बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - बुंदेली लोक संस्कृति का उद्भव और विकास (Bundeli Loksanskrti Ka Udbhav Aur Vikas)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

बुंदेली लोकसंस्कृति का उद्भव और विकास (Bundeli Loksanskrti Ka Udbhav Aur Vikas)

  • प्रागैतिहासिक युग और लोकसंस्कृति

  • वैदिक युग

  • रामायण-काल

  • महाभारत-काल

  • महाजनपद-काल

  • मौर्य-शुंग काल

  • नाग-वाकाटक काल

  • विभिन्न संस्कृतियों की मिलावट का युग

  • चंदेल-काल

  • तोमर-काल

  • बुंदेल-काल

  • पुनरुत्थान युग

  • आधुनिक काल


संस्कृति एक व्यापक शब्द है, जिसमें एक तरफ लोकसंस्कृति से आदर्श और मूल्य समाहित रहते हैं और दूसरी तरफ उच्चवर्गीय परिनिष्ठित संस्कृति के । असल में संस्कृति एक जीवित प्रक्रिया है, जो लोक के स्तर पर अंकुरित होती है, पनपती और फैलती है तथा पूरे लोक को संस्कारित करती है एवं विशिष्ट स्तर पर अनेक लोकों के विविध पुष्पों द्वारा एक सुंदर माला निर्मित करती है । इसी तरह लोक-स्तर पर वह लोक-संस्कृति है, जिसमें जनसामान्य के आदर्श, विश्वास, रीतिरिवाज आदि व्यक्त होते हैं, जबकि विशिष्ट स्तर पर वह संस्कृति कही जाती है, जिसमें परिनिष्ठित मूल्य आचार-विचार, रहन-सहन के ढ़ग आदि संघटित रहते हैं । मललब यह है कि लोकसंस्कृति और परिनिष्ठित संस्कृति, दोनों एक-दूसरे से संग्रथित होती हुई भी भिन्न हैं ।

इतिहासकार ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर जिस संस्कृति की रुपरेखाएँ अंकित करते हैं, वह लोकसंस्कृति नहीं है, वरन् परिनिष्ठित संस्कृति है क्योंकि प्राचीन इतिहास में राजाओं, सामंतों, पुरोहितों आदि के आख्यान रहे हैं और लोक के इतिहास को उपेक्षित रखा गया है । उदाहरण के लिए, चंदेलकालीन संस्कृति के प्रमुख स्रोत चंदेलनरेशों के शिलालेख, आक्रमणों और युद्धों के उल्लेख, दानपत्र और उन्हीं के कार्यकलाप माने गए हैं, लेकिन राष्ट्रीय लोककाव्य आल्हा, तत्कालीन किंवदंतियाँ, लोकगथाएँ, गीतादि अप्रामाणिक समझे गये हैं । लोकसंस्कृति लोक के क्रियाकलापों लोकसाहित्य, लोककलाओं, लोकसंबंधी उल्लेखों आदि जैसे सूत्रों पर निर्भर करती है, जिन्हें इतिहासकारों ने बहिष्कृत कर लोकसंस्कृति से मानो मुख ही मोड़ लिया है । दूसरी तरफ लोकवार्ता के विद्वानों और शोधकर्ताओं ने लोकसंस्कृति के स्थिर रुप की कल्पना की है और उसके विकास-रुपों को अनदेखा कर उसकी मूल प्रवृत्ति को ही खोंट दिया है । अधिकतर विभिन्न युगों के लोकगीतों के आधार पर एक मिश्रित लोकसंस्कृति के स्वरुप को उजागर कर सब कुछ गड्मड्ड कर दिया गया है । एक लोकगीत या लेकगाथा राजपूत युग की है, दूसरी मुगलयुग की और तीसरी अंग्रेजों के समय की, तीनों को उद्धृत कर लोकसंस्कृति का स्वरुप-निर्धारण एक सामान्य प्रणाली बन गई है, जिससे लोकसंस्कृति के ठहराव की भ्रान्ति होना स्वाभाविक है । वास्तव में लोकवार्ता या लोकसंस्कृति को 'आदिम' मानने से ही यह गड़बड़ हुई है । जब तक युग के परिप्रेक्ष्य में लोकसंस्कृति को नहीं परखा जाएगा और उसकी विकासगतियाँ स्पष्ट नहीं की जाएँगी, तब तक लोकसंस्कृति का सही रुप प्रकाश में नहीं आ पाएगा ।

किसी भी जनपद की लोकसंस्कृति उसके लोकमानस और लोकाचरण से निर्मित होती है और लोकमानस तथा लोकाचहण तत्कालीन परिस्थितियों से क्रिया-प्रतिक्रिया करते रहते हैं । लोकमूल्यों का सीधा संघर्ष बदली हुई परिस्थितियों से होता है और अनुपयोगी या अयोग्य मूल्य गतिहीन हो जाते हैं । उसी दिशा में एक विशिष्ट सीमा तक लोकाचरण में भी बदलाव होता है । इस कारण लोकसंस्कृति में भी परिवर्तन सहज रुप में होता रहता हे । कभी-कभी तो विजातीय प्रभाव इतना प्रबल होता है कि बदलाव की स्थिति जल्दी आती है । ऐसे अनेक उदाहरण बुंदेली लोकसंस्कृति में विद्यमान हैं, जिनसे परिवर्तन साफ जाहिर है और जो लोकसंस्कृति के ऐतिहासिक अनुशीलन से प्रमाणित किया जा सकता है । उससे यह भी स्पष्ट हो सकेगा कि लोकसंस्कृति जड़ वस्तु नहीं है । उसे गतिशील प्रक्रिया के रुप में ही ग्रहण करना उचित है और इसी दृष्टि से उसका विश्लेषण होना चाहिए ।

लोकसंस्कृति का इतिहास-लेखन असंभव समझा गया है, इसलिए उसकी चर्चा करना तक उपयुक्त नहीं माना गया । वस्तुत: लोकसंस्कृति में निहित लोकमूल्यों, लोकाचरण, लोकजीवन, लोकसाहित्य और लोककलाओं जैसे अंगों-उपांगों में व्यक्ति भागीदार होता हुआ भी अधिकतर अदृश्य रहा है । यदि कहीं उसकी छाप या पहचान मिलती है, तो उसका परिचय नहीं प्राप्त होता । इस वजह से तिथिवार इतिहास खोजना तो कठिन है, पर कालखंडों या युगों के अनुसार लोकसंस्कृति के विकास की नापजोख की जा सकती है। लोकसाहित्य के अंतर्गत लोकगीत, लोकगाथाएँ आदि और लोककलाओं में परिगणित लोकचित्र, लोकमूर्तियाँ, लोकसंगीत आदि लोकसंस्कृति के प्रामाणिक अभिलेख हैं, जिनका काल-निर्धारण मोटे तौर पर कालखंडों में किया जा सकता है और उसी के आधार पर लोकसंस्कृति का इतिहास क्रम-बद्ध रुप में लिखा जा सकता है । अगर सच कहा जाय, तो किसी युग की लोकसंस्कृति या लोकचेतना और लोकाचरण का इतिहास ही सच्चा इतिहास है । वह देश की बहुसंख्यक जनता का इतिहास होने के कारण देश का सही इतिहास भी है ।

प्रागैतिहासिक युग और लोकसंस्कृति

विद्वानों ने प्रागैतिहासिक युग के गुहाचित्रों को लोककला न मानकर आदिम कला नाम दिया है, परंतु इससे सहमत होना कठिन है क्योंकि उत्तर पुराश्मीय (४० से १५ हजार वर्ष ई. पू.) युग में सामूहिक आखेट और सामूहिक नृत्य के चित्रों, मुखौटों के प्रयोग, पंखों और वल्लरियों से श्रृंगार आदि से सिद्ध है कि पुरामानव में, लोकजीवन और लोककला में निहीत लोकमानस या लोकचेतना की जागृति हो चुकी थी । कलात्मक वस्तुएँ, जैसे चित्र, शस्रों के सुडौल आकार, हरे-लाल-पीले रंगों के प्रयोग आदि से कलाकार में कलात्मक आभिरुचि और प्रदर्शन की प्रवृत्ति का पता चलता है । यह निश्चित है कि तत्कालीन लोक ने इन कलात्मक कृतियों को लोकस्वीकृति प्रदान की थी और इनका अनुकरण-अनुसरण भी आगे हुआ था । इस प्रकार इन्हें लोककला के अंतर्गत ग्रहण करना जरुरी है ।

बुंदेलखंड की लोकसंस्कृति भारत और विश्व के अनेक जनपदों की लोकसंस्कृतियों से भी प्राचीन है । नर्मदा घाटी के भूस्तरों की खोजों से पता चलता है कि नर्मदा घाटी की सभ्यता सिंधु घाटी की सभ्यता से बहुत पहले की है । भूगोलवेत्ताओं ने विंध्यमेखला को अजीव कल्प (AZOIC AGE) का माना है, जब पृथ्वी इतनी गर्म थी कि जीव का अस्तित्व संभव नहीं था । विंध्याचल की भीतरी चट्टानों में जीवों की सत्ता का कोई चिह्म नहीं मिलता । नर्मदा घाटी में प्राप्त जीवाश्म और प्रस्तर उद्योग-१ भेड़ाघाट (जबलपुर) में प्राप्त पुरापाषाण युग के प्रस्तरास्र-२ और सागर की दक्षिणी पेटी में मिली प्रागैतिहासिक सामग्री-३ से बहुत प्राचीन संस्कृति के उद्भव की जानकारी मिलता है । होशंगाबाद की आदमगढ़ गुहा, सागर के आबचंद और नरयावली, छतरपुर के किशुनगढ़ क्षेत्र के शैलचित्रों में पुरामानव की लोकचित्रकला के दर्शन होते हैं । इससे सिद्ध है कि बुंदेलखंड में लोकसंस्कृति की आदिम स्थिति वर्तमान थी ।

आखेट चित्रों को केन्द्र में रखने से शैलचित्रों के तीन विकास-स्तर दिखाई पड़ते हैं-पहला, जिनमें शिकारी कुल्हाड़ियाँ और भाले लिए हैं । दूसरा, जिनमें शिकारी अधिकतर धनुष धारण किए हैं और तीसरा, जिनमें वे घोड़ों या हाथियों पर सवार हैं । डॉ. वि. श्री. वाकणकर ने उत्तर पुराश्मीय (अपर पेलियोलिथिक) काल को शैल चित्रकला का स्वर्ण युग कहा है । इस युग में सामूहिक जीवन प्रारंभ हो गया था । समूह में रहना, शिकार करना, सामूहिक भोजन, समूह गीत और नृत्य आदि दैनिक क्रियाएँ लोकमानस के विकास के लिए सक्षम थीं । जन्म से मृत्यु तक के जीवन में कुछ विशिष्ट अवसरों से जुड़े कार्य रुढ़ होने लगे थे । धार्मिक मान्यताएँ लोकविश्वास के रुप में दृढ़ हो गई थीं । प्रकृति की चमत्कारपरक और प्रभावी शक्तियों के प्रति भयमिश्रित आस्था के बीज प्रस्फुटित होने लगे थे । आनंद और दु:ख की अभिव्यक्तियों में जिस तरह सामूहिक भागीदारी थी, उसी तरह कलाओं के व्यक्तीकरण में प्रकट होती थी । कलाओं का दैनिक जीवन से संबंध तो था ही, वे दैनिक जीवन का अनिवार्य अंग भी थीं । शिकार को घेर कर नृत्य करना और आनंद की भावना को कर, मुख और पद-चालन आदि क्रियाओं से व्यक्त करना आखेट का मुख्य भाग था । इसी प्रकार कोई सामूहिक भाव शैलचित्रों का प्रेरणाकेन्द्र रहा है और मेरी समझ में उनके पीछे प्रकृति के प्रकोप से रक्षा करने का लोकभाव ही प्रधान था, क्योंकि इन चित्रों में विशालकाय शिकार, डंडीवत् पशु एवं जीवजंतु की आकृतियाँ लिखने के दो ही अभिप्राय थे-अपने आप में किसी बाधा पर विजय की भावना जाग्रत करना तथा प्रकृति की शक्तियों पर आस्था से रक्षा की आश्वस्ति । इन चित्रों में कलाकार और दर्शक के बीच में कोई रुकावट नहीं थी, बल्कि यों कहा जाय कि कलाकार में कला की सचेतनता नहीं थी, तो अधिक उपयुक्त होगा । साथ ही वह अंकित आकृतियों को वैयक्तिक रुप में नहीं देखता था, वरन् उकसे सामने पूरा वर्ग या टाइप रहता था । इस तरह नृत्य और चित्र-कलाओं में सर्जक से लेकर सहृदय तक की सारी क्रियाएँ लोकमय थीं, इसलिए उन्हें लोककलाएँ कहना सर्वथा उचित है ।

नवीन पाषाणयुग में जबकि नदी-घाटी सभ्यता का उदय हो गया था, गृह निर्माण से छोटे-छोटे गाँव विकसित हो गाए थे और कृषि-कर्म एवं पशुपालन जैसे व्यवसायों से सहकारिता की भावना और सामूहिकता की चेतना फैल गई थी, तब 'लोक' का जन्म न हुआ हो, यह कैसे संभव है ! कौटुम्बिक व्यवस्था के पल्लवन से संस्कार, लोकविश्वास, अनुष्ठान आदि अपनी जड़ें जमा चुके थे । इतिहासकारों ने वृक्ष, चट्टान आदि की प्रकृति-पूजा, शवों के साथ रखी सामग्री, मृत्यु के उपरांत अस्थियों को अस्थि-पात्रों में रखना आदि से उनकी अनुष्ठानमूलक संस्कृति तक का प्रमाण दिया हे । वस्रों की रँगाई, कौड़ी, सींग, सीप, हड्डी आदि से आभूषण बनाने की कला, मिट्टी के भाँडे-बर्तनों की विविधता तथा प्रस्तर-उपकरणों में ओपदार पालिश उनकी सौंदर्य-रुचि का पूरा-पूरा परिचय देने में सक्षम हैं । इस दृष्टि से भी उनकी लोकसंस्कृति की परख की जा सकती है । यह अवश्य है कि इस स्तर पर एक विशेषीकृत या आंचलिक लोकसंस्कृति का दावा करना कठिन है ।

वैदिक युग

ॠग्वैदिक काल में ॠग्वेद के अनुसार आर्यों का निवास सप्तसिंधु प्रदेश था, अत: बुंदेलखंड उनके प्रभाव से बाहर रहा । स्पष्टत: यहाँ की लोकंसंस्कृति पुलिंदों, निषादों, शबरों, रामठों, दाँगियों आदि आर्येतर संस्कृतियों से प्रभावित थी । पुलिंदों को म्लेच्छ कहा गया है, क्योंकि वे आर्यों की यज्ञमूलक संस्कृति को नहीं मानते थे ।-४ निषादों और शबरों -५ ने बाद में आर्यसंस्कृति स्वीकार की थी । शबर और रामठ से ही सौंर और राउत विकसित हुए हैं, जो बुंदेलखंड में आज भी यत्र-तत्र कई क्षेत्रों में फैले हैं । दंडकारण्य का वर्णन बाल्मीकि रामायण में किया गया है, जिसका विस्तार पार्जिटर ने बुंदेलखंड से कृष्णा नदी तक माना है ।

दंडक > डाँग में बसी हुई जाति डाँगी या दाँगी कहलाई और आज भी वह सागर और झाँसी जिलों में काफी संख्या में मिलती है । डब्ल्यू. क्रुक ने उसे खेतिहर ट्राइब (जनजाति) कहा है । इसमें कोई मतभेद नहीं है कि कृषक ही कृषिपरक, ॠतुपरक और उत्सवपरक लोकगीतों और लोकनृत्यों के सर्जक रहे हैं और उन्होंने ही कई लोकसंस्कारों को जन्म देकर लोकसंस्कृति को पाला-पोसा है । ॠग्वेद में भी लोकसंस्कृति के कुछ साक्ष्य मिलते हैं, पर मूलत: उसकी ग्रामीण संस्कृति एक शिष्ट और बँधी हुई संस्कृति के रुप में विकासशील हो रही थी । यही कारण है कि सामवेद में कलाओं का स्तरीकरण दिखाई पड़ता है । तात्पर्य यह है कि वैदिक संस्कृति से अप्रभावित होते हुए भी बुंदेलखंड की एक अपनी लोकसंस्कृति थी और एरण की खुदाई में प्राप्त मृण्मय भाण्डों के अलंकरण से स्पष्ट है कि ईसा से १६वीं-१७वीं शती पूर्व वह काफी उत्कर्ष पर थी । ज्यामितिक रेखांकन से लिखी अलंकृतियाँ उसकी प्रामाणिक साक्ष्य हैं ।

उत्तरवैदिक युग में आर्यीं ने हिमालय और विंध्याचल के बीच का क्षेत्र अपने अधिकार में कर लिया था । निश्चित है कि एक सांस्कृतिक संघर्ष वर्षीं तक चला, जिसका अनुमान वाल्मीकि रामायण के राम के अभियान से लगाया जा सकता है । एक तरफ दक्षिण की रक्ष-संस्कृति थी, दूसरी तरफ आर्य-संस्कृति और तीसरी तत्कालीन क्षेत्रीय संस्कृति । क्षेत्रीय निषादों, शबरों, कोल-भील आदि ने तो राम का साथ दिया था, क्योंकि राक्षस उन्हें सताते थे, लेकिन आर्य और वन्य संस्कृतियों के समन्वय में काफी समय लगा था । सूत्र युग में आर्यीं ने कठोर नियम-उपनियम बनाकर लोकजीवन में परिष्कृति लाने का प्रयत्न किया था, पर उससे जटिलता और कर्मकांडी विधि-विधान की कट्टरता भी आई, जो लोकसहज न थी । बुंदेलखंड पर उसका प्रभाव बहुत बाद में पड़ा, इसी कारण यहाँ वन्य लोकसंस्कृति महाभारत-काल तक बनी रही ।

रामायण -काल

इतिहासकारों का मत है कि आर्यीं ने विंध्य क्षेत्रों पर सेना के द्वारा अधिकार नहीं किया, वरन् ब्राह्मणों और क्षत्रियों के छोटे दलों ने प्रवेश कर, जंगलों को साफ कर और कुटी तथा निवास बनाकर बस्तियाँ बसाई ।-६ परंतु वास्तविकता यह है कि अगस्त्य-अत्रि आदि ॠषियों ने विंध्य की प्रकृति की गोद में आश्रमों की स्थापना की थी, जिनसे इस जनपद में आश्रमी संस्कृति का प्रादुर्भाव हुआ था । अगस्त्य के सामने विंध्य के झुकने की कथा का अभिप्राय यही है कि ॠषियों ने अपने उपदेशों से वन्य जातियों को जीत लिया था । वाल्मीकि रामायण में अत्रि-आश्रम की स्थिति चित्रकूट के निकट बताई गई है ।-७ अत्रि-पत्नी अनुसूया आर्य नारी का आदर्श तो थी ही, बाद में इस क्षेत्र में भी प्रतिष्ठित हुई । पुरुषोत्तम राम की यात्रा में चित्रकूट का विशेष महत्त्व है, वहीं से उन्होंने यजन-याजन की दुंदुभी फूँकी और उस संस्कृति की रक्षा में वन-वन घूमे । इस आश्रमी संस्कृति के संपर्क में आने से इस क्षेत्र की लोकसंस्कृति में व्यापक परिवर्तन की स्थिति शुरु हुई ।

लोकसंस्कृति के प्रवर्तन में दोतरफा प्रभाव जारी रहता है, एक तो जनपदीय लोकमूल्य, संस्कार, लोकसाहित्य, लोककला आदि में बाहर से आनेवाले लोकमूल्यादि घुसपैठ करते हैं, तो दूसरे, आगत संस्कृति को भी जनपद में प्रचलित कुछ लोकमूल्यादि स्वीकारने पड़ते हैं । इस तरह दो वर्ग बन जाते हैं और इस रुप में इस समय की लोकसंस्कृति में भी परिनिष्ठित और ग्राम्य, दो स्वरुप स्थिर हुए । वाल्मीकि रासायण में अप्सरा (स्वर्गीय नर्तकी), गणिका जैसे कलाकारों के साथ नट-नटी आदि का उल्लेख है । रामजन्म, राजतिलक आदि अवसरों पर जिन सामूहिक नृत्यों वाद्यों, दृश्यकलाओं का वर्णन है, वे लोकसंस्कृति के अभिलेख हैं, जो दूसरे प्रभाव के उदाहरण हैं । अतएव लेकसंस्कृति के इस तरह के प्रभावकारी पक्ष का उद्घाटन जरुरी है । लोक बहुत प्रबल होता है और यह निश्चित है कि बुंदेली लोक ने उस समय विनष्टकारी राक्षसी शक्तियों से बचाव के लिए रामपरक संस्कृति के कुछ लोकोपयोगी मूल्य अपनाए, जिनकी पहचान आज संभव नहीं है । इसके बावजूद इस वन्य जनपद के अपने लोकगीत, स्वाँगादि और शक्तिपूजक चित्रादि अवश्य थे । उनके संस्कार और आदर्श भी थे, नहीं तो वे ॠषि-मुनियों और राम के प्रति सहानुभूति और प्रेम-भक्ति कैसे प्रकट करते । आदिकवि वाल्मीकि थे, तो शिष्ट संस्कृति और भाषा के धनी, पर वन्य संस्कृति का उन्हें पूरा अनुभव था, इसलिए रामायण में जो नट-नर्तक, कुशीलव आदि के वर्णन किये गए हैं, वे उसी की उपज थे और नगरों में उनका प्रचलन हो गया था । बहरहाल, यह निश्चित है कि वैदिक और अवैदिक संस्कृतियों के इस संघर्षपरक काल में लोकसंस्कृति नयी प्रगति की तरफ अग्रसर हुई है ।

महाभारत -काल

इतिहास में वेत्रवती (बेतवा) के दोनों तटों पर सुदूरवर्ती प्रदेश 'आटविक राज्य' के नाम से विख्यात् रहा है । डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने यह विंध्याटवी के दक्षिण से बीना और सागर तक प्रसारित माना है ।-८ महाभारतकार ने उसे महारण्य, महाघोर या दारुण वन कहा है। स्पष्ट है कि इस काल में भी वन्य लोकसंस्कृति प्रधान रही है । लेकिन दूसरी तरफ 'नलोपाख्यान' में राजा नल की राजधानी नरवर बताई गयी है । दसयंती ने बेतों से भरी एक नदी (बेतवा) को पार करते हुए एक सार्थवाह को देखां था । महाभारत में चेदि की गणना प्रमुख जनपद के रुप में की गयी है और शिशुपाल चेदि का प्रसिद्ध राजा कहा गया है ।-९ एफ. इ. पार्जिटर ने चेदि का समीकरण बुंदेलखंड से किया है । उन्होंने एक स्थल पर यह भी लिखा है कि चेदि राज्य पहले यादवों के अधीन था, बाद में कुरु के पुत्र सुधन्वा की चौथी पीढ़ी में वसु ने उसे जीतकर नवीन चेदि राज्य स्थापित किया ।-१० इससे प्रकट है कि यहाँ पर पहले यादवों का राज्य रहा है । भगवान् देदव्यास कृष्ण द्वेैपायन की जन्मभूमि कालपी बताई गयी है, जिसका पौराणिक नाम 'कालप्रिय' से नि:सृत हुआ है और जो सूर्यीपासना के लिए विख्यात् थी । महाभारत के वन-पर्व में कालिंजर, चित्रकूट, मंदाकिनी आदि का वर्णन मिलता है और आदि पर्व में चेदिकालीन संस्कृति के संबंध में कुछ संकेत मिलते हैं, जिनके अनुसार "चेदि देश प्राचीन काल में अत्यंत रमणीय और समृद्ध था । वह धन और धान्य से पूर्ण था और अपनी रक्षा करने में समर्थ था । मिध्या भाषण नहीं था । पुत्र पिता में अनुरक्त और शिष्य, गुरुहित में तत्पर तथा सभी अपने धर्म में स्थित थे ।" -११ इन उदाहरणों से दो तध्य स्पष्ट हैं-एक तो यह कि इस जनपद पर अन्य सुसंस्कृत जातियों का अधिकार होने लगा था, जिससे वन्यसंस्कृति का परिष्करण शुरु हुआ और लोकसंस्कृति में आदान-प्रदान जारी रहा । दूसरा यह कि नागरी संस्कृति का विकास हुआ ।

महाभारत के वन पर्व में युधिष्ठिर द्वारा वन्य नर्तकों, अभिनेताओं आदि कलाकारों को सहायता और विराट् पर्व में अर्जुन का वृहन्नला बनकर गीत, नृत्य, वाद्य आदि की शिक्षा प्रदान करने से जाहिर है कि वन्य कलाकार अपनी लोककलाओं में कुशल थे, लेकिन उन पर बाहर से आये लोकोन्मुखी तत्त्वों का प्रभाव भी पड़ा । यही बात लोकसंस्कृति के अंगों-उपांगों पर लागू होती है ।

महाजन पद-काल

इस युग में चेदि और दशार्ण प्रसिद्ध जनपद थे । चेदि में राजतंत्र था और संभव है कि दशार्ण में भी रहा हो, किंतु उनमें राजाओं की स्वेच्छाचारिता नहीं थी । प्रसिद्ध इतिहासकार काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार जनपदों को राजा को पदच्युत करने का अधिकार था । प्रकट है कि जनपदों में लोक की प्रतिष्ठा अवश्य था । प्रकट है कि जनपदों में लोक की प्रतिष्ठा अवश्य थी, फिर भी समाज में दो वर्ग हो गये थे-१. लोक का प्रतिनिधित्व करने वाला राजसी प्रकृतिवाला वर्ग और २. शासित वर्ग । प्रतिनिधि वर्ग ने लोकसंस्कृति का किसी-न-किसी रुप में नियमन किया था और अपने लिए मनुस्मृति के प्रतिमानों को आदर्श बनाया था, लेकिन उसका अनुसरण शासित वर्ग ने कितना किया, यह खोज का विषय है । उतना अवश्य है कि इस समय जनपदीय इकाई की सुरक्षा और उसे ऊँचा बनाने के प्रयत्न में लोकसंस्कृति में जातीय चेतना का विकास हुआ, जिसके फलस्वरुप समानता के बिंदु पहचान कर ग्रहण किये गये और एकता आयी । अनार्य और आर्य संस्कारों का संघटन हुआ, लोकादर्शीं को वरीयता के अनुसार अपनाया गया और लोककलाओं में बदलाव आया । लेकिन यह परिवर्तन की प्रक्रिया की पहली कड़ी थी, जिसमें जनपद को लोकतत्त्वों का चुनाव स्वयं करना था ।

मौय -शुंग काल

मौर्य-काल में त्रिपुरी, एरिकेण और विदिशा का भाग मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत था, अतएव त्रिपुरी, एरिकेण (एरण) और विदिशा विख्यात् नगर बन गये । सम्राट चंद्रगुप्त ने सागर, दमोह आदि जिले सम्मिलित कर एक अलग प्रांत उज्जयिनी बना दिया था, जिसका सूबेदार अशोक रहा । अशोक ने विदिशा की श्रेष्ठिन पुत्री देवी से विवाह किया था और देवी की प्रेरणा से ही अशोक में बौद्ध-धर्म के अंकुर फूटे थे । बौद्ध-धर्म ग्रहण करने के बाद उसने साँची और भरहुत में स्तूप बनवाये तथा जबलपुर जिले के रुपनाथ की चट्टान पर अभिलेख उत्कीर्ण करवाया । भेड़ाघाट में प्राप्त बौद्ध मूर्तियों, होशंगाबाद जिले की पचमढ़ी की मढियों और एरण एवं त्रिपुरी में प्राप्त सिक्कों पर बने बोधिवृक्ष एवं धर्मचक्र से साबित है कि इस प्रदेश में बौद्ध-धर्म का प्रचार-प्रसार खूब हुआ, जिसके परिणामस्वरुप लोकसंस्कृति को प्रधानता मिली । 'बहुजन-हित' या व्यापक लोक-कल्याण की अंतर्दृष्टि लोक की धरोहर बनी और जातक कथाओं के फैलाव से लोकसाहित्य में व्यापक लोकदृष्टि समाविष्ट हुई । बौद्ध-साहित्य में ग्रमीण जीवन, मनोविनोद और लोककलाओं की महत्ता से बुंदेली लोकसंस्कृति में आत्मविश्वास की अद्भुत शक्ति जाग्रत हुई, जिससे सभी विधाओं और दिशाओं में विकास हुआ ।

एक उदाहरण यहाँ पर्याप्त है । बुंदेली लोक में वन-देवता, गिरि-देवता, नदी-देवता, सपंदेवता, वृक्षदेवता एवं शक्ति की उपासना प्राचीन है, यक्ष देवता भी उनमें शामिल हुए, जिसका प्रमाण है पवायाँ, बेसनगर आदि में प्राप्त यक्षमूर्तियाँ । पवायाँ की माणिभ्रद यक्ष की मूर्ति के पाद-अभिलेख में शिवनंदी राजा के शासन-काल में प्रतिमा की स्थापना का उल्लेख है, जो विदिशा पर शुंगों के अधिकार के पहले विदिशा का अंतिम नाग राजा था । अभिलेख में अंकित अनेक दानदाताओं के कल्याण के लिए कामना से यह सिद्ध है कि तत्कालीन समाज में यक्ष-उपासना बहुप्रचलित थी । -१२ यक्षमूर्तियों के निर्माण से बहुत पहले बुंदेली प्रदेश में यक्ष की पूजा धन-धान्य और समृद्धि के लिए साधन बनी थी और निश्चित ही यक्ष यहाँ की लोककलाओं में अंकित होते थे, तभी तो बाद में विशालकाय मूर्तियाँ गढ़ी जा सकीं । डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने इन्हें लोककला के अंतर्गत स्थान दिया है ।-१३ इसी प्रकार उन्होंने मातृदेवी की पूजा से संबंधित श्रीचक्र या मंडलाकार चकियों और सूर्य-चंद्र के प्रतीकों के प्रयोग को ६०० ई. पू. से ४०० ई. पू. तक की कालावधि का माना है । बुंदेलखंड में भी ऐसी चकियाँ प्राप्त हैं, पर उनके काल-निर्धारण की प्रामाणिकता उपलब्ध होने पर कुछ कहना उचित है । इतना अवश्य है कि बुंदेली लोक प्रारंभ से ही शक्तिपूजक रहा है, अतएव उसने ॠगवैदिक श्रीयंत्र को रामायण-काल में या उसके बाद जरुर अपना लिया था । इन सभी उदाहरणों से यह तध्य प्रामाणिक ठहरता है कि महाजनपद-काल में लोकसंस्कृति का जो स्वरुप स्थिर हुआ, वह निरंतर विकसित होकर इतने उत्कर्ष पर पहुँचा कि उससे प्रेरणा लेकर शास्रीय कलारुप भी समृद्ध होने लगे । साँची और भरहुत की कला पर लोककला और लोकजीवन के प्रभाव से यह और भी स्पष्ट है । कलासमीक्षक हैवेल ने इसे प्रारंभिक कला (प्रिमिटिव आर्ट) कहा है तथा निम्न कोटि के कलाकारों की कला बताया है । वस्तुत: वे शास्रीय कला में लोककला के योगदान को ठीक से परख नहीं सके । लोककला के व्यापीकरण का पता तो उसी यक्ष-पूजा से चलता है, जो बाद में गाँव-गाँव में फैल गई और आज तक दिखाई पड़ती है, भले ही गाँव का लोक उसकी पहचान तक भूल गाया हो । बुंदेलखंड में एक उक्ति प्रचलित है- " गाँव-गाँव कौ ठाकुर, गाँव-गाँव कौ बीर " और हर गाँव में एक चबूतरा है, जिस पर मिट्टी या ईटों की शंकुआकार आकृति बनी है । वस्तुत: ये चबूतरे यक्षों के चौतरे हैं, जो बाद में शिव के, हरदौल के या अन्य ग्रामदेवता-नट, मशान आदि के रुप में परिवर्तित होते गये । 

मौर्य साम्राज्य के पतन पर त्रिपुरी, एरण, विदिशा और चेदि जनपद फिर स्वतंत्र हो गए । इस समय के प्राप्त त्रिपुरी एवं एरण के सिक्कों के पृष्ठभागों पर अंकित चित्रों से ज्ञात होता है कि लोककला को काफी महत्त्व प्राप्त था । इंदौर संग्रहालय में प्रदर्शित एरण के कुछ सिक्के मैंने देखे थे, जिनमें सूर्य, चंद्र, बैल, मोर, बिच्छू, शेर आदि के लोकचित्र लगभग उसी शैली के हैं, जैसे बुंदेलखंड में प्रचलित गुदनों के । त्रिपुरी और एरछ (एरच, जिला झाँसी) के मृद्भाडों के अवशेषों में काली ओपदार पालिश लोककला की उन्नति की साक्षी है । दशार्ण पर शुंगों ने अधिकार कर लिया था, जिससे दशार्णी लोकसंस्कृति में भागवती दृष्टि की जड़ जमी और बौद्ध मूल्य तिरोहित होने लगे ।

नाग -वाकाटक काल 

पहली शती ई. पू. से ईसा की ५वीं शती तक नागों और वाकाटकों के लगभग छ: सौ वर्षीं के शासन ने बुंदेली लोकसंस्कृति को नये रुप में प्रतिष्ठित किया । उन्होंने उसके बिखरे लोकादर्शीं, मूल्यों, तत्त्वों को संघटित कर एकता ही प्रदान नहीं की, वरन् उसमें नयी प्राणप्रतिष्ठा कर नयी अस्मिता दी । आधुनिक बुंदेली लोकसंस्कृति की सुदृढ़ नींव इसी समय रखी गयी और इमारत भी इसी समय खड़ी हुई, इस कारण यह दीर्घ काल लोकसंस्कृति का उत्थान-काल कहा जा सकता है ।

नाग और वाकाटक शिव के उपासक थे, अतएव लोक में शिव और उनसे संबद्ध नाम, चंद्र, नंदी आदि की पूजा प्रचलित हुई । शिव की नदी माता गंगा को पवित्र और पापविनाशिनी माना गया । नंदी के साथ गोमाता पूज्य हो गई । इस प्रकार लोकसंस्कृति में इन्हें दैवी शक्त्तियों के रुप में स्वीकारा गया । दूसरी बात यह है कि नाग और वाकाटक शिव के योद्धा रुप -१४ को प्रमुखता देते थे, जिससे स्पष्ट है कि लोक में वीरता एक आदर्श के रुप में गृहीत थी । तीसरे, दोनों शासकों ने सनातन हिंदू धर्म और वर्णाश्रम को स्थापित किया -१५, जिससे लोक जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कार और उनकी विधियों में पूरी तरह बँध गया ।

नागों के सिक्कों, मंदिरों, मूर्तियों और मृण्मूर्तियों के आधार पर भी कुछ विशिष्ट निष्कर्ष निकलते हैं, जिनसे सिद्ध है कि नागकाल में लोकसंस्कृति और लोककलाओं को जितना निखार और उत्कर्ष मिला है, उतना इन सात-आठ सौ वर्षों में कभी नहीं दिखाई पड़ा । प्रसिद्ध इतिहासकार काशी प्रसाद जायसवाल ने सही पहचान की है कि सनानती संस्कृति और कला नागों की ही देन है, वाकाटकों की संस्कृति और कला तो इसी का परंपरागत रुप या शेषांश है ।-१६ नाग शैव होते हुए भी विष्णु, सूर्यादि देवों के पूजक थे और इस दृष्टि से समन्वय तथा औदार्य में विश्वास रखते थे, इसी वजह से लोकधर्म को अधिक बल मिला । पद्मावती (पवाया) में प्राप्त सूर्य स्तंभ, माणिभद्र यक्ष एवं विष्णु-मूर्तियाँ तथा मुद्राओं पर अंकित चक्र आदि से नागों की व्यापक धर्मदृष्टि का बोध होता है । गाय के प्रति पूज्य भाव इसी समय अंकुरित हुआ था । सिक्कों पर प्राकृत के प्रयोग से प्रमाणित है कि लोकभाषा को पूरा सम्मान प्राप्त था । सीक्कों पर अंकित लोकचित्रों और मृण्मूर्तियों से लोककलाओं के उत्कृष्ट रुप और उनमें बिम्बित लोकजीवन से तत्कालीन लोकरुचि का पता चलता है । विभिन्न देवियों और देवताओं की मृण्मूर्तियाँ हाथ से गढ़ी हुई और पशु-पक्षी एवं अन्य साँचे की ढली हुई थीं । विशेषता तो यह है कि वे कपिशा और राजघाट में प्राप्त मृण्मूर्तियों से भी उत्कृष्ट हैं ।-१७ पवाया में प्राप्त एक तोरण में उत्कीर्ण संगीतोत्सव के दृश्य के प्रकट है कि लोकसंगीत और नृत्य भी काफी विकसित और सम्मानित था । एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि इस समय की लोकसंस्कृति में राष्ट्रीय रुप गढ़नेवाली वह जातीय चेतना समाविष्ट थी, जो विदेशी आघातों से अपने को सुरक्षित रखने में शक्ति और सामध्र्यवान् है ।

ई. ३४० के लगभग रचित 'कौमुदी-महोत्सव' नाटक से वाकाटक-काल के एक साहित्यिक आंदोलन का जो चित्र उभरता है और जिसकी चर्चा काशीप्रसाद जायसवाल ने की है, -१८ वह लोकसंस्कृति के फैलाव का विरोधी नहीं है । यह ठीक है कि वाकाटकों ने संस्कृत को राजभाषा बनाया और शास्रों की मर्यादा स्थापित की, लोकिन यह सब उच्च सामंती वर्ग तक सीमित रहा, जबकि आम आदमी में नागों द्वारा प्रतिष्ठित लोकसंस्कृति ही पल्लवित होती रही । डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल ने लिखा है-"आधुनिक हिंदुत्व की नींव नाग सम्राटों ने रखी थी, वाकाटकों ने उस पर इमारत खड़ी की थी और गुप्तों ने उसका विस्तार किया था ।"-१९ इस तध्य की दृष्टि से बुंदेली लोकसंस्कृति केन्द्रीय महत्त्व की अधिकारिणी ठहरती है ।

वाकाटक-काल में ही गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त ने एरण और उसके आस-पास के भूभाग पर अधिकार कर लिया था । एरण में 'स्वभोग-नगर' की रचना और विष्णु मंदिर के निर्माण से प्रतित होता है कि गुप्तों ने भी इस प्रदेश पर अपना प्रभाव छोड़ा था । उत्तर गुप्तकाल में एक युद्ध का अनुमान एरण में प्राप्त एक सती-स्तंभ से लगता है, जो सेनापति (गोपराज) के मारे जाने से उसकी पतिव्रता पत्नी के सती होने की स्मृति में निर्मित किया गया था । तोरमाण हूण के आक्रमण का उल्लेख वराह अभिलेख में मिलता है, उसी में गोपराज ने अपने प्राण होम दिए थे । इससे स्पष्ट है कि ५वीं शती के अंत या ६वीं शती के प्रारंभिक दशक में सती का लोकादर्श प्रचलन में था । उदयगिरि (विदिशा) और देवगढ़ (ललितपुर) के गुप्तकालीन मंदिरों में विष्णु के अवतारों की पौराणिक कथाओं को उत्कीर्ण किया गया है, जिससे पौराणिक कथाओं का लोक में प्रसार प्रमाणित होता है ।

विभिन्न संस्कृतियों की मिलावट का युग 

गुप्तों के उपरांत हर्षवर्द्धन (६०६-४७ ई.) सम्राट बना, जिसके अधीन उत्तर भारत के सभी प्रदेश रहे । उसके राज्यकाल सें प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्यूनसांग ने बुंदेलखंड की यात्रा की थी और उसे 'चिह-चि-तो' (जझौति) नाम से मध्यभारत के ३७ राज्यों में से एक बताया है, जिसका शासक एक ब्राह्मण था । प्रामाणिक जानकारी के अभाव में उसे हर्ष के अधीन या करद माना गया है । हर्ष की मृत्यु के बाद यह प्रदेश कन्नौज के प्रतिहारों त्रिपुरी के कलचुरियों मालवा के परमारों और मान्यखेत के राष्ट्रकूटों का अखाड़ा बना रहा । वैसे चंदेलों के पूर्व प्रतिहार ही प्रमुख शासक रहे, लेकिन लोक में अधिकतर अशांति ही रही । हर्ष ने बौद्ध-धर्म को फैलाने के अनेक प्रयत्न किये थे और हिंसा का पूर्ण निषेध कर दिया था, पर ७वीं शती में कुमारिल भट्ट और ८वी. शती में शंकराचार्य ने वैदिक मत के आधार पर हिंदू धर्म को पुनर्जीवित किया, जिससे लोकमत में अनोखी क्रांति आई और लोकसंस्कृति में आत्मविश्वास जगा । प्रतिहार विष्णु, शिव, आदित्य और देवी के भक्त थे, जबकि परमार, कलचुरि और राष्ट्रकूट शिव के उपासक । अतएव धार्मिक दृष्टि से बुंदेलखंड में शिव, विष्णु, देवी, सूर्य आदि की पूजा प्रतिष्ठित रही । स्कंद पुराण में प्रमुख शिवलिंगों के वर्णन में कालिं को प्रसुखता दी गयी है । डॉ. वी वी. मिराशी ने भवभूति के 'उत्तररामचरित' में वर्णित कालप्रियनाथ को कालपी में प्रतिष्ठित सूर्यदेव माना है, जिससे कालपी उत्तर भारत के प्रमुख सूर्य-पुजा केंद्र प्रतीत होता है । अतएव देवी-देवताओं और लोकविश्वासों में कोई परिवर्तन नहीं आया । इसी तरह लोकसंस्कारों में भी कोई विशेष बदलाव नहीं मिलता, केवल बाल्यावस्था में बौद्ध संन्यासी होने से बचाने के लिए बाल-विवाह का प्रचलन हो गया था ।

सत्ताकेन्द्रों के कमजोर और अस्थिर होने से छोटे-छोटे क्षेत्रों में गोंड़, कोल, भील, यादव, राउत, दाँगी आदि जातियों का अधिकार हो गया था, जिनका सामना चंदेलों को करना पड़ा । उनकी प्रमुखता से लोकसंस्कृति पर गहरा प्रभाव पड़ा । एक तो यह कि एक बार फिर लोकसंस्कृति में उभार आया, क्योंकि उस वर्ग के दबे ङुए लोकमूल्य, विश्वास, आचरण और लोकवार्ता आदि प्रमुखता पाने लगे । दूसरे, प्राकृत लोकप्रचलन से लुप्त होकर केवल संस्कृत नाटकों तक सीमित हुई और देशज भाषाओं का प्रयोग होने लगा । इस रुप में यह अंधकारकाल लोकसंस्कृति के लिए महत्त्व का सिद्ध होता है ।

चंदेल -काल

आचार्य भरत के नाट्यशास्र से प्रामाणिक संकेत मिलता है कि नाटक के क्षेत्र में लोकधर्मी नाट्य और शास्रीय नाट्य-परंपराएँ अलग-अलग अस्तित्व में आ गई थीं। इसी प्रकार मार्गी ओर लोकधर्मी विभाजन हर क्षेत्र में हो चुके थे । मार्गी का साहित्य संस्कृत में था और शास्रीय कलाएँ सीमित कलाकारों के हाथ में थीं, जबकि लोकधर्मी साहित्य प्राकृत में रचा जाता था और लोककलाएँ लोक में व्याप्त थीं । दोनों एक-दूसरे के पूरक और प्रेरक रहे थे । लोकरुप परिष्कृत एवं शैलीबद्ध होकर शास्रीयता से जुड़ जाते हैं और इस प्रकार दोनों में निकट का संबंध रही है । वस्तुत: दोनों के बीच अंतर्किक्रया और प्रतिक्रिया निरंतर जारी रही है और दोनों का आंतरिक संवाद उनकी प्राणशक्ति है । नौवीं शती अर्यात् चंदेलों के अभ्युदय-काल तक मार्गी और लोकधर्मी या देसी का विभाजन बिल्कुल स्पष्ट हो चुका था, अतएव बुंदेली लोकसंस्कृति की पहचान भी स्थिर होना कठिन नहीं थी ।

बुंदेली लोकभाषा का जन्म एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है । साहित्य के इतिहासकारों ने लोकभाषाओं या हिंदी के उदय का कारण हींदू राज्यों का परस्पर संधर्ष और मुसलमानों का आक्रमण माना है । डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त गुर्जर राज्य को हिंदी की जन्मभूमि मानते हुए उसकी मूल विशेषता रेखांकित करते हैं- " वह यह कि दसवीं शताब्दी से लेकर तेरहवीं शताब्दी के अंत तक दक्षिण को छोड़कर शेष भारत क्रमश: पराधीन हो गया था, जहाँ गुर्जर राज्य तेरहवीं शती के अंतिम समय तक (१२९९ ई. तक) अपनी स्वतंत्रता को अखंड बनाए हुए था । " -२० इससे ऐसा प्रतित होता है कि लोकभाषा या हिंदी का उद्भव किसी स्वतंत्र देश के सांस्कृतिक उत्कर्ष में हुआ था । यह तो बहस की बात है कि लोकभाषा द्वेंद्व में जन्मी या शांति में, लेकिन बुंदेलखंड में दोनों तरह की परिस्थितियाँ मौजूद रहीं-शुरु में द्वेंद्वमूलकता से प्रेरित लोकचेतना के आंदोलन की और बाद में स्वतंत्र संस्कृति के विकास की । चंदेल राज्य की आजादी और उत्कर्ष तो तत्कालीन इतिहास में बेजोड़ है, और खजुराहो की कला एवं आल्हा की लोकप्रियता आज भी उस युग का मानचित्र खड़ा करती है ।

चंदेलकालीन लोकसंस्कृति का संश्लिष्ट चित्र तत्कालीन ग्रंथों-आल्हा, प्रबोध-चंद्रोदय, रुपकषटकम्, पृध्बीराजरासउ, काव्यमीमांसा आदि और उस समय के शिलालेखों, मंदिरों, मूर्तियों आदि के आधार पर लिखा जा सकता है । जहाँ तक लोकमूल्यों या लोकादर्शें� का सवाल है, इस युग में लोक का प्रथम आदर्श युद्ध में खेत रहना था, जिसे 'आल्हा' में स्पष्ट अभिव्यक्ति मिली है-

मानुस देही जा दुरलभ है आहै समै न बारबार ।

पात टूट कें ज्यों तरवर को कभउँ लौट न लागै डार।।

मरद बनाये मर जैबे को खटिया पर कें मरै बलाय ।

खटिया पर कें जे मर जैहें नाँउ डूब पुरखन कौ जाय ।।

जे मर जेहैं रनखेतन मा साखै चलो अँगारुँ जाय ।

स्पष्ट है कि लोक में यह विश्वास था कि मानव शरीर पेड़ से टूटे पत्ते की तरह नश्वर है और दुबारा प्राप्त होना कठिन है, अतएव युद्ध में लड़ते हुए प्राण देना यश का सीधा मार्ग है । आत्महत्या जघन्य पाप मानी जाती थी ।-२१ इसी से जुड़ा नारी का आदर्श था-सतीत्व । अलबंरुनी ने लिखा है कि "विधवाएँ या तो अपने पतिदेव की चिता पर अपने को झोंक देती हैं या तपस्विनी का जीवन व्यतीत करती हैं ।"-२२ वत्सराज के 'रुपकषटकम्' में सती का प्रमाण है ।-२३ राजभक्ति और देश-प्रेम जैसे महत्त्वापूर्ण मूल्य भी लोक में व्याप्त थे । अलबेरुनी ने लिखा था कि "हिन्दुओं का विश्वास है कि यदि कोई देश है तो उनका, जाति है तो उनकी, यदि शासक हैं तो उनके ।" इतिहासकार फरिश्ता ने इसी का समर्थन करते हुए नारियों की भावना के उजागर किया है-"हिन्दू विरांगनाओं ने अपने जवाहरात बेच डाले, अपने स्वर्णाभूषण गला डाले और इस धर्मयुद्ध के संचालन के लिए उन्होंने दूरस्थ देशों से भी अपनी सहायता भेजी ।"-२४ इन सबसे अधिक कीमती मूल्य लोकमर्यादा का अनुसरण था, जिससे हर व्यक्ति लोकस्थिति के संरक्षण की विशेष चिंता रखता था ।-२५ सभी उदाहरण इस तध्य की पुष्टि करते हैं कि तत्कालीन समाज में लोक की महत्ता थी ।

चंदेल मंदिरों, मूर्तियों और अभिलेखों से प्रकट है कि लोक में शिव, विष्णु, देवी, गणेश और सूर्य की पूजा प्रचलित थी ।-२६ सामूहिक और व्यक्तिगत मूर्तिपूजा, दोनों का महत्त्व था । शिव की मढियाँ गाँव-गाँव में बनने लगी थीं । तालाब खुदवाना, मंदिर बनबाना, दान देना और तीर्थयात्रा करना पुण्यकार्य समझे जाते थे । दैनिकचर्या धर्म से संबद्ध हो गई थी । कृष्ण और विष्णु को एक मानने से ऐसा लगता है कि अवतारों को भी पूज्य माना गया था ।-२७ चंदेल-मंदिरों में विष्णु शिव आदि के अवतारों की अनेक मूर्तियाँ मिलती हैं ।-२८ घरों में देवी-देवताओं की मूर्तियाँ रखने की परम्परा बन गाई थी ।-२९ लक्ष्मी की पूजा के प्रमाण मिलते हैं ।-३० अनुष्'ान, व्रत और त्योहार, धर्म के अंग हो गए थे । पुरोहितों के आडम्बर शुरु हो गये थे, -३१ पर लोक उन्हें श्रद्धा देता था । इस तरह लोकधर्म का स्वरुप काफी प्रभावी हो गाया था ।

ठीक इसके समानांतर कुछ लोकविश्वास ऐसे थे, जो आज अंधविश्वास की कोटि में रखे जाते हैं, पर उस समय आस्था के ही अंकुर थे । कर्तव्य से अधिक भाग्य पर -३२ और ज्योतिष विद्या -३३, मंत्र -३४, जादू-टोना, भूत-प्रेत -३५, इंद्रजाल -३६ आदि में विश्वास करना आम प्रचलन में था । द्यूत में जीतने के लिए ज्ञानराशि और माणिभद्र की पूजा की जाती थी -३७ तथा गड़ा धन पाने के लिए आँखों में अंजन विशेष लगाया जाता था -३८, जो आज 'कजरी' लगाने के नाम से प्रसिद्ध है ।ग्रहण में दान देना -३९ उसके मोक्ष का साधन माना जाता था । कुछ कृषिपरक विश्वास पहले से चले आ रहे थे और कुछ इस समय प्रचलित हुए थे । खेती के शुरु और अंत में कृषि के उपकरणों की पूजा, फसलों की ओले आदि आपत्तियों से रक्षा करने के लिए मंत्र और पूजा तथा भूमि और धान्य-पूजन हर कृषक अवश्य करता था । 

कुछ शाश्वत लोकविश्वासों का पता 'प्रबोध-चंद्रोदय' नाटक से चलता है । लोग यह मानते थे कि सुख का अंत दु:ख में होता है -४० और चिंता न करना ही सब दु:खों की दवा है ।-४१ सुमार्ग पर चलने से देवता सहायक होते हैं और कुमार्ग पर जाने से भाई भी साथ छोड़ देता हैं ।-४२ प्रकृति-संबंधी विश्वास तो बहुत पुराने हैं । वृक्षों पर देवों का वास इस समय भी प्रचलन में था । बेलपत्र शिव का आहार, पीपल में बरमदेव का निवास और गाय की पूजा से मोक्ष-इसी काल में मान्य हुए । नाग या सपं-संबंधी विश्वास नाग और वाकाकट-काल से आकर आव पक्के हो गये थे । १०वीं-११वीं शती में बने मंदिरों के संबंध में प्रचलित सपं-संबंधित किंवदंतियों में (जिन्हें अक्सर आर्केल्याजिकल सर्वे रिपोट्र्स में उद्धृत किया गया है) इन विश्वासों की प्रबलता दिखाई पड़ती है । किंवदंतियाँ लोकविश्वासों से उत्पन्न होता हैं और ऐतिहासिक कध्य में लोकविश्वास प्रतिबिम्बित करती हैं । चंदेली या परमार मंदिरों से जुड़ी किंवदंतियों से यह तध्य स्पष्ट हो जाता है ।

वस्राभरण एवं भोजन-पेय का भी अपना इतिहास है । इस काल की मूर्तियों से वस्रों का अनुमान लगाना कठिन नहीं हैं । महोबा में प्राप्त सिंहनाद अवलोकितेश्वर से ज्ञात होता है कि पुरुष अधोभाग में धुटन्ना और ऊर्ध्वभाग में अंशुक या उपरना डालते थे ।-४३ अधोभाग में नीचे तक की धोती (लहरियादार के भी प्रमाण मिलते हैं, जिसे बुंदेली में कुचौताला कहते हैं । इस तरह का वस्र चंदेल और कलचुरि मूर्तियों में अत्यंत कलात्मक ढंग से उत्कीर्ण किया गया है । जाँघिये या घुटन्ने का प्रयोग भी कई जगह मिलता है । भेड़ाघाट के गौरीशंकर मंदिर में नर्तित गणेश की प्रतिमा उत्तरीय और जाँघिया पहने है । वत्सराज के 'रुपकषटकम्' में योगप का उल्लेख है, जिसे बुंदेली में अँचला या अँचरा कहते हैं और जो पीठ से घुटनों तक होता है । तेवर में प्राप्त अवलोकितेश्वर की प्रतिमा इस परिधान से सुशोभित है । स्रियाँ अंगिया, चोली और फतुही जैसे वस्र ऊर्ध्वभाग में धारण करती थीं । भेड़ाघाट की एँगिनी (योगिनी) चोली जैसा और ॠक्षिणी अंगिया जैसा वस्र पहने है । इंद्रजाली, जाह्मवी आदि प्रतिमाओं के अधोवस्र चुन्नटवाले, लहरियादार और लंबे जाँघिया जैसे पैरों से सटे हैं । कुछ में वे लम्बे जाँघिया सरीखे लगते हैं । खजुराहो की सुरमा लगाती सुरसुंदरी में वह और भी स्पष्ट है । बुंदेलखंड में प्रचलित कछोटादार धोती भी कुछ इसी तरह लगती है । आल्हा में पुरुषों द्वारा सिर पर धारित पगिया (पाग) को महत्त्व दिया गया है ।

आल्हा में नौलखा हार की एक कथा-सी है, जिससे प्रतीत होता है कि कंठहार गले का सर्वप्रिय आभूषण था ।-४४ खजुराहो की मूर्तियों में हार के अलावा खंगौरिया और हमेल जैसे आभूषण गले में सुशोभित हैं । कलचुरि मूर्तियों में माला सामान्य आभूषण है । कान में कर्णफूल -४५ और सिर में शीशफूल एवं बीज-४६ सभी श्त्रियाँ पहनती थीं । कटि में करधौनी हर चंदेल और कलचुरि मूर्ति में उत्कीर्ण है । हाथों में अंगद या बरा, खग्गा, कंगन -४७ चूडियाँ और अँगूठी-४८ प्रचलित थीं । पैरों में नूपुर, सॉकर या पायजेब जैसा आभूषण,-४९ बिछिया और अनौटा पहनने का रिवाज था । महोबा से प्राप्त नीलतारा की प्रतिमा के आभूषण बहुत ही स्पष्ट हैं । उसके कानों में कर्णवलय या कुंडल जैसा आभूषण काफी बड़े आकार का है, जिसका प्रचलन मद्ययुग में नहीं मिलता । खजुराहो की मूर्तियों में पुष्पों और पुष्पमालाओं से श्रृंगार के प्रचलन की पुष्टि होती है । वत्सराज के रुपकों में भी उसका वर्णन है । इस समय पुरुष और बालक भी तोड़े, कड़े, हार आदि पहनते थे । नाक का कोई आभूषण नहीं मिलता । कंदरीय मंदिर में माथे पर टिकुली अवश्य मिलती है ।

खजुराहो की मूर्तियाँ गवाह हैं कि इस काल में आँखों में अंजन, अधरों में अधर राग और पैरों में आलता या, महावर का प्रयोग होता था । विवाहित स्रियों को सिंदूर लगाना अनिवार्य था, जैसाकि चंदेल विवरणों एवं खजुराहो की मूर्तियों से मालूम होता है । पति की मृत्यु पर सिंदूर लगाना वर्जित था । 'रुपकषटकम्' में तो अंगों पर चंदन, कपूर आदि लगाने का उल्लेख है, पर यह उच्च वर्ग तक सीमित था । पान-बीड़ा का सेवन सभी करते थे-५० और वह श्रृंगार प्रसाधनों में शामिल था । वेश्याएँ और कुलटाएँ नकली अलंकरण धारण करती थीं ।-५१

चंदेली दानपत्रों में सामान्य भोजन के रुप में विविध अन्न, चीनी, दूध, घी और फल का उल्लेख मिलता है । ब्राह्मण मांस-भक्षण नहीं करते थे, पर शेष तीन वर्ण गाय और सिंह के अलावा अन्य पशुओं का मांस खाते थे । वैसे मद्यपान का निषेध था, पर 'प्रबोधचंद्रोदय' के अनुसार भ्रष्ट श्रमण सुरापान करते थे ।-५२ 'रुपकषटकम्' में वेश्याएँ, भुजंग, विट, कामी और भ्रष्ट संन्यासी एवं योगी मद्य सेवन करने वाले बताये गए हैं ।-५३

लोकाचार की दृष्टि से इस काल को पुनर्प्रतिष्ठापक कहना सही है क्योंकि पुराने हिंदू आचार-व्यवहार को ही पक्का करने का प्रयास इस युग की विशेषता है । साथ ही युगानुरुप संस्कार भी निर्मित हुए हैं । उदाहरण के लिए, क्षत्रियों में कन्या का जन्म अभिशाप माना जाने लगा था, क्योंकि वे दूसरों को कन्या देने में अपना अपमान महसूस करते थे । लेकिन पुत्र होने पर माँ की गरिमा बढ़ जाती थी और आनंद का प्रतीक जन्मोत्सव मनाया जाता था । चंदेल-नरेश हर्ष की रानी को राजकुमार पैदा होने पर उसे 'देवकी' कहकर सम्मान देने का प्रमाण इतिहास में मिलता है ।-५४ इससे कन्या-वध की प्रथा चली, जो बहुत बाद में कानून द्वारा बंद हुई । दूसरे कन्या-जन्म का सोच तब से बराबर बना रहा और आज भी मौजूद है ।

विवाह-संस्कार इस युग में काफी चर्चीत रहा, जिसका उल्लेख आल्हा, रुपकषटकम्, शिलालेखों आदि में मिलता है । उच्च वर्ग में सवर्ण विवाह प्रचलित थे, पर बलात् अपहरण के उदाहरण भी वर्णित हैं । विवाह के कारण युद्ध और उन्हें राजनीति का हथियार बनाने के साक्ष्य आल्हा और पृध्वीराजरासउ दोनों में हैं । लेकिन आल्हा की गाथाओं में एपनवारी भेजने से लेकर नवपरिणीता घर लाने तक विवाह-संस्कार की विधियों और नेगों के संकेत स्पष्ट हैं,-५५ जिससे जाहिर है कि थोड़े अंतर से पूरी प्रक्रिया शास्रानुरुप हो गयी थी । रुपकषटकम् में वधूपक्ष की ओर से विवाह का प्रस्ताव, मुहूर्त-शोधन, विवाह का कन्यागृह में संपन्न होना, पहले इंद्राणी-पूजा आदि और सखियों द्वारा अखंड सौभाग्य की कामना, बारात आने पर शिविरों में ठहराना, धर में बारात की अगवानी, स्वागत-सत्कार, मंगलाचार, कन्यादान के समय पिता द्वारा दहेज सौंपना आदि उल्लेखित हैं ।-५६ कन्याएँ विवाह के लिए स्वतंत्र नहीं थीं और उसे भाग्याधीन मानती थीं ।-५७ बहुविवाह प्रथा थी, जिसकी वजह से सौत से कलह सहज थी ।-५८ इनके बावजूद स्रियों में अरुन्धती और अनुसूया के पातिव्रत्य धर्म के आदर्श विद्यमान थे, जिनका उल्लेख चंदेल रिकाड्र्स में है ।-५९

तीसरा प्रमुख संस्कार मृत्यु-संबंधी है, जिसमें शवदाह से लेकर तेरहवीं तक कई संस्कार करने पड़ते हैं । इनकी जानकारी तो नहीं मिल सकी, पर आल्हा में श्राद्ध का उल्लेख हुआ है । इसी तरह सं. ११०७ वि.के नन्यौरा दानपत्र में पितृतपंण के कृत्य का संकेत है, जिससे मृतकों के श्राद्ध में पानी देने के संस्कार का लोकप्रचलन प्रमाणित होता है ।

लोकरीतियों प्रथाओं और उत्सवों की प्रामाणिक जानकारी के अनुसार भी तत्कालीन लोकसंस्कृति का यथार्थ चित्र उभर आता है । इस जनपद में पहुनई या आतिध्य को सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त था । अतिथियों के पैर धोना, उनका सत्कार और ब्राह्मणों का सम्मान-पूजन सभी वर्गीं और जातियों में प्रचलित था ।-६० दहेज, पर्दा, सती जैसी प्रथाएँ अनुसरित होती थीं ।-६१ बहुत-सी साधारण रीतियाँ और प्रथाएँ भी थीं, जैसे-खेत में बिजूका खड़ा करना, सुखपरक अवसरों पर बधाई देना आदि ।-६२ प्राचीन लोकोत्सवों में कृषि-पर्व उस समय प्रमुख था । आल्हा में कजरियाँ खोंटने के समय हुए युद्ध का वर्णन है, जिससे पुराने कृषिपरक उत्सव में एक सशक्त परिवर्तन दिखाई पड़ता है । इस ऐतिहासिक घटना से कजरियों या भुजरियों का उत्सव भाई-बहिन के पवित्र प्रेम से जुड़ गया है ।-६३ इस प्रकार भोजन-पान, पर्वीत्सवों और धार्मिक कृत्यों की अलग-अलग रीतियाँ विद्यमान थीं ।

खजुराहो के मंदिरों सें शिकार, हस्तियुद्ध, नृत्य, संगीत आदि विनोदों के दृश्य-खंड मिलते हैं । लोकोत्सवों के दृश्य भी कहीं-कहीं उपलब्ध हैं । लोकस्हित्य और लोककलाओं के कुछ प्रामाणिक साक्ष्य भी खोजे गये हैं । खजुराहो अभिलोख, सं. १०११ वि. में कहा गया है कि चंदेल-नरेश वाक्पति क्रीड़ागिरि पर किरात स्रियों के मीत और मयूरनृत्य से मनबहलाव करते थे ।-६४ इससे सिद्ध है कि लोकगीत और लोकनृत्य राजाओं के मनोविनोद के साधन

थे । संवत् १०५५ वि. की नन्यौरी प्लेट से भी चंदेल-नरेश धंग के अंत:पुर के विनेदों की झलक मिलती है । यायावर कवि राजशेखर की काव्यमीमांसा में राजासन के पूर्व भाग में नट, नर्तक, गायक, वादक, हाथों के तोलों पर नाचने वाले, कुशीलव आदि के स्थान का संकेत किया गया है ।-६५ यहाँ तक कि जिन मंडन के 'कुमार पाल प्रबंध' में वसंतोत्सव पर चंदेलनरेश मदनवर्मन के राज्य में हर घर से गीत-संगीत गूँजने का उल्लेख है ।-६६ इसका तात्पर्य यही है कि लोकगीत और लोकसंगीत बहुत प्रचलित था, क्योंकि शास्रीय गीत-संगीत पर हर घर का अधिकार संभव नहीं है । आल्हा लोकमहाकाव्य से पता चलता है कि गाथाओं का उत्कर्ष इसी समय हुआ । कजरियों के राछरे भी प्रचलित हुए । देवी गीत, वसंत-गीत (फाग), दिवारी गीत और गोटें इसी युग में रचे गए और लोकमुख में रहे ।

वत्सराज के 'रुपकषटकम्' में गायन, नर्तन, अभिनय, चित्रपट और आलेखन का स्पष्ट उल्लेख हुआ है,-६७ जिससे १२ वी. शती में जीवित लोककलाओं का साक्ष्य मिलता है । चंदेलनरेश परमर्दिदेन के समय नीलकंठ यात्रा में भी अभिनय का आयोजन होता था । काव्यमीमांसा में चित्रकार या चितेरे के लिए चित्रलेप्य शब्द का प्रयोग है ।-६८ 'प्रबोधचंद्रोदय' में ऐंद्रजालिक और काव्यमीमांसा में विट, रस्सों पर नाचने वाले ऐंद्रजालिक, दाँतों से खेल दिखलाने वाले और पटेबाज के लिए भुजंग, प्लवक, जंभकम्मल और शस्रोपजीवी शब्दों का चयन है, जो अभिनय करने वाले कलाकारों के विविध नामकरण हैं ।-६९ और भी कई उदाहरणों से विविध लोककलाओं की पुष्टि होती है ।

आल्हा में ऊदल के जन्म पर मल्हनादे का नृत्य करना सोहर गीत के साथ बधावा लोकनृत्य ही था । स्पष्ट है कि संस्कारों में गीत के साथ नृत्य होते थे । किरात स्रियों के मयूर-नृत्य का उल्लेख किया जा चुका है । वत्सराज के 'रुक्मिणी-परिणय' में मांगलिक कौतुकों के अंतर्गत लोकनृत्य और लोकनाद्य-दोनों हो सकते हैं, जो बारात के समक्ष प्रस्तुत हुए थे ।-७० लोकोत्सवों में फागनृत्य राई, दिबारी या मौनिया नृत्य और लाँगुरिया नृत्य प्रचलन में थे । लोकनाट्यों में सामान्यत: देवी-पूजन में भाव, उत्सवयात्रा में स्वाँग, दर्शकों या राजसभा के समक्ष इंद्रजाल आदि कम संवादवाले अभिनय और खेल तो सर्वत्र व्याप्त थे ही, लेकिन भाण, प्रहसन आदि अभिनीत होने के प्रमाणों से प्रमुख लोकनाट्य स्वाँग ही ठहरता है, जो हर युग में निरंतर विकसित हुआ है ।

लोकचित्रकला की जानकारी वत्सराज के 'रुपकषटकम्', राजशेखर की 'काव्यमीमांसा' और चंदेल विवरणों में मिलती है । 'रुपकषटकम्' से स्पष्ट है कि चित्रकला में स्रियों की विशेष रुचि थी ।-७१ 'रुक्मिणी-परिणय' और 'समुद्र-मंथन' में चित्रकर्म द्वारा ही रागोत्पति बतायी गई है । साथ ही चित्रपट और आलेख्य से पटों और आलेखनों का संकेत स्पष्ट है । विवाह के पूर्व के मांगलिक कृत्य-इंद्राणी-पूजा -७२ में या तो चित्र की पूजा होती है या मूर्ति की-दोनों रुपों में वह लोककला ही थी । इसी तरह गजलक्ष्मी या लक्ष्मी के बारे में यह मानना उचित है कि लोकदेवी लक्ष्मी के लोकचित्र और लोकमूर्तियाँ, दोनों बनते थे । देववर्मन की संवत् ११०८ की चरखारी प्लेट, परमर्दिदेव की संवत् १२३६ की चरखारी प्लेट आदि में 'फिगर' (आकृति) का अंकन और कुछ में एनग्रेव्ड (उत्कीर्ण) कहा गया है ।-७३ लक्ष्मी और हनुमान लोकदेवता थे, पर उनके अलावा यक्ष (माणिभ्रद), देवी आदि भी लोकमान्य थे । इन सबकी मूर्तियाँ लोकमूर्तियाँ थीं । मुझे इस युग की कुछ लोकमूर्तियाँ मिली हैं, जैसे सागर की पूरबयाऊ टौरी में स्थित बीजासेन मंदिर में सप्तमातृकाएँ, महोबा के मनियाँदेव और गोखागिरि के पश्चिमी पार्श्व में एक शिला पर उत्कीर्णल 'सुनरा-सुनरिया' (वस्तुत: कनफटा साधु और नर्तकी), तत्कालीन सती-स्तंभों के युगल आदि । चंदेल युग में महायान और वज्रयान तथा तंत्रवाद-मंत्रवाद के कारण लोकचित्रों में ज्यामितिक विधान आया और त्रिभुज, चतुर्भुज, बिंदु, चक्र आदि प्रतिकों का प्रयोग जोर-शोर से चलने लगा । इसी तरह मूर्तिकला में भी रेखाएँ महत्त्व पाने लगीं शरीर या रुप पर उतना ध्यान नहीं दिया गया ।

इस युग की लोककलाओं की प्रमुख विशेषता है-उनकी युगानुरुप वस्तु और उसकी अभिव्यक्ति में ओजपूर्ण उत्साह । सती-स्तंभों के युगलों सें पुरुष-बलिदान और स्री-त्याग एवं पातिव्रत्य के जीवंत प्रतीक हैं । लोकचित्रों और सती-स्तंभों में ऊपर के दोनों सिरों में अंकित सूर्य और चंद्र जहाँ जीवन की शाश्वतता को श्रेय देते हैं, वहाँ पुरुष और शक्ति के जुड़ाव के नैरन्तर्य को । चंदेल-युग की हताश चेतना को इस अटूट आस्था और असाधारण जीवनीशक्ति की जरुरत था । इसीलिए गाँव-गाँव में चबूतरा बने और छोटी-छोटी मढियों की स्थापना हुई । इसी का अनुसरण शास्रीय कलाओं ने किया और बड़े-बड़े मंदिरों से पूरा जनपद भर गया । दरअसल, यह सब लोकचेतना का प्रभाव था । नाटककार वत्सराज के 'रुक्मिणी-परिणय' में 'लोकस्थिति: किंतु न लंघनीया'-७४ से स्पष्ट है कि लोकस्थिति संरक्षण की विशेष चिंता उस युग के जन-जन में परिव्याप्त थी ।

तोमर -काल

चंदेलों के पतन पर ग्वालियर के तोमर राजाओं ने बुंदेली संस्कृति की रक्षा की और ग्वालियर राज्य एक नया सांस्कृतिक केन्द्र बना । अगर तटस्थ दृष्टि से देखा जाय, तो १४वीं शती बुंदेली लोकसंस्कृति के लिए विषम थी । वैसे तो विदेशी आक्रमण ११वीं शती से प्रारंभ हो चुके थे, पर चंदेलों की असीम शक्ति ने उन्हें बराबर विफल कर दिया था । १३वीं शति के तीन-चार दशकों के बाद मुस्लिमों ने इस प्रदेश के कई भागों पर अधिकार कर लिया था और तभी से लोकसंस्कृति का सीधा संघर्ष शुरु हुआ । सबसे अधिक खतरा रहा हिंदवी से, जो सुफियों के द्वारा देश के कोने-कोने में फैलायी जा रही थी और जिसमें दिखाने को लोकभाषा के दो-चार शब्द थे, पर वह तुर्की-फारसी से लदी थी । इसी प्रकार सूफी कव्वालियों, गजलों आदि ने लोकसंगीत और भारतीय संगीत के खिलाफ एक चुनौती खड़ी कर दी थी । संस्कृति के बदलाव का पूरा सम्भार तैयारी में था, लेकिन तोमर-काल में रचित विष्णुदास के विष्णुपदों और बैजू बावरा के धुवपदों की लोकभाषा और देसी संगीत ने बुंदेली ही नहीं, भारतीय संस्कृति को बचा लिया । मुस्लिम इतिहासकार अलबेरुनी ने स्पष्ट रुप में लिखा था कि "भारतीय विद्याएँ उन स्थानों से दूर हट गयी हैं, जिन्हें हमने जीत लिया है ।" यह संकेत उस समय की स्थिति का सही चित्र समझने के लिए काफी है और ऐसी संक्रांति में बुंदेली लोकभाषा और देसी संगीत का योगदान इतिहास की अनुपम मिसाल है ।-७५

तोसर-काल की दूसरी देन है-अखाड़ा । विष्णुदास की रचना 'महाभारत' (१४३५ ई.) में अखाड़ा जहाँ मल्लों के युद्ध का स्थल है, वहाँ नृत्य-संगीत का केन्द्र भी ।-७६ १५वीं शती के उत्तरार्द्ध की कृति 'छिताई कथा' में 'नित नवरंग' अखारे होई । नट नाटक आबई सब कोई । ।" से स्पष्ट है की ये अखाड़े 'नट-नाटक' की गीति, नृत्य आदि की प्रतियोगिता के केंद्र थे । कवि लिखता है कि देसी संगीत और अनुपम नृत्य होते थे ।-७७ वस्तुत: अखाड़े मध्ययुग के कला संस्थान थे, जो बुंदेलखंड में १९वीं शती के प्रारंभ तक जीवित रहे और जिनका प्रभाव लोककलाओं की समृद्धि और उत्कर्ष का जीवित प्रेरणाकेन्द्र रहा ।

इस काल में लोकमूल्यों में ' सत्त' प्रमुख था-७८, जिसकी अर्थ-व्याप्ति अधिक थी और जिसमें अस्मिता या अस्तित्व, सत्य, सतीत्व आदि का समाहार आसानी से हो जाता था । 'सत्त' की यह परम्परा इस युग में ही नहीं, वरन् पूरे मध्ययुग में १९वीं शती के प्रारंभ तक मिलती है । आचार्य केशव, हरिसेवक मिश्र और अधिकतर प्रेमाख्यानों के कवियों के ग्रंथ इसके प्रमाण हैं । अतएव बुंदेलखंड में लगभग चार सौ वर्ष 'सत्त' का बोलबाला रहा है और आज भी बुंदेली लोक में उसका प्रचलन है । अक्सर लोग कहा करते हैं कि इस देवी में 'सत्त' होता, तो ऐसा क्यों होता अथवा सती होने वाली नारी के 'सत्त'-परीक्षा की चर्चा एक आम बात है । दूसरी लोकमूल्य था-'पत' रखना-७९ जो १९वीं शती तक बहुत प्रभावशील रहा । अपनी ' पत' या इज्जत, प्रतिष्ठा, स्वाभिमान रखना एक ऐसा लोकादर्श था, जो सार्वभौमिक और सार्वकालिक-सा था । छिताई कथा, रतनबाउनी, और अधिकांश मध्ययुगीन ग्रंथों में इसका उल्लेख है । वस्तुत: मध्ययुग की लोकसंस्कृति का सम्यक् मूल्यांकन 'सत्त' और ' पत' के बिना संभव नहीं है ।

इन प्रमुख आदर्शीं से अतिरिक्त कीर्ती पाने की इच्छा-८०, दान देना-८१, युद्ध करना, मर्यादा रखना-८२, पातिव्रत्य या सतित्व-८३, क्षात्रधर्म का पालन आदि प्रामाणिक लोकमूल्य थे, जिनका पालन लोक करता था । क्षात्रधर्म में युद्ध करना, वीरता और मरण-त्यौहार मनाना सब कुछ था-८४ तथा नारियाँ पति के मरने पर सती हो जाती थीं या सतीत्व की रक्षा के लिए जूझना उचित मानती थीं । वस्तुत: ये सभी आदर्श मध्ययुगीन लोकसंस्कृति की कीमती धरोहर रहे हैं और उनका उल्लेख तत्कालीन शिलालेखों, ग्रथों, लोकगीतों आदि में मिलता है । विष्णुदासकृत 'रासायन कथा' और नारायण दासकृत 'छिताई कथा' में कुछ लोकविश्वास समाहित हैं, जिनमें प्रमुख हैं-पुत्र के बिना व्यक्ति नरक से नहीं पार होता या पुरखों का उद्धार नहीं होता-८५, नियति की प्रबलता, कर्मफल भोगना पड़ता है, ज्योतिष और शकुन-अपशकुन पर आस्था आदि ।-८६

१४वीं शती तक वज्रयान, सहजयान, मंत्रयान, चक्रयान आदि शैव और वैष्णव तांत्रिक संप्रदायों में पूरी तरह विलीन हो चुके थे, इस कारण हींदू चिंतन में एक नयी स्फूर्ति आयी और तोमर युग में बुंदेलखंड ने अपने साहित्य और कला के द्वारा एक व्यापक आंदोलन छेड़कर विजातीय तत्त्वों से संघर्ष किया । वस्तुत: रिक्तता ओर संकट के समय लोकधर्म ने सबसे ज्यादा प्रगतिशील कदम बढ़ाया। संतों की लोकधर्मिता बुंदेलखंड के नाथों में अवशिष्ट थी, जिसने लोक को प्रभावित किया और नाथपंथी विष्णुदास ने बिना किसी सांप्रदायिक भावना के शिव के साथ गणेश, शारदा, ब्रह्म, विष्णु और महेश की त्रिमूर्ति सूर्य, इंद्र, गंगा, नवग्रह आदि देवताओं को समान महत्त्व दिया । ' छिताई कथा' के रचनाकार ने शंकर को देवों का देव कहा है । बैजू बावरा, तानसेन आदि के संगीतपरक पदों में भी कई देवों को शक्ति का प्रतिक माना गया हे । मैं तो यह मानता हूँ कि धर्म के शास्रीय रुप की अपेक्षा लोकधर्म ने सूफी और इस्लाम से टक्कर ली थी और लोकभाषा के लोकगीतों के द्वारा जन-जन में सहज चेतना जाग्रत की थी । इतिहास गवाह है कि किस तरह सूफी संतों से आकृष्ट होकर लाखों लोग मुसलमान बन गए थे-८७, अतएव सूफियों के धर्म की लोकोपयोगी प्रवृत्ति के लिए लोकधर्म, उनकी फारसी-लदी हींदवी के लिए लोकभाषा या 'भाषा' और खयाल-कव्वाली जैसे संगित-फड़ के लिए विष्णुपद-धुवपद का लोकसंगीत उठ खड़ा होना सहज-स्वाभाविक था ।

लोकधर्म का सही रुप लोकाचरण में है और लोकाचरण लोकजीवन के हर छोटे-बड़े कामों का लेखा-जोखा है । इस कारण भोजन-पेय, वस्राभरण, लोकाचार और रीति-रिवाज-सभी को लोकसंस्कृति का अंग माना गया है । इस काल के ग्रंथों, अभिलेखों और कलावशेषों से प्रकट है कि बुंदेली लोक ने अपने आचरण को अधिक लोकोन्मुखी बनाया है । इस कालावधि में बुंदेली ज्यौनार काफी प्रसिद्ध हो गयी थी, इसीलिए उसका वर्णन हर ग्रंथ में मिलता है । विष्णुदासकृत महाभारत में छ. पेय और अठारह भक्ष्य कुल चौबीस वस्तुओं को भोजन में परोसने को ज्यौंनार कहा गया है ।-८८ उनमें घेवर (मैदा, घी, चीनी से बनी एक मिठाई), बाबर (?) दहोंरी (शायद दही से बनी वस्तु) और सिखिरिन (चीनी, गरी, केसर आदि के योग से बना दही का पेय) आज प्रचलित हैं । आश्चर्य है की समोसा शब्द उस समय प्रचलन में था और पेराका या पेराकें भी, जो रंगों और कलाकारी से सज्जित बड़े गुझा को कहते हैं ।-८९ सिखिरिन श्रीखंड ही है या उससे मिलता-जुलता,-९० जो आज अपरिचित-सा हो गया है । ' छिताईचरित' में ज्यौंनार के साथ 'गारी' लोकगीत गाये जाने का उल्लेख है-"सुधा समान सुनावहि गारी ।"-९१ छ: पेयों में पछयावरि, सिखिरिनि, पातरी (बघारो मट्ठा), बासौंधी (रबड़ी मिश्रित दूध), दूध और पनौ बताये गए हैं ।-९२

'लखनसेन', 'पद्मावती रास' और 'छिताईचरित' ग्रंथों में धोती, कंचुकी, अँगिया, चोली, ओढ़नी, कुसंभी चीर, दक्षिणी चीर का यत्र-तत्र उल्लेख है । इस समय के सती चीरों में स्री को लहँगा पहने उत्कीर्ण किया गया है, जिससे पता चलता है कि लहँगा पवित्र अवसरों पर पहने जाने वाला विशिष्ट परिधान था । डॉ. मोतीचंद्र ने उसे बुंदेलखंड का विशिष्ट वस्र बताया है ।-९३ पुरुषों के वस्रों में पाग तो महत्त्वपूर्ण था ही, विवाह पर धारण किया जाने वाला बागौ (बागउ) प्रचलित हो गया था ।-९४ परदा और घूँघट के प्रयोग 'छिताईकथा' में आए हैं । समकालीन ग्रंथों में आभरण शब्द को महत्त्व मिला है । 'महाभारत' और ' छिताईकथा' में तरिका या तरिवन, खूँटी, नकफूली, कंठश्री, नउग्रही, हार, कंकन, मुंदरी, टीका, नेवर प्रमुख हैं । ' छिताईकथा' में अंजन लगाना, मेंहदी रचाना, नख बढ़ाना, बीरी (पान) खाना आ दि लोकसिंगार वर्णित हैं ।-९५

चंदेलकाल के जमे संस्कारों को इस समय लोकसहजता प्राप्त हो गई थी, जिसका पता ' छिताईकथा' में वर्णित विवाह से चल जाता है । उसमें आगौनी, ज्यौंनार, गारी गाना, दाइजौ सौंपना, पालकी में बहू का ससुराल आना, आलेपन और सिंगार के बाद सुहारागत आदि से जो क्रमबद्धता दिखाई पड़ती है, उससे लोक का संस्कारों के प्रति लगाव सिद्ध होता है । कन्या का विवाह अनिवार्य कर्तव्य था । घर में क्वाँरी कन्या होना चिंता का कारण माना जाता था ।-९६ मृत्यु-संस्कार को विष्णुदासकृत 'रामायन कथा' में 'किरिया' काज-९७ कहा गाया है और आज भी वह 'किरिया' नाम से लोकप्रसिद्ध ही है । चंदेलकालीन लोकरीतियाँ, प्रथाएँ और लोकोत्सव इस समय प्रचलित थे ही, पर जौहर करते हुए मरण त्यौहार मनाना और परदा-प्रथा इस युग की विशेषता बनी, जो सतीत्व-रक्षा के लिए जरुरी थी ।

युग की आवश्यकता के अनुरुप ही लोकसाहित्य ढलता है और यह तध्य इस युग के लोककाव्य से स्पष्ट है । लोकगाथा जो बारहवीं शती में उत्कर्ष पर थी और प्रत्यक्षत: संघर्ष के स्वर गुँजा रही था, अव प्रेमकथाओं में ढलकर अपने कुछ प्रतीकों के द्वारा युग-संदेश व्जंजित करने के लिए विवश थी । 'छिताईकथा' ' मधुमालतीविलास' आदि साक्षी हैं कि कवि-कथाकार लोक के समक्ष अपनी कथा गाया करते थे, ताकि समस्त लोक को संस्कृति की रक्षा के लिए तैयार किया जा सके । दूसरे, भाषा की रक्षा के लिए भी लोकभाषा का साहित्य रचा जाना जरुरी था, अतएव मौखिक और लिखित रुप में लोकसाहित्य का सृजन इतना ज्यादा हुआ कि यदि इसे लोकसाहित्य का युगा कहें, तो अत्युक्ति न होगी ।

' छिताईकथा' में विवाह के अवसर पर ज्यौंनार के समय ' गारी', लड़का-बहू के आने पर मौं-दिखराई में और उछाह-आनंद में मंगल गीत गाये जाने का उल्लेख है ।-९८ आशय यह है कि संस्कारपरक लोकगीत खूब प्रचलित थे । अनेक पौराणिक और प्रेमपरक गाथाओं के साथ सतीत्वपरक आख्यानक गीत इसी समय रचे गए । गद्य-पद्यमय लोककथाएँ, जैसे राजा गिलिन्द की कथा, संत-बसंत की कथा आदि भी इसी काल की हैं । लोककथाओं का तो यह विशिष्ट युग था,-९९ पुरानी लोककथाओं के आधार पर नयी कथाएँ गढ़ी गयीं और उनमें कालिक चेतना को किसी-न-किसी रुप में संग्रथित कर दिया गया । लोकसंगीत और देसी संगीत की प्रतिष्ठा और व्यापक प्रचलन की स्थिति को पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है, 'मानकुतूहल' और 'छिताईकथा' जैसे तत्कालीन ग्रंथ उसके प्रमाण हैं ।

अखाड़ों में देसी संगीत और नृत्य की प्रस्तुति तथा अभिनय का प्रदर्शन होता था ।-१०० लोकगीतों के साथ लोकनृत्य एक सामान्य बात थी ।-१०१ 'छिताईकथा' में 'रास' के आयोजन का उल्लेख है,-१०२ जिससे रासनृत्य और रासलीला, दोनों का बोध होता है । बुंदेलखंड में रासलीला को रास या रहस कहा जाता है । रामलीला भी प्रचलित थी, क्योंकि विष्णुदास की 'रामायनकथा' और 'छिताईकथा' में रामभक्ति के प्रमाण उपलब्ध हैं ।-१०३ लोकचित्र और लोकमूर्ति के स्पष्ट संकेत तो नहीं मिलते, पर तोमरकालीन चित्रों एवं मूर्तियों से उनका उत्कर्ष आभासित होता है । सती-स्तंभों और सती की मढियों से लोकप्रस्तरकला के अनोखे नमूने यह सिद्ध करते हैं कि उनका भी ऐतिहासिक अस्तित्व है और उनके संबंध में मैंने विस्तार से लिखा है । संक्षेपत: इस सौ-सवा सौ वर्षों के टुकड़े ने लोकसंस्कृति को नया उन्मेष ही नहीं, वरन् नयी ऊर्जा भी दी, जिससे वह आगे चलकर नयी दिशा और नयी गीत पाकर फल-फूल सकी ।

बुंदेल -काल

ग्वालियर के सांस्कृतिक गढ़ पर मुसलमानों का कब्जा होने से ओरछा केन्द्र बना, क्योंकि १५३१ ई. में ओरछा राजधानी बनने पर बुंदेले एक सुदृढ़ शक्ति के रुप में उभर चुके थे । दूसरी तरफ गढ़-मंडला केन्द्र बने, जो गोंडों के अधीन थे । कुछ इतिहासकारों का मत है कि गोंड़ों का शासन बहुत पुराना है और गोंड अवशेषों से भी इस तध्य की पुष्टि होती है । गोंडों का राज्य होने से ही इस प्रदेश को गोंडवाना कहा जाता था और अभी २५-३० वर्ष पहले तक इसे 'गुड़ानो' कहते रहे हैं । एक उक्ति तो बहुचर्चित रही- " मऊआ मेवा बेर कलेवा गुलगुच बड़ी मिठाई । जौ चाओ इत्ती चीजें गुड़ाने करौ सगाई । । " इन संकेतों का अर्थ है-गोंड़ों का लोकसंस्कृति पर प्रभाव । यानी गोंड़ों और बुंदेलों ने यहा ँ की लोकसंस्कृति को उत्कर्ष पर बैठाया और उसे व्यापक क्षेत्र देकर प्रतिष्ठित करने का महत् प्रयास किया है ।

लोकसंस्कृति आंचलेक होते हुए भी कई संस्कृतियों के समवायों (कल्चरल पैटन्र्स) का संगम है । बुंदेलखंड में कोल-भील, शबर, किरात एवं द्रविड़ जातियाँ रही हैं और उनके ही कई लोकमूल्य और लोकविश्वास आए हैं । उदाहरण के लिए, वृक्ष-पूजा, बलि आदि कोलों से, मूर्तिपूजा और अवतार की कल्पना द्रविड़ से तथा तंत्र-संत्र किरात जातियों की देन है । गोंड़ों ने भी लोकसंस्कृति को प्रभावित किया था और बाद में वे स्वयं उसमें घुलमिल गए । गोड़ों के आदिपुरुष शिव और यहाँ तक कि स्वयं गौड़ बाबा लोकदेवता के रुप में स्वीकार्य हुए । मतलब यह है कि लोकसंस्कृति की धारा सभी प्रवाहों को अपने में समेटकर निरंतर गतिमान रही है ।

बुंदेलखंड में भक्ति-आंदोलन तोसर-काल में ही अपने विशिष्ट परिवर्तन अंकित कर चुका था और विष्णुदास जैसे संप्रदायकुक्त प्रवर्तक की सृष्टि कर चुका था । उसने भक्तिपरक गीतों से भी जन-जागरण और संस्कृति की रक्षा का मोर्चा शुरु किया था । लेकिन इस प्रवर्तन के बावजूद लोकभक्ति और लोकधर्म का स्वरुप अपरिवर्तित रहा । बुंदेल-काल में जब रासकृष्ण-भक्ति के विविध संप्रदायों का प्रचार-प्रसार बढ़ा, तब लोकधर्म ने सभी विशिष्ट दृष्टियों को पचाकर लोकभक्ति का नया पंचामृत तैयार किया और उससे समस्त समाज परितृप्त हो गया । फल यह हुआ कि लोकसंस्कृति रामकृष्णमय होकर अपराजेय बन गयी ।

तिसरी प्रमुख घटना थी-आजादी की लड़ाई की शुरुआत, जिसके नायक थे चम्पत राय (१५८७-१६६१ ई.) और उनके बाद छत्रसाल बुंदेला । यह कोई लोक-आंदोलन तो नहीं था, लेकिन मुगालों के हमलों से पिसते हुए लोक की सुरक्षा और संरक्षण का प्रयास था । इसी वजह से लोकसंस्कृति प्रभावित हुई और वह भक्तिमयी होती हुई भी ओजप्रधान बनी रही । चौथी महत्त्वपूर्ण और सबसे अनोखी घटना बुंदेली की राजभाषा के रुप में प्रतिष्ठा हे, जिसने लोकसंस्कृति को समृद्धि, गरिमा और स्वतंत्र अस्मिता प्रदान की । पाँचवें, तोमरकालीन कला-समस्थान 'अखाड़े' इतने उत्कर्ष पर पहुँच गये कि आचार्य केशव को लिखना पड़ा- " कियो अखारो राज को सासन सब संगीत । " अखाड़ों से लोकसाहित्य और लोककला णएं निरंतर हलचल बनी रही और उन्हें विकास की नयी दिशा भी मिली । इन सभी प्रवृत्तियों की वजह से इस युग में लोकसंस्कृति का वह रुप ढला, जो उसके अब तक के इतिहास में मानक बना रहा ।

इस युग में भी विजातीय संस्कृति की रुख आक्रामक ही रहा, इसलिए अपनी लोकसंस्कृति की रक्षा और साथ ही उसकी आजादी के लिए लोक का आदर्श क्षात्रधर्म बना रहा ।-१०४ युद्ध में खेत रहना और स्वर्ग जाना प्रमुख लोकमूल्य रहा । नारियाँ भी शौर्य में कम न थीं । वे सतीत्व की रक्षा में अपने प्राण निछावर कर देती थीं । बुंदेलखंड में सती-स्तंभ, सती-चौरे और सती-मढियाँ भरी पड़ी है । इस समय रची गयी लोकगाथाएँ-मनोगूजरी और मथुरावली नारी के बलिदान का आख्यान कहती हैं । मथुरावली खड़ी-खड़ी जल जाती है, तब उसका भाई कहता है- "राखी बहना पगड़ी की लाज, बिहँस कहें राजा बीर, ठाँड़ी जरै मथुरावली । "

पगड़ी की लाज रखना या अपनी प्रतिष्ठा रखना भी इस युग का लोकमूल्य था, जो लोकसंस्कृति में 'पत' रखना के नाम से लोकमुख में जीवित रहा । महाकवि केशव की 'रतनबावनी' से लेकर कवि मदनेश के 'लक्ष्मीबाई राइछौ' तक लगभग तीन सौ वर्ष 'पत' का बोलबाला रहा । स्वामी की पत, कुल की पत और राज की पत । यदि भक्त देवी-देवता से प्रार्थना करता है, तो 'पत' रखने की । मध्ययुगीन लोकगीत की एक पंक्ति है-"मोरी मैया पत राखियो बारे जन की ।" इसी तरह दूसरी-"लाला हरदौल पत राख लइयो हो । भूलचूक चरन तरें दाब लइयो हौ । ।"

पुराने मूल्यों के स्थान पर नये मूल्यों की स्थापना करना साधारण काम नहीं है । हरदौल ने भौजी को माता मानकर जो नयी मान्यता दी, उसके लिए उन्हों विष खाकर प्राण त्यागने पड़े । इतना अवश्य है की भौजी-देवर के संबंधों में नया बदलाव लाकर, नया आदर्श प्रतिष्ठित कर वे देवता बन गए । लोकधर्म में भी कितनी शक्ति है कि उसने राम और कृष्ण को आम आदमी तथा हरदौल और मंगतदेव बुंदेला को लोकदेवता बना दिया । भक्ति भी आम आदमी का सम्बल बन चुकी थी । एक तरफ छत्रसाल जैसे राष्ट्रपुरुष अपने संघर्ष में 'मोहि तो भरोसो राम रघुरैया को' कहकर राम या कृष्ण से शक्ति पाते थे, तो दूसरी तरफ लोक भी रामकृष्ण पर सब कुछ छोड़ देता था । इतना ही नहीं, लोक ने रामकृष्ण के माध्यम से पारिवारिक संबंधों, कर्तव्यों और प्रेमादि भावों को एक नयी गरिमा प्रदान की । आम आदमी के जीवन में एक नये उल्लास की किरन फूटी और लोकसंस्कृति को नयी रवानी मिली । आप कल्पना करें कि गाँव का हर पुरुष अपने को राम-कृष्ण और हर नारी अपने को सीता-राधा महसुसे, तो गाँव की संस्कृति का क्या रुप होगा । एक पिता की बानगी देखों-

कोट नबै परबत नबै सिर नबत नबाये

माथौ जनक जू को जब नबै जब साजन आये ।

पहली पंक्ति में मध्ययुगीन राजनिति की पूरी झलक है । लेककवि कहता है कि कोट नब जाते हैं, पर्वत झुक जाते हैं और सिर भी जबर के नबाने से झकता है, लेकिन जनक जू का मस्तक तभी झुकता है, जब उनके द्वार पर साजन (दूल्हे के पिता यानी समधी) आते हैं । आशय यह है कि लोकसंस्कार इतना प्रभावी है कि वह शक्तिवानों के मस्तक भी झुका देता है ।

मध्ययुग में विविध लोकविश्वास और उनके साथ अंधविश्वास भी फूले-फले । भावी की प्रबलता -१०५, उद्यम का फल -१०६, जब जैसो चाहै कर्यो तब तैसी मति देइ -१०७ आदि लोकविश्वास प्रचलित रहे । धार्मिक विश्वास जैसे रोग या उपद्रवों से रक्षा, पुत्र या वी-प्राप्ति, समृद्धि या सौभाग्य पाने की सहज इच्छा आदि इस युग में जोरों पर रहे । देवता बढ़े और उनकी मनौतियाँ और पूजा बकिंढ़ । यहाँ तक कि लोक भूत-प्रेत की पूजा करने लगे- " तुलसी परिहरि हरि हरहिं पाँवर पूजहिं भूत । " -१०८ प्रकृति-संबंधी अर्थात्, पृध्वी, आकाश, बादल, वनस्पति, पशु-पक्षी आदि संबंधी लोकविश्वासों और अंधविश्वासों में बाढ़ आ गई थी । 'कामरुप कथा' में स्पष्ट लिखा है- " उनमें कछू बसीकरन, मंत्र जंत्र बल होय । " --१०९ झाड़-फूँक करने वाले ' नाउते' होते थे ।-११० सगुन-अपसगुन, ज्योतिष आदि पर सभी का विश्वास था ।-१११ तुलसीकृत रामचरित मानस में कवि की प्रेत-सिद्धि, लंका-प्रवेश का टोना और मेघनाद के तात्रींक यज्ञ का वर्णन है । शिशु-संबंधी टोने-टोटके तो मध्ययुग में अधिक प्रचलित थे और उन्हीं के अवशेष वर्तमान तक में बने हुए हैं । लोकमुख में जीवित आल्हा की गाथा में ' पारस' पथरी की काफी चर्चा है, ' कामरुप कथा' में भी वही ' पारस' सहायक सिद्ध होता है ।-११२

अनेक ग्रंथों में बुंदेलखंडी ज्यौंनार का वर्णन उपलब्ध है । विवाह की ज्यौंनार में गारियाँ गाने का रिवाज रामचरित मानस, रामचंद्रिका आदि में मिलता है और आज तक प्रचलन में है । ' कामरुप कथा' का कवि ज्यौंनार का वर्णन इसलिए नहीं करता कि वह जगत-जाहिर है ।-११३ इन जनपद की समूँदी रसोई भी प्रसिद्ध रही है, जिसमें भात (चावल), चने यानी दैवल की दाल, कढ़ी, पापर, कौंच-कचरिया, बिजौरौ बरा-मगौरा, बूरौ (चीनी), घी, माँड़े, अवश्य होते हैं । भोजन के दूसरे रुप मिर्जापुरी में माँड़े के स्थान में लुचई (पूड़ि), तिरकारी, मिष्ठान आदि होते हैं । मिर्जापुरी नाम मिर्जापुर से आया है, और यह इसी युग की देन है । वैसे तो गुड़ाने में महुआ और गुलगुच (महुए का पका फल) ही मेवा-मिठाई हैं । महुआ से बने सामान-डुबरी, मुरका, लटा आदि और भी स्वादिष्ट होते हैं । अकाल पड़ने पर महुआ, अचार, बेर-मकोरा एक मात्र सहारा हैं, इसीलिए महुआ यहाँ का जनपदीय वृक्ष है । महुए की शराब भी गाँववालों का पेय है । गर्मी में सतुआ और बिरचुन लोकप्रिय रहे हैं । तुलसीकृत कवितावली (लंकाकांड, छंद ५०) में सतुआ का उल्लेख है । भोजन के बाद बीरी (पान) खाने का प्रचलन था । यहाँ का पान भी प्रसिद्ध था । ' आइने-अकबरी' में पैड़ी, नौती, बहुती, अगहनियाँ, लेवार, करहंज आदि पान की जो किस्में दी गई हैं, वे बुंदेलखंड़ हैं ।-११४

तत्कालीन ग्रंथों में वस्राभरण के उल्लेख प्राप्त हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि इस युग में पुरुष के पहनावे में परदनी या धोती, अँगरखा, कुर्ता, बंडा (कोट), पगड़ी और साफा प्रमुख थे । ' आइने-अकबरी' में सुजनी (रुईभरी) और झोला का उल्लेख है ।-११५ ओरछा गजेटियह के अनुसार धनी लोग दुपट्टा और मिरजई का प्रयोग करते थे । पगड़ी प्रतिष्ठा की प्रतीक थी । उसे लोकगीतों में कमल की तरह सभा की शोभा माना गया है । एक पंक्ति है- "भरी सभा में सोहै स्वामी की पगड़ी, सिजिया में बिंदिया हमार । " स्रियाँ सारी या लहँगा, अँगिया या चोली या कंचुकी और ओढ़नी या निचोल पहनती थीं ।-११६ धोती या सारी का जगह लहँगा अधिक प्रयुक्त होता था और घाँघरा भी पहना जाने लगा था । पिछौरा स्री-पुरुष दोनों डालते थे । ठ कामरुप कथा' में पटका का उल्लेख मिलता है । बच्चों का प्रमुख वस्र झँगुला या झँगुली था ।-११७ तुलसी ने तो यहाँ के ओढ़ने-बिछाने के कपड़ों-खेस, साथरी, कथरी, गेंडुवा (तकिया) आदि के नाम दिये हैं ।-११८

सौंदर्य के लिए स्री, पुरुष एवं बाल-वृद्ध सभी आभूषण धारण करते थे । बच्चों में करडोरा (कटिडोरा), करधौनी, पैजनियाँ, पहुँची, कठला, लटकन, बघनहा आदि का प्रचलन था ।-११९ पुरुष अधिकतर तोड़ा (पैर), चूरा (हाथ), इकलरी करधनी (कटि), बाला या बालियाँ (कान) और गुंज-गोप (गले) पहनते थे, जबकि स्रियाँ पैरों में गूजरी, पैजना, पाँवपोश, बिछिया, अनौटा; कटि में करधौनी; गले में हमेल, सरमाला, लल्लरी, बिचौली, हार; हाथों में खग्गा, बरा, बजुल्ला, ककना, दोहरी, पहुँची, मुँदरी, छापें; कानों में कनफूल, खुटला; नाक में दुर, पुंगरिया तथा सिर में सीसफूल, बैंदा बीज और दाउनी । उत्सव, त्जौहार या किसी खास अवसर पर धरौवल (सुरक्षित) वस्रों और आभूषणों का प्रयोग किया जाता था । पटियाँ पारना (केश-प्रसाधन) और सिंगार पर अधिक ध्यान रहता था । बिंदि, अंजन, सिंदूर, मेंहदी और महावर प्रमुख सिंगार थे ।

इस कालखंड में लोकसंस्कार इसलिए कट्टर हो गये थे कि उनकी सुरक्षा उस संकट के दौरान रह सके । इसी कारण तुलसी की रामचरित मानस में जन्म, विवाह आदि का बहुत कुछ शस्रीय या वैधी रुप मिलता है । यह भी संभव है कि तुलसी का शस्रज्ञान उसमें सहायक हुआ हो । लेकिन आचार्य केशव की 'रामचंद्रिका' में लगन, बारात, अगवानी, द्वारचार, मंडप के नीचे जाना, मांगलिक गारी-गीत, शाखेच्चार, भाँवरि, शिष्टाचार, ज्योंनार, गारी-गीत का गायन, पलकाचार, दायज, विदाई, आदि का क्रमबद्ध वर्णन बुंदेलखंड की लोकरीति से मेल खाता है । 'कामरुप कथा' में भी आगौनी (अगवानी), ऊभी (ऊबनी), आतिशबाजी, कलश-वंदना, तिलक, मंडप के नीचे आसन, पत्तलों (पानी से सिंची) पर पकवान्, व्यंजन और सिन्नी (मिठाई), पान, भाँउर, ज्यौंनार, दाइज आदि लौकिक विधियों से संपन्न हुए ।-१२० लोकगीतों से जन्म, विवाह आदि के विविध संस्कारों का पता लग जाता है । प्रत्येक संस्कार में कुछ पुरानी रीतियाँ चलती हैं और कुछ नयी सम्मिलित हो जाती हैं । उदाहरणार्थ, पुत्र-जन्म पर भूत-प्रेत भगाने को थाली बजाना, न के लिए राई-नौंन उतारा जाना बहुत पुराने हैं । उछाह में बंदूकें छूटना, लड्डू और गुड़ बाँटा जाना, चौक या छटी में सोर उठना-सब मध्ययुग का है । खरीपटा (नामकरण) पर स्रियों का तमोर लाना, पहलौटा बच्चा होने पर बुआ का पलना या चंगेर लाना और सोहर लोकगीत के साथ नृत्य पहले का मालूम पड़ता है । आल्हा-ऊदल के जन्मोत्सव पर चंदेलनरेश परिमर्दिदेव की पटरानी माल्हनदे ने सोहर गीत के साथ नृत्य किया था ।

तुलसी इस काल की संस्कृति का प्रामाणिक गवाह है, इसीलिए जब वह लोकरीति को पूरा समर्थन देता है,-१२१ तब यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि तत्कालीन समाज में लोकरीतियों का बहुत अधिक महत्त्व था । 'कामरुप कथा' में पहुनई ऐर मिजबानी आतिध्य के लिए आए हैं, जो हर युग में एक विशिष्ट स्थान रखता है । अतिथि के आने पर उसके पाद-फ्रक्षालन के बाद उसे पेय-गोरस (दही या मठा के साथ गुड़ एवं सोंठ मिश्रित शर्बत) दिया जाता था । अतिथि को देवता की तरह मान-सम्मान मिलता था । सामाजिक उत्सवों पर्वों� और धार्मिक कृत्यों में विविध रीतियों का पालन होता था । पुत्री के चरण छूकर उसे सम्मनित करना बुंदेलखंड की विशिष्ट लोकरीति है । पिता-माता, दादा-दादी, नाना-नानी आदि सभी उसका पालन करते हैं, भले ही बिटिया आयु और पद में छोटी हो । जिस घर-गाँव में पुत्री ब्याही हो, उसका पानी तक पीना माता-पितादि को मान्य नहीं था । नारी का उतना सम्मान वस्तुत: उसके निरंतर अपमान का उत्तर था । चंदेल-काल में कन्या-वध, नारी को राजनीति का एक हथियार बनाया जाना तथा मुस्लिम और मुगल-काल में उसके अपहरण से उत्पन्न अपमानजनक परिस्थिति की प्रतिक्रिया में बुंदेलखंड की यह देन स्मरणीय मानी जानी चाहिए, क्योंकि दूसरे जनपदों में यह लोकरीति प्रचलित नहीं रही । पुत्री के साथ दामाद और बहिन के साथ बहनोई को भी सम्मानित पद प्राप्त है । दैवर-भौजी के पवित्र विनोद भी अपनी बराबरी नहीं रखते । इतना ही नहीं, यहाँ गाली के साथ सम्मानसूचक ' जू' जुड़ा रहता है । इन विशेषताओं के बावजूद कुछ कुरीतियाँ या कुप्रथाएँ भी मौजूद थीं । आचार्य केशवकृत ' वीरसिंहदेव चरित' (१३/८) में बहुपत्नीत्व और ' रामचंद्रिका' (३४/२०) में भोगवादी मठधारी के पाखंड से समाज का खोखलापन भी स्पष्ट होता है ।

अनेक उत्सवों, पर्वों� और त्योहारों का उदय मधययुग में ही हुआ । पुराणों में वर्णित तीज-त्यौहार और उनके विधि-विधान का अनुसरण भी इस समय जरुरी समझा गया । उन सबकी मान्यता से लोकसंस्कृति में नया उल्लास और उत्साह छा गाया, जिसने संघर्ष की थकन दूर करने में मदद की । अकती में विवाहित युवतियों का ननदों और देवरों से हास-परिहास, सावन तीज में झूला झूलती गूइयों की आत्मस्वीकृतियाँ, तीजा में मेंहदीरँगे गीतों की झंकृतियाँ, क्वाँर में सुअटा-नीरता के गीतों से क्वाँरी अभिव्यक्तियाँ-सब लोकसंस्कृति के आशावादी रुप को सबल बनाने में सफल रहीं । तुलसी ने बुंदेली फाग का सही चित्र खींचा है-

लोचन आँजहिं फगुआ मनाइ । छाँड़हि नचाई हाहा कराइ ।।

चढ़े खरनि विदूषक स्वाँग साजि । करैं कूटि, निपट गइ लाज भाजि ।।

नर नारि परसपर गारि देत । सुनि हँसत राम भाइन समेत ।।-१२२

लोकसाहित्य का तो यह स्वर्णयुग कहा जा सकता है, क्योंकि इसी समय अधिकांश लोकसाहित्य रचा गाया । मुझे तो प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों में इस काल के लोककवियों का लिखित लोकसाहित्य भी प्राप्त हुआ है, जिसके आधार पर मैंने लोककाव्य का क्रमबद्ध इतिहास तैयार किया है । मौखिक परम्परा के लोकगीतों की भी हस्तलिखित प्रतिलिपियाँ मिली हैं । कुछ राछरों को छोड़ शेष इसी समय लिखे गये, खासतौर से अमन जू (अमान सिंह पन्नानरेश), मंगत देव (कोंच के राजा सरुपसिंह बुंदेला के सुपुत्र तथा मुगल या तुर्क से संबंधित राछरे, राम-कृष्ण भक्तिपरक लोकगीत, विविध गारियाँ, मंजें, तड़ाका आदि तथा श्रृंगारपरक गीत भी इसी समय के सृजन हैं । अखाड़ों के उत्कर्ष से फड़काव्य की रचना भी हुई और लोकगीतों में प्रश्नोत्तर शैली का विकास हूआ । लोकगाथा, पँवारे आदि भी प्रचलित थे और लोकथाएँ तो बड़ी रुचि से कही जाती थीं ।-१२३ लोकनाट्यों का मंचन खूब प्रचलित था । स्वाँग, रहस, रामलीला, काँड़रा, राई ऐर भँड़ैती लोकनाट्यों ने अपनी धाक जमा ली थी । जहाँ तुलसी ने सभा में रस घोलने वाले स्वाँगों की प्रामाणिकता सिद्ध की है, वहाँ केशव ने -भँड़ैती और राई की ।-१२४ विदूषक राम की बारात में जो कौतुक दिखाते हैं, वे भी लोकनाट्य हैं और रावण के अखाड़े में गीत, नृत्य के साथ लोकनाट्य भी मंचित होते थे ।-१२५

देसी संगीत के पूरे देश में प्रसार से लोकसंगीत का मान बढ़ गया था । जब देसी संगीत भी शास्रीय विधान में ढलकर दरबारी हो गया और ध्रूवपद-गायकी मुगल दरबार की शोभा बढ़ाने लगी, तब लोकसंगीत ने अपनी सहज स्वच्छंदता से लोक को जाग्रत करना शुरु कर दिया, जिसका प्रामाणिक साक्ष्य तुलसी के ग्रंथ हैं । उनके अनुसार लोकसंगीत दो प्रकार का था-१. एक तो सहज लोकसंगीत, जो सोहर या फाग अर्थात् संस्कारपरक और उत्सवपरक लोकगीतों के साथ लोकप्रचलित था तथा २. फड़संगीत, जो लोकमंचों, समाजों और अखाड़ों में चलता था और जिसमें प्रतिद्वेंद्विता भी होती थी ।-१२६ फड़संगीत के रुप में सबसे पहले लाउनी या खयाल गायकी चंदेरी से शुरु हुई और १८वीं शती तक पूरे बुंदेलखंड में प्रचलित हो गई । उसके बाद सैर, मंज और फाग के फड़ प्रारंभ हुए । फड़ संगीत के उदय से लोकसंगीत की नयी-नयी धुनें आविष्कृत हुई और उसे व्यापक क्षेत्र मिला ।

लोकसंगीत की तरह लोकनृत्य भी दो रुपों में प्रचलित था-एक तो संस्कारपरक, उत्सवपरक आदि लोकगीतों के साथ सहज स्वच्छंद रुप में और दूसरा, अखाड़े या फड़ में प्रदर्शन के रुप में । सोहर और फाग के साथ नृत्य का साक्ष्य तुलसीकृत गीतावली में है -१२७ और अखाड़े का रामचरित मानस, कविप्रिया, कामरुपकथा, विरहवारीश आदि में ।-१२८ अखाड़े या फड़ों के लोकनृत्य व्यावसायिक भी होने लगे थे । राई लोकनृत्य भी पेशेवर बेड़नियों द्वारा प्रस्तुत होते थे, जिनका उल्लेख केशवकृत रामचंद्रिका में है । काँड़रा, मौनिया आदि जातिगत लोकनृत्य तो उत्कर्ष पर थे ही । लोकचित्र भी स्वच्छंद और व्यावसायिक-दोनों तरह की कला के थे । तुलसी ने आलेखनों, थापों और भित्ति-चित्रों का उल्लेख किया है ।-१२९ वे गार्हस्थिक संस्कारों के विधान, पूजन एवं लोकचित्रकला से पूर्ण परिचित थे । दोहावली के एक दोहे में थापे (हाँते) के पूजन के संबंध में उनका तर्क देखों-

अपनो ऐपन निजहथा, तिय पूजहिं निज भीति ।

फलै सकल मनकामना, तुलसी प्रीति प्रतीति ।। ४५४ ।।

स्रियाँ अपने घर की दीवार पर अपने ऐपन (चावल और हल्दी को एक साथ पीस कर बनाये हुए रंग) के अपने ही हाँते छापकर उनको पूजती हैं और उनकी सारी कामनाएँ पूरी हो जाती हैं । यह प्रेम और विश्वास का ही फल है और यह सब लोकसंस्कृति की ही देन है । बुंदेलखंड में लोकचित्रकला के लिए ' चतेउर' और चित्रकार के लिए 'चतेवरी' -१३० प्रयुक्त होता है । व्यावसायिक चतेउर में चार रंगों- ' हरित स्याम पिरो अरुनायो' का प्रयोग किया जाता है, पर स्वच्छंद चतेउर में अधिकतर गोरु रंग का । एक लोकगीत में सीता जू की ननद उनसे रावण के चित्र उरेहने का आग्रह करती है । सीता अपनी सौगंध धराने के बाद गाय के गोबर से भींत लीपती है और फिर लिखना लिखती है । इस गीत में उरहेना, लिखना आदि पारिभाषिक शब्द हैं -१३१, जिनका प्रयोग आज भी होता है ।

' आइने-अकबरी' में चंदेरी साड़ी की लोकशैली की डिजाइनों का उल्लेख मिलता है । इस काल की मृण्मूर्तियों का पता नहीं चलता, लेकिन लोकप्रस्तरकला के नमूने मिलते हैं । इनमें अधिकतर देवमूर्तियाँ और सतीस्तंभ हैं । इस प्रकार सभी प्रकार की लोककलाओं का उत्कर्ष इस काल की एक उपलब्धि है ।

पुनरुत्थान युग

बुंदेल-काल के अंतिम चरण में लोकचेतना परम्परित स्थैर्य से जकड़ी रही । छत्रसाल के संघर्ष के बाद बुंदेलखंड एक राजनीतिक इकाई तो बना था, पर उनके निधन के बाद राज्य के तीन हिस्से हुए तथा १८वीं शती के अंतिम चरण में बुंदेलों के परस्पर झगड़ों, गोसाइयों के आक्रमणों, मराठों की कूटनीतिक चालों, गोंड राज्य के पतन और अंग्रेजों की घुसपैठ ने इस जनपद में ईर्ष्या-द्वेष, बिखराव और विभाजन का ऐसा तांडव किया कि चारों तरफ पतन के दृश्य उभरने लगे ।-१७८३ ई. में गठेवरा का युद्ध हुआ और वह बुंदेलखंड का महाभारत ही सिद्ध हुआ, क्योंकि उसके बाद इस जनपद की ऊर्जा डूब गई, मूल्यों का हास हो गया और लोकसंस्कृति रात के अँधेरों से घिरकर सिमट गई । ऐसे ही समय १८४० ई. में जैतपुर के राजा पारीछत ने अंग्रेजों के खिलाफ आजादि की लड़ाई छेड़ दी और जब अन्य राजाओं ने वचनबद्ध होकर भी साथ न दिया, तब वे जनता को जाग्रत करने में जुट गये । फलस्वरुप प्रबुद्ध लोक एकदम कटिबद्ध हो गया । आजादी के संघर्ष में लोकसंस्कृति का सारा सम्भार शामिल हो गया, जबकि सामंतवादी संस्कृति निष्क्रिय-सी बनी रही । १८४०-४२ ई. के प्रयास में असफल रहने के बाद भी आग अंदर ही अंदर सुलगती रही और १८५७ ई. में एकदम फूट पड़ी । दुर्भाग्यवश उसमें भी निराशा हाथ लगी, लेकिन उसका जोश १९वीं शती के अंत तक बना रहा ।

स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान त्याग-बलिदान का महत्त्व रहता है और मंजिल तक पहुँचने के लिए सिर्फ वीरता का रास्ता, जो कि देश-प्रेम और उत्साह के मजबूत पैरों से चलकर पार करना पड़ता है । अगर हम तत्कालीन लोकसाहित्य का परीक्षण करें, तो एक तरफ इन्हीं लोकमूल्यों की बाढ़ न आएगी और दूसरी तरफ गद्दारी धोखाधड़ी और कायरता की । संघर्षों के निष्फल होने पर जो आपसी फूट और बैरभाव के कारण बिखराव की कहानियाँ बनीं, उनके खिलाफ प्रेम और एकता के गीत गाये जाने जरुरी थे । जाहिर है कि इन बदले हुए लोकमूल्यों को स्थिर करने और उन्हें जन-जन तक पहुँचाने के लिए लोकसाहित्य ही आगे बढ़ा और लोककवियों ने लोकरचनाओं के द्वारा हल्ला बोल दिया-

काऊ ने सैर भाखे, काऊ नें लाउनी । अबके हल्ला में फुँकी जात छाउनी ।।

"पारिछत को कटक" की इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि तत्कालीन लोककाव्य की विधाओं-सैर, लाउनी आदि ने १८४० ई. और उसके बाद क्रांति का बाना ही धारण कर लिया था । फागकार, कटककार और वीरगाथाकार-सभी लोककवि और लोकगायक गाँव-गाँव घूमे और सन् '५७ की आजादी की लड़ाई के लिए जन-जन को तैयार करते रहे ।-१३२

१८५७ ई. के बाद के लोकक्व्य की दो धाराएँ हो गाईं-एक थी शहीदों और उनकी घटनाओं को लेकर रचे गये देशप्रेमपरक गीत और आख्यानक काव्य की धारा जिसमें सैर और फागों के अलावा राष्ट्रीय गारियाँ भी लिखी गायीं, जो आज तक लोक की धरोहर हैं और दूसरी थी-प्रेमपरक लोकक्व्य की, जिसकी अगुआई फागमुक्तकों ने की । नयी चौकड़िया फाग और प्रेम की सहज अनुभूति का सहारा लेकर ईसुरी ने बँधी-बँधाई रीतिबद्ध कविता के खिलाफ विद्रोह किया एवं लोकक्व्य की प्रतिष्ठा को बहुत ऊँचाई पर खड़ा करने का प्रयास किया।

लोककाव्य का अनुसरण किया लोकनाट्यों ने और वे विषयवस्तु की दृष्टि से दो वर्गीं में बँट गये-एक देशप्रेमपरक और दूसरे प्रेम-श्रृंगारपरक । रासलीला, रामलीला में असुरों और राक्षसों के रुप में अराष्ट्रीय तत्त्वों का वध किया जाने लगा । राष्ट्रीय नौटंकियों का उदय हुआ और वीरतापरक स्वाँग खेले गये । दूसरी ओर प्रेम और श्रृंगार से ओतप्रोत नौटंकियाँ या सांगीत, राई, स्वाँग आदि लोकप्रिय बने ।

लोकसाहित्य के इस बदलाव से फड़गायकी को अधिक प्रश्रय मिला, अतएव लोकसंगीत में लोकमंच के अनुरुप नये लोकछंदों और लोकधुनों का आविष्कार हुआ । पुरानी आल्हागायकी कई जनपदों तक गयी और वह गायकी के नये साँचों में ढल गयी । दतिया में लेदगायकी का उदय हुआ और उसके प्रयोग लोकमंच पर भी हुए, जो काफी आकर्षक कई सिद्ध हुए । इन उदाहरणों से सिद्ध है कि जिस प्रकार लोकसाहित्य में नये विषय, नया कध्य और नयी भंगिमाओं का प्रवेश हुआ, उसी प्रकार उसकी अभिव्यंजना, तकनीक और गायकी में नयापन छा गया ।

इस समय के कटक, सैर, फाग, मंज, लेद आदि लोककाव्य की प्रमुख विशेषता यह है कि वे उसी कालखंड में रचे जाने के कारण इसी कालवधि की लोकसंस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं । आतएव लोककाव्य के आधार पर लोकाचार, लोकजीवन आदि की खोज सरल हो जाती है, पर शर्त यह है की अतिशयोक्ति या कल्पनापरक पंक्तियों को पहचान कर ही विश्लेषण किया जाय । उदाहरण के लिए ईसुरी ने १९वीं शती के अंतिम चरण के मिले-जुले मूल्यों को व्यक्त किया है-

१. तन कौ कौन भरोसो करने, आखिर इक दिन मरनें ।

२. जो कोऊ समर-भूमि लड़ सोबै, तन तरवारन खोबै

देय न पीठ लेय छाती पै घाव सामने होबै ।।

३. जौ तन परस्वारथ के लानें, जो कोउ करकें जानें ।

४. दोपक दया धरम कौ जारौ, सदा रात उजयारौ ।

धरम कों बिन करम खुलै ना, बिना कुची ज्यौं तारों ।

एक तरफ तन का कोई भरोसा नहीं, इसलिए परस्वार्थ, दया और धर्म करना चाहिए, तो दूसरी तरफ युद्ध में शौर्य दिखाना और लड़ते-लड़ते मर जाना ही सच्चा धर्म है । मतलब यह है कि वीरतापरक, आध्यात्मिक, नैतिक आदि सभी तरह के लोकमूल्यों की बात लोककवि करता है; ठीक उस आम आदमी की तरह, जो सभी मूल्यों की उचित इज्जत करता है, भले ही पालन न करता हो । आशय यह है की उस समय का व्यक्ति निर्मूल्यता जैसी मानसिकता में था । वह पटवारी या कानूनगो को दी जानेवाली लाँच (रिश्वत) से नाराज तो होता है, पर कर क्या सकता है ! या तो दौरिया गाँव के किसानों के लिए छतरपुर के राजा से विनती करता है या फिर खुद से संघर्ष करता खटता रहता है । उसके मन में न तो कुंठा है और न कोई प्रतिक्रिया । संघर्ष की इच्छा मर-सी गयी है और अब तो वह सभी प्रकार की परिस्थितियों से समझौता कर सहनशीनता का सज्जन आदमी बन गया है । वस्तुत: आजादी की लड़ाई में असफल होने और अंग्रेजों के द्वारा शोषित और दमित किये जाने के बाद गाँव की स्थिति कुछ ऐसी हो गई थी ।

लोक में प्रचलित वस्राभरण, भोजनपेय, संस्कार, रीति-रिवाज आदि लगभग वही थे, जो बुंदेलकाल में रहे थे । इतना अवश्य है कि थोड़ा-सा अंतर दिखाई पड़ता है और वह है-लोकसंस्कृति के यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में । इस समय का कवि महसूस करता है कि वृक्ष काटना, डाका पड़ना, अकाल, जमीन पर दूसरे का कब्जा, लाँच, काले-गोरे रंग का भेद, बच्चों की अधिकता, बाल-विवाह, परनारी से प्रेम, सौतिया डाह आदि छोटी-बड़ी समस्याएँ सुलझना जरुरी हैं । कभी-कभी वह व्यंजना से जमींदारों और शासकों पर चोट करता है-

उनको राज उनई की रैयत, सिर कै बात जबर की ।

' ईसुर' कात तलामें बस कें सैये सान मगर की ।।

जहाँ तक लोककलाओं और लोकसाहित्य की बात है, इस युग में उनका पुनरुत्थान अवश्य हूआ । लोककवियों ने युगचेतना के अनुरुप लोककाव्य की रचना की, यह बात अलग है की उनका नाम हींदी साहित्य के इतिहास में शामिल नहीं है । फाग-संग्रहों में राई-नृत्य का उल्लेख मिलता है, फागों के गायक और वाद्यों का भी । इससे स्पष्ट है कि राई-नृत्य काफी प्रचलित था । राई तो राजा, सामंतों और रईसों के अखाड़ों में विख्यात् था । किंवदंती है कि अकोड़ी (जालौन) के प्रानसिंह, पन्नानरेश अमानसिंह के बइनोई थे और उनकी गढ़ी में बेड़िनी राई गाकर अमानसिंह पर व्यंग्य कर रही थी, जिससे अमानसिंह को बात चुभ गई और उन्होंने गढ़ी को नष्ट कर दिया । नारहट (सागर) के मधुकरशाह बुंदेला ने बेड़िनी पर ही अंग्रेजों के लड़ाई मोल ली थी और विद्रोह का डंका बजा दिया था ।-१३३ राई के साथ स्वाँग जोड़कर लोकनाट्य बना लिया गया था । लीला-काव्यों के सृजन से पता चलता है कि रासलीला और लिलापरक लोकनाट्य खेले जाते थे ।-१३४ सभी लोककवियों और फागकारों ने गुदना के आलेखनों, अँगिया, चोली आदि वस्रों में लिखे लोकचित्रों आदि के द्वारा सिद्ध कर दिया है कि उस समय लोकचित्रकला के प्रति लोक में अधिक रुचि थी ।-१३५

आधुनिक काल

बीसवीं शती के दूसरे दशक से बंगाल, बिहीर, गुजरात आदि प्रतेशों में लोकवार्ता के संग्रह और सर्वेक्षण का कार्य प्रारंभ हुआ था । दूसरे, लोककाव्य के प्रवर्तक ईसुरी से प्रेरित होकर लोकसाहित्य की हर विधा में सृजन होने लगा था । तीसरे, वैज्ञानिक युग की बौद्धिकता का दबाव जीवन के हर क्षेत्र में बढ़ने लगा था और उसके कारण लोकसंस्कृति के संबंध में दो स्थितियाँ साफ-साफ दिखाई पड़ीं । एक तो लोकसंस्कृति की उपेक्षा और दूसरी बौद्धिकता के खिलाफ प्रतिक्रिया । इसमें कोई संदेह नहीं की विज्ञान ने भावुकताप्रधान प्रवृत्तियों को पीछे ढकेल दिया था, फलस्वरुप लोकसंस्कृति परम्परा का यांत्रिकी पालन मात्र होकर छोटे से दायरे में और खासतौर से नारियों तक सीमित होने लगी । दूसरे, नगरों ने गाँवों को अपने शिकंजे में जकड़ने का ऐसा आकर्षक इंतजाम किया था कि लोकसंस्कृति के संरक्षक ही लोकसंस्कृति की उपेक्षा करने लगे थे । असल में संक्रमण-काल के इस दौर में जहाँ लोक बदलाव के चक्र में घूम रहा था, वहाँ लोकमूल्य भी घिसे-पिटे से होकर चलन से बाहर हो रहे थे । इन परिस्थितियों के साथ-साथ बुंदेलखंड के कुछ भाग अपनी सांस्कृतिक इकाई के प्रति सचेत नहीं रहे और सांस्कृतिक समूह (कल्चरल गुप्स) छिन्न-भिन्न होते गये । इस तरह लोकसंस्कृति का संकुचन एक स्वाभाविक क्रिया के रुप में घटित हुआ ।

दूसरी स्थिति लोकसंस्कृति के पक्ष में है । बौद्धिकता और उससे उत्पन्न कुंठित मानसिकता के खिलाफ जनमत तैयार हौने लगा है और भावुकता तथा उससे उत्पन्न हार्दिक रागात्मकता का पलड़ा भारी है रहा है । स्पष्ट है कि लोकसंस्कृति का नया विकास दस्तक के रहा है और नये लोकमूल्यों एवं नवाचारों के अंकुर फूटने को हैं । साक्षी है-लोकसंस्कृति की नवीन प्रतिष्ठा और परिनिष्ठित संस्कृति का उससे प्रेरणा ग्रहण कर प्रभाव बनने की कोशिश । इस परिप्रेक्ष्य में बुंदेली लोकसंस्कृति का भविष्य उज्ज्वल है, पर शर्त यह है कि हम परिवर्तन की दिशा के प्रति जागरुक रहें ।

अंत में, मैं सिर्फ इतना और कहूँगा कि लोकसंस्कृति का सही स्वरुप लोक के इतिहास के बिना नहीं खड़ा हो सकता । दूसरे, इतिहास केवल राजाओं, सामंतों और उच्च वर्ग के बड़े लोगों के शिलालेखों, दुर्गीं, अभिलेखों, प्रशस्तिपरक उपकरणों का नहीं है, वरन् लोक का है । अतएव सभी तरह की सामग्री-प्रामाणिक, अर्द्धप्रामाणिक, किंवदंतियाँ, लोकसाहित्य, लोककला आदि का आधार लेकर तटस्थ दृष्टि से इतिहास-लेखन की महती आवश्यकता है । मैंने इस संक्षिप्त लेख में प्रामाणिक सामग्री का ही सहारा लिया है, ताकि आप बुंदेली लोकसंस्कृति के इतिहास-लेखन के इस प्रथम प्रयास में प्रामाणिक स्वरुप की एक बानगी पा सकें और यही इस लेखक की सार्थकता है ।

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Courtesy: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र