चौड़ी है। यह पूर्व की ओर डुंग्रिया झील तक फैली हुई है। यह एक कृत्रिम झील है और विशाल बांधों द्वारा बनाई गयी है। बाँध के नीचे एक कुआं है जिसमें से पानी निकलता है और यही कुआं झील के पानी का स्रोत है।

११. कलिं का स्वर्गारोहन ताल

यह तालाब कालिं के नीलकण्ठ मंदिर के मण्डप के बाहर स्थित है। वास्तव में यह एक कुण्ड है तो पहाड़ की चट्टान काटकर बनाया गया और स्वर्गारोहण के नाम से प्रसिद्ध है। कुण्ड के दाहिनी ओर काल भैरव की एक विशाल मूर्ति है। मूर्ति २४ फीट ऊंची है और उसके दोनों पैर पानी के अन्दर है। यह तालाब १७ फीट चौड़ा है। इसका वर्णन अबुल फ़ज़ल ने भी किया है। इसके अतिरिक्त वहां काली की भी एक मूर्ति है। जो लम्बी ४ फीट की है और पानी के अन्दर है। इस मूर्ति का केवल एक फुट हिस्सा पानी के बाहर है। पानी ऊपर से निकलकर इन मूर्तियों में गिरता है।

१२. पाताल गंगा

यह कालिं में एक चट्टान में कटा हुआ गहरा कूप है। इससे निरन्तर पानी निकलता रहता है और छत तथा चारों ओर की दीवारों में टकराता है।

१३. कालिं का पाण्डु कुण्ड

यह एक छिछला गोलाकार तालाब है, जिसका व्यास १३ फीट है। चट्टान की तिरछी सतह की दरारों से इसमें पानी आता है।

१४. कालिं का बूढ़ी अथवा बुढिया ताल

एक चट्टान की सतह में यह बावली के रुप में बना है और इसमें पहुंचने के लिए चारों ओर सीढियां बनी हुई हैं।

१५. कालिं की मृगधारा

कालिं दुर्ग की चहारदीवारी के अन्दर यह एक छोटा तालाब है। जिसमें पत्थर के मृग के मुँह से निरन्तर पानी निकलता रहता है।

१६. कालिं का कोट तीर्थ

यह एक बड़ा तालाब है जो लगभग १०० गज लम्बा है। इसमें पहुंचने के लिए अनेक घाट तथा सीढियां हैं यह तालाब कालिं दुर्ग के अन्दर स्थित है।

इन तालाबों के अतिरिक्त जयपुर, सिरवा, बरांव, मैहर, मऊ, कांच, कालिं तथा अन्य स्थानों में अनेक तालाब हैं।

सैनिक स्थापत्य कला 

चन्देलकालीन मूर्तिकला

जिस युग में चन्देल सत्ता का उत्थान तथा पतन हुआ, वह मध्यकालीन शौर्य तथा पराक्रम का युग था। उस युग में देश में अनेक छोटे-बड़े राज्य थे, जिनमें एक-दूसरे से बढ़ जाने की प्रतिद्वन्द्विता थी। उन दिनों विशाल एवं एकान्त दुर्गों का बड़ा महत्व था। उनमें किसी राज्य के बनाने तथा बिगाड़ने की सामर्थ्य थी। गुप्त तथा वर्द्धन नरेशों के बाद उत्तरी भारत में चन्देल अग्रणी बने, क्योंकि उनके पास कालिं सदृश अजेय दुर्ग थे, जिसकी ख्याति दूर-दूर फैली हुई थी। इसके अतिरिक्त चन्देलों के पास अन्य अनेक दुर्ग थे क्योंकि उनके राज्य की भौगोलिक स्थिति दुर्ग-निर्माण में सहायक थी। जनश्रुति के आधार पर चन्देलों के पास आठ प्रसिद्ध दुर्ग थे, किन्तु इनके अतिरिक्त और भी दुर्ग बुन्देलखण्ड में पाये जाते हैं। उनमें से कुछ सुरक्षित हैं, पर अधिकांश के भग्नावशेष मात्र हैं और जंगलों से भरे पड़े हैं, जिनमें पशु निवास करते हैं। कुछ प्रसिद्ध दुर्गों का विवरण नीचे दिया जाता है।

जनश्रुति के आधार पर चन्देलों के मुख्य दुर्ग वारीगढ़, कालिंजर, अजयगढ़, मनियागढ़, मुड़फा, कालपी तथा गढ़ा में थे। उनके अतिरिक्त देवगढ़, महोबा, रावतपुर तथा जैतपुर के भी दुर्ग उल्लेखनीय हैं।

१. कलिं दुर्ग

समस्त चन्देल दुर्गों में कालिंजर-दुर्ग का विशिष्ट स्थान है। मध्य युगीन-भारत में यह अद्वितीय माना जाता है। यह इलाहाबाद से ९० मील दक्षिण-पश्चिम एक पहाड़ी की चौरस चोटी पर है। यह दुर्ग आयताकार है और इसकी लम्बाई एक मील तथा चौड़ाई आधा मील है। किले के दो मुख्यद्वार हैं, उनमें से प्रधान द्वार नगर की ओर उत्तराभिमुख है। दूसरा द्वार दक्षिण-पूर्व के कोने में पन्ना की ओर है इनके अतिरिक्त इसमें सात द्वार और हैं:--

१. आदम अथवा आलमगीर अथवा सूर्यद्वार
२. गणेश द्वार
३. चाँदी अथवा चाँद बुर्ज द्वार अथवा स्वर्गारोहण द्वार
४. बुधभद्र द्वार
५. हनुमान द्वार
६. लाल दरवाजा
७. बड़ा दरवाजा

मूलतः इस दुर्ग में छह द्वार थे। बाद में आलगीर औरंगजेब के राजत्वकाल में "आलम-गीर दरवाजा' और जोड़ दिया गया था। इस दरवाजे में तीन पंक्तियों में फारसी का एक पद्यात्मक लेख है, जिसमें यह अंकित है कि इस द्वार का निर्माण राजकुमार मुराद ने सन् १०८४ हि. अथवा १६७३ में किया था।

सबसे निचले अथवा आलमगीर द्वार तक पहुंचने के लिये २०० फीट की चढ़ाई पार करनी पड़ती है। इसके बाद एक दुर्गम चढ़ाई है। उसको पार करने के उपरान्त द्वितीय द्वार अथवा गणेश द्वार मिलता है। कुछ और ऊपर चढ़ने पर सड़क के मोड़ पर चाँदी दरवाजा अथवा स्वर्गारोहण द्वार है। फिर ऊपर चढ़ने पर बुधभद्र द्वार तथा हनुमान द्वार मिलते हैं। हनुमान दरवाजे में एक पत्थर पर हनुमान की पत्थर में कटी हुई मूत्ति एक अन्य चट्टान के सहारे रक्खी हुई है। वहाँ हनुमान कुंड नामक एक तालाब भी है। छठा दरवाजा पुनः कुछ और ऊपर चढ़ने पर मिलता है। यह लाल पत्थर से निर्मित होने के कारण लाल दरवाजा कहलाता है। कुछ थोड़ी और चढ़ाई पार करने पर सातवाँ तथा अन्तिम दरवाजा मिलता है। यह बड़ा दरवाजा कहलाता है और यह दुर्ग का मुख्य द्वार है।

इस दुर्ग में पानी का उत्तम प्रबन्ध है। दुर्ग के अन्दर अनेक जलकुण्ड हैं। यथा: पाताल गंगा, पाण्डु-कुण्ड, बुढिया ताल, मृगधारा, कोटतीर्थ आदि। कालिं हिन्दुओं का तीर्थ स्थान भी है। वेदों में इसका निर्देश तपस्या-स्थान के रुप में हुआ है। महाभारत में यह उल्लेख है कि जो व्यक्ति कालिं में स्नान करता है उसे सहस्त्र गोदान का फल मिलता है। पद्मपुरान में यह वर्णन है कि कालिंजर उत्तर भारत के नौ तीर्थों में से एक है और अब भी वहां अनेक यात्री जाते हैं।

२. अजयगढ़ दुर्ग

यह कालिंजर से २० मील दक्षिण-पश्चिम एक पहाड़ी की चोटी पर बना हुआ है। यह उत्तर से दक्षिण एक मील लम्बा और लगभग इतना ही पश्चिम से पूर्व को चौड़ा है। यह त्रिभुजाकार है और इसका घेरा लगभग ३ मील है। कहा जाता है कि इस दुर्ग का निर्माण किसी राजा अजयपाल ने करवाया था, किन्तु इस तथ्य के पुष्टीकरण का कोई प्रमाण नहीं है। शिलालेखों में इसका उल्लेख जयपुर दुर्ग के नाम से मिलता है। 
इस दुर्ग में केवल दो द्वार हैं। प्रथम द्वार तरोहनी द्वार कहलाता है, क्योंकि वहां से पहाड़ी के नीचे स्थित तरोहनी ग्राम को मार्ग जाता है। दूसरा द्वार केवल दरवाजा कहलाता है। संभवतः यह शिलालेखों में उल्लिखित कालिं दरवाजा हो, क्योंकि वहां से कालिं दुर्ग को रास्ता जाता है। इस दुर्ग में भी पानी का उत्तम प्रबन्ध है।

३. मड़फा दुर्ग

यह विशाल दुर्ग एक ऊंची पहाड़ी पर स्थित है और कालिंजर से उत्तर-पूर्व १२ मील की दूरी पर है। इस किले का उल्लेख किसी भी मुस्लिम इतिहासकार ने नहीं किया। इस तथ्य के आधार पर कनिंघम का अनुमान है कि कलिं के पतन के पश्चात् ही इसकी ख्याति हुई। अब यह दुर्ग निर्जन है और वहां जंगल है।

४. मनियागढ़

केन नदी के पश्चिमी तट पर ६०० फीट से ७०० फीट की ऊंची एक छोटी पहाड़ी के ऊपर यह दुर्ग बना हुआ है। यह एक प्राचीन दुर्ग है और वहीं चन्देलों की कुलदेवी मनिया देवी का मंदिर है। अब वह भग्नावशेष मात्र है और जंगलों से भरा पड़ा है।

५. कालपी दुर्ग

इस दुर्ग की स्थिति बड़ी महत्वपूर्ण थी। इतिहासकार फरिश्ता का अनुमान है कि कन्नौज के राजा वासुदेव ने इसका निर्माण करवाया था, किन्तु स्थानीय जनश्रूतियों में यह प्रचलित है कि इसका निर्माण किसी प्राचीन राजा कालिदेव ने करवाया था। यह बाहर से १२५ फीट और इसकी ऊंचाई ८० फीट है। यह सम्पूर्ण दुर्ग शतरंज की गोट की भांति है और इसकी छत चौरस है। इसके मध्य के चार स्तम्भ भी नहीं हैं और इस प्रकार जो जगह बची है वह विशाल गुम्बज से ढ़की हुई है। यह गुम्बज मुख्य इमारत की छत से लगभग ६० फीट ऊंचा है। इसके चारों कोनों पर चार छोटे-छोटे बुर्ज हैं। मध्य का बुर्ज छत से लगभग ४० फीट ऊंचा है।

६. महोबा दुर्ग

चन्देल राजधानी महोबे का प्राचीन दुर्ग मदनसागर से उत्तर एक छोटी पहाड़ी पर स्थित है। इसकी लम्बाई १६२५ फीट तथा चौड़ाई लगभग ६०० फीट है। इसके दो मुख्य द्वारों में भैंसा दरवाजा पश्चिम की ओर है और दरीवा-दरवाजा पूर्व की ओर है। इसकी दीवार कटे हुए चौकोर पत्थरों से बनी है।

७. हाटा दुर्ग

इसकी निर्माण शैली अन्य दुर्गों की ही भाँति है, किन्तु इसके शिखर बहत हैं, जो ऊपर की ओर नुकीले होते चले गए हैं। शिखर तथा दीवारें (युद्धक चहारदीवारी) से ढकी हुई हैं और गारे तथा बटियों के पत्थर से बनी है। इस दुर्ग के अन्दर एक राज-प्रसाद का भग्नावशेष भी है।

८. गढ़ा दुर्ग

बहुत दिन पूर्व यह दुर्ग गिरा दिया गया था और इसकी सामग्री रेलवे कम्पनी ने इस्तेमाल कर ली है।
इन दुर्गों के अतिरिक्त रावतपुर, जैतपुर, राजगढ़, कुंडलपुर तथा अन्य स्थानों पर भी चन्देल दुर्गों के चिह्म पाये जाते हैं, जो चन्देलों की सैनिक प्रवृत्ति के प्रतीक हैं।

चन्देलकालीन मूर्तिकला

जिस प्रकार उत्तरी भारत में चन्देल मंदिर बेजोड़ हैं, उसी प्रकार उनकी मूर्तिकला भी बेजोड़ है। चन्देल शासकों के अन्तर्गत राष्ट्र की बढ़ी हुई समृद्धि से देश की ललितकला के प्रसार में बड़ा योग मिला। गुप्तकाल की मूर्तिकला में विदेशी छाप जाती रही थी। उस युग में मथुरा तथा गान्धार कला-केन्दों का पतन हो चुका था और उनके स्थान पर सारनाथ तथा पाटलिपुत्र के कला-केन्द्रों का विकास हो रहा था। दोनों प्राचीन कला केन्द्रों में केवल बुद्ध तथा बोधिसत्व की ही मूर्तियों का निर्माण होता था। किन्तु नूतन कलाकेन्द्रों के विकास से इस स्थिति में पर्याप्त परिवर्तन हो गया था। बौद्ध धर्म के देवी-देवताओं का स्थान हिन्दुओं के पौराणिक देवी-देवताओं ने ग्रहण कर लिया। दोनों कलाकेन्द्रों ने आशातीत सफलता प्राप्त की और कुछ समय पश्चात् उन्होंने तीन मध्ययुगीन कला-केन्द्रों को जन्म दिया- १. बंगाल तथा बिहार का पूर्वीय 
कला केन्द्र, २. मध्य भारत का चन्देल चेदि कलाकेन्द्र तथा ३. मालवा का धारा-कला-केन्द्र।

बुन्देलखण्ड में चन्देल चेदि कला-केन्द्र की मूर्तिकला अपनी पूर्णता को पहुंच गई थी। अंग विन्यास, मुख की भाव-भंगिमा तथा शरीर के व्यापारों के निर्दोष कृतित्व में शिल्पकारों ने पूर्ण निपुणता प्राप्त कर ली थी। अधिकांश मूर्तियों में महोबा में प्राप्त काले संगमरमर का प्रयोग हुआ है, किन्तु विन्ध्य पर्वत से प्राप्त लाल-पत्थर का भी पर्याप्त प्रयोग हुआ है, क्योंकि इस पत्थर में भी सुन्दर ओप होती है।

खजुराहों तथा अन्य स्थानों में शायद ही कोई मंदिर हो, जो विशिष्ट मूर्तियों से न अलंकृत हो। चन्देल मूर्तिकला दो मुख्य भागों में विभाजित की जाती है: १. धार्मिक तथा २. धर्मनिरपेक्ष।

१. धार्मिक मूर्तिकला

इसका पुनः तीन विभागों में वर्गीकरण किया जाता है:

१. हिन्दू मूर्तिकला , 

२. जैन मूर्तिकला तथा 

३. बौद्ध मूर्तिकला


१.१ हिन्दू मूर्तिकला : 

कन्दरीय महादेव मन्दिर

कन्दरीय महादेव मंदिर में मूर्तिकला का बाहुल्य है। जनरल कनिंघम की गणना के अनुसार इस मदिर के अन्दर २२६ मूर्तियाँ तथा तथा मंदिर के बाहर ६४६ मूर्तियाँ हैं। मंदिर में शायद ही कोई स्थान हो जो मूर्तियों से अलंकृत न हो। दीवारें, दीवारगीरें, स्तंभ आदि सभी स्थान मूर्ति-समूहों से अलंकृत हैं। मंदिर की कुर्सी के ऊपर मंदिर के चारों ओर मूर्तियों की तीन पट्टियां हैं। इन मूर्तियों में अधिकांश हिन्दू देवी-देवताओं की हैं, किन्तु कुछ अश्लील मूर्तियां भी हैं। इन पट्टियों के ऊपर उभरी 
हुई तथा आगे बढ़ी हुई मूर्तियां मंदिर के चारों ओर हैं और इनके ऊपर अनेक विशिष्ट मूर्तियां हैं। इन विशिष्ट एवं बहुसंख्यक मूर्तियों का प्रभाव हर्षातिरेक उत्पन्न करता है और मूर्तियों के विवरणों की विविधता से आंखें चकाचौंध हो जाती हैं। मंदिर की छत भी बड़ी मनोरम एवं विविध मूर्तियों से सुसज्जित है।

गर्भगृह के मध्य में साढ़े चार फीट के घेरे का संगमरमर का शिवलिंग है और उसके दाहिनी तथा बाईं ओर शिव तथा ब्रह्मा की मूर्तियां हैं।

विश्वनाथ मन्दिर

खजुराहो के विश्वनाथ मंदिर में मूर्तिला के उत्कृष्ट नमूने हैं। मंदिर के अन्दर तथा बाहर बहुसंख्यक मूर्तियाँ हैं। मंदिर की बाहरी दीवार में मूर्तियों की तीन पट्टियाँ हैं। इनके मध्य का मूर्ति-समूह अन्य मंदिरों की मूर्तियों की भांति आकर्षक है। अपने वस्रों को गिराती हुई अनेक नारी प्रतिमायें बनी हुई हैं, मानों वे जानबूझ कर अपने अंगों का प्रदर्शन कर रही हों। अन्य मन्दिरों की भाँति इस मंदिर के भीतरी भाग के अलंकरण में भी बहुलता तथा विविधता है। इसकी छत भी बहुत अलंकृत है। मंदिर के मुख्यद्वार के सामने एक छोटा मंदिर है, जिसमें नन्दी की एक विशाल मूर्ति है। इसकी कुर्सी हाथियों की मूर्तियों की एक पंक्ति से अलंकृत है। प्रत्येक हाथी सामने की ओर मुँह किये हुए दो नर मूर्तियों के मध्य में है।

खजुराहो का चतुर्भुज मंदिर

यह मंदिर भी बाहर तथा अन्दर बहुत अधिक अलंकृत है। इसमें शूकर के आखेट, हाथी, घोड़ों तथा विभिन्न शस्रास्रों से सुसज्जित सैनिकों के जुलूसों के मनोरम चित्रण हैं। मंदिर के अन्दर ४ फीट १ इंच ऊँची खड़ी हुई चतुर्भुजी मूर्ति है। उसके तीन शिर हैं, जिनमें से बीच का शिर सिंह का तथा शेष दो शिर मनुष्य के हैं।

खजुराहो का लक्ष्मीनाथ अथवा विष्णु मन्दिर

इस मंदिर के महामंडप के स्तम्भ अन्य खजुराहों मंदिरों की भांति अलंकृत है। उसकी आठ दीवारगीरें नारियों तथा सिंहों की मूर्तियों से सुसज्जित हैं। प्रवेश द्वार के स्तम्भ का काम आश्चर्यजनक रुप से सुन्दर है। प्रत्येक फलक के नीचे से मुंह खोले हुए नक्र का आविर्भाव होता है और नक्र के खुले हुए मुँह से एक अलंकृत नाल नीचे की ओर मुड़ती है और आन्त में दो नलिकायें निकलती हैं और वह ऊपर मेहराव से जा मिलती है। प्रत्येक नलिका नीचे की ओर मुड़ती है और अन्त में दो नलिकायें मध्यके खुले हुये भाग में मिल जाती है। नाल के उद्भव बिंदु से हाथ के बल से लटकती हुई नारी मूर्ति है, जिसके उभय पद नक्र के मुख पर स्थित हैं, मानों उनका भी आविर्भाव नाल के साथ ही हुआ हो। कनिंघम इस अलंकरण की अस्वाभाविकता की आलोचना करते हैं। उनका मत है कि दोनों नक्रों के शिरों का कोई आधार नहीं हैं, वेस्तम्भों से प्रादुर्भूत हैं। उनका मत है कि नक्रों के शिरों का आधार दीवारगीर होने चाहिए। अन्य मन्दिरों की भांति मंदिर का भीतरी भाग मूर्तियों की दो पंक्तियों से अलंकृत है।

कुँवर मठ

इस मंदिर का अलंकरण प्रायः उसी कलात्मक ढंग से हुआ है, जैसा कि चतुर्भुज मंदिर में। निचला अष्टकोणात्मक मार्ग अनेक स्थलों पर हाथी, घोड़े तथा शास्रास्रों से सुसज्जित सैनिकों के जुलूस सम्बन्धी मूर्तियों से अलंकृत हैं। अष्टभुज क्षेत्र के कोणों पर नारी मूर्तियाँ हैं, जो दीवारगीरों पर आधारित हैं। इसके अतिरिक्त गायकों तथा नर्तकों के भी चित्र हैं।

जतकरा का चतुर्भुज मंदिर

इस मंदिर का अलंकरण खजुराहो कला के आधार पर हुआ है, किन्तु इसकी कुछ मूर्तियाँ विशेष उल्लेखनीय है। मंडप की मूर्ति पंक्ति की मुख्य मूर्ति जो दक्षिण की ओर है, वह अर्द्धनारी की बैठी हुई मूर्ति है। उसके ऊपर त्रिशूल अथवा सपंयुक्त भगवान् शिव की चतुर्भुजी मूर्ति है। उसके नीचे रथारुढ़ सूर्य की मूर्ति है। पीठिका में सप्ताश्वों की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। मध्यपंक्ति की मुख्य मूर्ति के उत्तर की ओर सिंह के शिर वाली नारी मूर्ति है। उसके नीचे गदा तथा शंख युक्त बैठे हुए भगवान् विष्णु की मूर्ति है।

छत्र को पत्र अथवा खजुराहो का सूर्य मंदिर

मंदिर के भीतर आठ फीट की ऊँचाई तक विभिन्न मूर्तियाँ हैं। उनमें पाँच फीट ऊँची द्विभुज सूर्य की मूर्ति हैं, जिसके करयुग्मों में कमल तथा पुष्प हैं। पीठिका में उसके रथ के सप्ताश्वों की मूर्तियाँ हैं। मण्डप के स्तम्भों के अलंकरण का केवल रेखांकन ही संभव हो पाया था, और शिल्पी संभवतः अपनी इच्छानुकूल उसकी पूर्ति न कर पाया था। मंदिर का बाहरी भाग 
अन्य मंदिरों की भाँति मूर्ति समूह की तीन पंक्तियों से अलंकृत है।

खजुराहो का वाराह मन्दिर

यह भगवान विष्णु के अवतार वाराह देव का मंदिर है। वाराह मूर्ति की लम्बाई ८ फीट ९ इंच तथा ऊंचाई ५ फीट ९ इंच है। यह खड़ी मुद्रा में है, जिसके दो पैर आगे की ओर बढ़े हुए हैं। पीठिका में कुंडली बाँधे हुए एक बड़े नाग की मूर्ति है। उसकी पूंछ पर वाराह की पूंछ आधारित है। वाराह का शिर एक बैठी हुई नर मूर्ति के आधार पर टिका हुआ है। नाग के शिर के निकट नर मूर्ति के दो पैर हैं, जो भगवती पृथ्वी के पद कहे जाते हैं। क्योंकि उसके हाथ के चिह्म वाराह की गर्दन पर भी पाये जाते हैं। वाराह का शरीर एवं गर्दन बाहर से छोटी-छोटी नर मूर्तियों से अलंकृत हैं।

मदनपुर का वाराह मन्दिर

इस मंदिर में ६ फीट २ इंच लम्बी एक विशाल मूर्ति है, जिसके साथ ही इस मूर्ति के दोनों ओर छोटी मूर्तियों की छह-छह पंक्तियां हैं। इस मूर्ति की पीठिका टूटी हुई है, किन्तु एक पिछला पैर अब भी वैसा ही है एक बहुत बड़ा नाग भी उत्कीर्ण है। यह नाग समुद्र का द्योतक है, जिससे वाराह ने नारी-रुप पृथ्वी का उद्धार किया था।

कालिं का कालभैरव मन्दिर

कालिं दुर्ग के स्वर्गारोहण कुण्ड में खड़ी हुई मुद्रा में २४ फीट ऊंची कालभैरव की विशाल मूर्ति है, जो दो फीट गहरे पानी में खड़ी हुई है। यह मूर्ति अष्टादश भुजी है। यह नरमुण्डों की माला, नाग के बाल तथा भुजबन्ध धारण किये हुए है। एक नाग इस मूर्ति के गले में लिपटा हुआ है। इस मूर्ति के हाथ में अनेक वस्तुएं हैं, जिनमें से कृपाण खप्पर आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। इस विशाल मूर्ति के निकट ४ फीट ऊंची काली की मूर्ति है। वह मूर्ति भी नरमुण्ड माला धारण किये हुए हैं।

रसिन का काली मन्दिर

बांदा जिले में रसिन के एक जीर्ण-शीर्ण मंदिर में काली की एक टूटी हुई मूर्ति है। यह मूर्ति दीवाल में उत्कीर्ण एक अन्य से दण्डवत करती हुई मूर्ति के ऊपर खड़ी है। यह ८ फीट ऊंची और ४ फीट चौडी है, इसकी २४ भुजाएँ हैं और इसके चारों ओर भगवती काली की छोटी-छोटी मूर्तियाँ हैं। मुख्य मूर्ति का उदर बहुत बैठा हुआ है और पसलियों के मध्य में बड़ी पूंछवाला विच्छू अंकित किया गया है।
इस मंदिर की अन्य मूर्तियों में दशभुजी दुर्गा, महिषासुरी हनुमान आदि की मूर्तियां विशेष उल्लेखनीय है।

अन्य हिन्दू मूर्तियां

कालिं में दुर्गा की एक अन्य मूर्ति है, जो अष्टभुजी है और त्रिशूल तथा खप्पर धारण किये हुए है। अजयगढ़ के तरोहिणी द्वार में देवियों की मूर्तियों की ८ पंक्तियाँ हैं, जिनमें सात बैठी हुई मुद्रा में, और एक खड़ी हुई मुद्रा में है। उनमें से प्रत्येक ३ फीट ऊंची तथा ३ फीट १० इंच चौड़ी और उनकी पीठिका भी अलग-अलग है। रोरा में एक शिव मंदिर है। वहां अनेक मूर्तियां उपलब्ध हैं। विशाल शिवलिंग के अतिरिक्त वहां मूषक-युक्त गणेश की मूर्ति, मयूरवाहिनी देवी, तथा वृषारुढ़ पार्वती की मूर्तियाँ हैं। इनके अतिरिक्त एक द्विमुखी नारी तथा कुछ अन्य छोटी मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। मंदिर के बाहर एक टूटी हुई मूर्ति है, उसमें गले में माला धारण किये हुए एक चतुर्भुजी नारी मूर्ति है।

१.२ जैन मूर्तिकला

जिस भांति हिन्दू तथा जैन मंदिरों की योजना में अन्तर है, उसी प्रकार दोनों धर्मों की मूर्तिकला में भी कुछ अन्तर है। जैन मन्दिरों का अलंकरण हिन्दू मंदिरों की परिपटी पर हुआ है। अन्तर केवल यह है कि जैन मंदिरों के अलंकरण में केवल जैन देवी-देवताओं की मूर्तियों को ही उपकरण बनाया गया है।

खजुराहो समूह के जैन मंदिरों में सर्वोत्कृष्ट जैन मंदिर जिननाथ का है। यह अनेक मूर्तियों से अलंकत है। इसमें छोटी मूर्तियों की तीन पंक्तियाँ हैं। जिनमें दो नीचे की पंक्तियों में मूर्तियां खड़ी हुई मुद्रा में हैं और सर्वोपरि पं की मूर्तियां बैठी हुई अथवा उड़ती हुई मुद्रा में दिखलाई गई हैं। गर्भगृह के द्वार पर खड़ी हुई मुद्रा में एक नग्न मूर्ति है। मुख्य द्वार की सीढियों में समुद्रमन्थन का दृश्य उत्कीर्ण है।

जैन मंन्दिरों के अलंकरण की यह सर्वग्राह्य शैली थी। प्रायः सभी जैन मंदिरों में इसी शैली का अनुकरण हुआ है। जनरल कनिंघम को अपनी यात्रा के सिलसिले में १३ जैन मूर्तियां मिली थीं, जो कभी खजुराहो के घंटई मंदिर के अलंकरण की प्रसाधन थीं। उन मूर्तियों का विवरण नीचे दिया जाता है:

घुटनों पर बैठे हुए मुद्रा में ६ फीट ३ इंच ऊंची तथा ३ फीट एक इंच चौड़ी नर मूर्ति, जिसकी गर्दन तनी हुई है। इस मूर्ति की पीठिका में एक चक्र उत्कीर्ण है।

खड़ी हुई मुद्रा में दो फीट ५ इंच की एक नग्न मूर्ति।

उसी प्रकार की एक छोटी मूर्ति।

उसी प्रकार की मूर्ति और उसके पीछे कुंडली बांधे हुए सपं की मूर्ति।

घुटनों के बल बैठी हुई मुद्रा में २ फीट १० इंच की नग्न मूर्ति, जिसकी पीठिका में चक्र उत्कीर्ण हैं।

घुटनों पर बैठी हुई मुद्रा में ४ फीट ६ इंच ऊंची २ फीट चौड़ी मूर्ति, जिसकी पीठिका में वृषभ उत्कीर्ण है।

मध्यम कद की खड़ी हुई नग्नमूर्ति, जिसकी पीठिका में चंद्र अंकित है।

घुटनों पर बैठी हुई नग्न मूर्ति तथा पीठिका में टूटे हुए बैल की मूर्ति।

घुटनों पर बैठी हुई ३ फीट ऊंची मूर्ति, जिसकी पीठिका में चक्र बना है।

घुटनों पर बैठी हुई ४ फीट ऊंच तथा २ फीट १० इंच चौड़ी मूर्ति।

घुटनों पर बैठी हुई नग्न मूर्ति।

सिंह पर बैठी हुई चतुर्भुजी देवी की मूर्ति, जिसके एक फुट ७ इंच चौड़ी पीठिका पर शंख तथा पद्म उत्कीर्ण हैं।

गरुड़ पर बैठी हुई चतुर्भुजी देवी की मूर्ति तथा जिसकी एक फुट ७ इंच चौड़ी पीठिका पर फल तथा शंख की मूर्ति उत्कीर्ण है


अंतिम दो मूर्तियां हिन्दू-धर्म की हैं, किन्तु अपने लघु आकार के कारण ये मूर्तियां अन्य मूर्तियों की सहायक मूर्तियां प्रतीत होती हैं। शेष ११ मूर्तियां जैन-धर्म के दिगम्बर सम्प्रदाय की हैं।  खजुराहो के पार्श्वनाथ मंदिर में जैनियों के २३ वें तीथर्ंकर पार्श्वनाथ की मूर्ति प्रतिष्ठित है। यह नग्न पुरुष मूर्ति है और इसके दोनों ओर नग्न नारी प्रतिमायें हैं। खजुराहो के अन्य जैन मंदिरों में आदिनाथ, जिननाथ, सेतनाथ आदि अन्य तीथर्ंकरों की भी मूर्तियां हैं।

मदनपुर का जैन मंदिर

मदनपुर में दो जैन मंदिर हैं। उनमें से बड़े मंदिर में खड़ी हुई मुद्रा में एक विशाल नग्न मूर्ति है। दूसरा मंदिर भग्नावशेष मात्र हैं और वहां निम्नलिखित तीन मूर्तियां उपलब्ध हैं:

१. आदिनाथ, जिनकी पीठिका में वृषभ उत्कीर्ण है।
२. शंभुनाथ, जिनकी पीठिका में अश्व अंकित है।
३. चन्द्रप्रभा, जिनकी पीठिका में वक्रचन्द्र की मूर्ति अंकित है।

दौनी के जैन मंदिर में शान्तनाथ की मूर्ति है और उस मूर्ति की पीठिका में दो हिरणों की मूर्ति उत्कीर्ण है। पीठिका में १३वीं विक्रम शताब्दी का एक लेख भी है। यह मूर्ति टूटी हुई है। इसकी दो भुजायें खण्डित हैं। इसके अतिरिक्त अन्य छोटी-छोटी मूर्तियां भी टूटी-फूटी दशा में हैं। जैनियों के तीर्थथान कुण्डलग्राम में नेमिनाथ की एक विशाल मूर्ति है। दुधई में भी दो जैन मंदिर हैं। एक मंदिर में खडी हुई मुद्रा में १२ फीट ऊँची मूर्ति है, जिसकी गर्दन तनी हुई है। दूसरे मंदिर में घुटनों में बैठी हुई पांच फीट की एक मूर्ति है। उसके दोनों ओर एक-एक खड़ी हुई नग्न प्रतिमायें हैं। अजयगढ़ के तरोहिनी द्वार में भी बैठी हुई मुद्रा में अनेक जैन मूर्तियां हैं, जिनके हाथ उनकी गोदी में रक्खे हुए हैं। उनके निकट एक गाय तथा बछड़े और बैठी हुई मुद्रा में चतुर्भुजी देवी की मूर्ति है, जिसकी गोद में एक बच्चा है और उसकी बाईं ओर एक के ऊपर दूसरा इस प्रकार आठ शूकर-शावकों के जोड़े हैं। यह शक्ति की मूर्ति है जो समृद्धि की देवी है।

३. बौद्ध मूर्तिकला

बहुत दिनों तक लोगों का यह अनुमान था कि चन्देलों के समय में बौद्ध-धर्म का प्रचार न था, किन्तु महोबा में प्राप्त ६ बौद्ध प्रतिमाओं ने इस संदेह का निराकरण कर दिया। दो मूर्तियों की पीठिका के लेख से ज्ञात होता है कि उनका निर्माण ११वीं अथवा १२वीं शताब्दी में हुआ था। इन मूर्तियों से स्पष्ट होता है कि हिन्दू तथा जैन-धर्म के साथ ही साथ बौद्ध धर्म का भी प्रचार था।

सिंहनाद अवलोकितेश्वर की मूर्ति

यह मूर्ति २ फीट ८ इंच ऊंची तथा एक फुट १० इंच चौड़ी है। यह भारतीय मूर्तिकला की सर्वोत्कृष्ट मूर्तियों में से है। बैठे हुए राजलीला मुद्रा में इस मूर्ति का निर्माण हुआ है। इसका दाहिना घुटना ऊपर की ओर सटा हुआ है और उस पर दाहिना 
हाथ रक्खा हुआ है तथा उसमें एक माला है। बोधिसत्व के नीचे एक गदद्यदी है और उसके नीचे सीधे कमलासन में मुंह खोले हुए सिंह की मूर्ति है जो बोधिसत्व की ओर देख रही है। देवी का दाहिना हाथ बायें घुटने के पीछे गदद्यदी पर रखा हुआ है और कमलदण्ड धारण किये हुए है। दाहिने हाथ के पीछे उसका त्रिशूल है, जो चारों ओर से नाग से घिरा हुआ है। उसके केश घुंघराले हैं और उनमें से कुछ उसके कंधों पर लटक रहे हैं तथा शेष केशराशि जटा-जूट के रुप में सुशोभित हैं।
शरीर के ऊपरी हिस्से का कुछ भाग वस्र से ढका हुआ है और अधोवस्र जांघ तक है। मूर्ति के पीछे पत्थर में कमल पुष्प के रुप में उसके शिर के पीछे प्रकाश-चन्द्र है और उसके दोनों ओर करबद्ध उपासकों की मूर्तियाँ हैं। इस मूर्ति के सिंहासन में ११वीं शताब्दी के वर्णों में एक लेख भी है।

बोधिसत्व अवलोकितेश्वर की मूर्ति

यह मूर्ति पद्मपाणि के नाम से विख्यात है। इसकी ऊंचाई २ फीट २ इंच तथा चौड़ाई १ फीट १ इंच है। यह कमलासन में राजलीला मुद्रा में है। इसका बाँया हाथ बाईं जांघ के पीछे सिंहासन पर है। दाहिना हाथ घुटनों से दाहिनी जाँध पर टिका हुआ है। बाँयें हाथ में कमल-दण्ड है। बोधिसत्व की मूर्ति के एक ओर एक लम्बे कमलनाल युत कमल-पुष्प हैं। सिंहनाद की मूर्ति की भाँति इस मूर्ति के सिर पर भी जटाजूट हैं। इसकी पोशाक भी अन्य बोधिसत्वों के मूर्ति की भांति सर्वथा पूर्ण है। पीठिका के पश्चिमी भाग में नतमस्तक किए हुए एक मूर्ति हैं, जो सम्भवतः समपंण कर्ता की मूति है। कमलासन, जिस पर यह मूर्ति स्थापित है, वह तीन मूर्तियों पर आधारित है।

बौद्धदेवी तारा की मूर्ति : (ऊंचाई १ फीट ९ इंच, चौड़ाई ११)

गन्धर्व-गृहीत कमल पर बज्रासन में बैठी हुई यह भगवती तारा की मूर्ति है, जिसका बाँया हाथ वितर्क मुद्रा में तथा दाहिना हाथ वरद मुद्रा में है। बाँए हाथ में कमलनाल तथा दाहिने हाथ में संभवतः वज्र है। पीछे के पत्थर के सिरे में ५ ध्यानी बौद्धों की मूर्तियाँ विभिन्न मुद्राओं में हैं। देवी के बांए एक नारी प्रतिमा है। पीठिका में ११वीं शताब्दी का एक लेख है।

गौतम बुद्ध की मूर्ति

यह मूर्ति भूमिस्पर्श मुद्रा में है। इसके घुंघराले बालों की जटाएँ हैं। कान के निचले हिस्से बढ़े हुए हैं और शिर में उष्णीष हैं। भगवान बुद्ध कमलासन में बैठे हुए हैं। सिंहासन के नीचे दीपक रखने का स्थान है। हाथी, दो सिंह तथा दो गन्धर्वों� की उत्कीर्ण मूर्तियों पर यह सिंहासन आधारित है।

धर्म निरपेक्ष मूर्तियाँ

इस प्रकार की मूर्तियों का बुन्देलखण्ड में नितान्त अभाव है। यद्यपि प्रत्येक खजुराहो मंदिर में कामक्रीड़ा में रत स्री-पुरुषों के चित्र उत्कीर्ण किये गये हैं, फिर भी अजयगढ़ की काले संगमरमर की अजयपाल की मूर्ति के सदृश नर मूर्तियों का अभाव है। इस प्रकार की पशुओं की कुछ मूर्तियाँ अवश्य हैं।

नर मूर्तियाँ

खजुराहो के विश्वनाथ मंदिर में मनुष्य के आकार की कामक्रीड़ा में रत स्री-पुरुषों की मूर्तियाँ हैं। घुँघराले काले बालों तथा माला धारण किये हुए बाईं ओर पुरुष तथा दाहिनी ओर एक नारी की मूर्ति है, जो इस मैथुन को देख रही है, किन्तु अपनी आंखों के ऊपर एक हाथ रख कर मानों इस काम क्रीड़ा को न देखने का अभिनय कर रही हो।
खजुराहो के लक्ष्मीनाथ मदिर में मनुष्य के आकार की स्री-पुरुष की मूर्तियों का एक जोड़ा है, जो वस्राभूषण से अलंकृत तथा शिर की पोशाक धारण किये हुए परस्पर चुम्बन करते हुए दिखलाये गये हैं। खजुराहो के काली मंदिर में मनुष्य के आकार की पुरुष की मूर्तियों का एक जोड़ा परस्पर आलिंगन करता हुआ दिखलाया गया है। नारी मूर्ति के दोनों हाथ पुरुष मूर्ति की गर्दन पर दिखलाये गये हैं। उनके नेत्र अर्द्ध निमीलित अवस्था में हैं, बाल घुँघराले हैं और वे कड़ा धारण किये हुए हैं।

पशुओं की मूर्तियाँ

हिन्दू-धर्म के विभिन्न देवी-देवताओं के साथ उनके वाहन के रुप में विभिन्न पशुओं का उल्लेख होता है और उसके साथ-ही-साथ उनके पशु-वाहनों की भी मूर्तियाँ मिलती हैं, उदाहरणार्थ सिंह, वृषभ, मयूर, गरुड़, हंस, मूषक आदि की मूर्तियाँ शिव, पार्वती, स्वामी कार्तिकेय, विष्णु, ब्रह्मा तथा गणेश की मूर्तियों के साथ पाई जाती हैं। किन्तु इनके अतिरिक्त भी अन्य पशुओं की मूर्तियाँ मिलती हैं, जिनका प्रयोजन कुछ और ही था।

महोबा की हस्ति-मूर्ति

महोबा की एक झील में सजीव हाथियों के आकार की पांच हस्ति-मूर्तियां हैं। यह मूर्तियाँ लाल पत्थर की बनी हुई है। उनकी औसत लम्बाई तथा उनके शरीर का औसत घेरा १२ फीट है। पांचों हाथियों के पैर टूटे हुए हैं। वे प्राप्त भी नहीं हैं। उनका शरीर झूल से अलंकृत है। यद्यपि उनके महावत का पता नहीं है, फिर भी उन मूर्तियों की पीठ और गर्दन के खुरदुरेपन से महावत के बैठने के स्थान का बोध होता है। इन मूर्तियों के मूल स्थान के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं है, फिर भी अनुमान यही है कि मदिर के तीनों दरवाजों में प्रत्येक द्वार पर दो-दो मूर्तियाँ रही होंगी।

विश्वनाथ मंदिर में सजीव हाथियों के आकार की १० हाथियों की मूर्तियाँ हैं। ये मूर्तियां एक पत्थर से संलग्न हैं और गर्भगृह तथा अन्तराल के पांच स्तम्भों वाले छज्जे के ऊपर की छत के १० कोणों से निकल-सी रही हैं। इलाहाबाद से ४३ मील दक्षिण-पश्चिम बाँदा जिले में लोखरी नामक स्थान पर हाथी की एक विशाल मूर्ति है, जो ७ फीट लम्बी और ३ फीट चौड़ी है तथा सिर तक ५ फीट ऊंची है। यह मूर्ति एक तालाब के किनारे स्थित है और उसमें हाल का ही एक शिलालेख है।

मदनपुर के खंडहरों में एक वृषभ की मूर्ति प्राप्त हुई है, जो तीन फुट १० इंच लंबी है। चार-चार फीट ऊँचे दो सिंह की मूर्तियाँ भी वहां प्राप्त हुई हैं।
खजुराहो में विश्वनाथ मंदिर के सामने एक छोटा मंदिर है, जिसमें ७ फीट ऊंची एक विशाल वृषभ मूर्ति है। इस मूर्ति की पालिश बहुत ही सुन्दर है। इस मूर्ति के सींग तथा पैर टूट गये हैं तथा प्लास्टर से उनकी मरम्मत कर दी गयी है। मूर्ति की पीठिका में वृषभ के सिर के नीचे बैठी हुई एक नारी प्रतिमा के चिह्म हैं।

खजुराहो-मूर्तिकला में अश्लीलता

मध्ययुगीन अन्य मंदिरों की भांति खजुराहो के मंदिरों के अलंकरण में भी अश्लील मूर्तियों का प्रयोग किया गया है। इन मूर्तियों के निर्माण में अद्भुत कौशल का प्रदर्शन हुआ है किन्तु अंग्रेज लेखकों ने इन मूर्तियों तथा मंदिरों को सदाचार के प्रतिकूल मानकर इनका उल्लेख नहीं किया और अपनी प्रदर्शिका पुस्तकों में यह निर्देश किया है कि इन स्थानों पर बच्चों तथा स्रियों को न जाना चाहिए। एलियाँ डेलाँ नामक फ्रुेंच विद्वान ने इन मूर्तियों के पक्ष में कहा है कि मध्ययुगीन मंदिरों के निर्माता किसी भी भांति असभ्य न थे। उनके विचारों को हमें गर्व के साथ ठुकरा नहीं देना चाहिए। उनमें अद्वितीय सूक्ष्म निरीक्षण तथा अपार ज्ञान था। उन्होंने मानव विचारों के सभी पहलुओं में सम्यक् सफलता प्राप्त की थी। प्रेम क्रीड़ाओं के अंकन से उनकी असभ्यता का नहीं, बल्कि उनके मनोविज्ञान तथा प्रतीकवादिता का बोध होता है। उन्होंने इन मूर्तियों के माध्यम से अपने मनोरम मनोभावों तथा दार्शनिक सिद्धान्तों को व्यक्त किया है। मनुष्य जीवन में प्रेम का बड़ा महत्व है। प्रेम सर्वदा ही सक्रिय तथा सृजन की ओर उन्मुख रहता है। इस तथ्य का साक्ष्य वेदों में भी है। ""एकोहं बहु स्याम्'' का सिद्धान्त ब्रह्म की सृजन इच्छा का ही प्रतीक है और सृजन की इस इच्छा के स्थूल रुप ही नरनारी हैं। प्रजा-जनन के हेतु जिस प्रकार ब्रह्म तथा प्रकृति का एकीकरण होता है, उसी भांति नरनारी का भी मिलन होता है। मनुष्य जीवन के कार्य धर्म के अंग हैं और सत्पुरुष के व्यापार ही यज्ञ हैं: मिथुन का लैंगिक कार्य भी यज्ञ है, क्योंकि इससे जीवन का आविर्भाव होता है। छान्दोग्य उपनिषद् में यह निर्देश है कि : ""नारी अग्नि है, उसका गर्भाशय ईंधन है, पुरुष का निमंत्रण ही धूम्र है, कर्त्ता ही लपट तथा तद्जन्य आनन्द ही अग्नि है। इस अग्नि में देवता हव्य डालते हैं और इस हव्य से ही जीवोत्पत्ति होती है।'' मिथुन का एकीकरण ही ओम का प्रतीक है। जिस भांति मिथुन परस्पर मिलन में आनन्द का उपभोग करते हुए एक-दूसरे की इच्छा पूर्ति करते हैं, उसी प्रकार ओम का प्रतीत भी पदार्थों के संयोग से अपनी इच्छा की पूर्ति करता है। मन्दिरों की ये तथाकथित अश्लील मूर्तियां भी उसी परमानन्द की प्रतक हैं।

सत्यान्वेषी ऐहिक सुखों से अपने को अलग रखता है, क्योंकि उसका सच्चा सुख तभी है: जब वह स्वयं को भूलकर परब्रह्म में लीन हो जाये। परमानन्द का वर्णन शब्दों द्वारा सम्भव नहीं। हमारा महानतम सुख उसकी प्रतिच्छाया मात्र है। प्रेम के व्यापार ही उस चरम लक्ष्य के प्रतीक हैं और इसी भावना से प्रेरित होकर सभी मानव प्रेम व्यापार मन्दिरों में मूर्तिमान कर कामशास्र के ८४ आसनों का उनमें सन्निवेश किया गया है। ८४ आसनों को मंदिरों में उत्कीर्ण कराने का मुख्य उद्देश्य यही था कि लोग उनसे सुपरिचित हों, जिससे उन्हें सांसारिक जीवन में पूर्णता प्राप्त करने के साथ-ही-साथ उनके अनुषंगी ८४ योगिक आसनों के ज्ञानार्जन में सुविधा हो। मन्दिरों में इन आसनों के उत्कीर्ण कराने का यह भी प्रयोजन था कि मंदिर में प्रवेश करनेवाले भक्त की परीक्षा भी हो जाय कि उसे हर वस्तु में ईश्वरत्व का बोध है अथवा नहीं, क्योंकि द्वेैत में परमात्मा की प्राप्ति संभव नहीं।

हिन्दू धर्मशास्रों में यह उपदेश है कि ईश्वर सर्वमय है और इसकी वास्तविक सफलता तभी है, जबकि उन प्रवृत्तियों में भी ईश्वर की झलक प्राप्त हो, जिनमें स्वभावतः ईश्वर का विस्मरण होता है। ये मूर्तियाँ संन्यास की भी कसौटी है। किसी वस्तु का त्याग संभव नहीं, यदि उसका स्वामित्व प्राप्त न हो। इस भांति त्याग भी अनुभूति के बिना संभव नहीं। समस्त ऐहिक सुखों का पूर्ण अनुभव तथा ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् ही ॠषिगण उनका त्याग करते थे, क्योंकि बिना किसी वस्तु के अनुभव किये उसका परित्याग भयावह है। इस सत्य का निर्देश कामसूत्र में भी है। मोक्षार्थी अपने उद्देश्य की पूर्ति वैराग्य द्वारा ही कर सकता है और वैराग्य अनुराग के पश्चात् ही संभव है, क्योंकि मनुष्य की बुद्धि स्वभावतः विषयानुवर्तिनी होती है।

मनुष्य जीवन का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति है। धर्मार्थ-काम-मोक्ष का विभाजन दो श्रेणियों में किया जाता है।

१. भौतिक २. आध्यात्मिक

भौतिक श्रेणी में अर्थ और काम तथा आध्यात्मिक श्रेणी में धर्म और मोक्ष की गणना है। भौतिक सुखानुभूति आध्यात्मिक आनन्द का प्रतिबिम्ब मात्र है। अस्तु, स्पष्ट है कि धर्म का प्रतिबिम्ब अर्थ तथा मोक्ष का प्रतिबिम्ब काम है। इस भांति प्रथम युग्म बन्धन की ओर तथा द्वितीय युग्य मोक्ष की ओर प्रेरित करता है। धर्म तथा अर्थ के प्रेमी सांसारिकता में लीन होते हैं, किन्तु मुमुक्षु उनसे विरक्त होता है।

यह देखा गया है कि बड़े-बड़े सन्त प्रायः अपने प्रारम्भिक जीवन में काम के वशीभूत थे। ऐसे पुरुष सरलता से सांसारिक अनुराग त्याग कर परमात्मा के प्रेम में लीन हो जाते हैं। इस प्रकार सम्भोग-सुख परमानन्द की प्रतिच्छाया मात्र ही नहीं, अपितु वह परमानन्द की ओर प्रेरित भी करता है। सम्भोग-सुख के हर संभव रुप की मूर्तियों द्वारा ज्ञान मस्तिष्क शुद्धि का एक लाभदायक उपाय है, क्योंकि बिना मस्तिष्क की शुद्धि के परमानन्द की अनुभूति सम्भव नहीं। इन्द्रियजन्य सुख में लीन दर्शक को भी ये मूर्तियां आकर्षित करती हैं। वह अपनी मनचाही मूर्ति को देखने हेतु मंदिर के अंधेरे कोने में जाता है और अपने इस प्रयत्न के क्रम में वह स्तम्भों तथा देव-मूर्ति के चारों ओर भी जाता है और तब बहुत संभव है कि वह पुष्प तथा हव्य पदार्थों की सुगन्धि एवं पूजन वाद्यों से प्रभावित मंदिर के वातावरण में भी आकर्षित हो। प्रथम बार वह व्यावहारिक दृष्टि से देवमूर्ति को प्रणाम करेगा, किन्तु बाद में वह क्रमशः मंदिर की बाहरी मूर्तियों का देखना भूलकर देवाराधन में रुचि लेने लगेगा। ये मूर्तियां उन प्रलोभनों की भी भाँति है जो तपश्चर्या से विमुख करते हैं। इनसे भक्त की परीक्षा भी होती है, जो बाहरी मुर्तियों से बिना प्रभावित हुए मंदिर में प्रवेश करता है।

इस भाँति ये मूर्तियाँ यद्यपि देखने में अश्लील हं, किन्तु उनकी अपनी निज की विशेषता है। उनकी दार्शनिक गहराई तथा उनका गूढ़ विवेचन प्रशंसनीय है।

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Courtesy: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र