बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय - मंदिरों का वर्गीकरण (Classification of temples)

बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय 

मंदिरों का वर्गीकरण (Classification of temples)

वर्तमान समय में खजुराहो में प्रमुख मंदिरों की संख्या २६ है। यह सभी मंदिर अलग- अलग संप्रदायों से संबद्ध है। इस के आधार पर विभिन्न मंदिरों की संख्या तथा उनके नाम का वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है :-

मंदिरों की संख्या (No.of Temples) :

--वैष्णव मंदिर की संख्या   --        १३    
-- शैव मंदिर की संख्या--              ०८    
-- सौर्य मंदिरों की संख्या --           ०२    
-- शक्ति मंदिरों की संख्या --        ०१    
-- जैन मंदिरों की संख्या --           ०४

मंदिरों के नाम (Name of Temples) 

वैष्णव मंदिरों के नाम (Name of Vaishnav atemples) :

लक्ष्मण मंदिर (Laxman Temple) :

पंचायतन शैली का यह सांघार प्रसाद, विष्णु को समर्पित है। बलुवे पत्थर से निर्मित, भव्य: मनोहारी और पूर्ण विकसित खजुराहो शैली के मंदिरों में यह प्राचीनतम है। ९८' लंबे और ४५' चौड़े मंदिर के अधिष्ठान की जगती के चारों कोनों पर चार खूंटरा मंदिर बने हुए हैं। इसके ठीक सामने विष्णु के वाहन गरुड़ के लिए एक मंदिर था। गरुड़ की प्रतिमा अब लुप्त हो गयी है। वर्तमान में इस छोटे से मंदिर को देवी मंदिर के नाम से जाना जाता है।

लक्ष्मण मंदिर से ही प्राप्त एक अभिलेख से पता चलता है कि चंदेल वंश की सातवीं पीढ़ी में हुए यशोवर्मण ( लक्षवर्मा ) ने अपनी मृत्यु से पहले खजुराहो में बैकुंठ विष्णु का एक भव्य मंदिर बनवाया था। इससे यह पता चलता है कि यह मंदिर ९३०- ९५० के मध्य बना होगा, क्योंकि राजा लक्षवर्मा ने ९५४ में मृत्यु पायी थी। इसके शिल्प और वास्तु की विलक्षणताओं से भी यही तिथि उपयुक्त प्रतीत होती है। यह अलग बात है कि यह मंदिर विष्णु के बैकुंठ रुप को समर्पित है, लेकिन नामांकरण मंदिर निर्माता यशोवर्मा के उपनाम लक्षवर्मा के आधार पर हुआ है।

शिल्प और वास्तु की दृष्टि से लक्ष्मण मंदिर खजुराहो के परिष्कृत मंदिरों में सर्वोत्कृष्ट है। इसके अर्द्धमंडप, मंडप और महामंडप की छतें स्तुपाकार हैं, जिसमें शिखरों का अभाव है। इस मंदिर- छतों की विशेषताएँ सबसे अलग है। कुछ विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :-

१. इसके मंडप और महामंडप की छतों के पीढ़े खपरों की छाजन के समान है,
२. महामंडप की छत के पीढ़ो के सिरों का अलंकरण अंजलिबद्ध नागों की लघु आकृतियों से किया गया है। 
३. मंडप की छत पर लटकी हुई पत्रावली के साथ कलश का किरिट है।
४. इस मंदिर के मंडप और महामंडप की छतें स्तूपाकार है।
५. मंदिर के महामंडप में स्तंभों के ऊपर अलंवन बाहुओं के रुप में अप्सराएँ शिल्प कला की अनुपम कृतियाँ हैं।

इस मंदिर की मूर्तियों की तरंगायित शोभा गुप्ताशैली से प्रभावित है। मंदिर के कुछ स्तंभों पर बेलबूटों का उत्कृष्ट अलंकन है। मंदिर के मकर तोरण में योद्धाओं को बड़ी कुशलता से अंकित किया गया है। खजुराहो के मंदिरों से अलग, इस देव प्रासाद की कुछ दिग्पाल प्रतिमाएँ द्विभुजी है और गर्भगृह के द्वार उत्तीर्ण कमलपात्रों से अलंकृत किया गया है।

इस मंदिर के प्रवेश द्वार के सिरदल एक दूसरे के ऊपर दो स्थूल सज्जापट्टियाँ हैं।

निचली सज्जापट्टी के केन्द्र में लक्ष्मी की प्रतिमा है।

इसके दोनों सिरों के एक ओर ब्राह्मण तथा दूसरी ओर शिव की प्रतिमा अंकित की गयी है।

इसमें राहू की बड़ी- बड़ी मूर्तियाँ स्थापित हैं।

द्वार शाखाओं पर विष्णु के विभिन्न अवतारों का अंकन हुआ है।

गर्भगृह में विष्णु की त्रिमुख मूर्ति प्रतिष्ठित है।

मंदिर के जंघा में अन्य मंदिरों की तरह एक- दूसरे के समानांतर मूर्तियों दो बंध है। इनमें देवी- देवताओं, शार्दूल और सुर- सुंदरियों की चित्ताकर्षक तथा लुभावनी मूर्तियाँ हैं। मंदिर की जगती पर मनोरंजक और गतिशील दृश्य अंकित किया है। इन दृश्यों में आखेट, युद्ध के दृश्य, हाथी, घोड़ा और पैदल सैनिकों के जुलूस, अनेक परिवारिक दृश्यों का अंकन मिलता है।

लक्ष्मी मंदिर (Laxmi Temple) :

इस मंदिर का निर्माणकाल सन् ९५०- १००२ ई. के मध्य माना जाता है। कभी देवी के नाम प्रख्यात वर्तमान में यहाँ ब्रह्मणी की प्रतिमा आसीन है। इसकी जगती पूर्णतया पुननिर्मित है। यह मंदिर पंचरथ प्रकृति का है। इस मंदिर को भग्न मंदिरों के कुछ पत्थरों से बहुत बाद में बनाया गया है। इसका अर्द्धमंडप प्रग्रीवा रुप में है, जिसकी भरणी सुसज्जित है। इसका त्रिशाला पद्धति का द्वार है, जिसके नीचे चंद्रशिलाएँ हैं। इनकी शाखाएँ पुष्पचक्र, कमलपत्र इत्यादि से सजायी गई है। इसके भीतरी भाग में ब्रह्मा, विष्णु, गरुड़, शिव, गंगा- यमुना की प्रतिमाएँ अंकित की गई है। बाहरी शाखा पर द्वारपाल बने हुए हैं। गर्भगृह का अलंकरण सादा है। चतुर्भुज त्रिमुखी ब्रह्मणी की प्रतिमा गर्भगृह में आसीन हैं।

ब्रह्मा मंदिर (Brahma Temple) :

ब्रह्मा का मंदिर खजुराहो के सागर के किनारे तथा चौसठयोगिनी से पूर्व की ओर स्थित है। यह मंदिर वैष्णव धर्म से संबंधित है। इसका दृश्य अपने आप में बेमिसाल है। उसे देखकर ऐसा लगता है कि कोई कलाकार सागर के किनारे बैठा- बैठा लहरों के कखटों के साथ ही सागर की गहराई में डूब जाना चाहता है। मंदिर में विष्णु मूर्ति स्थापित है, इसे श्रद्धालुओं ने बह्मा समझकर, इनका ही मंदिर कहना प्रारंभ कर दिया है। वर्तमान में इस मंदिर में चतुर्मुख शिवालिंग विराजमान है। मंदिर के शिखर, बलुवे पत्थर के और शेष भाग कणाश्म से निम्रित किया गया है। यह मंदिर आकार में छोटे और अलंकरण में सादे दिखाई देते हैं। मंदिर का अधिष्टान चौसठयोगिनी मंदिर के
समान सादा और सुंदर है। मंदिर तलविन्यास में अलग प्रकार की है, परंतु उर्ध्वच्छंद में समरुपता ही दिखाई देती है। इसकी जंघा दो बंधोंवाली तथा सादी है और उसके उपर छत स्तूपाकार है, जो क्रमशः अपसरण करती हुई दिखती है। ब्रह्मा का बाहरी भाग स्वास्तिक के आकार का है, जिसके प्रत्येक ओर प्रक्षेपन है। मंदिर का अंतर्भाग वर्गाकार है, जिसमें कणाश्म से निर्मित बारह प्रकार के सादे कुडय- स्तंभ हैं। इन्हीं स्तंभों पर वितान पूर्वी प्रक्षेपन में प्रवेश द्वार है और पश्चिम की ओर एक अन्य छोटा द्वार है। पार्श्व के अन्य दो प्रक्षेपणों में पत्थर की मोटी और अनलंकृत जालीदार वतायन हैं। प्रवेशद्वार के सिरदल में त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु, महेश की स्थूल मूर्तियाँ हैं और द्वार- स्तंभ में एक अनुचर सहित गंगा और यमुना के अंकन के अतिरिक्त प्रवेशद्वार सादा बना हुआ है। इन प्रवेशद्वार में न तो प्रतिमाएँ हैं और न ही किसी अन्य प्रकार का अलंकरण दिखता है। ब्रह्मा मंदिर का निर्माणकाल लालगुआं महादेव मंदिर के साथ- साथ बताया जाता है, क्योंकि यह उस संक्रमण काल की मंदिर है, जब बलुवे पत्थर का प्रयोग प्रारंभ हो गया था, किंतु कणाश्म का प्रयोग पूर्णतया समाप्त नहीं हुआ था।

चर्तुभुज मंदिर (Chaturbhuj Temple) :

यह मंदिर जटकारा ग्राम से लगभग आधा किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। यह विष्णु मंदिर निरधार प्रकार का है। इसमें अर्धमंडप, मंडप, संकीर्ण अंतराल के साथ- साथ गर्भगृह है। इस मंदिर की योजना सप्ररथ है। इस मंदिर का निर्माणकाल जवारी तथा दुलादेव मंदिर के निर्माणकाल के मध्य माना जाता है। बलुवे पत्थर से निर्मित खजुराहो का यह एकमात्र ऐसा मंदिर है, जिसमें मिथुन प्रतिमाओं का सर्वथा अभाव दिखाई देता है। सामान्य रुप से इस मंदिर की शिल्प- कला अवनति का संकेत करती है। मूर्तियों के आभूषण के रेखाकन मात्र हुआ है और इनका सूक्ष्म अंकन अपूर्ण छोड़ दिया है। यहाँ की पशु की प्रतिमाएँ एवं आकृतियाँ अपरिष्कृत तथा अरुचिकर है। अप्सराओं सहित अन्य शिल्प विधान रुढिगत हैं, जिसमें सजीवता और भावाभिव्यक्ति का अभाव माना जाता है। फिर भी, विद्याधरों का अंकन आकर्षक और मन को लुभाने वाली मुद्राओं में किया गया है। इस तरह यह मंदिर अपने शिल्प, सौंदर्य तथा शैलीगत विशेषताओं के आधार पर सबसे बाद में निर्मित दुलादेव के निकट बना माना जाता है।

चतुर्भुज मंदिर के द्वार के शार्दूल सर्पिल प्रकार के हैं। इसमें कुछ सुर सुंदरियाँ अधबनी ही छोड़ दी गयी हैं। मंदिर की अधिकांश अप्सराएँ और कुछ देव दोहरी मेखला धारण किए हुए अंकित किए गए हैं तथा मंदिर की रथिकाओं के अर्धस्तंभ बर्तुलाकार बनाए गए हैं। ये सारी विशेषताएँ मंदिर के परवर्ती निर्माण सूचक हैं।

जवारी मंदिर (Jawari Temple) :

कंदरिया महादेव मंदिर के बाद बनने वाले जवारी मंदिर में शिल्प की उत्कृष्टता है। यह मंदिर ३९' लंबा और २१' चौड़ा, यह निंधारप्रासाद, अर्द्धमंडप, मंडप, अंतराल और गर्भगृह से युक्त है। वास्तु और शिल्प के आधार पर इस मंदिर का निर्माणकाल आदिनाथ तथा चतुर्भुज मंदिरों के मध्य ( ९५०- ९७५ ई.) निर्धारित किया जा सकता है। इसका अलंकृत मकरतोरण और पतला तथा उसुंग मनोरम शिखर इसको वास्तु रत्न बनाया है। इसकी सामान्य योजना तथा रचना शैली दूसरे मंदिरों से इसको अलग करती है। इसके अतिरिक्त दो विलक्षण वास्तु विशेषताओं के कारण यह खजुराहो समूह के मंदिरों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है।

पहला, इस मंदिर की जंघा की उष्णीयसज्जा में कूट- छाद्य शीर्षयुक्त भरणियों और कपोतों का प्रयोग हुआ है, जो गुजरात के मध्यकालीन मंदिरों का एक विशिष्ट लक्षण है।
दूसरा, जंघा की निचली पंक्ति की देव- प्रतिमाएँ, ऐसी रथिकाओं में विराजमान है, जिनके वृताकार अर्द्धस्तंभों के किरीटों पर हीरक है और तोरण मेहराबों से अच्छादित है। इस मंदिर की सुर- सुंदरियों का केश विन्यास धम्मिल प्रकार का नहीं है और उनमें से अधिकांश दो लड़ोंवाली मेखलाएँ पहने हैं। इसके शिखर की गवाक्षनुमा चैत्य मेहराबें भारी तथा पेचिदा है। अंत में इसके द्वार की देहली पर निर्मित सरितदेवियाँ गंगा- यमुना नृत्य मुद्रा में प्रतीत होती हैं।
मंदिर के गर्भगृह में विष्णु एक पद्यपीठ पर समभंग खड़े हैं। उनका मस्तक तथा चारों हाथ खंडित हैं। वे सामान्य खजुराहो अलंकारों से अलंकृत है। उनकी प्रभाववली के ऊपर ब्रह्मा, विष्णु और शिव की छोटी- छोटी प्रतिमाएँ अंकित की गई है। छत के उद्गमों की रथिकाएँ प्रतिमा विहीन है। पार्श्व रथिकाओं पर युग्म प्रतिमाएँ एवं नारी प्रतिमाएँ हैं। उत्तरी मंडप के उद्गम पर शिव- पार्वती प्रतिमा, अनेक देव तथा गणेश इस रथिका के मुत्तार्ंकण का भाग है। गर्भगृह की छत की रथिका का पूर्वीचंद्र देव युग्म, एक नारी तथा युग्म प्रतिमाओं का अलंकरण किया गया है। चतुर्भुज देवी कुबेर पत्नी के रुप में अंकित है।

वराह मंदिर (Warah Temple) :

यह विष्णु के अवतार वराह का एक छोटा मंदिर है तथा इसका निर्माणकाल सन् ९५०- १००२ ई. के मध्य में है। २०',६' लंबा और १६' चौड़ा यह मंदिर आयताकार है, जिसकी स्तूपाकार छत बारह स्तंभों पर टिकी हुई है तथा प्रवेश चतुष्कि के लिए दो अतिरिक्त स्तंभ भी बनाये गए हैं। छत के नीचे का भाग एक के ऊपर एक रखे गए सादे पत्थरों से बनाया गया और छत को दो शिलाओं से ढ़क दिया गया है। इस शिलारुपी वितान पर कमल का अंकन पूर्ण रुप से किया गया है।

मंदिर के मध्य भाग में ८'९'' लंबी तथा ५' १०'' ऊँची वराह की एक एकाश्म भीमकाय मूर्ति रखी गयी है। वराह के शरीर पर ६७२ देव प्रतिमाएँ खुदी हुई हैं, जिनमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सरस्वती, गंगा, वीरभद्र और गणेश सहित सप्त्मातृका, नवगृह, अष्टदिकपाल, अष्टबसु, नाग, गण आदि देवी- देवताओं की सैकड़ों मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गयी है। भीमकाय वराह मूर्ति एक ११ ऊँचे पटल पर आरोहित है। एक ही पत्थर से आधार पटल और प्रतिमा का निर्माण किया गया है। पूरी प्रतिमा सुसज्जित है, केवल जंघा भाग की भीतरी ओर प्रतिमाएँ नहीं हैं।

पीढ़े प्रायः उद्गमों से जुड़े हैं। चैत्य- महराबें और चंचक भी पीढ़ों से जुड़े हुए हैं। यह प्रतिमा दर्शनीय हैं।

देवी जगदंबी मंदिर (Devi Jagdambi Temple) :

गंगा माँ का यह मंदिर आकार में ७७' लंबा और ९४' तथा ६'' चौड़ा है। इसका निर्माणकाल सन ९७५ ई. है। गर्भगृह के द्वार ललाटबिंब पर लगभग ५' ऊँची देवी पार्वती की चतुर्भुज मूर्ति आसीन है, जिसे स्थानीय लोग काली या जगदंबा कहते हैं और इससे इसका नाम देवी जगदंबा है। निरंधार प्रकृति का यह मंदिर तलच्छंद में साधारण क्रूश के आकार का है। पूर्व की ओर से सीढियाँ अर्द्धमंडप तक जाकर पुनः मंडप तक जाती हे। मंडप ही सभागृह रहा है। एकाकी पार्श्वालिंद मंडप के दोनों ओर है। मंदिर का स्तंभक और वितान प्रभावशाली है तथा मंदिर का भीतरी भाग अत्यंत आकर्षक है। प्रमुख वितान चौरस आकृति का है। भीतरीशाला का वितान वृत्ताकार है। शाला आठ स्तंभों पर बनाया गया है। अर्द्धमंडप तथा मंडप में वतायन है। महामंडप का वितान सादा उलटे कमल के समान है। गर्भगृह का द्वार शाखा अलंकृत है तथा दोनों ओर मिथुन प्रतिमाएँ अंकित की गयी है। मंदिर के मूर्ति सौंदर्य बाहर और भीतर दोनों ओर से अत्यंत प्रभावोत्पादक एवं मिथुन प्रतिमाएँ उत्तेजक हैं। 

अधिष्टान की कई पंक्तियाँ हैं, इनमें एक पंक्ति रत्नपट्टयुक्त है, जिसे सादे जाइया कुंभ, कर्णक, सजीले पत्थर, ग्रापट्टिका, अंतरप कपोत से सजाया गया है। नींव स्तर से प्रमुख राधिकाएँ मंडप क्षेत्र में शुरु हो जाती है। गर्भगृह के बाहर ऊपरी ओर खुर और कुंभ सजावट का प्रयोग किया गया लगता है। मंदिर की जंघा पर तीन पंक्तियों में प्रतिमाएँ सजी है। छत और मूर्तियों की ऊपरी पंक्ति के बीच ब्रंदिकाएँ तीन धाराओं में अंकित की गयी है। भद्र के चारों ओर रथ है। अनुरथों पर दोनों ओर प्रतिमाएँ हैं। करणरथ पर दिगपाल हैं। भद्र पर युग्म, मिथुन प्रतिमाएँ हैं। रथों के बीच के खाली स्थान में व्याल हैं।

भीतरी छत पिरामिड प्रकृति की है, जो चार पीठ से बनी है। इसके एक आम्लक पर चैत्य महराब हैं। जोड़ों पर कीर्तिमुख है। असान्नप को पुष्पों से सजाया गया है। कक्षासन्न पुष्प तथा प्रस्तर से सजाया गया है। उपश्रंग न होते हुए भी शिखर दो उरु:, श्रंग, तीन करण श्रंग एक नष्ट श्रंग से सजा है। मुलमंजरी सप्तरथ प्रकृति की है, जिसके कारण यह आठ भुमियाँ दर्शाती है। बाहरी करण श्रंगों के ऊपर की रधिकाएँ शिव, ब्रह्मा, भैरव की मूर्तियों से सजाया गया है। मंदिर की प्रमुख चोटी दो पीठों से बनी है। मंडप ही महामंडप के रुप में निर्मित किया गया है। मंदिर का छत समवर्ण है। अर्द्धमंडप के भीतर के स्तंभ भद्रक प्रकृति के हैं। मंदिर को वृताकार बनाया गया है।

मंदिर के अंतराल में द्वारपाल, देव- प्रतिमाएँ तथा प्रस्तर सज्जा ही गर्भगृह की द्वार चंद्रशिला से होकर भीतर जाता है। प्रथम शाला पर उड़ते हुए विद्याधर, द्वितीय शाखा पर नृत्य करते गण, तृतीय एवं पाँचवी पर व्याल तथा चतुर्थ पर मिथुन अंकित हुए हैं। शेष पर नाग, द्वारपाल, रागारक, अम्लक और साधारण प्रस्तर से सजाया गया है। मंदिर के मुख्य भाग पर नदियों की प्रतिमाएँ अंकित की गई है। मंदिर के मुख्य रधिका पर लक्ष्मी और सरस्वती की प्रतिमाएँ अंकित की हुई है।

गर्भगृह का ऊपरी भाग साधारण है। इसकी पट्टियों पर पुष्प सज्जा और प्रस्तर सज्जा की गयी है। देवी प्रतिमाओं के पीछे तीन रथिकाएँ हैं। केंद्रीय रथिका पर विष्णु, ब्रह्मा तथा शिव की प्रतिमाएँ अंकित की गई है। इसके अतिरिक्त वराह, वामन, नरसिंह तथा बलराम की प्रतिमाएँ उल्लेखनीय है। यहाँ पर सेविकाओं के अतिरिक्त परशुराम प्रतिमा भी है।

नीचे की तीसरी रथिका पर लक्ष्मी- नारायण की प्रतिमा अंकित की हुई है। चतुर्भुज प्रतिमाओं में विष्णु, शंख, चक्र, गदा धारण किये हुए हैं। पश्चिम मुख पर एक प्रतिमा महेश्वरी की अंकित है। भीतरी भाग की रथिकाओं में पार्वती की भग्न प्रतिमा है। यहाँ प्रतिमाओं के साथ- साथ सेवक- सेविकाओं की प्रतिमा भी उत्कीर्ण की गयी है।

इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ गंगा के छत्र पर पक्षी युग्म हैं तथा यमुना के छत्र पर कछुआ युग्म है।

वामन मंदिर (Waman Temple) :

विष्णु के अवतार वामन का यह मंदिर ब्रह्मा मंदिर के उत्तर पूर्व में अवस्थित है। इसकी लंबाई ६२' और चौड़ाई ४५' है। यह मंदिर अपेक्षाकृत अधिक ऊँचे अधिष्ठान पर निर्मित हैं। इसके तलच्छंद के अंतः भागों की सामान्य योजना और निर्माणशैली देवी जगदंबी मंदिर से मिलती- जुलती है, किंतु इसका भवन दोनों की अपेक्षा अधिक भारी व सुदृढ़ है। गर्भगृह का शिखर समान आकार का है, किंतु इसकी मंजरी प्रतिकृतियों का अभाव है। निरंतर धारप्रासाद में अर्धमंडप, महामंडप, अंतराल और गर्भगृह हैं। इस मंदिर में मिथुन मूर्तियों का अंकन अत्यंत विरल है। शिखर की छोटी रथिकाओं में ही ये दिखाई देती हैं। मंदिर की जंघा में मूर्तियों की केवल दो पंक्तियाँ ही है। यह मंदिर इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि इसके महामंडप के ऊपर सवरण छत हैं और महामंडप के वातायनों के वितान में तोरण शलभंजिकाओं का अलंकरण किया गया है। गर्भगृह में विष्णु के अवतार वामन की लगभग ५' ऊँची एक मूर्ति प्रतिष्ठित है। गर्भगृह के चारों ओर बनी निचली पंक्ति की रथिकाओं में वराह, नृसिंह, वामन आदि अवतार आसीन हैं। ऊपरी पंक्ति की रथिकाओं में ब्रह्मणी सहित ब्रह्मा, शिव की कल्याणसुंदर मूर्तियाँ और विष्णु की मूर्ति उल्लेखनीय हैं।

हनुमान मंदिर (Hanuman Temple) :

यह मंदिर हनुमान को समर्पित है। इसमें हनुमान जी की ७' ऊँची प्रतिमा विद्यमान है। इसका निर्माण काल ९२२ ई. सन् है। इस मंदिर का सारा भाग बाद का बना हुआ है, जो उन्नीसवीं शदी ई. का मालूम होता है।

खाकरा मंदिर (Khakra Temple) :

धारशिला तथा बलुआ पत्थरों से निर्मित, यह मंदिर खजुराहो गाँव से तीन किलोमीटर पूर्व की ओर स्थित है। इस मंदिर के आस- पास पुराने खंडरों के टीले हैं। यह मंदिर भी एक टीले पर ही बनाई गई है। लगभग साढ़े ग्यारह फुट उँची जगती वाली यह मंदिर परंपरागत स्वरुप की दिखाई देती है। यह मंदिर मूलतः वैष्णव मंदिर है। मंदिर का निर्माण काल सन् ९५० से १०५० के बीच है।

मंदिर का जंघा भाग प्रस्तर सज्जा युक्त है। महामंडप के स्तंभ छोटी ऊँचाई के लगते हैं। इसका महामंडप भाग वैष्णव द्वारपाल, नाग गजतालु तथा कीर्कित्तमुख प्रतिमाओं से सजाया गया है। पार्श्वालिंद को छोटे- छोटे स्तंभों पर टिकाया गया है। यह स्तंभ चौको आकृति में निर्मित किये गए हैं। मंदिर के पूर्वी द्वार के दक्षिण भाग में द्विभुजा युक्त देव प्रतिमा है, जो त्रिभंगी मुद्रा में है। यह प्रतिमाएँ देवोचित आभुषणों से विभूषित किया गया है। इसी प्रकार उत्तरी ओर भी एक द्विबाहु देव प्रतिमा है।

शैव मंदिरों के नाम (Name of Shaiv Temples)

 

कंदारिया महादेव का मंदिर (Kandariya Mahadev Temple) :

खजुराहो के मंदिरों में सबसे विशाल कंदरिया महादेव मंदिर मूलतः शिव मंदिर है। मंदिर का निर्माणकाल १००० सन् ई. है तथा इसकी लंबाई १०२', चौड़ाई ६६' और ऊँचाई १०१' है। स्थानीय मत के अनुसार इसका कंदरिया नामांकरण, भगवान शिव के एक नाम कंदर्पी के अनुसार हुआ है। इसी कंदर्पी से कंडर्पी शब्द का विकास हुआ, जो कालांतर में कंदरिया में परिवर्तित हो गया।

यह विशाल मंदिर खजुराहो की वास्तुकला का आदर्श, अपने बाह्य आकार में ८४ समरस आकृति के छोटे- छोटे अंग तथा श्रंग शिखरों में जोड़कर बनाया, अनूठे उच्च शिखर से युक्त हे। मंदिर अपने अलंकरण एवं विशेष लय के कारण दर्शनीय है। मंदिर भव्य आकृति और अनुपातिक सुडौलता, उत्कृष्ट शिल्पसज्जा और वास्तु रचना के कारण मध्य भारतीय वास्तुकृतियों में श्रेष्ठ माना जाता है। मुख्य मंडप, मंडप और महामंडप के साथ- साथ इसका आधार योजना, रुप, ऊँचाई, उठाव, अलंकरण तथा आकार शास्रीय पद्धति का उत्तम उदाहरण प्रस्तुत करता है। इसकी विशिष्टा यह भी है कि इसकी ऊँचाई की ओर जाते हुए उत्थान श्रंग अत्यंत प्रभावशाली प्रतीत होता है। खजुराहो का यह एक मात्र मंदिर है, जिसकी जगती के दोनों पार्श्वों� में और पीछे प्रक्षेपण है। इसकी जगती लगभग तीन मीटर ऊँची है। इसकी धराशिला ग्रेनाई पत्थर की है तथा इस पर रेतीले पत्थर की खार- शिलाएँ बनी हुई हैं। मंदिर भि कमल पूष्प की पत्तियों से सजे हैं तथा जालय, कुंभ और बाहर को निकली पट्टिकाएँ तमाल पत्रों से सजी हुई हैं। मंदिर ऊँचे अधिस्थान पर स्थापित है, जिसपर अनेक सुसज्जित मूर्तियाँ हैं।

इन मूर्तियों में दो पंक्तियाँ, हाथियों, घोड़ों, योद्धाओं, शिकारियों, मदारियों, संगीतज्ञों, नर्तकों, और भक्तों की मूर्तियाँ आसीन है। मंदिर की तीन पट्टियों में देवी- देवताओं, सुर सुंदरियों, मिथुनों, व्यालों और नागिनों की मूर्तियाँ हैं। मंदिर के भीतर दो मकर- तोरण है। अप्सराओं की प्रतिमाएँ सुंदरता के साथ अंकित की गयी है। यहाँ की सभी मूर्तियाँ लंबी हैं तथा आकृति में संतुलित प्रतीत होती है। यहाँ नारी के कटावों का सौंदर्य स्पष्ट दिखता है।

तलच्छंद और ऊर्ध्वच्छंद के प्रत्येक अंगों की रचना और इसका अलंकरण अद्वितीय है। उर्ध्वच्छंद में सबसे अधिक लयबद्ध प्रक्षेपणों और रथिकाओं के सहित इसकी दांतेदार योजना उल्लेखनीय है।

मंदिर का प्रवेश द्वार पंचायतन शैली का बना हुआ है। इस पर विषाणयुक्त और समुज्जवल देवताओं और संगीतज्ञों इत्यादि से अलंकृत तोरण तथा भव्य ज्यतोरण देखने योग्य हैं। अर्द्धमंडप और मंडप के उत्कीर्ण सघन हैं। परिक्रमा क्षेत्र में बाहरी भित्ती पर वृहदाकार मंच है। परिक्रमा के बाहर तथा मंदिर के बाहर का मंच बलिष्ट और गहन आकार में उठाया गया है। मंदिर का प्रत्येक भाग एक- दूसरे से जुड़ा हुआ है और पूर्व- पश्चिम दिशा की ओर इसका विस्तार है। छज्जों के रुप में वातायन बनाकर मंडप को महामंडप बनाया गया है। भीतर हवा जाने के लिए वातायन है और मंडप तीन ओर से खुले हैं। मंदिर की दीवारें पुख्ता हैं तथा छज्जायुक्त वातायन है, जो रोशनी जाने का साधन है। मूर्तियाँ छज्जे से ही शुरु हो जाती है। छज्जे और वातायन मूर्तियों पर रोशनी और परछाइयाँ पड़ती है। मंदिर का गर्भगृह सर्वोच्च स्थान पर है। वहाँ पहुँचने के लिए चंद्रशिलायुक्त सीढियों से ऊपर चढ़ना पड़ता है। सप्तरथ गर्भगृह के साथ ही शिखर के नीचे के वर्गाकार भाग को भी सात भाग दिये गए हैं।

कंदिरिया मंदिर की जंघा पर मंडप और मुखमंडप के बाहरी भाग के कक्षासन्न पर राजसेना, वेदिका कलक, आसन्नपट्ट, कक्षासन्न है। मंदिर का छत कपोत भाग से शुरु होता है तथा व्रंदिका से छत को उठाता गया है। मंदिर के प्रत्येक मंडप की अलग- अलग छत है। सर्वाधिक ऊँचाईवाली छत गर्भगृह की है तथा इसका अंत सबसे ऊँचे शिखर पर हुआ है। यह शिखर चार उरु: शिखरों से सजाया गया है तथा असंख्य छोटे- छोटे श्रृंग भी बनाये गए हैं। इनमें कर्णश्रृंग तथा नष्टश्रृंग प्रकृति के श्रृंग हैं। मूलमंजरी के मुख्य आधार पर चतुरंग के रथ, नंदिका, प्रतिहार और कर्ण अंकित किये गए हैं। मंदिर के महामंडप की छत डोमाकार है, जिसे छोटे- छोटे तिलकों ( पिरामिड छतों ) से बनाया गया है। इससे ॠंग शैली स्पष्ट दिखाई देती है। प्रथम छत चार तिलकों से बनी है। साथ- ही तिलकों की चार अन्य पंक्तियाँ भी पिरामिड आकार में दिखाई देती हैं। उत्तर- दक्षिण की छत पर पाँच सिंहकरण, कुट- घंटा से उठ कर छत को सजाते हैं। यह छत पीठ और गृवा से युक्त है तथा इसको चंद्रिका, कलश और बीजपुंक से अलंकृत किया गया है।

मुख्यमंडप चार भद्रक- स्तंभों पर बनाया गया है। इसका ऊपरी आधा भाग आसन्न प के ऊपर है तथा नीचे का आधा भाग आसन्नप के नीचे स्थित है। इस भाग को कमलों से सजाया गया है। मंडप से मंडप तक आने के लिए मकरतोरण है। मुख्य मकरतोरण से शिल्पशैली पूर्णतया मिलती है। गर्भगृह के दरवाजे पर चंद्रशिला की चार सीढियाँ हैं। दरवाजे पर नौ शाख हैं। इसका विवरण निम्नलिखित है :-

-- प्रथम शाखा पर साधारण उत्कीर्ण हैं।
-- द्वितीय पर अप्सराएँ हैं।
-- तृतीय पर व्याल है।
-- चतुर्थ पर मिथुन है।
-- पंचम पर व्याल आसीन है।
-- छठी पर सुंदर अप्सराएँ अंकित हैं।
-- सप्तम साधारण उत्कीर्ण है।
-- अष्टम पर कमल पत्र का अंकन किया गया है। 
-- नवीं शाखा पर लहरदार लकीरें और नाग रुपांकिंत है।

सभी रथिकाएँ उद्गमों से सुसज्जित है। दाहिनी शाख पर कमल- पत्र और बायीं ओर यमुना अंकित किया गया है। द्वार शिला की एक रथिका सरस्वती को अभय के साथ प्रदर्शित करती है। यहाँ सरस्वती चक्रदार कमल दंड और कमंडल भी धारण किये हुए हैं। स्तंभ शाखा के नीचे रथिका में शिव- पार्वती को बैठे दिखाया गया है और नाग रथिका के नीचे की रथिका, चार व्यक्तियों को आसीन किया गया है। भीतरी वितान में कमल पुष्प और कोनों में कीर्कित्त मुख प्रतिमाएँ हैं। रेतीले पत्थर की एक पीठिका पत्थर के शिवलिंग को सहारा देती दिखाई गई है।

मंदिर का गर्भगृह चतुरंग है तथा ऊँचे अधिस्थान पर टिका हुआ है। उत्तर प पर हाथी, घोड़े, आदमी और विविध दृश्य मिथुन सहित अंकित है। यहाँ वेदीवंघ पर जंघा है, जिसपर दो पंक्तियों में मूर्तियाँ हैं। यहाँ देवता, अप्सराएँ, व्याल और मिथुन- युग्म अंकन सुंदरता के साथ किया गया है।

कंदरिया महादेव मंदिर संधार प्रासाद में निर्मित है। इसमें एक शार्दूल सामने हैं और एक कोने में। इसकी पीठ की ऊँचाई काफी ज्यादा है। मंदिर का मुखपूर्व की ओर है। सीढियाँ चौड़ी हैं तथा मुखचतुष्कि तक जाती है। मुखचतुष्कि बंदनमालिका सुंदर है।

विश्वनाथ का मंदिर (Vishwanath Temple) :

शिव मंदिरों में अत्यंत महत्वपूर्ण विश्वनाम मंदिर का निर्माण काल सन् १००२- १००३ ई. है। पश्चिम समूह की जगती पर स्थित यह मंदिर अति सुंदरों में से एक है। इस मंदिर का नामाकरण शिव के एक और नाम विश्वनाथ पर किया गया है। मंदिर की लंबाई ८९' और चौड़ाई ४५' है। पंचायतन शैली का संधार प्रासाद यह शिव भगवान को समर्पित है। गर्भगृह में शिवलिंग के साथ- साथ गर्भगृह के केंद्र में नंदी पर आरोहित शिव प्रतिमा स्थापित की गयी है।

खजुराहो प्रतिमाओं का प्रथम परिचय इसी मंदिर को देखने से मिलता है, क्योंकि सामने की ओर से आते हुए यह मंदिर पहले आता है। इस मंदिर में ६२० प्रतिमाएँ हैं। इन प्रतिमाओं का आकार २' से २', ६' तक ऊँचा है। मंदिर के भीतर की प्रतिमाएँ भव्यता एवं सुदरता का प्रतीक है। मंदिर की सुंदरता देखनेवालों को प्रभावित करती है। यहाँ की आमंत्रण देती अप्सराएँ मन मोह लेती है। कुछ प्रतिमाएँ मन्मथ- अति का शिकार हैं। प्रतिमाओं में मन्मथ गोपनीय है। कंदरिया मंदिर के पूर्ववर्ती के उपनाम से जाना जाने वालों इस मंदिर में दो उप मंदिर, उत्तर- पूर्वी दक्षिण मुखी तथा दक्षिण पश्चिमी पूर्वोन्मुखी है। इन दोनों उप मंदिरों पर भी पट्टिका पर मिथुन प्रतिमाएँ अंकित की गयी है। इन मंदिरों के भीतर ही अर्द्धमंडप, मंडप, अंतराल, गर्भगृह तथा प्रदक्षिणापथ निर्मित है। मंदिर के वितान तोरण तथा वातायण उत्कृष्ठ हैं। वृक्षिका मूलतः ७८ थी। जिसमें अब केवल नीचे की छः ही बच पायी है। पार्श्व अलिंदों की अप्सराओं का सौंदर्य अद्वितीय है। वह सभी प्रेम की पात्र हैं। त्रिभंग मुद्राओं में त्रिआयामी यौवन से भरपुर रसमयी अप्सराएँ अत्यंत उत्कृष्टता से अंकित की गयी है। इन प्रतिमाओं को देखकर ऐसा लगता है कि ये अप्सराएँ सारे विश्व की सुंदरियों को मुकाबला के लिए नियंत्रण दे रही है।

कालिदास की शकुंतला से भी बढ़कर जीवंत और शोखी इन सुंदर प्रतिमाओं में दिखाई देती है। इनके पाँव की थिरकन, जैसे मानव कानों में प्रतिध्वनित हो रही हो, जैसे घुंघरों से कान हृदय में आनंद भर रहे हो। चपलता ऐसी कि बाहों में भरने को मन चाह उठे। मंदिर की ये प्रतिमाएँ देव- संयम और मानव धैर्य की परीक्षा लेती दिखती है।

मंदिर के द्वार शाखों पर मिथुन जागृतावस्था में है। इनके जागृतावस्था एवं सुप्तावस्था में कोई अंतर ही नहीं दिखाई देता है। मानव क्या रात भी इस सौंदर्य की झलक मात्र से स्तब्ध है, क्योंकि यहाँ समाधि की अद्भूत स्थिति है। मंदिर की रथिकाओं की तीन पंक्तियाँ मूर्तिमयी होकर नाच रही है। सभी प्रतिमाएँ दृश्यमय हैं तथा मंच पर कलाकारों की तरह अपना- अपना अभिनय कर रही है और स्वयं ही दर्शक बन रही है। देवांगनाएँ मिथुन रुपों को देखकर, आधुनिक पेरिस की नारी मिस वर्ल्ड सुंदरी प्रतियोगिता का आभास होता है।

विश्वनाथ मंदिर का स्थाप्य त्रयंग मंदिर प्रतिरथ और करणयुक्त है। प्रमुख नौ रथिकाएँ अधिष्ठान के उपरी बाह्य भाग पर अंकित है। सात रथिकाओं में गणेश की प्रतिमा दिखाई देती है। एक रथिका पर वीरभद्र विराजमान हैं। छोटी राथिकाओं पर मिथुन है। इनमें भ्रष्ट मिथुनों का अधिक्य पाया जाता है। मंदिर के उरु: श्रृंग की संख्या चार है तथा उपश्रृंग की संख्या सोलह है।

मंडप की दीवार पर लगा अभिलेख चंदेल वंश के महान शासक धंग का है। इसमें संस्कृत में तैंतीस पंक्तियाँ हैं। यहाँ मंदिर में राजा धंग के समय से ही शिव मर्कटेश्वर प्राण प्रतिष्ठित हैं। मंदिर का अधिष्ठान उन्नत है। प्रमुख रथिकाओं पर चंद्रावलोकन है। इनमें सातदेव मातृ प्रतिमाएँ सुंदरता के साथ अंकित की गयी है। जंघा भाग कक्षासन्न युक्त है। आसन्न पट्टिका पुष्प चक्रों से सुसज्जित हैं। जंघा भाग पर तीन पालियों में प्रतिमाएँ अंकित की गई है। भूमि और श्रृंगों पर आम्लक, चंद्रिका तथा कलश अंकित किया गया है। अंतराल की छत छः मंजिला बनी हुई है। प्रत्येक मंजिलों रथिकाएँ हैं, जोकि उद्गम युक्त हैं। ऊपरी उद्गम पर शुकनासक है। महामण्डप पिरामिड प्रकृति की है, जो पंद्रह पीढ़ों से बनी है। इसके अतिरिक्त यहाँ उप- पिरामिड भी हैं। मुख पिरामिड सोलह पीढ़ों से बनी है। यह छोटा है और रथिकायुक्त है। मुखमंडप के भीतर भरणी टोड़ायुक्त है। आमलकों पर कीर्तिमुख है। मंडप के स्तंभ मुखमंडप के स्तंभों से मेल खाते हैं। शाल मंजिकाएँ तथा मिथुन प्रतिमाएँ, इस मंदिर की विशेषता है। मंडप के स्तंभ वर्द्यमानक प्रतिकृति के हैं। यहाँ की अप्सराएँ अपनी छटा बिखेरती हैं।

कुल मिलाकर यह मंदिर अत्यंत महत्वपूर्ण मंदिर है और मिथुनों के लिए प्रसिद्ध है

दुलादेव का मंदिर (Duladev Temple) :

यह मूलतः शिव मंदिर है। इसको कुछ इतिहासकार कुंवरनाथ मंदिर भी कहते हैं। इसका निर्माणकाल लगभग सन् १००० ई. है। मंदिर का आकार ६९ न् ४०' है। यह मंदिर प्रतिमा वर्गीकरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण मंदिर है। निरंधार प्रासाद प्रकृति का यह मंदिर अपनी नींव योजना में समन्वित प्रकृति का है। मंदिर सुंदर प्रतिमाओं से सुसज्जित है। इसमें गंगा की चतुर्भुज प्रतिमा अत्यंत ही सुंदर ढ़ंग से अंकित की गई है। यह प्रतिमा इतनी आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक है कि लगता है कि यह अपने आधार से पृथक होकर आकाश में उड़ने का प्रयास कर रही है। मंदिर की भीतरी बाहरी भाग में अनेक प्रतिमाएँ अंकित की गई है, जिनकी भावभंगिमाएँ सौंदर्यमयी, दर्शनीय तथा उद्दीपक है। नारियों, अप्सराओं एवं मिथुन की प्रतिमाएँ, इस तरह अंकित की गई है कि सब अपने अस्तित्व के लिए सजग है। भ्रष्ट मिथुन मोह भंग भी करते हैं, फिर अपनी विशेषता से चौंका भी देते हैं।

इस मंदिर के पत्थरों पर "वसल' नामक कलाकार का नाम अंकित किया हुआ मिला है। मंदिर के वितान गोलाकार तथा स्तंभ अलंकृत हैं और नृत्य करती प्रतिमा एवं सुंदर एवं आकर्षिक हैं। मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग योनि- वेदिका पर स्थापित किया गया है। मंदिर के बाहर मूर्तियाँ तीन पट्टियों पर अंकित की गई हैं। यहाँ हाथी, घोड़े, योद्धा और सामान्य जीवन के अनेकानेक दृश्य प्रस्तुत किये गए हैं। अप्सराओं को इस तरह व्यवस्थित किया गया है कि वे स्वतंत्र, स्वच्छंद एवं निर्बाध जीवन का प्रतीक मालूम पड़ती है।

इस मंदिर की विशेषता यह है कि अप्सरा टोड़ों में अप्साओं को दो- दो, तीन- तीन की टोली में दर्शाया गया है। मंदिर, मंण्डप, महामंडप तथा मुखमंडप युक्त है। मुखमंडप भाग में गणेश और वीरभद्र की प्रतिमाएँ अपनी रशिकाओं में इस प्रकार अंकित की गई है कि झांक रही दिखती है। यहाँ की विद्याधर और अप्सराएँ गतिशील हैं। परंतु सामान्यतः प्रतिमाओं पर अलंकरण का भार अधिक दिखाई देता है। प्रतिमाओं में से कुछ प्रतिमाओं की कलात्मकता दर्शनीय एवं सराहनीय है। अष्टवसु मगरमुखी है। यम तथा नॠत्ति की केश सज्जा परंपराओं से पृथक पंखाकार है।

मंदिर की जगती ५' उँची है। जगती को सुंदर एवं दर्शनीय बनाया गया है। जंघा पर प्रतिमाओं की पंक्तियाँ स्थापित की गई हैं। प्रस्तर पर पत्रक सज्जा भी है। देवी- देवता, दिग्पाल तथा अप्सराएँ छज्जा पर मध्य पंक्ति देव तथा मानव युग्लों एवं मिथुन से सजाया गया है। भद्रों के छज्जों पर रथिकाएँ हैं। वहाँ देव प्रतिमाएँ हैं। दक्षिणी भद्र के कक्ष- कूट पर गुरु- शिष्य की प्रतिमा अंकित की गई है।

शिखर सप्तरथ मूल मंजरी युक्त है। यह भूमि आम्लकों से सुसज्जित किया गया है। उरु: श्रृंगों में से दो सप्तरथ एक पंच रथ प्रकृति का है। शिखर के प्रतिरथों पर श्रृंग हैं, किनारे की नंदिकाओं पर दो- दो श्रृंग हैं तथा प्रत्येक करणरथ पर तीन- तीन श्रृंग हैं। श्रृंग सम आकार के हैं। अंतराल भाग का पूर्वी मुख का उग्रभाग सुरक्षित है। जिसपर नौं रथिकाएँ बनाई गई हैं, जिनपर नीचे से ऊपर की ओर उद्गमों की चार पंक्तियाँ हैं। आठ रथिकाओं पर शिव- पार्वती की प्रतिमाएँ अंकित की गई हैं। स्तंभ शाखा पर तीन रथिकाएँ हैं, जिनपर शिव प्रतिमाएँ अंकित की गई हैं, जो परंपरा के अनुसार ब्रह्मा और विष्णु से घिरी हैं। भूत- नायक प्रतिमा शिव प्रतिमाओं के नीचे हैं, जबकि विश्रांति भाग में नवग्रह प्रतिमाएँ खड़ी मुद्रा में हैं। इस स्तंभ शाखा पर जल देवियाँ त्रिभंगी मुद्राओं में है। मगर और कछुआ भी यहाँ सुंदर प्रकार से अंकित किया गया है। मुख प्रतिमाएँ गंगा- यमुना की प्रतीक मानी जाती है। शैव प्रतिहार प्रतिमाओं में एक प्रतिमा महाकाल भी है, जो खप्पर युक्त है।

मंदिर के बाहरी भाग की रथिकाओं में दक्षिणी मुख पर नृत्य मुद्रा में छः भुजा युक्त भैरव, बारह भुजायुक्त शिव तथा एक अन्य रथिका में त्रिमुखी दश भुजायुक्त शिव प्रतिमा है। इसकी दीवार पर बारह भुजा युक्त नटराज, चतुर्भुज, हरिहर, उत्तरी मुख पर बारह भुजा युक्त शिव, अष्ट भुजायुक्त विष्णु, दश भुजा युक्त चौमुंडा, चतुर्भुज विष्णु गजेंद्रमोक्ष रुप में तथा शिव पार्वती युग्म मुद्रा में है। पश्चिमी मुख पर चतुर्भुज नग्न नॠति, वरुण के अतिरिकत वृषभमुखी वसु की दो प्रतिमाएँ हैं। उत्तरी मुख पर वायु की भग्न प्रतिमा के अतिरिक्त वृषभमुखी वसु की तीन तथा चतुर्भुज कुबेर एवं ईशान की एक- एक प्रतिमा अंकित की गई है।

महादेव का मंदिर (Mahadev Temple) :

कंदरिया तथा देवी जगदंबी के मंदिर के बीच के क्षेत्र में स्थित, यह मूलतः शिव मंदिर था। मंदिर का मूल रुप पुनर्निमाण की प्रक्रिया में लुप्त हो गया है। इस मंदिर का निर्माणकाल ९५०- १००८ ई. सन् के बीच है। इसके प्रांगण में शार्दुल और एक पुरुष की मूर्ति अत्यंत सुंदर एवं सुसज्जित है। ५'न्५' की यह मात्र प्रतिमा श्रष्टम वृति है।

मांगतेश्वर का मंदिर (Mangteshwar Temple) :

खजुराहो के मंदिरों में पवित्रतम माना जाने वाले, इस मंदिर की वर्तमान में भी पूजा- अर्चना की जाती है। यह अलग बात है कि यह मंदिर इतिहास का भाग है, लेकिन यह आज भी हमारे जीवन से जुड़ा हुआ है। लक्ष्मण मंदिर के पास ही, निर्मित यह मंदिर ३५' का वर्गाकार है। गर्भगृह भी चौरस है। इसका प्रवेश द्वार पूर्वी ओर है। यह मंदिर अधिक अलंकृत नहीं है। सादा- सा दिखाई देने वाले इस मंदिर का शिखर बहुमंजिला है। इसका निर्माणकाल ९५०- १००२ ई. सन् के बीच का है। इसके गर्भगृह में वृहदाकार का शिवलिंग है, जो ८' ४'' ऊँचा है और ३'८'' घेरे वाला है। इस शिवलिंग को मृत्युंजय महादेव के नाम से जाना जाता है।

त्रिरथ प्रकृति का यह मंदिर भद्र छज्जों वाला है। इसकी छत बहुमंजिली तथा पिरामिड आकार की है। इसकी कुर्सी इतनी ऊँची है कि अधिष्ठान तक आने के लिए अनेक सीढियां चढ़नी पड़ती है। मंदिर खार- पत्थर से बनाया गया है। भद्रों पर सुंदर रथिकाएँ हैं और उनके ऊपरी भाग पर उद्गम है। इसका कक्षासन्न भी बड़ा है। इसके अंदर देव प्रतिमाएँ भी कम संख्या में है।

गर्भगृह सभाकक्ष में वतायन छज्जों से युक्त है। इसका कक्ष वर्गाकार है। मध्य बंध अत्यंत सादा, मगर विशेष है। इसकी ऊँचाई को सादी पट्टियों से तीन भागों में बांटा गया है। स्तंभों का ऊपरी भाग कहीं- कहीं बेलबूटों से सजाया गया है। वितान भीतर से गोलाकार है। यह एक मात्र मंदिर है, जिसका आकार लगातार पूजा- अर्चना सदियों से चली आ रही है। अतः इस मंदिर का धार्मिक महत्व अक्षुण्ण है।

नंदी का मंदिर (Nandi Temple) :

विख्यात शिव मंदिर के सामने स्थित, इस मंदिर का निर्माणकाल सन १००२ ई. है। इसका क्षेत्रफल लगभग ३० न् ३० फीट है। मंदिर में दो वातायन तथा प्रग्रीवी बनाई गई है। इसमें नंदी देवी की अत्यंत सुंदर, स्वच्छ तथा बृहद् प्रतिमा स्थापित की गई है। यह प्रतिमा ७' लंबी तथा छः फुट ऊँची है। इस मंदिर को मुख्य मंदिर न कह कर, क्षेत्र परिक्रमा मंदिर कहा जाता है। इसका सभाकक्ष खुला हुआ एवं चौरस है। इस सभाकक्ष को बीस स्तंभों पर बनाया गया है। इसका छत पिरामिड प्रकृति का दिखता है। वितान सुंदर तथा गोलाकार है। आसन्न पट्टिकाएँ तथा काक्षासन्न बड़े आकार के हैं तथा कक्षासन्न मंदिर के चारों तरफ फैला हुआ है।

मंदिर में स्थापित नंदी प्रतिमा की घिसाई बहुत उत्तम है। नंदी की बैठक मुद्रा भव्य है। नंदी की पुँछ घुंघराली तथा सुंदर हैं। यह मूर्ति दिव्य रुप धारण किए हैं और शिव की वास्तविक वाहन लगती है। इसका अधिष्ठान भि और पीठयुक्त है। भि भाग खार- शिला निर्मित है। अधिष्ठान की पीठ जडया कुंभ, कर्णक, ग्रास पट्टिका तथा अंतरप से बनी है। पट्टिका पर हाथी व्यवस्थित ढ़ंग से अंकित की गई है। इसका कपोत रथिका युक्त है। जंघा का वेदिका भाग सादा एवं व्यवस्थित बनाया गया है। छज्जे की छत का रुप धारण करते हुए चंद्रिका, आम्लक, कलश, विजयपुर्कर पाँच पीढियों पर स्थित है। मंदिर के चारों ओर रथिकाएँ बनी हुई है। केंद्रीय रथिका को उद्गमयुक्त बनाया गया है। मंदिर के गज तालुओं को नागरिकों से सजाया गया है।

लाल गुआंन महादेव का मंदिर (Lal Guaan Mahadev Temple) :

लाल गुआं महादेव शिव के मंदिरों में से एक है। इस मंदिर का मुख पश्चिम की ओर है एवं यह चौसठ योगिनी मंदिर के पश्चिम की ओर स्थित है। इसके निर्माण में खार- पत्थर तथा धार पत्थरों का उपयोग किया गया है। इसका निर्माण ८वीं शताब्दी के प्रथम चरण में हुआ लगता है, क्योंकि इसकी सादगी और वास्तु प्रयोग इस काल में बने मंदिरों जैसा है। पंचरथ प्रकृति के इस मंदिर की जगती ८' ऊँची है तथा इसका छत पिरामिड के प्रकार का है।

लालगुआं तालाब के किनारे स्थित होने के कारण, इसको लोग लालगुआं मंदिर कहते हैं। शिल्प कला एवं इतिहास की दृष्टि से यह पुरातन मंदिर है। मंदिर के अधिष्ठान को परंपरागत भि जड्याकुंभ, पट्टिका, मंडोवर, अंतरपट्ट, कलश तथा कपोत से सजाया गया है। मंदिर का जंघा भाग और भीतरी भाग सादा एवं वर्गाकार है। इसके अंतर्भाग में कणाश्म से निर्मित, बारह सादे कुड्य- स्तंभ है। इन्हीं स्तंभों पर वितान पूर्वी प्रक्षेपण में प्रवेश द्वार है और पश्चिम की ओर एक अन्य छोटा द्वार है। पार्श्व के अन्य दो प्रक्षेपणों में पत्थर की मोटी तथा अनलंकृत जालीदार वातायन निर्मित है। प्रवेशद्वार के सिरदल में त्रिदेव :- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, की स्थूल मूर्तियाँ स्थापित है और द्वार स्तंभ में एक- एक अनुचर सहित गंगा और यमुना का अंकन किया गया है। मंदिर का प्रवेशद्वार सादा बनाया गया है। इसमें न तो कोई प्रतिमा है और न ही इसका अलंकरण किया गया है।

सौर्य मंदिरों के नाम (Name of Saurya Temple)

चित्रगुप्त मंदिर (Chitragupta Temple) :

निरंधार प्रासाद श्रेणी का यह मंदिर, प्रमुखतया सूर्य मंदिर है। इसके गर्भगृह में ४'१०'' ऊँची सूर्य भगवान की प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा अपने सप्त अश्वीय रथ के साथ इस प्रकारसे अंकित की गयी है, जैसे रथ से उतर कर मंदिर में स्थापित हो गये हैं। ७५', ९''न् ५१' की लंबाई चौड़ाई वाले, इस मंदिर का निर्माण ९७५ ईसवी सन् में हुआ था। इस मंदिर में मिथुन नर्तक, देवांगनाएँ, शार्दूल काफी मात्रा में अंकित किये गए हैं। इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें सामाजिक दृष्य को उत्कृष्टता से अंकित किया गया है। मंदिर से लगभग ११० गज की दूरी पर एक सीढ़ीदार व तालाबनुमा कुँआ है।

मंदिर के मुखमंडप, महामंडप, अंतराल तथा गर्भगृह सुसज्जित हैं। मंदिर का भीत धारशिला से निर्मित किया गया है तथा उस पर खार- शिलाएँ आरोपित हैं। भीत पर पीठ के खाँचे हैं तथा अंतराल गज, अश्व, नर, देव उपासना एवं मिथुनों से सजाया गया है। मंदिर का अंतरप साधारण तौर पर सजाया गया है। मंदिर के मुखमंडप के ऊपरी एवं बाहरी भाग में रथिकाएँ अंकित की गई हैं। भद्र पर मूर्तियों की दो पंक्तियाँ एवं जंघा पर तीन पंक्तियाँ अंकित है। मंदिर त्रयंग है। इसके मूलमंजरी पर दो उरु: श्रृंग हैं। इनके तल से करणपत श्रृंग अंकित हैं। नीचे के उरु: श्रृंग के दोनों ओर दो श्रृंग हैं, जो प्रतिरथ और करण को घेरे हुए हैं। ये श्रृंग पंचरथ प्रकृति के हैं। करणरथ पर केवल तीन भूमि- आम्लक है। शिखर पर तीन चंद्रिकाएँ हैं। मंदिर के अंतराल में केवल एक रथिका अंकित है, जिसपर चतुर्भुज शिव विराजमान हैं। मंदिर के महामंडप में एक प्रमुख घंटे और तीन कूट घंटे लगाए गए हैं। कूट घंटों के चार- चार पीठे हैं, जिनपर चंद्रिका, आम्लक और कलश आरोहित हैं। महामंडप का सभागृह वर्गाकार है, जिसे अष्टकोणिय बनाया गया है। महामंडप की चतुष्किया सीधी- सादी है। वितान के साथ- साथ अप्सराओं के लिए भी टोड़ा अंकित किया गया है। वितान नाविच्छंद प्रकृति का है, मंदिर के अंदर ब्रह्मा, विष्णु, भैरव, सूर्य, कुबेर तथा अन्य चतुर्भुज की प्रतिमाएँ अंकित की गई हैं।

चित्रगुप्त मंदिर को भरत जी का मंदिर भी कहा जाता है। इसमें विष्णु की एकादशमुखी प्रतिमा अंकित की गई है। जिसमें एक मुखविष्णु का है तथा अन्य दस मुख उनके अवतारों का अंकित किया गया है। मंदिर का द्वार नौ शाखाओं से सजाया गया है। प्रथम शाखा पर साधारण प्रस्तर उत्कीर्ण युक्त है। तीसरी तथा पांचवी शाखा में व्याल उत्कीर्ण किया गया है। चौथी शाखा स्तंभ शाखा है, जिस पर मिथुन उत्कीर्ण है। द्वितीय एवं छठी शाखा पर गज वर्तमान है। सातवीं एवं आठवीं शाखाएँ सामान्य प्रस्तर सज्जा, कमल पत्र तथा नाग मूर्तियों से सजाई गई हैं। नवीं शाखा को गोल पुष्पचक्रों से सजाया गया है। 

मंदिर के द्वार भाग में विद्याधर, सूर्य, भूत नायक इत्यादि की प्रतिमाएँ भी रथिकाओं पर अंकित की गई है। द्वार शाखा के शुरु में दोनों ओर गंगा- यमुना अंकित हैं। इसकी रथिकाओं पर सेविकाएँ, द्वारपाल तथा चारों वाहक महिलाएँ भी मूतांकित है। ऊपर की रथिका पर शिव- पार्वती की दैविक शांतियुक्त प्रतिमा अद्भूत है। प्रतिमाएँ परंपरागत हैं। दक्षिण- पश्चिम कोने में आज्ञात चतुर्भुज देव, शिव, यम अपने भैंसे के साथ, नॠति की नग्न प्रतिमा वर्तमान हैं। यहाँ की अधिकतर प्रतिमाओं में शिव को सौम्य रुपी दर्शाया गया है। दक्षिणी मुख की मुख्य रथिकाओं पर त्रिमुखी ब्रह्मा चतुर्भुज देव, वृषभ मुखी वसु, चतुर्भुज अग्नि, ब्राह्मण- ब्राह्मणी, शिव- पार्वती, लक्ष्मी नारायण, चतुर्भुज नॠति की प्रतिमाएँ अंकित की गई हैं। इस तरह मंदिर के इस भाग में चतुर्भुज प्रतिमाओं की अधिकता है।

मंदिर के उत्तरी मुख की रथिकाओं पर वायु, वसु, शिव- पार्वती, शिव कल्यान सुंदरमुर्कित्त, कुबेर की खंडित प्रतिमाएँ सजायी गई हैं। यहाँ मूर्तियों को अंकित करने में दोहराया गया है। उत्तरी- पूर्वी मुख के भाग में छः प्रतिमाएँ चतुर्भुज अनाम देवता की बनाई गई है। यहाँ वरुण की एक खंडित मूर्ति भी वर्तमान है। पूर्वी मुख के ऊपर दक्षिण की ओर की एक रथिका में एक विशाल उदर देव ललित प्रतिमा में विराजमान हैं। देवता प्रायः भावहीन हैं।

गर्भगृह की प्रमुख प्रतिमा सूर्य की है। भग्नहस्त प्रतिमा किरिट- मुकुट धारण किए हैं। पिंगला प्रतिमा पर सिर को अंकित नहीं किया गया है। गर्भगृह के खाली स्थान को भरने के लिए उषा और प्रत्युषा आलिंग्णासन में तीर चलाते हुए विराजमान हैं। अन्य धनुषधारी महिलाएँ फलक रुप में हैं। एक रथिका पर योगासन में शिव हैं। इस रथिकाओं को सुंदर बनाने के लिए नारी प्रतिमा, अश्व सिर अश्विनीकुमार द्धय तथा अन्य सेवकों के साथ अंकित किया गया है।

उपर्युक्त से स्पष्ट है कि चित्रगुप्त मंदिर की मूर्तियाँ मूर्तिकला की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं और कलाकारों की अथक साधना का पुरस्कार हैं।

दक्षिण पश्चिम में स्थित मंदिर (Temple located in the South West ) 

चौसठयोगिनी मंदिर (Chausathyogini Temple) :

शिवसागर झील के दक्षिण- पश्चिम में स्थित चौसठयोगिनी मंदिर चंदेल कला की प्रथम कृति है। यह मंदिर भारत के सेमस योगिनी मंदिरों में उत्तम है तथा यह निर्माण की दृष्टि से सबसे अधिक प्राचीन है। यह मंदिर खजुराहो की एक मात्र मंदिर है, जो स्थानीय कणाश्म पत्थरों से बनी है तथा इसका विन्यास उत्तर- पूर्व से दक्षिण- पश्चिम की ओर है तथा यह मंदिर १८ फुट जगती पर आयताकार निर्मित है। इसमें बहुत- सी कोठरियाँ बनी हुई हैं। प्रत्येक कोठरी २.५' चौड़ी और ४' लंबी है। इनका प्रवेश द्वार ३२'' ऊँचा और १६'' चौड़ा है। हर एक कोठरी के ऊपर छोटे- छोटे कोणस्तुपाकार शिखर है। शिखर का निचला भाग चैत्यगवाक्षों के समान त्रिभुजाकार है।

जैन मंदिरों के नाम (Name of jain temples)

पार्श्वनाथ का मंदिर (Parshvanath Temple) :

पूर्वी समूह के अंतर्गत पार्श्वनाथ मंदिर, खजुराहों के सुंदरतम मंदिरों में से एक है। ६८' लंबा ६५' चौड़ा यह मंदिर एक विशाल जगती पर स्थापित किया गया है। मूलतः इस मंदिर में आदिनाथ की प्रतिमा थी। वर्तमान में स्थित पार्श्वनाथ प्रतिमा उन्नीसवीं शताब्दी के छटे दशक की है। इस प्रकार यह मंदिर आदिनाथ को समर्पित है।

प्राप्त शिल्प, वास्तु तथा अभिलेखिक साक्ष्यों के आधार में पर इस मंदिर का निर्माण ९५० ई. से ९७० ई. सन् के बीच यशोवर्मन के पुत्र और उत्तराधिकारी धंग के शासनकाल में हुआ। इसके निर्माण में काफी समय लगा। मंदिर एक ऊँची जगती पर स्थित है, जिसकी मूल सज्जा अब लगभग

समाप्त हो गई है। मंदिर के प्रमुख भागों में मंडप, महामंडप, अंतराल तथा गर्भगृह है। इसके गिर्द परिक्रमा मार्ग का भी निर्माण किया गया है। मंडप की तोरण सज्जा में अलंकरण और मूर्तियों की बहुलता है। इसमें शाल भंजिकाओं, अप्सराओं और पार्श्वदेवी की मूर्तियाँ भी है। इसका वितान उलटे कमल पुष्प के समान है। वितान के मध्य में एक फुंदना झूल रहा है, जिसपर उडते हुए विद्याधरों की आकृतियाँ उत्कीर्ण की गई है। मंडप से मंदिर में प्रवेश करने के लिए सप्तशाखायुक्त द्वार हैं। इसके अंदर अलंकरण हिरकों, पाटल- पुष्पों, गणों, व्यालों, मिथुनों, बेलबूटों के अतिरिक्त द्वारपाल सहित मकरवाहिनी गंगा और कूमवाहिनी यमुना की आकृतियाँ उत्कीर्ण है। विभिन्न मुद्राओं में गंधर्व और यक्ष मिथुन ढ़ोल, तुरही, मंजिरा, शंख, मृदंग तथा ततुंवाद्य बजाते हुए सरितदेवियों के ऊपर तोरण तक अंकित किये गए हैं।

मंडप की दीवार को भीतर से कुड्यस्तंभ का बाहर से मूर्तियों को तीन पंक्तियों का और मंदिर के अंतरंग भागों को प्रकाशित करने के लिए बनाए गए वातायनों का आधार प्राप्त है। इस मंदिर के भीतरी भाग की विशेषता यह है कि इसमें कुड्यस्तंभों के बीच के रिक्त स्थान का उपयोग आठ- उप- वेदिकाओं की रचना में किया गया है, जिन पर भव्य और सुंदर परिकर के साथ तीर्थकर प्रतिमाएँ स्थापित की गई है। मंडप से जुड़ा हुआ इसका गर्भगृह है। गर्भगृह में दिगंबर जैन साधु तथा साधवी वस्रहीन अवस्था में दिखाए गए हैं। इसके अतिरिक्त गर्भगृह में एक केंद्रीय स्री प्रतिमा है। मंदिर के अंतराल में बाईं ओर कमल और कलश के साथ- साथ अभय मुद्रा में चतुर्भुज शासन देवी तथा दायीं ओर चतुर्भुज वीणावादिनी अंकित है।

मंदिर के चारों ओर अनगिनत प्रतिमाएँ हैं, जो तीन पालियों में हैं। नीचे की दो पालियों की प्रतिमाएँ उतिष्ठ मुद्रा में है, जबकि ऊपरी पाली में उड़ती हुई या बैठक मुद्रा की प्रतिमाएँ स्थापित है। ये प्रतिमाएँ सूक्ष्म संगतराशी की आदर्श दिखाई देती है। प्रसाधन, कंटक भेटन, पत्रलेखन इत्यादि दिनचर्या के कार्यों में व्यस्त सुंदरियाँ अद्भूत है। खजुराहो मूर्तिकला की अद्भूत कृति पैरों में लाख लगाती तरुणी भी इसी मंदिर में अंकित की गई है। पार्श्वनाथ मंदिर की मूर्तियों की विशेषताओं में से एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यहाँ की मूर्तियों में नारियों को आमंत्रण और आर्कषण में चतुर अंकित किया है।

खजुराहो के जैन मंदिरों में पावनतम मंदिर की बाहरी दीवारों पर शैव तथा वैष्णव प्रतिमाओं का अंकन इस बात का सुचक्र है कि यह मंदिर विश्वधर्म के परिचायक होंगे।

मंदिर की रुप रेखा अपने आप में विशेष है। मुख चतुष्कि गूढ़मंडल के भीतर खुलती हे। इसके गूठमंडल की चौखट अलंकरण में अद्वितीय है। मंदिर के जैन मंडप का वितान बहुत सुंदर है। इसमें बड़ी सावधानी से बारीक नक्काशी की गई है। इसके महामंडप और गर्भगृह की छतों को जोड़कर शिखर की स्थापना की गई है। प्रतिमाओं की पट्टियाँ लगातार क्रम में स्थापित की गई है। ऊपरी पट्टी पर देवांगनाएँ तथा मिथुन इसी मंदिर में हैं। सर्वश्रेष्ट श्रेणी के मिथुन के रुप देखने योग्य हैं। सर्वोपरि पट्टी पर मूर्तियों का आकार छोटा हो गया है। बीच की पट्टी में भी मिथुन मूर्तियों का बहुतायत है।

पार्श्वनाथ मंदिर का जंघा भाग भी अति सुंदर नारियों के अंकन से समृद्ध है। इसके सभी ओर भद्र हैं, जिनपर पाँच- पाँच रथिकाएँ हैं। जैन प्रतिमाएँ केवल बाहरी रथिकाओं पर ही निर्मित है, शेष स्थानों पर तथा कथित ब्राह्मणत्व प्रभाव की प्रतिमाएँ अंकित हैं। यहाँ छोटे- छोटे छज्जों या विश्रांतियों से प्राप्त किए गए छोटे रथ भी हैं। इन छज्जों पर जंघा की देव, अप्सरा तथा विद्याधर प्रतिमाएँ हैं। जंघा पर तीन पंक्तियों में प्रतिमाएँ स्थापित की गई है। यहाँ की जंघा का विभाजन पट्टिकाओं से किया गया है।

मंदिर के शिखर के लिए दक्षिणी ओर गर्भगृह पर भद्र हैं, जो उद्गमों के रुप में पार्श्वलिंदों पर उतरते हैं। पार्श्वालिंदों के ऊपर रथिकाएँ हैं, जो प्रमुख विश्रांतियों के ऊपर तक गई है। इस स्थान पर उरु: श्रृंग और मूलमंजरी का रुप लेते हैं। करण श्रृंगों के साथ ऊपरी पार्श्वालिंदों पर श्रृंग हैं। केंद्रीय श्रृंग पंचरथ प्रकृति का है तथा शेष त्रिरथ प्रकृति का है। मूलमंजरी सप्तरथ प्रकृति का है तथा ग्यारह भूमि युक्त है। मूलमंजरी के दोनों ओर दो- दो उरु: श्रृंग हैं। करणश्रृंग का ऊपरी भाग उरु: श्रृंगों की सतह से ही शुरु होता है। दोनों ओर कुल बारह करण श्रृंग है।

पार्श्वनाथ मंदिर की अन्य विशेषताएँ (Other Features of Parshvanath Temple) :

१. अर्धमंडप के अधिष्ठान की सज्जापट्टी पर हाथियों की प्रक्षेपित पट्टी उत्कृष्ट है।
२. भूत टोड़ा, कीर्तिमुख, शालमंजिका टोड़ा, नाग प्रतिमाएँ यहाँ वर्तमान है।
३. कीर्तिमुख तथा विद्याधर एक प्रस्तर की श्रृंखला के तंतु से जुड़े हुए हैं।
४. शाखाओं की सज्जा मंदार पुष्प, व्याल, मिथुन तथा बेलबूटों से ही गई है।
५. इसका द्वार पंचशाला प्रकृति का है।
६. खार पत्थर की कुर्सी पर पार्श्वनाथ की काली प्रतिमा है।
७. यहाँ ॠषभनाथ के प्रतीक ॠषभ उपस्थित हैं।
८. इसमें हृदयाकार पुष्पों वाली शोभापट्टी वर्तमान है।
९. जंघा की उपरी पंक्ति में मूर्तियों के मध्य चैत्य मेहराबों के उद्गम है तथा जंघा पर उत्कीर्ण तीनों पंक्तियों का शिल्प मूर्तिकला का श्रेष्ठ उदाहरण है।
१०. जैन मंदिर के बावजूद, इस में हिंदू धर्म के परशुराम, बलराम, रेवती, राम-सीता- हनुमान तथा विष्णु के अनेक रुप की मूर्तियाँ अंकित की गई हैं।
११. केवल पार्श्वनाथ मंदिर में ही कृष्ण लीला से संबंधित दृश्य उत्कीर्ण है।
१२. इसमें गर्भगृह के भीतर भी हिंदू मंदिर परंपरा का पालन किया गया हे।
१३. इस मंदिर की मूर्तियों का वर्तूलाकार प्रतिरुपण और सामान्य रुप रेखा केशविन्यास उत्कृष्ट है।
१४. यहाँ शिर्षतोरण तथा कृशकाय, वायोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध तथा तपोधन अठारह दिगंबर मुनियों से वंदित अर्हत प्रतिमाएँ सुशोभित हैं।

पार्श्वनाथ मंदिर में वर्तमान प्रतिमाओं की संख्याएँ निम्नलिखित है-

- चतुर्भुज इंद्र, अग्नि, व्याल    २८
- चतुर्भुज देवी    ०३
- अप्सरा    १६
- चतुर्भुज शिव    १४
- खड़ी हुई नारी, लक्ष्मीनारायण    ०८
- यम, नृति, त्रिभंगी मुद्रा में नारी    ०२
- काम, जिन पद्यप्रभु, चतुर्भुज विष्णु    ०९
- दाढ़ी युक्त संत, देव- युक्त १६
- नारीफल तथा रुमाल के नारी    ०२
- त्रिभंगी मुद्रा में देव- युग्म    ०५
- पक्षी के साथ अप्सरा मानवयुग्म    ०७
- नारी कमल पुष्प के साथ    ०२
- द्विबाहु कृष्णा, जिन परशुराम ०२
- ब्रह्म    ०३
- इशान, चतुर्भुज देव सपत्नीक ०३

उपर्युक्त में कोष्टकों में दी गई संख्या कृति विशेष प्रतिमाओं की संख्या है। इसके अतिरिक्त उत्तरी पश्चिमी कोने के उत्तरी मुख पर काम और रति की एक सुंदर प्रतिमा है। काम के हाथ में पक्षी है, तीन बाण मानव सिर समेत ऊपरी हाथ में है। यह प्रतिमा बाएं हाथ से रति को थामें हुए हैं। इसके दूसरे हाथ में धनुष है। बाहरी भाग में दो प्रतिमाएँ सेविकाओं की है, जो स्वतंत्र तराशी गई हैं। रथिकाओं पर पाँच वातायन भी स्वतंत्र हैं और उन पर प्रतिमाएँ रखना संभव नहीं है। ऐसा कहा जा सकता है कि यह मंदिर प्रतिमाओं की विविधता में सर्वप्रथम है।

भीतरी भाग में महामंडप के द्वार पर चक्रेश्वरी की एक ललित प्रतिमा विद्यमान है, वह किरीट मुकुट पहने हैं। उसके दहिने चतुर्भुज सरस्वती है। वराह व हंस इसके साथ- साथ है, जबकि दूसरी और ऐसा ही अन्य प्रतिमा वाहन विहीन हैं। इसका द्वारपाल पुस्तक एवं गडा धारण किए है। गर्भगृह के द्वार पर गंगा- यमुना दोनों ओर है। भीतरी परिक्रमा के छज्जों पर देव, अप्सरा तथा विश्रांति पर व्याल प्रतिमाएँ वर्तमान है।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि यह मंदिर वस्तुतः देवताओं का संग्रहालय है। अधिकांश देव गंधर्व, किन्नर, यक्ष, अप्सराएँ यहाँ मूर्ति रुप में उपस्थित है। देवों की अनेक श्रेणियाँ व प्रकार हैं। मूर्तिकार के पास समय और स्थान होता है, तो संभवतया ८४ करोड़ देवता जमीन पर उतर आते। मंदिर की प्रतिमाएँ सुंदर है और बड़े भक्ति भाव से धर्म की सार्वभौमिकता को चरितार्थ करती है।

शांति नाथ का मंदिर (Shanti Nath Temple) :

जैन धर्म से संबंधित शांतिनाथ मंदिर का निर्माण काल १०२८ ई. सन् है। मंदिर का मुख पूर्वी ओर है। इसमें भगवान शांतिनाथ जी की १४' ऊँची प्रतिमाएँ विद्यमान हैं। मंदिर के तीन ओर खुला प्रांगण है, जहाँ लघु मंदिर में अन्य जैन प्रतिमाएँ स्थापित की गई है। मंदिर द्वार के दोनों ओर दो शाखाओं में द्वार की चौखट पर मिथुन विराजमान है। स्थानीय मतों के अनुसार मंदिर का वास्तविक द्वार नष्ट हो जाने के पश्चात निर्मित किया था, अतः यहाँ वर्तमान काल में मूर्तियाँ सही क्रम में तथा अपने वास्तविक स्वरुप में स्थापित नहीं हो पाई है। मंदिर का शिखर भाग भी प्राचीन नहीं दिखाई देता है, इसलिए कुछ इतिहासकार इसे आधुनिक जैन मंदिर मानते हैं। मंदिर की पुरातन मूर्तियों और प्रस्तरों को सजाकर वर्तमान रुप दिया गया है।

यह एक मंदिर समूह है, जहाँ कुछ अन्य छोटे- छोटे जैन मंदिर भी है। इन लघु मंदिरों का मूल रुप लुप्त हो गया है। मंदिर का गर्भगृह शेष है, जो पार्श्वनाथ जी के मंदिर के जैसा है। मंदिर की पुरानी प्रतिमाएँ इधर- उधर से इकट्ठी कर संग्रहालय में पहुँच गई है।

आदिनाथ का मंदिर (Adinath Temple) :

पुरातत्व रुचि का महत्वपूर्ण आदिनाथ मंदिर १००० ई. सन् के आस- पास का है। मंदिर
निरंधार- प्रासाद तथा सप्तरथ प्रकृति का है। यह मंदिर ऊँची जगती पर निर्मित है एवं पार्श्वनाथ से मिला हुआ है। सामान्य योजना, निर्माणशैली तथा शिल्प शैली में यह छोटा- सा मंदिर वामन मंदिर के समान ही है।

मंदिर के जंघा में मूर्तियों की एक पर एक तीन पंक्तियाँ हैं। सबसे ऊपरी पंक्ति की मूर्तियाँ आकार में कुछ छोटी है। इस पंक्ति में प्रक्षेपों या उभरे भागों पर विद्याधरों तथा भीतरी भागों पर गंधर्वों� और किन्नरों का अत्यंत जीवंत प्रतिमाएँ अंकित की गई है। उन्हें पुष्पमालाएँ ले जाते हुए या संगीत- वाद्य बजाते हुए या शस्र चलाते हुए देखाया गया है। शेष दो पंक्तियों के प्रक्षेपों पर शासनदेवताओं, यक्ष मिथुनों तथा सुरसुंदरियों का और भीतर धंसे भागों पर व्यालों का अंकन किया गया है। मूर्तियों की अलंकरण पट्टियों की देव कुलिकाओं में अनेक प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं। इनके वाहनों, आयुधों और परिकारों का अत्यंत सजीव और सुक्ष्म किया गया है। इन सज्जापट्टियों की एक अन्य विशेषता यह भी है कि इनके कोणों पर प्रथम तीर्थकर आदिनाथ के शासन सेवक गोमुख या गोवदन यक्ष का अत्यंत सुंदर तथा विलक्षण अंकन किया गया है।

मंदिर का शिखर सप्तरथ तथा इसमें सोलह भूमियाँ हैं, जिनका संकेत भूमि आमलकों से मिलता है। प्रत्येक आमलक पर कपोत का उष्णीय है। कर्णट में एक खड़ी पट्टी है, जिसमें निचली राथिका में हीरकों सहित चैत्य मेहराब है। यहाँ के सभी रथ मूल रुप से परिधि रेखा से आगे निकलते हैं। मध्यवर्ती तथा पार्श्ववर्ती रथों के ऊपर क्रमशः कीर्तिमुख तथा अर्द्धकीर्तिमुख है। कर्णरथों के ऊपर एक लघु स्तूपाकार शिखर है, जिसमें दो पीढ़े हैं तथा चंद्रिकाएँ हैं। परिधि रेखा के ऊपर एक बड़े आकार का धारीदार आमलक दो चंद्रिकाएँ एक छोटा आमलक चंद्रिका और कलश है। कलश के ऊपर एक पुष्पालंकरण भी दिखाई देता है। अंतराल की छत एक श्रृंखला है, जिसके ऊपर एक उद्गम है। इसके ऊपर क्रमशः ऊर्ध्वों�न्मुखी तीन श्रेणियों वाला शिखर है। इस शिखर को कमलपत्र और रत्नपत्र से अलंकृत किया गया है। इसमें सात देवकुलिकाओं की एक पंक्ति है। बीच की देवकुलिका में, एक यक्षी की खडगासन प्रतिमा है, जिसके दोनों पार्श्वों� में आवरण देवताओं की मूर्तियाँ हैं। देवकुलिकाओं के ऊपर त्रिकोण शीर्षों की आरोही पंक्तियाँ हैं। इसके अधिष्ठान पार्श्व में दोनों लघु स्तुपाकार शिखर पर हाथी पर आक्रमण करते हुए सिंह का अंकन किया गया है।

गर्भ द्वार सात शाखाओं वाला है। पहली शाखा का अलंकरण पत्रलता से किया गया है। दूसरी शाखा और चौथी शाखा का संगीत वाद्य बजाते हुए गणों से किया गया है। तीसरी शाखा का, वाहन सहित आठ शासन देवियों से, पाँचवीं का पुष्पगुच्छ से, छठी का व्यालमुख निसृत पत्रलताओं से और अंतिम या सातवीं का एक विशेष प्रकार की वर्तुलकार गुच्छा रचना से किया गया है। द्वारमार्ग का सरदल स्तंभ शाखाओं पर आधारित है, जिसकी पाँच देवकुलिकाओं में शासनदेवी का अंकन किया गया है। इनके हाथों में शंख, कमल, कलश, पाश आयुध है। इन देव कुलियों के ऊपर उदगम है। द्वारमार्ग के अधिष्ठान पर वाहन सहित गंगा- यमुना और द्वारपाल अंकित किया गया।

स्तंभों का निचला भाग चतुर्भुज द्वारपालों से और बीच का भाग हीरक आकृतियों और घटपल्लवों से सज्जित किया गया है। स्तंभ शीर्ष पर आमलक और पद्य हैं, जिन पर आलंबनबाहु टिके हुए हैं। आलमबंन बाहुओं के कोनों में भक्तिविभोर नाग निर्मित किया गया है। द्वारतोरण पर शची द्वारा सेवित, तीर्थकर की माता को शयन करते हुए अंकित किया गया है। इसके बाद माता को सोलह स्वप्न दिखाए गए है। यद्यपि ये सोलह मंगल प्रतीक स्वप्न जैन मंदिरों में प्रायः अंकित किए जाते हैं, किंतु स्वप्न देखती हुई जन्नी के साथ में उसका अंकन, आदिनाथ मंदिर की एक अति- महत्वपूर्ण विशेषता है।

मंदिर का गर्भगृह अत्यंत सादा है, जिसमें प्राचीन प्रतिमा के स्थान पर आदिनाथ की अर्वाचीन मूर्ति प्रतिष्ठित है।

आदिनाथ मंदिर परिसर में स्थित एक अन्य लघु मंदिर

घंटाइ मंदिर (Ghantai Temple) :

भव्य नक्काशी तथा उत्कृष्ट कला का अमूल्य धरोहर, घंटाई मंदिर का निर्माण १०८५ ई. सन् में हुआ। ४५' लंबे २५' चौड़े अधिष्ठान पर १४' ऊँचे १८ स्तंभों वाला यह मंदिर, बुद्ध प्रकृति का मंदिर माना जाता है। यह मंदिर पूर्वी समूह के मंदिरों में प्रमुख है। जैन धर्म से संबंधित घंटाई मंदिर का अनुपम साज- सज्जा तथा उत्कृष्ट सौंदर्य इस समूह के दूसरे मंदिरों से अलग प्रकार का है।

स्तंभों पर झुमते घंटों और क्षुद्र घंटिकाओं की मनोहर एवं जीवंत संयोजना के कारण, स्थानीय लोग इसको घंटाई मंदिर के नाम से पुकारते हैं। मंदिर की पृष्ठ भूमि में महावीर की माता श्री के सोलह स्वप्नों और नवग्रहों का विवरण है। मंदिर का अधिकांश भाग वर्तमान समय में अनुपलब्ध है, जबकि छत और शानदार स्तंभ, अब भी वर्तमान हैं। स्तंभों को कीर्तिमुखों से सुसज्जित किया गया है। अष्टभुजा युक्त जैन देवी गरुड़ पर सवार अनेक अस्र- शस्र लिए द्वार शाखा पर उपस्थित हैं। मंदिर का मंडप गूढ़ मंडप प्रकृति का है, जिसपर वितान, सादा बना हुआ है। छत के बीम कलात्मक सज्जायुक्त हैं। इन धरणों पर घंटियों की मालाएँ बनाई गईं हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ शार्दूल और कीर्तिमुख भी रेखांकित हैं।

अर्धमंडप तथा महामंडप चार- चार स्तंभों पर आधारित है। स्तंभों के मध्य भाग तल में अष्टकोणीय, बीच में सोलह कोणीय तथा सबसे ऊपर वर्तुलाकार बना हुआ है। प्रत्येक स्तंभ के ऊपर एक गोल शीर्ष है, जिसमें दांतेदार आमलक और पद्य अंकित हैं। सभी कीचकों के पेट में छेद बनाए गए हैं, ताकि उसमें अप्सराओं के आलंबनबाहू को फंसाया जा सके। आलंबनबाहु पर एक सरदल है। इस सरदल पर अनेक भक्तों, संगीतकारों, नर्तकों तथा शोभायात्राओं में सम्मलित हाथियों से अंकित एक चित्रवल्लरी बनाई गई है। चित्रवल्लरी के ऊपर एक अलंकृत समतल और चौकोर वितान वर्तमान है। इस वितान के किनारों का अलंकरण कमल लताओं से किया गया है। वितान के फलकों की सज्जा नर्तकों, गायकों, मिथुनों तथा गजतालुओं से की गई है।

महामंडप, अर्धमंडप के आगे है। वर्तमान समय में इसमें दीवारें अनुपस्थित हैं। पार्श्वनाथ मंदिर के विपरीत, इसमें सामने की ओर एक आड़ी पंक्ति में तीन चतुष्कियाँ हैं। इन चतुष्कियों का वितान सादा है। महामंडप के द्वारपाश्वों की भित्तियों की आधार वेदियों पर आमने सामने मुख किए दो सशस्र द्वारपाल अंकित किए गए हैं। वे करंड मुकुट धारण किए हुए हैं तथा गदाधारी हैं। इसकी उपपीठ धार- शिला से बनी हैं। महामंडप के द्वार की सात शाखाएँ हैं -- शाखाएँ पुष्प, चक्र, व्याल, गण, मिथुन, कर्णिक, पद्य इत्यादि से सजाई गई है। इनमें प्रस्तर बेलबूटों को भी सजाया गया है। तृतीय तथा पंचम द्वार शाखा पर मिथुन हैं। पहली शाखा का अलंकरण फुल्लिकाओं से तथा दूसरी शाखा एवं छठी शाखा का व्यालों से किया गया है। चौथी शाखा में कर्णिका और कमल इसी स्तंभशाखा पर एक सरदल हैं, जिसके मध्य में गरुड़ासीन अष्टभुजी चक्रेश्वरी अंकित की गई

है। उनके हाथों में फल, बाण, चार चक्र, धनुष और शंख हैं। सरदल के दोनों किनारों पर तीथर्ंकर प्रतिमाएँ और नवग्रहों की प्रतिमाओं अंकित की गई है तथा द्वार मार्ग को आवृत करने वाली सातवीं शाखा में सर्पिल बेलबूटों तथा उसके पार्श्व में एक खड़ी चित्रवल्लरी का अंकन किया गया है।

द्वारमार्ग के अधिष्ठान पर सरितदेवियों :- गंगा तथा यमुना का आमलक है। महामंडप का मध्यवर्ती वितान चार स्तंभों पर आधारित है।। प्रत्येक स्तंभ पर तीन दीवट आलंवनबाहु हैं। सरदल पर तीन सज्जा पट्टियाँ उपस्थित हैं। पहली पट्टी में एक दूसरे से आबद्ध श्रृंखलाएँ, दूसरी पट्टी में त्रिकोण और तीसरी पट्टी सादी है। इसके ऊपर समतल वितान उपस्थित है। रथिकाओं पर जिन प्रतिमाएँ अंकित है। अष्टधातु नवग्रह, वृषभ मुखी देव, ऐरावत, हरित, शेर, श्रीदेवी, सुर्य इत्यादि की प्रतिमाएँ वर्तमान है। इसके अतिरिक्त, यहाँ नाग अग्नि की प्रतिमाएँ भी अंकित है। गंगा- यमुना द्वार पर द्वारपाल, सरस्वती, जलदेवता, गजशार्दुल प्रतिमाएँ नृत्य और संगीत दृश्यों के साथ अंकित की गई है।

मंदिर में मूर्तियाँ (Statues in Temples) :

वर्तमान में यहाँ सिर्फ तीन योगिनी मूर्तियाँ ही विद्यमान है। सबसे बड़ी कोठरी में महिषासुरमर्दिनी की अष्टभुजी मूर्ति है। इसके सिंहासन पर हिंगलान' लेख उत्कीर्ण है। इसके अलावा दो कोठरियों में माहेश्वरी व ब्राह्मणी की मूर्तियाँ विद्यमान हैं। माहेश्वरी ललितासन मुद्रा में हैं तथा इनके समीप ही नंदी आसीन है। त्रिभुजी तथा चतुर्मुखी ब्राह्मणी खड़गासन मुद्रा में खड़ी है। भारी- भरकम, नारी और मोटी दहयिष्टी वाली इन प्रतिमाओं में खजुराहों की मूर्तिशैली का प्रारंभिक रुप प्रतिबिंबित होता है।

इस प्रकार खजुराहो मंदिरों के परिचर्यात्मक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि हिंदू मंदिर शिव, विष्णु और देवी मंदिर हैं। इन मंदिरों में प्रायः सभी देवताओं को मंदिर के भीतर तथा बाहर स्थान मिला है। दूसरी ओर जैन मंदिर अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हैं, उनकी प्रतिमाएँ खजुराहो शैली की परंपरागत प्रतिमाएँ हैं।

भारतीय मंदिर परंपरा में करोड़ों देव हैं। खजुराहो उन देवों का लघु विश्व लगता है। इतिहास ने हमें यह सुंदर उपहार दिया है, जो कला और धर्म दोनों को एक साथ रखे हुए है।

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Courtesy: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र