बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - भोजन-पेय और वस्राभरण (Bhojan Pey Aur Vasrabharan)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

भोजन-पेय और वस्राभरण (Bhojan Pey Aur Vasrabharan)

 

  • प्रागौतिहासिक युग

  • महाभारत-काल

  • जनपद काल

  • मौर्य-शुंग काल

  • नाग-वाकाटक-काल

  • हर्ष काल

  • चंदेल काल

  • तोमर काल

  • बुंदेल काल

  • पुनरुत्थान युग

  • आधुनिक काल

मउआ मेवा वेर कलेवा गुलगुच बड़ी मिठाई ।

              इतनी चीजें चाहो तो गुड़ाने करौ सगाई ।।

बुंदेलखंड में प्रचलित इस कहावत से यह स्पष्ट है कि किसी दूसरे जनपद की पहचान भोजन से भले ही न बने, पर इस जनपद के एक बहुत बड़े भाग गुड़ाने (गोंडवाने) और समूचे अंचल को महुआ, बेर और गुलगुच (महुए का पका फल) से जाना जाता है । महुआ और बेर इस अंचल के जनपदीय वृक्ष हैं, बहुत ही लोकप्रिय । इसी वजह से महुआ को मेवा, बेर को कलेवा (नाश्ता) और गुलगुच को सर्वोत्तम मिष्टान्न का गौरव मिला है । बुंदेलखंडी गायिका ने अपने प्रियतम के आने का संदेश पाकर महुए भूनकर रख लिए हैं और लटा कूट कर ।   भुने हुए महुओं को कूट कर उनमें गरी, चिरौंजी आदि मेवा मिलाकर छोटी रोटी (कुचैया) की तरह बनाया गया खाद्य 'लटा' कहलाता है, जो इस अंचल का विशिष्ट भोज्य रहा है । नायिका ने ऐसे ही विशिष्ट भोज्य बनाये थे, पर उसके साजन गाँव के पास से निकल गए और उसके घर नहीं आए-

               मउआ मोरें भुँजे धरे हैं, लटा धरे हैं कूट ।

               ग्योंड़े होकें साजन कड़ गये, कौन बात की चूक ।।

       इन पंक्तियों में भी महुए को सर्वोपरि महत्त्व मिला है । वैसे तो भोजन को उचित स्थान न देनेवाला व्यक्ति 'पेट भरे से काम गकरिया काऊ की' को ही मानता है, लेकिन आम आदमी की धारणा है-'खाबे कों मउआ, पैरबे कों अमौआ ।'   यदि भोजन में महुआ मिले और वस्र में अमौआ, तो व्यक्ति संतुष्ट रहता है । अमौआ आम के पत्तों से बने रंग में रँगा या आम के रंग का कपड़ा विशेष है । किसी समय अमौआ बहुत प्रचलित रहा होगा और उसमें लोक की रुचि रही होगी, क्योंकि वस्र के चयन में लोकरुचि का हाथ रहता है-'कपड़ा पैरै जग भाता, खाना खैये मन भाता ।' रुचि का ध्यान तो अलग है लोक ने कुछ नियंत्रण और वर्जनाएँ भी स्थिर की हैं । कपड़ों के संबंध में लोकमान्यता है कि 'कपड़ा पैरै तीन बार, बुद्ध-बृहस्पत-सुक्रवार' अर्थात् नया वस्र पहिनने के लिए तीन दिन शुभ हैं । पूस में नया वस्र नहीं पहना जाता । नया वस्र देव या कन्या को स्पर्श कर पहनना चाहिए । ये लोकविश्वास बदलते भी रहते हैं । भोजन के संबंध में भी कुछ लोकमान्यताएँ हैं, उनमें से एक देखें-

               चैत मीठी चीमरी बैसाख मीठो मठा

               जेठ मीठी डोबरी असाढ़ मीठे लटा ।

               सावन मीठी खीर-खाँड़ भादों भुँजे चना ।

               क्वाँर मीठी काँकरी ल्याव कोंरी टोर कें ।

               कातिक मीठी कुदई दही डारो मोर कें ।

               अगहन खाव जूनरी भुर्रा नीबू जोर कें ।                

               पूस मीठी खीचरी गुर डारो फोर कें ।

               माँव मीठे पोंड़ा बेर फागुन होरा बालें ।

               समै-समै की मीठी चीजें सुगर खबैया खाबें ।।-१

       समय-समय पर भोजन पर नियंत्रण रखने के लिए वर्जनाएँ भी लेकप्रचलित थीं, एक उदाहरण देखें-

               चैतै गुर बैसाखै तेल, जेठै मउआ असाढ़ै बेल ।

               सावन भाजी भादों मही, क्वाँर करेला कातिक दही ।

               अघनै जीरो पूसै धना, माघै मिसरी फागुन चना ।

               इतनी चीजें खैहौ सभी, मरहौ नईं तो परहौ सही ।।-२

       लोक में भोजन-संबंधी और भी अनुभव मान्यताओं की तरह स्वीकृत हुए हैं, जैसे पुराना पान और नया घी भाग्य से ही प्राप्त होता है-'पान पुरानो घी नओ उर कुलवंती नार, जे तीनों तब पाइये जब प्रसन्न करतार ।' गकरियाँ (छोटी-मोटी पनपथू रोटियाँ जो अंगरों पर सेंकी जाती हैं) गुड़ और घी के साथ खायी जाती हैं-'खाई गकरियाँ गुर-घी सें, डुकरा लग गओ हमाये जी सें ।' भोजन के बाद तुरंत पेशाब करने से व्यक्ति बीमार नहीं पड़ता-'खाकें मूतै, सोबै बायें ।   ताके बैद कबहुँ ना जायों ।।' इसी तरह भोजन के पहले बेर और बाद में गन्ना लाभदायक होता है-'भूँकें बेर, अघाने पोंड़ा ।' (अघानेउभोजन से तृप्त होने के बाद) भूख लगने पर चना भी चिरौंजी जैसा लगता है-'भूँक में चना चिरौंजी ।' जो पच जाय, वही खाना चाहिए-'पचै सो खाबै रुचै सो बोलै ।' कच्चे चावल की कनी भाले की नोक की तरह हानिकर होती है-'चाँवर की कनी उर भाला की अनी ।' बहुत सारी बातें हैं, प्रमुख तो यह है कि भोजन का असर बहुत अधिक होता है-'जीकौ खाइये भतवा, उकौ गाइये गितवा ।' जिसका अन्न खाय, उसकी प्रशंसा करे । यहाँ तक कि 'जिकौ खाबै, ऊकौ बजाबै ।' अर्थात् भोजन की निभाना पड़ती है । प्रकट है कि व्यक्ति पर इतना, प्रभाव इस तध्य का साक्षी है कि लोक और लोकसंस्कृति भी उसके प्रभाव से अछूते नहीं रह सकते । कहावत है कि 'जैसो अन्न खाव, ऊसोई मन होत ।' और भोजन की ही बात नहीं, पेय का भी असर देखें-

               जैसो अनजल खाइये, तैसोई मन होय ।

               जैसो पानी पीजिए, तैसी बानी होय ।।

            इसमें संदेह नहीं कि लोकसंस्कृति में लोकदर्शन और लोकधर्म अधिक महत्त्व के हैं, पर तरह-तरह के भोजन-पेय, अनेक बेश-भूषाएँ, उज्ज्वल कपड़े, सूर्य-चंद्र की किरणों की तरह दमकते आभूषण, नाना प्रसाधन भी किसी अंचल की संस्कृति के प्रतीक हैं । उनमें निरंतर बदलाव और विकास होता रहता है । कुछ लोगों के मन में यह धारणा हे कि धोती, साड़ी, कंचुकी आदि आज भी पहनी जाती है, जबकि वह हजार-दो हजार साल पहले भी थी । इसी तरह आभूषण, भोजन और पेय के संबंध में यह विश्वास जम गया है कि उनमें कोई परिवर्तन नहीं आया । लेकिन सूक्ष्म     अनुशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि हर युग में भोजन-पेय और   वस्राभरण अथवा उनके प्रयोग करने के ढंग में अंतर आ जाता है । दूसरे शब्दों में, भोजन-पेय और वस्राभरण का अपना इतिहास है, जिसे समझने पर लोकसंस्कृति के विकास का सही पता लग सकता है ।  

प्रागौतिहासिक युग

कुछ विद्वानों ने प्रागौतिहासिक गुहाचित्रों के अनुशीलन से यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि आदिम भोज्य पशुओं का मांस था, जिसे वे सामूहिक आखेट से प्राप्त करते थे और आग में   भूनकर सामूहिक भोज के रुप में खाते थे । लेकिन यह मान्यता पूर्णतया सही नहीं है, क्योंकि आखेट-युग के पूर्व आदिमानव वृक्ष के फूलों-फलों का ही भोजन करता था और जल ही उसका पेय था । वस्रों का ज्ञान उसे था ही नहीं । इसलिए वे नग्न ही रहते थे ।

       बुंदेलखंड में पुलिन्द, निषाद, शबर, रामठ, दाँगी, कोल, भील आदि आर्येतर जातियाँ रहती थीं, जिनके बारे में सही जानकारी मिलना बहुत कठिन है । गोंड़ भी प्रभावशाली रहे । अतएव इस अंचल के भोजन-पेय और वस्राभरण के इतिहास पर इन जातियों का प्रभाव अधिक रहा है । दूसरे, रामायण-काल तक इस जनपद के इतिहास की जानकारी नहीं मिलती । इस वजह से महाभारत-काल के पूर्व के युग को प्रागैतिहासिक कहा जाय, तो किसी आपत्ति का प्रश्न नहीं आता ।

       लोकप्रचलन में इस अंचल का नाम 'गुड़ाना' है, जिससे सिद्ध है कि गोंड़ों के लोकजीवन ने इसकी लोकसंस्कृति पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है । गोंड़ लोग जंगली फल-फूल, पत्ते, कन्दमूल, महुआ, अचार, तेंदू, भेलवाँ, केवलार आदि खाते थे । बाद में जंगली पशुओं और पंछियों का मांस भी उनका भोज्य बन गया । कभी-कभी पालतू पशु-बकरे, भेंड़ें, भैंस, गाय, बैल आदि भी काम आ जाते थे । महुए से निकाली शराब उनका मुख्य पेय थी । वनज वस्तुओं पर उनका पूरा अधिकार था । उनका वेष भी बिल्कुल सादा रहा है । पहले तो वे नग्न ही रहते थे, बाद में वृक्षों की छाल से लँगोटी लगाने लगे और फिर कपड़े की लँगोटी उनके शरीर को ढ्ँकनेवाली एकमात्र पोशाक रही है । पंछियों के पंख उनके आभूषण जैसे थे ।

       दूसरी प्रमुख जातियाँ पुलिन्द और शबर थीं ।   इनका आहार मधु और मांस था । प्रमुख पेय शराब, पान-गोष्ठियों के आनंद का मूल कारण था । ये जंगली पशुओं और पक्षियों का मांस पसंद करते थे । जंगली फल बीनकर उन्हें खाना या सुखाकर बाद के लिए रखना उनकी दिनचर्या में शामिल था ।   महुए का आसव या चुआयार हुआ मद्य उनके हर घर में, हर समय मिल जाता था । वे गोंड़ों की तरह ही एक छोटे कपड़े से अपने कटि-भाग को ढ्ँक लेते थे । बालों में कौओं के पंखे लगाना तथा नागमणि, कौंड़ी, सीपी आदि से अंगों को सजाना उनकी आभूषणप्रियता के साक्ष्य हैं ।

महा भारत-काल

इस युग में चेदि और दशार्ण जनपदों ने अपना एक निश्चित स्थान बना लिया था । महाभारत में उनकी प्रशंसा के वर्णन मिलते हैं । आदि पर्व में चेदि जनपद को एक समृद्ध और शक्तिशाली इकाई बताया गया है । वस्तुत: बुंदेलखंड की वन्यसंस्कृति में एक विशेष परिवर्तन तब आया, जब आर्यों की आश्रमी संस्कृति ने यहाँ प्रवेश किया । भोजन-पेय की सामग्री और उसके प्रयोग के ढंग में भी अंतर आया । जंगल में रहने वाले तपस्वी या तो केवल जल पीकर रहते थे, या वायु ।   कुछ केवल पत्ते चबाकर तपस्या करते थे । आसन के लिए हिंसक पशुओं के चर्म का प्रयोग होता था । लेकिन चेदिनरेश वसु उपरिचर, दमघोष, शिशुपाल आदि के ऐश्वर्य-वर्णन से स्पष्ट है कि इस जनपद में भी उन सभी भोज्यों का प्रयोग होता था, जिनका उल्लेख महाभारत में यत्र-तत्र हुआ है । लोगों में शाकाहारी भोजन आधिक प्रचलित था । चावल की बनी बहुत-सी भोज्य वस्तुएँ, कई प्रकार की चटनी, मधुर पेयों के अलावा दूध, दही, मक्खन, घी जैसे शक्तिवर्द्धक पदार्थ भी अपनी-अपनी सामध्र्य के अनुसार गृहीत होते थे । लोग जिसका अन्न खाते थे, उस पर हथियार नहीं चलाते थे । बड़े भोज देने वालों का समाज में सम्मान था ।

       जनपद के लोगों के वस्र और पहनावा सादे थे । पुरुष एक उत्तरीय वस्र जो शीरीर को लपेटता था और दूसरा अधोवस्र, जो कटि में बाँधा जाता था, प्रयोग में लाते थे । दोनों   बिना सिले सूती या रेशमी होते थे । सिर पर कई तरह की सफेद और रंगीन पगड़ियाँ शोभा देती थीं । स्री अधोवस्र को साड़ी की तरह और उत्तरीय को ओढ़नी की तरह पहनती थी । सोने और चाँदी के आभूषणों का प्रयोग स्री-पुरुष-दोनों करते थे ।   सुगंधित पुष्पों का चयन कर उनके आभूषण बनाना और उनसे अंग-प्रत्यंग को सजाना एक कला मानी जाती थी । उत्सवों में तो देवताओं के प्रतीकों को भी आभूषित किया जाता था ।   (महाभारत, आदिपर्व अध्याय ६३, छंद २०-२१)

जन पद काल

चेदि और दशार्ण जनपद राजनीतिक इकाई तो थे ही, पर धीरे-धीरे सांस्कृतिक इकाई भी बनने लगे थे ।   उनमें अनार्य और आर्य संस्कारों का समन्वय हो चुका था, इसलिए वैदिक युग के भोज्य यहाँ प्रचलित होने लगे थे । पुआ और भात उच्च वर्ग में प्रिय हो गया था । 'सत्तू' भी इसी समय आया ।   अमरस और शकरकन्द प्रयुक्त हुए । मांस आदिवासियों में पहले से ही प्रिय था, वह अब भी कई रुपों में लिया जाने लगा था ।   गन्ना, फल और तरकारियाँ आदि उत्पन्न होने लगे ते । भोजन में स्वच्छता और छुआछूत का ध्यान रखा जाता था । नीची जातियों के साथ उच्च जातियों के लोग भोजन नहीं करते थे ।

       सामान्यत: लोग धोती, दुपट्टा और पगड़ी पहनते थे । धनी वर्ग के स्री और पुरुष कंचुक भी प्रयोग में लाते थे ।   आदिवासियों में अधोवस्र या लँगोटी ही प्रमुख था । उनकी स्रीयाँ उत्तरीय नहीं पहनती थीं, जबकि उच्च वर्ग की स्रियों में साड़ी प्रचलित हो गयी थी ।   विशेष अवसरों पर विशेष वर्ग के लोग रंगीन वस्र या रेशमी कपड़े और सोने-चाँदी के आभूषण धारण करते थे । कहीं-कहीं तृण के बने वस्र विशेष रुचिपूर्वक पहने जोते थे ।   सन या छाल भी कपड़े बनाने में प्रयुक्त होती थी । ऊन के कम्बल शीत ॠतु में उपयोगी होते थे । साँची में एक जगह पैर ढकने बाले जूते की आकृति प्रदर्शित की गयी है, जिससे ज्ञात होता है कि जूतों का स्थान भी बन चुका था । इस समय का वृश्चिकालिक आकार, जो जूते की नोक पर बिच्छू की पूँछ के अलंकरण से कहा लाने लगा, बुंदेलखंड में आज भी प्रचलित है और उसे गाँव के लोग शौक से पहनते हैं । लकड़ी की खड़ाऊँ भी चलन में थी ।

       महाभारत-काल से आये आभूषण इस अवधि में भी प्रचलित रहे । कुण्डल, स्वर्णमाला, केयूर, सिक्कों का हार आदि आभूषण प्रमुख थे ।   स्रियों की तरह पुरुष सोने के कुण्डल पहनते थे । दमयंती के कुण्डल रत्नों और मणियों के थे । करधनी के पहनने का चलन था । कमलपुष्पों से बनी कमलमाला और सोने की हेममाला से कमला और हेममालिनी नाम रखे गए हैं ।

मौय -शुंग काल

इस युग में बुंदेलखंड के संबंध में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है । साँची और भरहुत की मूर्तियों तथा अशोक के इस क्षेत्र में प्राप्त अभिलेखों से ही कुछ निष्कर्ष लिये जा सकते हैं । महाभारत-काल में यादवों की संस्कृति ने दूध और दूध से बनी मक्खन, घी, दही, छाँछ जैसी पौष्टिक वस्तुओं को प्रधानता दी थी, जो इस युग में भी मान्य रही । इस जनपद में वनों की अधिकता ने वनोपज की सुविधा दी थी, इस कारण शहद, जंगली फल, कन्द आदि भी भोज्य बने रहे । मैदानों में उच्च वर्ग के लोगों का भोजन चावल और गेहूँ पर निर्भर था, किन्तु मध्यम वर्ग जौ, ज्वार आदि से पेट भरता था । उत्सवों या सामूहिक आनन्द के अवसरों पर मधुरस या महुए की मदिरा का पान सभी करते थे । बोद्ध-धर्म द्वारा प्रचारित अहिंसा के बावजूद मांस-भक्षण बना रहा । भागवत-धर्म के फैलाव ने सात्विक आहार पर बल दिया था, जिससे विभिन्न फलों के रस, औषधियों और पुष्पों से बने पेय प्रयुक्त होने लगे थे ।

       भरहुत की मूर्तियों की वेश-भूषा के अनुसार पुरुष घुटनों तक लटकती धोती, बटी हुई रस्सियों से बना कमरबंद, एड़ियों तक लटकता पटका, कंधों पर दुपट्टा और सिर पर पगड़ी या साफा पहनते थे । उच्च वर्ग में रंगीन वस्र और कामदार पगड़ियाँ प्रचलित थीं । रेशम, क्षौम और कपास के कपड़े सर्वत्र प्राप्त रहते थे । स्री की घुटनों तक साड़ी या धोती, करधनी और कमरबंद से बँधी रहती थी तथा उसी कमरबंद से दोनों पैरों के बीच लटकता लहरियादार पटका एक नयी धज बना देता था । शरीर के ऊपर का भाग-अधिकतर नग्न दिखाया गया है, लेकिन एक दो में मलमल की चादर की संकेत-रेखाएँ उत्कीर्ण हैं । सिर पर कामदार ओढ़नी सुशोभित है । उच्च वर्ग की स्रियाँ रेशमी और रंगीन वस्र पहनती थीं, जबकि मध्यम वर्ग की अधिकतर सूती । विधवाएँ श्वेत वस्र ही धारण करती थीं । साधु कौपीन और चादर पहनते थे या फिर वल्कल ।

       स्री और पुरुष, दोनों सोने-चाँदी के आभूषण पहनते थे । उनमें तरह-तरह की कारीगरी और रत्नों का जड़ाव होता था । भरहुत में कुण्डल, हार, कंठे, बाहुवलय, करधनी, नूपुर आदि भाँति-भाँति के आभूषण उत्कीर्ण हैं ।-३   पुरुष कोनों में कुण्डल, गले में कंठा, वक्ष पर हार और बाहुओं में अंगद पहलते थे, जबकि स्री करधनी, तौक, मोहनमाला, कुण्डल, सीसमाँग, कड़े और चूड़ियाँ । कटि की करधनी और गले का तौक कई लड़ियों के होते थे । छोटी-छोटी घंटियों से बनी करधनी को क्षुद्रघंटिका कहते थे । पुष्पों के आभूषण भी आकर्षण के साधन माने जाते थे । भरहुत में जहाँ लोकदेवताओं का अंकन है, वहाँ लोकसंस्कृति के विभिन्न प्रसाधनों का भी । लेकिन साँची में लोकसंस्कृति की धारा उतनी गतिवान् नहीं है ।

नाग -वाकाटक-काल

नाग बेसनगर (विदिशा) और पद्मावती (पवाया) को केन्द्र बनाकर लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष राज्य करते रहे और वाकाटक ढाई सौ वर्ष । इसी युग में गुप्त नरेशों का भी इस अंचल के एक भाग पर अधिकार रहा । अतएव यह चार-पाँच सौ वर्षों की कालावधि बुंदेलखंड के ही नहीं, भारत के इतिहास में विशेष महत्त्वपूर्ण है ।   आहार-पेय और वस्राभरण की दृष्टि से भी । इस समय सभी पाँचों प्रकार के आहार-पेय-भक्ष्य, भोज्य, लेह्य,चोष्य और पेय सुलभ थे । गेहूँ और जौ की रोटी, कई प्रकार के चावल, गुड़-घी से बने आटे के लड्डू आदि उच्च वर्ग के खाद्य थे ।   दूध, दही, शहद, मक्खन और घी काफी मात्रा में प्राप्त रहते थे । फाह्यान ने लिखा है कि समूचे मध्यदेश में जीवों का मारना, सुरा पीना और प्याज-लहसुन खाना अनजाना था, परन्तु यह पूर्णतया सही नहीं है ।   इस अंचल में वन्य जातियाँ जँगली फल और मांस खाती थीं । साथ ही निम्न जातियों और विशेष अवसरों पर सामन्ती वर्ग में भी मांस का चलन था । सुरा-पान का प्रचलन बढ़ रहा था । महुए से बना 'पुष्पासव' इस अंचल का विशिष्ट पेय था । भोजन के बाद ताम्बूल खाने का चलन हर वर्ग में था ।  

       बेसनगर और पवाया में प्राप्त मूर्तियों से इस युग के वस्राभरणों का पता चलता है । बेसनगर की यक्षी-यक्ष मूर्तियों में सिर पर पगड़ी, कंधों और भुजाओं पर उत्तरीय (बंधन छारी पर) और नीचे कटि में करधनी से बंधी धोती उत्कीर्ण है । आभूषणों के रुप में कुण्डल, कंठा, हार और अंगद सामान्य हैं । पवाया में प्राप्त माणिभद्र यक्ष का परिधान धोती, उत्तरीय या अंगोछा और बंडी है । बंडी घुटनों तक है और कटि पर साधारण पट्टी की गाँठ-सी है । अंगोछा का एक छोर दायीं भुजा पर लिपटा है और दूसरा पीछे लटक रहा है । गले में हार, भुजाओं में भुजबंद, कलाइयों में कंगन उसे अलंकृत करने में सक्षम हैं । विष्णु की मूर्ति के सिर पर मुकुट, गले में हार और हाथों में कंगन सुशोभित हैं । नाग राजा की मूर्ति का अलंकरण और वेशभूषा राजसी है । संगीत-समारोह प्रदर्शित करते एक प्रस्तरखंड में एक नर्तकी की मूर्ति के उरोजों पर एक लम्बा वस्र बँधा हुआ है, जिससे प्रतीत होता है कि चोली या स्तनांशुक का प्रयोग प्रारम्भ हो गया था । हाथों में चूड़ियाँ, साड़ी के दोनों और किंकणियों की झालर, पैरों में चूड़े और कानों में झुमकीदार कर्णाभूषण मूर्ति को सौष्ठव देते हैं ।-४   नारी का अधोवस्र जहाँ साड़ी था, वहाँ नीवीबंध से बँधा घाघरा भी । घाघरे का प्रचलन बुंदेलखंड में अभी-अभी तक रहा है । नवविवाहिताएँ रेशमी वस्र धारण करती थीं । साँची में सकच्छ (काँछ लगाकर) साड़ी पहनने का चलन अंकित है, जो बुंदेलखंड में आज तक प्रचलित है । साँची में सिले वस्रों-कंचुक और जाँघिया का प्रमाण मिलता है । विदेशी परिधान का प्रभाव भी इस काल की एक विशेषता है ।

हष काल

डॉ. मोतीचन्द्र ने अपनी पुस्तक 'प्राचीन भारतीय वेश-भूषा' में गुप्त युग की वेशभूषा का विशद वर्णन किया है । उसमें ब्राह्मणों, राज के पदाधिकारियों, प्रतिहारियों, सिपाहियों, घुड़सवारों, फीलवानों, शिकारियों, वादकों, विदूषकों, नर्तकियों, विदेशियों आदि के परिधान और अलंकारों के प्रामाणिक उल्लेख हैं । लेकिन इस अंचल में प्रामाणिक जानकारी के अभाव के कारण इस युग की वेश-भूषा और भोजन-पेय का विवरण संभव नहीं है । गुप्तकालीन देवगढ़ की मूर्तियों में 'यशोदा का पहरावा आजकल के बंजारों की पोशाक जैसा है । वह सिर को ढकती हुई एक चादर, भरी बाँह का कुरता जिसके बायीं ओर घुंडी है और लहँगा पहने दिखलायी गयी है ।   यह वेशभूषा भारतीय कला में सर्वप्रथम प्रदर्शित की गयी है और बहुत संभव है कि जाट इस पहरावे को पाँचवीं या छठी शताब्दी में मध्य एशिया से यहाँ लाये ।'-५ विष्णु-मूर्ति के आभूषणों में किरीट, कुण्डल, हार, केयूर, कंटक और वनमाला हैं । गुप्तकाल के भूभरा मंदिर में एक नरसिंहावादक कुलाहनुमा टोपी, चाकदार कंचुक और पाजामा पहने है । हुडुक्कवादक चोटीदार टोपी, कामदार कोट और पाजामा धारण किये है । तीसरा गायक कूर्पासक और सकच्छ धोती पहने है । शहनाईवादक की टोपी हलकी चोटीदार, ढोलवादक की टोपी गोल और नर्तक की टोपी झालरदार है ।-६ इनमें तीकरे गायक की पोशाक बुंदेलखंडी है, जबकि अन्य की बाहर से प्रभावित ।

       महाकवि बाण ने अपने ग्रंथों-'हर्षचरित' और 'कादम्बरी' में विन्ध्याटवी का वर्णन किया है, जिससे हर्षकालीन आटविक संस्कृति का एक सहज चित्र अंकित हो जाता है और इस अंचल के वन्य-लेक के आहार, परिधान एवं अलंकार का सही पता लग जाता है ।   'हर्षचरित' के अनुसार साठी चाव, तंडुल, आटा, सत्तू, जंगली फल, कंद और पशुओं का शिकार उनका आहार था । वे गन्ना उत्पादक थे और ईख से गुड़ बनाते थे । पाटल शर्करा, शहद, खंड शर्करा जैसे मिष्ट पदार्थों का सेवन करते थे । जलोपज कमल ककड़ी, कमलगट्टा आदि का भी प्रयोग होता था । एरण्ड और तेल का उन्हें ज्ञान था । जंगल की औषधियों, जैसे बचा, तमाल के बीज, मैलफल आदि के द्वारा वे उपचार भी करते थे ।   रवाँस (राज माष), खीरा, ककड़ी, कुम्हड़ा, बंगक (बैंगन), लौंकी की सब्जी लेते थे । बेर और खिरनी (खिन्नी) सुखाकर रखते थे । महुए का आसव और चुआया हुआ मद्य उनका प्रिय पेय था, जो हर घर में मौजूद रहता था ।

       अटवी की वन्य जाती शबर थी । उसके सेनापति का चित्रण वाण ने 'कादम्बरी' में किया है ।   वह लाखी रंग से रेशमी   वस्र पहने था, जिससे स्पष्ट है कि इस अंचल में रेशम का प्रचलन वन्य जातियों तक में हो गया था । शबर घुँघचीं और मोतियों को मिलाकर गूँथे हुए हार, स्थूल कौड़ियों की मालाएँ,   साँपों की मणियाँ आभूषण के रुप में पहनते थे । हर्षचरित में उनके आभूषणों-कच्चे शीशे का बाला और गोदंती मणि से जड़े हुए राँगे के कड़ा का उल्लेख हुआ है ।

       'हर्षचरित' में छ: प्रकार के वस्र बताये गये हैं-क्षौम, बादर, दुकूल, लालातन्तुज, अंशुक और नेत्र । क्षौम और दुकूल रेशों से तैयार किये जाते थे, जबकि अंशुक और नेत्र रेशमी वस्र थे ।   बादर कार्पास या सूती कपड़ा था और लाला तन्तुज पत्रोर्ण या पटोर रेशम था । इनमें किस तरह के वस्र इस अंचल में अधिक प्रचलन में थे, यह खोज करना कठिन है । पलंग पर बिछाने के लिए निचोलक (चादर), राजाओं के पहनने के कंचुक, बारबाण, चीनचोलक और कूर्पासक-चार प्रकार के कोट तथा स्वस्थान, पिंगा और सतुला-तीन प्रकार के पैजामों का प्रयोग भी होता था, लेकिन इनमें निचोलक को छोड़कर सभी विदेशी पहरावे थे, जिनका चलन ईरान, अफगानिस्तान, चीन और मध्य एशिया के सांस्कृतिक सम्पर्क के फलस्वरुप हुआ था । इस अंचल में इन विदेशी वस्रों के प्रसार का प्रमाण देवगढ़ के मंदिर की एक नर्तकी   की वेश-भूषा में मिलता है, जो तंग मोहरी का पाजामा स्वस्थान (सूथना) पहने हुए है । सूथना नेत्र (रेशम) का बना हुआ फूल-पत्ती के काम वाले फूलदार वस्र का नाम है ।   इससे प्रतीत होता है कि अन्य प्रकार के विदेशी वस्र भी प्रचलित रहे होंगे ।

बाण के अनुसार पुरुष कानों में कर्णावतंस (बालियाँ), त्रिकण्टक (दो मुक्ताओं के बीच पन्ना जूड़ा हुआ त्रिकोणकण्टक), कर्णोत्पल, पत्रांकुर कर्णपूर और कुण्डल या मणिकुण्डल; गले में मुक्ताहार या हार; हाथों में कंकण या कड़े तथा कटि में रशना (करधनी) पहनते थे । वे अपने बालों को 'बालपाश' से बाँधते थे । यही आभूषण स्रियाँ धारण करती थीं । इनके सिवा वक्ष पर रत्नों की प्रालम्ब माला, सिर पर केशों में चूड़ामणि मकरिका, माथे पर टिकुली, पैरों में नूपुर व हंसक नूपुर का भी उल्लेख मिलता है । 'हर्षचरित' में कई स्थलों पर पुष्पों के आभूषणों का भी वर्णन है । इस अंचल में उक्त आभूषणों का चलन न्यूनाधिक रुप में रहा है ।

'हर्षचरित' में छ: प्रकार के वस्र बताये गये हैं-क्षौम, बादर, दुकूल, लालातन्तुज, अंशुक और नेत्र । क्षौम और दुकूल रेशों से तैयार किये जाते थे, जबकि अंशुक और नेत्र रेशमी वस्र थे ।   बादर कार्पास या सूती कपड़ा था और लाला तन्तुज पत्रोर्ण या पटोर रेशम था । इनमें किस तरह के वस्र इस अंचल में अधिक प्रचलन में थे, यह खोज करना कठिन है । पलंग पर बिछाने के लिए निचोलक (चादर),   राजाओं के पहनने के कंचुक, बारबाण, चीनचोलक और कूर्पासक-चार प्रकार के कोट तथा स्वस्थान, पिंगा और सतुला-तीन प्रकार के पैजामों का प्रयोग भी होता था, लेकिन इनमें निचोलक को छोड़कर सभी विदेशी पहरावे थे, जिनका चलन ईरान, अफगानिस्तान, चीन और मध्य एशिया के सांस्कृतिक सम्पर्क के फलस्वरुप हुआ था । इस अंचल में इन विदेशी वस्रों के प्रसार का प्रमाण देवगढ़ के मंदिर की एक नर्तकी   की वेश-भूषा में मिलता है, जो तंग मोहरी का पाजामा स्वस्थान (सूथना) पहने हुए है । सूथना नेत्र (रेशम) का बना हुआ फूल-पत्ती के काम वाले फूलदार वस्र का नाम है ।   इससे प्रतीत होता है कि अन्य प्रकार के विदेशी वस्र भी प्रचलित रहे होंगे ।  

बाण के अनुसार पुरुष कानों में कर्णावतंस (बालियाँ), त्रिकण्टक (दो मुक्ताओं के बीच पन्ना जूड़ा हुआ त्रिकोणकण्टक), कर्णोत्पल, पत्रांकुर कर्णपूर और कुण्डल या मणिकुण्डल; गले में मुक्ताहार या हार; हाथों में कंकण या कड़े तथा कटि में रशना (करधनी) पहनते थे । वे अपने बालों को 'बालपाश' से बाँधते थे । यही आभूषण स्रियाँ धारण करती थीं । इनके सिवा वक्ष पर रत्नों की प्रालम्ब माला, सिर पर केशों में चूड़ामणि मकरिका, माथे पर टिकुली, पैरों में नूपुर व हंसक नूपुर का भी उल्लेख मिलता है । 'हर्षचरित' में कई स्थलों पर पुष्पों के आभूषणों का भी वर्णन है । है । इस अंचल में उक्त आभूषणों का चलन न्यूनाधिक रुप में रहा है ।

चंदेल काल
चंदेलकाल बुंदेलखंड की समृद्धि और सुख का प्रतीक रहा है, इसलिए इस समय उसके आहार में भी विविधता और सम्पन्नता दिखाई पड़ती है । सरोवरों के जगह-जगह मौजूद होने से कृषि   और उसकी उपज ने इस अंचल को भर दिया था । गोहूँ, चावल, जौ आदि से निर्मित पक्वान्न, पशुओं से प्राप्त दूध, दही, घी, मक्खन और उनसे बने मिष्टान्न; वनोपज से प्राप्त फल-कंद; जलाशयों से प्राप्त कमलककड़ी, कमलगट्टे, सिंघाड़े आदि; गन्ना-ईख से बना राब, गुड़; शक्कर और उनसे बने रसीले व्यंजन तथा अनेक प्रकार की सब्जियाँ भोजन-पेय को पौष्टिक और शक्तिप्रदायक बनाने में समर्थ हुईं ।   जैन और बौद्ध-धर्म द्वारा मांस-भक्षण पर नियंत्रण से शाकाहार को बहुत बढ़ावा मिला था । गाय और नंदी (बैल) की पूजा तथा कृषि में उनकी उपयोगिता से उनका मांस बिल्कुल वर्जित था ।   दूसरे पशुओं का मांस-भक्षण कुछ जातियों और कुछ विशेष अवसरों-श्राद्ध और यज्ञों पर किया जाता था । सुरा-पान भी वर्जित था, किन्तु वन्य जातियों, शूद्रों और क्षत्रियों में नियंत्रण नहीं हो सका । राज्य करने वाले क्षत्रियों के लिए अलबेरुनी लिखता है कि 'कुछ भी खाने के पहले वे मद्य पीते हैं, तब खाने के लिए बैठते हैं' (सचाउ भाग १, पृ. १८८) । लेकिन यह चंदेलनरेशों के लिए सत्य नहीं है । सामान्य क्षत्रिय और सामंत मद्य-पान करते थे ।

जातीय कट्टरता इतनी अधिक थी कि सहभोज असंभव हो गया था और अस्पृश्यता की भावना बढ़ गयी थी ।-७ इस युग में नियम इतने कठोर हो गये थे कि बिना पैर धोये ब्राह्मण भी भोजन नही करता था ।-८   दूसरी तरफ भिक्षुओं तक में भ्रष्टाचार बढ़ गया था और वे 'अहो सुराया: सौंदर्यम्' कहकर मद्य पिते थे । इन दोनों सीमाओं के बिच जेजामुक्ति की सामाजिकता झूलती रहती थी । नियमों के पालन न करने पर किसी भी व्यक्ति को समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता था ।

इस काल की मूर्तियों से वस्रों का अनुमान लगाना कठिन नहीं है । महोबा में प्राप्त सिंहनाद अवलोकितेश्वर से प्रतीत होता है कि पुरुष अधोभाग में घुटन्ना और उर्ध्वभाग में अंशुक या उपरना धारण करते थे । अधोभाग में नीचे तक की लहरियादार धोती के भी प्रमाण मिलते हैं, जिसे बुंदेलखंड में 'कुचीताला' कहते हैं । इस तरह का वस्र चंदेली और कलचुरी मूर्तियों में अत्यंद कलात्मक ढंग से उत्कीर्ण किया गया है । जाँघिये या घुटन्ने का प्रयोग भी होता था । भेड़ाघाट के गौरीशंकर मंदिर में नर्तित गणेश की प्रतिमा उत्तरीय और जाँघिया पहने है । वत्सराज के 'रुपकषटकम् में योगप का उल्लेख है, जिसे बुंदेलखंड में अँचला या अँचरा कहते हैं और जो पीठ से घुटनों तक होता है । तेवर में प्राप्त अवलोकितेश्वर की प्रतिमा इस परिधान से सुशोभित है । पायजामे का प्रचलन शुरु हो गया था, पर उसका प्रयोग इस अंचल में कम था । धोती, अँगोछा और दुपट्टा के साथ कूर्पासक या कुरती का प्रयोग होता था । पगड़ी तो प्रतिष्ठा की प्रतीक निरंतर बनी रही । आल्हा लोकगाथा में पगिया या पाग का उल्लेख कई बार हुआ है ।

       स्रियाँ अँगिया, चोली और फतुही जैसे वस्र उर्ध्वभाग में धारण करती थीं । भेड़ाघाट की एंगिनी योगिनी चोली जैसी और ॠक्षिणी अंगिया जैसी पहने हैं । स्रियों के कूर्पासक पूरी और आधी बाहों के सामने से खुलने वाले होते थे । उनके अधोवस्र लहरियादार और चुन्नटवाली लम्बे जाँघिया जैसी पैरों से सटी धोती या साड़ी होती थी, जो आज की देहाती दोकछयाऊ या कछोटादार धोतियों से मिलती-जुलती   है । पुरातत्त्वेत्ता बेगलर ने चार प्रकार के अधोवस्रों का उल्लेख किया है-९ -

       (क) पेटीकोट जिसकी गाँठ सामने की ओर होती थी । उसमें बेलबूटे भी बने होते थे । उनका कपड़ा महीन होता था ।

       (ख) लम्बा कपड़ा साड़ी के रुप में प्रयुक्त होता था ।

       (ग)   जाँघ के नीचे तक आने वाली धोती जैसा महीन वस्र, जिसकी ग्रंथि पीछे लगती थी ।  

       (घ)   टखनों तक लटकने वाला छोटा महीन वस्र ।

उक्त 'क' भाग में वर्णित पेटीकोट वस्तुत: लहँगा है, जो इस अंचल में बहुत प्रतलित रहा है और 'ख' भाग में उल्लिखित साड़ी उससे भी प्राचीन है । सकच्छ धोती या साड़ी के बाद ही लहँगे की खोज हुई थी ।

'आल्हा' गाथा में नौलखा हार की कथा-सी है, जिससे सिद्ध है कि हार गले का सर्वप्रिय आभूषण था । 'रुपकषटकम्' में भी वत्सराज की यही मान्यता है ।-१०   खजूराहो की मूर्तियों में कंठा के साथ-साथ खंगौरिया और हमेल जैसे आभूषण गले में सुशोभित हैं । एकावली भी बहुत लोकप्रिय थी । कलचुरी मूर्तियों में मालाविशेष रुप में तिलड़ी माला सामान्य थी ।   पुष्पमालाओं का श्रृंगार भी होता था । कान में कर्णफूल -११ और सिर में शीशफूल एवं बीज-१२ सभी स्रियाँ पहनती थीं । कटि में करधौनी हर चंदेली और कलचुरी मूर्ति में उतकीर्ण है ।   करधनी में सात लड़ होने के कारण उसे सतलड़ी कहलाने का गौरव मिला था । हाथों में अंगद या बरा, खग्गा, कंगन,-१३ चूड़ियाँ और अँगूठी-१४ तथा पैरों में नूपुर, साँकर या पाजजेब जैसा आभूषण,-१५   बिछिया और अनौटा पहने जाते थे । महोबा से प्राप्त नीलतारा की प्रतिमा के आभूषण बहुत स्पष्ट हैं । उसके कानों में कर्णवलय या कुण्डल जैसा आभूषण काफी बड़े आकार का है, जिसका प्रचलन मध्ययुग में नहीं मिलता । खजुराहों की मूर्तियों में पुष्पों के आभूषणों के प्रचलन की पुष्टि होती है । वत्सराज के रुपकों में भी उनका वर्णन है । इस समय पुरुष और बालक तोड़े, कड़े, कुण्डल, हार आदि पहनते थे । नाक का कोई आभूषण नहीं था, माथे पर टिकुली कंदरीय मंदिर की सुन्दरी प्रतिमा में अवश्य सुशोभित है 

खजुराहो की मूर्तियाँ गवाह हैं कि इस काल में आँखों में अंजन, अधरों में अधरराग और पैरों में आलता या महावर का प्रयोग होता था । स्री और पुरुष दोनों केश-प्रसाधन करते थे । प्रसाधन कीर इतनी विधियाँ थीं कि उनसे एक शास्र ही बन सकता है ।   विवाहित स्रियों की माँग सिन्दूर-तिलकित होती थी, जबकि विधवाओं को सिन्दूर लगाना वर्जित था । 'रुपकषटकम्' के अनूसार अंगों पर चंदन, कपूर आदि अंगराग लगाये जाते थे, पर वे उच्च वर्ग तक सीमित थे । पान-बीड़ा का सेवन सभी करते थे,-१६ क्योंकि वह श्रृंगार-प्रसाधन में   शामिल था । वेश्याएँ और कुल्टाएँ नकली अलंकरण धारण करती थीं ।-१७

तोमर काल

विष्णुदासकृत 'महाभारत' में बुंदेलखंड की ज्यौंनार के वर्णन से सिद्ध है कि इस काल में उसका रुप निश्चित हो गया था । उसमें छ: पेय और अठारह भक्ष्य होते थे । (छ रस अठारह भछ्य पुजौहौं) । बरा-बरीं, लपसी, कसार, सेव-लड्डू, मोतीचूर के लड्डू, घेवर (मैदा, घी, चीनी से बनी एक मिठाई), बाबर (?) लुचई (पूड़ी), खाजे, फेंनी, गूझा, दहोंरी (दही से बनी वस्तु), बेढ़ई (उर्द की दाल, चावल और आटे से बना पकवान्), माँड़े, रोटी कढ़ी, पकौड़ी, समोसा, पेराका (रंगों और कलाकारी से सज्जित बड़े, गूझा),   पछयावर (दही या छाँछ का मधुर पेय, जो भोजन के अंत में लिया जाता है), सिखिरिन (श्रीखंड या उससे मिलता-जुलता चीनी, गरी, केसर आदि के योग से बना दही का पेय), मठा (जीरा और नमक मिश्रित हींग के बघार से सुवासित), बासोंधी (खोवा, दूध आदि मिश्रित कर सुगंधित दूध का पेय), अनेक प्रकार का दूध, आम और इमली कार पनौ (आम और इमली के गूदे को जल में घोलकर बनाया गया आम या इमली का मीठा अथवा नमकीन पेय) सामान्यत: प्रचलित थे ।-१८ इनमें बहुत से आज तक प्रयोग में आते हैं, पर कुछ, जैसे घेवर, बाबर, दहोंरी और सिखिरिन के नाम अपरिचित-से हो गये हैं । आश्चर्य है कि समोसा उस समय भी था । भोजन के बाद तमोर (ताम्बूल या पान) दिया जाता था । 'छिताईचरित' में ज्यौंनार के साथ 'गारी' लोकगीत गाये जाने का उल्लेख है-'सुधा समान सुनावहिं गारी ।'-१९

लखनसेन-पद्मावती रास, महाभारत और छिताईचरित में पाट-पटम्बर और पाट-पटोरे कहकर सूती-रेशमी, सभी तरह के परिधान का संकेत किया गया है । 'छिताईचरित' में पाटम्बर और क्षीरोदक-दो तरह के रेशमी वस्रों का उल्लेख है-२०-'दिये साहि निरमोलक चीरा । पाटम्बर खीरोदक खीरा ।।' कुसुंभी चीर के बार-बार कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि कुसुंभ रंग के वस्र बहुत लोकप्रिय थे ।   दक्षिणी चीर-२१ देश के दक्षिणी प्रान्तों से आता था । धूपछाँही कपड़ा बनता था । सारी, कंचुकी, अँगिया, चोली, ओढ़नी और टोपीवाला परिधान नारियों का था । टोपी की जगह पुरुष टोपा पहनते थे, लेकिन पाग या पगड़ी ज्यादा प्रचलित थी ।   बागौ या अँगरखा और धोती पुरुषों का पहनावा था । टोपा और टोपी-२२ संभवत: विदेश से आये हैं, क्योंकि इसके पूर्व इनका प्रयोग नहीं मिला । 'छिताई चरित' में टोपा या टोप बादशह के सैनिकों के लिए और टोपी बादशाह के दूती के लिए प्रयुक्त की गयी हे । इस समय के सती-चीरों में स्री को लहँगा पहने ही उत्कीर्ण किया गया है,   जिससे पता चलता है कि पवित्र अवसरों पर लहँगा पहना जाता था । डॉ. मोतीचन्द्र ने उसे बुंदेलखंड का विशिष्ट वस्र बताया है ।-२३ वस्तुत: लहँगा, नुगरौ और चोली इस जनपद का जनपदीय परिधान रहा है । समकालीन ग्रंथों में आभरण शब्द को महत्त्व मिला है । तरिका या तरिवन, खुटी नकफूली, कंठश्री, मेखला, छूटी, चूरी (चूड़ी), गजमुक्तामाल, क्षुद्रघंटिका, नेवर, पहुँची, कंकन, टीका, मोतीहार, हार आदि स्रियाँ धारण करती थीं, जबकि पुरुष कंठमाल, कंठश्री, नवग्रही, कुण्डल, चौकी, कटिमेखला, चूरा, मुँदरी, कंकन, हार आदि से अपना सौन्दर्य बढ़ाते थे ।-२४   'छिताईचरित' में मेंहदी लगाना, नख रखना, पान खाना और कस्तूरी, चोवा, अरगजा (केशर, चंदन, कपूर से बना सुगंधित द्रव्य) लगाना आदि लोकसिंगार वर्णित हैं, जबकि महाभारत में कस्तूरी, कुमकुम, अगरु, सिरीखंड कपूर, सिंदूर और केश-प्रसाधन का उल्लेख है ।-२५

बुंदेल काल

१६वीं १७वीं शती में भक्ति का जोर था । एक तरफ संस्कृति की रक्षा के लिए लोकसंस्कृति बहुत प्रभावशाली बनी थी, तो दूसरी तरफ विदेशी संस्कृति के तत्त्व धीरे-धीरे जगह बना रहे थे । दोनों पक्षों को समाहित करने वाली भक्तिभरक भावना प्रधान बनकर एक समन्वयवादी संस्कृति की संरचना कर रही थी । इसी समन्वय को लेकर महाकवि तुलसी तले थे, लेकिन उन्होंने बुंदेलखंड की लोकप्रवृत्ति कभी नहीं त्यागी, वरन् उसी के कारण धरती से जुड़े । बुंदेलखंडी ज्यौंनार काफी प्रसिद्ध हो चुकी थी, इसीलिए तुलसी और हरिराम व्यास ने उसका उल्लेख किया है ।-२६ तुलसी और केशव ने ज्यौंनार में गारियाँ गाने के प्रचलन का वर्णन किया है । तुलसी ने अपने जनपद में जो देखा, उसी को ज्यों का त्यों व्यक्त कर दिया-

              १.   जेंवत देहीं मधुर धुनि गारी । लै लै नाम पुरुष अरु नारी ।।

                   समय सुहावन गारि बिराजा । हँसत राउ सुनि सहित समाजा ।।

      

              २.   गारीं मधुर सुर देहिं सुन्दरि, बिंग्य बचन सुनावहीं ।

                      X                        X                      X

                   अँचवाइ दीन्हे पान, गवने बास जहँ जाको रहो ।

       इस जनपद में ज्योंनार की गारियाँ चुटीले व्यंग्यों से भरी रहती हैं । स्रियाँ पुरुषों और स्रियों का नाम लेकर गारी दैती हैं, लेकिन उनको सुनकर सभी हास्य-विनोद में डूबे रहते हैं । तुलसी ने बालक राम के वस्राभरण का उल्लेख किया है । पीली झँगुलिया, किंकिनी, हार और नूपुर पहने हुए राम बहुत सुंदर लगते हैं । दूल्हा बनकर वे किंकिनी और नूपुर के अलावा मुक्तामाल, कुण्डल और स्वर्णमुकुट भी धारण करते हैं ।-२७ कभी-कभी वनमाल, मणिमाल, कंकन और मुक्तावली पहनते हैं । गीतावली में चौतनी शब्द आया है, जिसके अनुवाद (गीताप्रेस) में उसे चौतनी टोपी-२८ बताया गया है । वस्तुत: वह चारतनी वाला अँगरखा है जो सिले वस्रों में सबसे पुराना है । महाकवि हरिराम व्यास के एक पद में नील कंचुकी, लाल तरौटा और तनसुख की झूमक सारी का उल्लेख है, जो नारी के मुख्य परिधान हैं । तनसुख तत्कालीन विशेष वस्र है, जिसका सीधा अर्थ है-तन को सुख देने वाला । वैसे तनासुख अरबी शब्द है जिसका मतलब है- आना-जाना और जिससे जुड़ने पर 'विशेष अवसरों' पर पहनने वाला वस्र' अर्थ लगता है । झूमक सारी वह है जिसमें झूमक या झूमर टँके हों (व्यास-बानी, पद सं. ३६८-७०) ।

       तुलसी ने जहाँ सिंदूर, अंजन, करदपंण आदि श्रृंगार-प्रसाधनों का संकेत-भर किया है, वहाँ व्यासजी ने पुष्पों से वेणी गूँथना, सिंदूर और रोली लगाना, तिल धरना और तिलक लगाना, तलुओं में कुमकुम लगाना तथा महावर के प्रयोग का वर्णन कई पदों में किया है । षोडश श्रृंगार की परम्परा इस समय स्थापित हो गयी थी । १६वीं शती में खुटिला, खुभी, झलमली, ताटंक, नकबेसर, हार, पोत, गजरा, चूड़ी, पहुँची, किंकनी, नुपूर और पुष्पों के आभूषण प्रचलित थे (व्यास जी के पद सं. ३६८, ३६९ एवं ३७०) ।

       १७वीं शती में नीले निचोल के चलन का उल्लेख है (केशव ग्रंथावली, भाग २, पृ. ३८५-८६) । निचोल स्रियों के ओढ़ने का विशिष्ट वस्र था । केशव के राम गंगाजली पाग पहनते हैं ।-२९ सोलह सिंगार तो एक रुढि बनने लगा था । 'रसिकप्रिया' की टीका में कविवर्य सरदार ने उबटन, स्नान, अमल पट, जाबक, वेणी-ग्रंथन, माँग में सिंदूर भरना, ललाट में खौर, कपोल में तिल बनाना, अंगों में केसर मलना, मेंहदी, पुष्पाभूषण, स्वर्णाभूषण, मुखवास, दंत-मंजन, ताम्बूल, कज्जल को उसके अंतर्गत रखा है । इसमें केश-प्रसाधन को महत्त्व नहीं दिया गया, चंदेल-काल में तो उसकी प्रधानता थी । केशव ने एक ही छंद में सभी आभूषणों की जगमगाहट से नायिका की देह में दीपमालिका की कल्पना की है-३० -

       बिछिया अनौट बाँके घूँघरु जराय जरी, जेहरि छबीली छूद्रघंटिका की जालिका ।।

       मूँदरी उदार पौंची कंकन बलय चूरी, कण्ठ कण्ठमाल हार पहरे गुणालिका ।

       बेणीफूल सीसफूल कर्णफूल माँगफूल, खुटिला तिलक नकमोती सोहै बालिका ।

       केसवदास नील बास ज्योति जगमग रही, देह धरे स्याम संग मानो दीपमालिका ।।

       उक्त आभूषणों के अलावा ताटंक, कुण्डल, कण्ठश्री और गजरा भी प्रचलित थे । -३१   १८वीं शती में भी यही आभूषण थे । बोधाकवि ने एक छंद में उनका वर्णन किया है ।-३२   बीजबेनिया (संभवत: बीज और दाउनी), पटेला, बेनीपान नाम नये हैं । बेनिया बीज को साधती हुई आगे की अलकों को दोनों तरफ से बाँधती है अथवा बीज को साधने के लिए एक साँकर सीधी वेणी सेर जोड़ दी जाती है । सोलह श्रृंगार की रुढि सामंती वर्ग के अधिक निकट हो गयी थी, लोक में कुछ ही सिंगार प्रिय थे ।

       १८वीं शती के परिधान में जरकसी पाग के साथ तुर्रा का उल्लेख है । पुरुष कटि में पीले पट के साथ लाल कछनी पहनते थे । स्री के वस्रों में कसौनी-३३ नया है, जो स्तनों को कसने के लिए उपयोग में लाया जाता था । इस समय 'सिरोपाव' का प्रचलन था, पर दरबारी वर्ग में ।   राजा द्वारा सिरोपाव देना लोक में प्रतिष्ठा का विषय था । विलासिता के बढ़ने से दारु (शराब) का प्रयोग बढ़ गया था और उसके साथ मांस का भी । लेकिन ज्यौंनार जगत्जाहिर थीं ।-३४

       १९वीं शती में 'शत्रुजीतरासो' और 'कृष्णचद्रिका' के साक्ष्य के अनुसार कुछ थोड़े परिवर्तन हुए थे । 'सूतना' जनसामान्य का होने लगा था । सैनिक धोती के स्थान पर सूतना पहनकर रण में जाने लगे थे, उसके ऊपर फेंटा बाँधा जाता था । रियासतों में अधिकतर घुटनों तक गुलाबी धोती, हरी या खाकी कुर्ती पहनी जाती थी । भूषणों की प्रियता इतनी अधिक थी कि युद्ध में भी दोषरहित आभूषण धारण किये जाते थे-'तहँ जंग काज दूषन रहित भूषन मंडियो ।' 'कृष्णचंद्रिका' में आभूषणों की वही बहार है । उसमें गुल्क और करन्न नये नाम हैं ।-३५ पहला सिर का और दूसरा बाहु का आभूषण है । कौंचनग कौंच पर्वत में पाये जाने वाले नग से जटित है । इसी तरह जामा वस्र का प्रयोग है, पर वह सत्रहवीं शती में भी पहना जाता था । महाराज छत्रसाल का जामा धुवेला संग्रहालय में सुरक्षित है, जो छ: फीट लम्बा होगा । चोल का प्रयोग हुआ है ।-३६ चोल दक्षिण भारत का एक जनपद (आधुनिक तंजौर) था, वहाँ बना कपड़ा चोल कहलाता था ।   वैसे चोल का अर्थ वल्कल भी है और संभव है कि चोल कोई विशेष वस्र रहा हो ।

       मध्ययुग में समाज के तीन वर्ग थे-१. राजसी और सामन्ती वर्ग   २. उच्च वर्ग   ३. मध्यम और निर्धन वर्ग ।   पहले वर्ग के भोजन-पेय, वस्राभरण और श्रृंगारप्रसाधन की नकल उच्च वर्ग भी करता था, ताकि वह साधारणों के बीच अपने अहम् को स्थापित कर सके । तीसरा वर्ग ही वास्तविक लोक था और वह बहुसंख्यक होता हुआ भी दबाव में रहता था ।   वह जहाँ उच्च वर्ग कार थोड़ा-बहुत अनुसरण करता था, वहाँ अपने बीच के चलन को उससे भी अधिक महत्त्व देता था । बाहर से आनेवाले चलनों को यही वर्ग अपने में पचाकर उन्हें लोक कार बना देता था । कविवर बिहारी का गुलूबंद और पायजेब या पाजेब भले ही विदेशी रहा हो, पर लोक ने उसे अपना लिया था । बिहारी जी ने अपनी नायिकाओं में तीन-तार तरह की बिन्दी कार श्रृंगार बताया है-(१) सन के फूल की बिन्दी, (२) चावल और हल्दी पीसकर लगी बिन्दी (३) चंदन की बिन्दी (४) अभ्रक के साथ हीरा जड़ी बिन्दी ।   इनमें चौथा प्रकार तो लोक का नहीं है । इसी तरह कीमती वस्र, रत्नजटित आभूषण लोक के सामध्र्य के बाहर हैं ।

       इस समय के लोकगीतों में भात (चावल), दाल (चने की), कढ़ी, बरा-मगौरा, पापर, कोंच-कचरिया, बिजौरौ, खाँड़, घी, माँड़े, मिर्च का चूर्ण और आम का अचार के भोजन का वर्णन है, जिसे इस जनपद में समूँदी रोटी भी कहा जाता है । यदि माँड़े की जगह पर लुचई (पूड़ी) बनती है, तो उसके साथ तिरकारी और मिष्टान्न होते हैं । उसे मिर्जापुरी कहते हैं-शायद मिर्जापुर नगर से प्रचलन प्रारम्भ होते के कारण । पक्की रसोई में पूड़ी, कचौड़ी, पपरिया, खाजे, तिरकारी, मालपुआ, लडुआ, मोहनभोग, खीर, खुरमी-खुरमा, पुआ, पुरी, चटनी आदि पक्वान्न होते थे । रायता भी परोसा जाता था और साथ में खाँड़, कलेवा में गर्म जलेबी, दूध या धूध के लडुआ तथा ब्यारी (रात्रि-भोजन) में पक्की रसोई के बाद दूध का पेय दिया जाता था । गाँवों में महुआ से बने मुरका, लटा और डुबरी; भुने चने से बना सत्तू, बेर से बना बिरचुन, गुड़ में पगे गेहूँ की गुरधानी तथा गुड़ में पगे बेसन के सेव मिष्टान्न हैं, जो चाव से खाये जाते थे । महेरी, लपसी, मीड़ा, घेंघुर, खीच आदि भी विशिष्ट खाद्य हैं, जो लोकप्रिय रहे हैं । आम और इमली का पना, गोरस, दूध, रायता आदि प्रमुख पेय हैं । भोजन के बाद पान की बिरी खाने का प्रचलन इस युग में अधिक रहा ।

       आभूषणों में कुछ ऐसे हैं, जो गाँव में अधिक प्रचलित थे, जैसे-टिकुली, छूटा, बिचौली, सुतिया, हमेल, ककना, दौरी, पुँगरिया, दुर, कनफूल, छापें-छला, गजरा, चुरियाँ, करधौनी, पैजना, बिछिया आदि ।   श्रृंगार-प्रसाधनों में सेंदुर, टिपकिया, पटियाँ, अंजन या कजरा, मेंहदी, महावर और गुदना लोकप्रिय थे । परिधान में परदनिया (धोती), सारी, लहँगा-नुगरौ, रेजा, अंगिया, चोली, पोलका, चुनरिया पिछौरा आदि स्रियों में और पचरंग पाग, झामा, कुर्ती, अंगरखा, बंडी, बंडा साफा, झोला, सुजनी पुरुषों में प्रमुख थे ।

पुनरु त्थान युग

बुंदेला फागकारों की फागों और 'लक्ष्मीबाईरासो' में वस्राभरण के साक्ष्य मिलते हैं । भोजन-पेय तो मध्ययुग जैसा था । उसमें मिष्टान्नों की विविधता और भी बढ़ गयी थी । वस्रों और आभूषणों में थोड़ा-सा बदलाव आ गया था । लक्ष्मीबाई रासो में सैनिकों की सज्जा में धोती, घुटन्ना, फेंटा, करधौनी, कतैया, बजुल्ला, कंकन, तोड़ा, पोंचियाँ, मुँदरी, छला, गुंज, गोप, सेली, पनैयाँ, पान-बीड़ा, दस्तानों का वर्णन है ।-३७   नारी के आभूषण वही हैं, पर मुहरमाला, चिचिपिटी और जेहर नये हैं, जिनमें पहले दो गले के और तीसरा पायजेब जैसा आभूषण है । प्रसाधनों में मसा बनाने का भी उल्लेख है ।-३८ नारी के वस्रों में दुशाल और जुड़ गया था, जो मुसलमानों की वेश-भूषा का प्रभाव था । पुरुषों में फतूरी, अँगरखा, मिरजई और पगड़ी का रिवाज था । कंधे या सिर पर अँगोछा डालते या बाँधते थे । अंग्रेजों के प्रभाव से वस्राभरण में काफी परिवर्तन होने लगा था, पर गाँवों में उसका असर न था ।

ॠतुओं के आधार पर भोजन में कम, वस्रों में अधिक बदलाव हुआ । शीत में ऊन, रुई और प्याँर का प्रयोग होता था । एक दोहा प्रसीद्ध है-

              "जाड़ो ठाँड़ो खेत में, भर-भर लेत उसाँस,

              मेरे बैरी तीन हैं कंबल प्याँर कपास ।"

ऊनी वस्र या रुई भरे प्रचलित हो गये थे । टोपी गोल या दुपलिया ने पगड़ी की जगह ले ली थी । मंदील के स्थान पर साफा; मिरजई, फतुही, बंडी और बगलबंदी के स्थान पर झोला या कुर्ता का चलन हो गया था । शहरों में पैजामा और नेकर पहनने लगे थे, पर गाँवों में परदनी का महत्त्व बना रहा । इस अंचल की झब्बेदार पनइयाँ (जूता) बहुत पहले से प्रसीद्ध रही हैं । बिच्छू जैसा डंक उठाये आकृति वाला जूता भी बहुत पुराना है, जो अभी तक प्रचलित है ।

       सामान्यत: आभूषणों की जगमगाहट कम हो गयी थी ।   पैरों में पैजना, अनौटा, बिछिया, कमर में करधौनी; हाथों में बरा और खग्गा, गले में खंगौरिया और हमेल; कानों में बाली और कनफूल तथा माथे में बीज-दाउनी प्रमुख थे । उनमें भी बदलाव शुरु हो गया था । इन भारी आभूषणों के स्थान पर हल्के आभूषण आ गए थे, जैसे पैरों में अनोखा, लच्छा और छैलचूड़ी, हाथों में दस्तबंद, बेलचूड़ी, चूरा और गुंजै, गले में मटरमाल और हार, कानों में ऐरन और झुमकी तथा माथे में बेंदी ।

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Courtesy: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र