बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - लोकाभूषण (Lokabhushan)
बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास
लोकाभूषण (Lokabhushan)
- वर्गीकरण
- आभूषणों का इतिहास
- आभूषणों का स्वरुप
- स्रियों के आभूषण
- पुरुषों के आभूषण
- बालकों के आभूषण
- वस्रों में टाँकने वाले आभूषण
आभूषण लोकसंस्कृति के लोकमान्य अंग हैं । सौंदर्य की बाहरी चमक-दमक से लेकर शील की भीतरी गुणवत्ता तक और व्यक्ति की वैयक्तिक रुचि से लेकर समाज की सांस्कृतिक चेतना तक आभूषणों का प्रभाव व्याप्त रहा है । आभूषणों के उपयोग का प्रभाव तन और मन, दोनों पर पड़ता है । उनके धारण करने से ारीर का सौंदर्य ही नहीं प्रकााति होता, वरन् स्वास्थ्य भी सुरक्षित रहता था । सौंदर्य-बोध में उचित समय पर उचित आभूषण पहनने का ज्ञान सम्मिलित है । शरीर-विज्ञान के आधार पर ही आभूषणों का चयन किया गया है । पायल और कड़े धारण करने से एड़ी, टखनों और पीठ के नितले भाग में दर्द नहीं होता । ज्योतिषविदों ने ग्रह-नक्षत्रों के प्रभाव से आभूषणों के प्रभाव का संबंध स्थापित कर एक नयी दिाा खोली है । ग्रहों के बुरे प्रभाव को निस्तेज करने के लिए निचित धातुओं और रत्नों का चयन और आभूषणों में उनका प्रयोग महत्त्वपूर्ण खोज है ।
शील की पहचान का एक उदाहरण लक्ष्मण के इस कथन से मिलता है कि "नाहं जानामि केयुरे नाहं जानामि कुण्डले । नूपुरे त्वभिजानामि नित्यं पादा वन्दनातु ।।" (न तो मैं इन बाजूबन्दों को जानता हूँ और न इन कुण्डलों को, लेकिन प्रतिदिन भाभी के चरणों में प्रणाम करने के कारण इन दोनों नूपुरों को अवय पहचानता हूँ ।) आभूषणों से नारी की रुचि का पता चलते ही है, तत्कालीन आर्थिक और सामाजिक स्थिति की भी पहचान हो जाती है । यदि प्राचीन समय में पैरों में स्वर्णाभूषण या रत्नजटित आभूषण पहने जाते थे, तो तत्कालीन समृद्धि का पता लगा जाना स्वाभाविक है । किसी परिवार की नारी के आभूषणों से उसके स्तर का ज्ञान हो जाता है । कुछ आभूषण सौभाग्य के प्रतीक रुप में मान्य हैं, जिन्हें देखकर परिणीता स्री की पहचान हो जाती है । आभूषणें से जूड़े लोकविश्वास लोकसंस्कृति के अवयव हैं । बिछिया बदलने के लिए अच्छे दिन चुने जाते हैं । लोकोत्सवों और पूजा में आभूषण शुभत्व के प्रतीक हैं । संक्षेप में, जीवन के सुख-दु:ख के साथ आभूषणों का सार्थक जुड़ाव रहा है । कैकेयी कोप-भवन में जाकर लाखों की लागत के मोतियों के हार तथा सुंदर बहुमूल्य आभूषण अपने अंगों से उतारकर फेंक देती है (रामायण, २/९/५६), जबकि सीता पति के हाथ की मुद्रिका पाकर इतनी प्रसन्न होती है, मानो उनके पतिदेव ही उन्हें मिल गयो हों (रामायण, ५/३६/४) । इसी तरह के उदाहरण लोकगीतों और लोकगाथाओं में मिलते हैं ।
वर्गीकरण
शास्रीय दृष्टि से बारह आभरण माने गये हैं, जो बारह अंगों को आभूषित करते हैं । आंगिक सौंदर्य के साधन होने के कारण कवियों ने उनका वर्णन नखाखि या श् ाखिनख के अंतर्गत किया है । बलभद्र मिश्र, केाव, पजनेा, खुमान, प्रतापसाहि आदि इस क्षेत्र के रीतिकवियों ने ख्यात नखाखि ग्रंथों की रचना की है और इस परंपरा में बुंदेलखंड का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा है । इसी तरह लोककवियों ने भी आंगिक सौंदर्य और आभूषणों के वर्णनों में काफी रुचि दिखाई है । फागकारों, सैरकारों और फड़काव्य के कवियों ने आभूषणों पर रचनाएँ रची है, जो या तो वर्णन प्रधान हैं या प्रभावात्मक । यहाँ कुछ उदाहरण पर्याप्त हैं-
१. बेनी भाल माँग श्रुत नासिका के 'बलभद्र'
कंठ के कनक के सुबरन अपार हैं ।
भुज पुहिचाँनि कर पल्लव के कौन गनै,
उरन के मंडन जिते हमेल हार हैं ।
कटि मुरवान के सुहायन कों आँगुरी के,
बिछिया आदि दैकें जितकौ झनकार हैं ।
चीर मन-धातुर सुगंध बार अलंकार,
बारह आभरन ये सोरह सिंगार हैं ।
२. बिछिया अनौट बाँके घुँघुरु जराय जरी,
जेहरि छबीली छुद्रघंटिका की जालिका ।
मूँदरी उदार पौंची कंकन वलय चूरी,
कंठ कंठमाल हार पहरे गुपालिका ।
बेनीफूल सीसफूल कर्नफूल माँगफूल,
खुटिला तिलक नकमोती सोहैं बालिका ।
'केसवदास' नीलवास ज्योति जगमग रही,
देह धरे स्याम संग मानो दीपमालिका ।
पहले उदाहरण में बारह आभरण और सोलह श्रृंगार कहे गये हैं और उन बारह आभरण को शरीर के अंगों से संबद्ध कर दिया गया है । दूसरे उदाहरण में प्रमुख आभूषणों की सूची दी गयी है । लेकिन कवि ने 'नखाखि' में अंगों के क्रम को ही प्रधानता दी है । इसी तरह लोककवियों ने भी आंगिक क्रम से आभूषणों का वर्णन सुविधाजनक माना है । लेककविता में तो आभरण सौंदर्य के खास माध्यम हैं । ईसुरी ने स्वय कहा है-'दुर से नौनी लगत जा मुइयाँ, भलो पैर लओ गुइयाँ ।'
गहनों का वर्गीकरण तीन प्रकार से किया जा सकता है । १. गक आधार पर स्रियों और पुरुषों के गहने अलग-अलग विभाजित किये जा सकते हैं, २. जाति की दृष्टि से कई वर्ग बनते हैं, जैसे आदिवासियों के, काछियों के, ढीमरों, चमारों, लोधियों आदि के आभूषण, ३. आंगिक क्रम से, जैसे-पैर के, कटि के, कौंचा, बाजू, नाक, कान आदि के आभूषण । पहले प्रकार में तीन वर्ग आते हैं । १. स्रियों के आभूषण, जो प्रमुख महत्त्व के हैं, २. पुरुषों के आभूषण, जिनका प्रचलन कम है, ३. बालकों के आभूषण, जिनका प्रचलन कम हो रहा है । दूसरे प्रकार में कई वर्ग बनते हैं, लेकिन उनके आधार पर आभूषणों का निर्धारण कठिन हो जाता है । उदाहरण के लिए, गोंडों में प्रचलित पटा बहुँटा, चुटकी, हमेल और बारी अन्य वर्गों या जातियों में भी पहने जाते हैं । लेकिन सतुवा, ढार, झरका उन्हीं के नाम हैं । कोंदरों में टोडर, चंदौली और टकार हैं, जो अन्य वर्गों में प्रचलित नाम नहीं हैं । विमुक्त जातियों में आभूषणों के प्रति लगाव है, पर आर्थिक स्थिति बाधा के रुप में खड़ी रहती है । साँसी और बेड़िया स्रियों का सौंदर्य वैसे ही आकर्षक है, पर आभूषणों के कारण कई गुना बढ़ जाता है । पारधी स्रियाँ नाक-कान नहीं छिदातीं और मस्तक पर सुहाग के प्रतीक आभूषण धारण नहीं करतीं । मोघिया स्रियाँ भी सुंदर होती हैं, पर वे मस्तक पर टीका, गले में माला और नाक में लोंग पहन कर सुंदरता को चुनौती देने लगती हैं । ढीमर स्रियाँ नाक नहीं छिदातीं । गड़रियों की स्रियाँ कोनी (कुहनी) के ऊपर टँड़ियाँ पहनती हैं, जबकि लोधी स्रियाँ पैरों में घुंसी धारण करती हैं । मतलब यह है कि गहनों से ही जाति की पहचान हो जाती थी । अब तो सभी जातियों ने एक दूसरे से गहने अपना लिये हैं । मुसलमान स्रियों की नथ सबको भाने लगी है, पर बुलाक (तुर्की) को एकादि ने ग्रहण किया है । इन भिन्नताओं के कारण जाति की दृष्टि से आभूषणों का विभाजन उचित नहीं है ।
स्पष्ट है कि आंकिक क्रम से वर्गीकरण सुविधाजनक है और उसे ही यहाँ केन्द्र में रखा गया है । वर्गीकरण निम्न प्रकार है
(क) स्रियों के आभूषण-१. पैर की अँगुलियों के आभूषण २. पैर के गहने ३. कटि के आभूषण ४. हाथ की अँगुलियों के आभूषण ५. कौंचा के ६. कोनी के, ७. बाजू के ८. कण्ठ के ९. कान के १०. नाक के ११. माथे के १२. माँग के १३. सिर के १४. बेनी के ।
(ख) पुरुषों के आभूषण-१. पैर के २. हाथ के ३. गले के ४. कान के ।
(ग) बालकों के आभूषण-१. पैर के २. हाथ के ३. गले के ४. कटि के ५. कान के ।
(घ) वस्रों में टाँकने वाले आभूषण-१. घूँघट के २. पल्ला के अथवा आँचर के छोर के ३. फरिया के ।
आभूषणों का इतिहास
बुंदेलखंड के आभूषणों की एक लंबी परम्परा रही है, जो प्रागौतिहासिक युग से लेकर वर्तमान काल तक जीवित रहकर सौंदर्य-बोध का इतिहास लिखती आ रही है । यहाँ का पुरातत्त्व, मूर्ति-ाल्पि, चित्रकला और ग्रंथ उस इतिहास के साक्षी रहे हैं । मैंने इस आलेख में इसी परम्परा को खोजने की कोशि श की है ।
प्रागौतिहासिक युग
इस जनपद में रामायण-काल तक इतिहास की सही जानकारी नहीं मिलती, इसलिए महाभारत-काल के पूर्व तक प्रागौतिहासिक युग ही बना रहा । इस पथरीले अंचल में पुलिंद, निषाद, ाबर, रामठ, दाँगी, कोल, भील, गोंड़ आदि जातियाँ निवास करती थीं । उनके स्री-पुरुष पक्षियों के पंखों, कौंड़ियों, सीपियों, नागमणियों आदि से अपने अंगों की सज्जा करते थे । पुष्पों और पत्तियों को भी अंगों के अनुरुप गूँथा जाता था । पाषाण युग में पत्थर के और ताम्रयुग में ताँबे के हार, कंगन, बुंदे, कटिसूत्र और नूपुर जैसे आभूषण पहने जाते थे, भले ही उनके नाम दूसरे रहे हों । बालों में क्लिपों जैसा गहना होता था । रामायण-काल में वैदिक संस्कृति का प्रसार होने से बैदिक आभूषण-चक्र, कुण्डल, हिरण्यपाणि (अंगूठी), माला, कड़े, बाजूबंद, न्योचनी (करघनी) और बोलियों की घुसपैठ जारी हुई थी ।
महाभारत
कालचोदिनरेा वसु उपरिचर, दमघोष, शि शुपाल आदि के ऐश्वर्य-वर्णन से स्पष्ट है कि इस समय तक सोने-चाँदी के आभूषण पहने जाने लगे थे । स्री और पुरुष-दोनों अंगों को सुसज्जित करने में रुचि रखते थे । उत्सवों में देवताओं के प्रतीकों तक को आभूषित करने की प्रथा थी (महाभारत, आदिपर्व, अध्याय ६३, छंद २०-२१) । पुष्पाभूषणों का भी प्रचलन था । आदिवासी और निर्धन वर्ग के लोग ताँबे के आभूषण पहनकर उल्लसित रहते थे ।
जनपद काल
चेदि और दाार्ण सांस्कृतिक इकाई के रुप में परिणत हो गये थे । कुण्डल, स्वर्णमाला, सिक्कों का हार, केयूर आदि आभूषण प्रमुख रुप से चर्चित थे, पर लोक और विोष रुप में आदिवासियों के बीच चूड़ा, तोड़ा, पैरी, सतुवा, बहुँटा, झरका, जुरिया, टोडर, टकार आदि प्रचलित थे । लोक ने दोनों तरह के आभूषणों को अपनाकर एक समन्वित मानसिकता से काम लिया, जिसका सहयोग जनपद की स्वच्छंदता ने दिया । बौद्ध-धर्म की लोकपरकता ने लोक की गरिमा को ऊँचा उठाने का महत्कार्य किया था, जिससे लोकाभूषणों को प्रधानता मिली । बुंदेली अंचल के आभूषण इसी लोकाभूषण की चेतना के सुफल हैं ।
मौर्य-ाुंग काल
इस काल में स्री-पुरुष सोने-चाँदी के आभूषण पहनते थे । उनमें तरह-तरह की कारीगरी होती थी । भरहुत और साँची की मूर्तियों में कुण्डल, हार, कण्ठे, बाहुवलय, करधनी, नूपुर आदि कई प्रकार के आभूषण उत्कीर्ण हैं, जिनसे उनके प्रचलन की जानकारी मिलती है । पुरुष कानों में कुण्डल, गले में कण्ठा, वक्ष पर हार और बाहुओं में अंगद पहनते थे, जबकि स्रियाँ करधनी, तौक, मोहनमाला, कुण्डल, सीसमाँग, कड़े और चूड़ियाँ धारण करती थीं । कटि का करधनी और गले की तौक कई लरों के होते थे । अँगुलियों में अगूठियाँ और मस्तक पर बिंदी-टिकुली विोषरुप में ाोभित थीं । करधनी में घंटिकाओं की अलंकृति मन को झंकृत कर देती है । चन्दी, सुर्दाना आदि यक्षिणियों के आभूषण ही लोकप्रचलन में थे ।
नाग-वाकाटक काल
नाग बेसनगर (विदिाा) और पद्मावती (पवायाँ) को केन्द्र बनाकर लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष राज्य करते रहे । वाकाटकों ने कुछ भूभाग पर ढाई सौ वर्ष तक ाासन किया और गुप्त नर श्ेाों का भी एक भाग पर अधिकार रहा । बेसनगर की मूर्तियों में कुण्डल, कण्ठा, हार और अंगद सामान्य हैं । पवायाँ में प्राप्त मणिभद्र यक्ष के गले में हार, भूजाओं में भुजबंद और कलाइयों में कंगन उत्कीर्ण हैं । संगीत-समारोह प्रदर्किात करते एक प्रस्तरखंड में एक नर्तकी के हाथों में चूडियाँ, पैरों में चूड़े, कानों में झमकीदार कर्णाभूषण और साड़ी के दोनों ओर किंकणियों की झालर आभूषित है । स्पष्ट है कि इस युग से वस्रों में टाँके जाने वाले आभूषण प्रचलित हो गये थे ।
देवगढ़ (ललितपुर) के विष्णु मंदिर (गुप्तकालीन) में मानवी और दैवी स्री-पुरुष आभूषण पहने उत्कीर्ण हुए हैं । कानों में कुण्डल या कर्णफूल, गले में चंद्रहार या एकावली, भुजाओं में भुजबंद या अनन्तवलय, कलाइयों में कंगन, हाथ की अंगुलियों में मुँदरी और कटि में मेखला या कटिसूत्र-स्री-पुरुष और देवी-देवता के स्तर के अनुरुप बनक (डिजाइन) में पहने जाते थे । पैरों में नूपुर सभी वर्गों की स्रियाँ पहनती थीं, पर देवीयाँ अपवाद थीं । नाक में नथनी या नकफूल की अनुपस्थिति खटकने वाली है ।
हर्ष काल
बुंदेलखंड की अटवी में शबरों का निवास था, जिनके सेनापति के अलंकरण का वर्णन महाकवि बाण ने 'कादम्बरी' में किया है । शबर घुँघची और मोतियों से गूँथे हुए हार, स्थूल कौड़ियों की मालाएँ तथा साँपों की मणियाँ आभूषण के रुप में पहनते थे । 'हर्षचरित' के अनुसार कच्चे शी शे का बाला और गोदंती मणि से जुड़ा हुआ राँगे का कड़ा उनका प्रचलित आभूषण था ।
बाण के अनुसार पुरुष कानों में कर्णावतंस (बालियाँ), त्रिकण्टक (दो मुक्ताओं के बीच पन्ना जड़ा हुआ त्रिकोणकण्टक), कर्णोत्पल, पत्रांकुर, कर्णपूर और कुण्डल या मणिकुण्डल, गले में मुक्ताहार या हार, हाथों में कंकण या कड़े तथा कटि में राना (करधनी) पहनते थे । वे अपने बालों को बालपाा से बाँधते थे । ये आभूषण स्रियाँ भी धारण करती थीं । इनके सिवा वक्ष पर रत्नों की प्रालम्ब माला, सिर पर के शों में चूड़ामणि मकरिका, माथे पर टिकुली और पैरों में हंसक नूपुर भी पहनती थीं पुष्पों के आभूषणों का भी उल्लेख है । चूड़ामणि मकरिका (मकर की बनक का सीसफूल) को छोड़कर ोष आभूषण देवगढ़ की मूर्तियों के आभूषणों से मेल खाते हैं ।
चंदेल काल
आल्हा गाथा में नौलखा हार की कथा-सी है, जिससे सिद्ध है कि हार गले का सर्वप्रिय आभूषण था । 'रुपकषटकम्' में वत्सराज की यही मान्यता है (कर्पूर, लोक २१) । खजुराहो संग्रहालय में सुरक्षित कृष्ण-जन्म के ाल्पिप में देवकी हार और ग्रैवेयक-दोनों पहने हैं । कृष्ण-संबंधी प्रसंगों को उत्कीर्ण करने के जितने नमूने हैं, उनमें कृष्ण भी हार और ग्रैवेयक धारण किये हुए प्रदर्किात हैं । अन्य मूर्तियों में कण्ठा के साथ खंगौरिया और हमेल जैसे आभूषण दााये गये हैं । एकावली भी बहुत लोकप्रिय थी । मुक्तामाल और वनमाला भी कहीं-कहीं अंकित हैं । कलचुरी मूर्तियों में माला खासतौर से तिलड़ी माला सामान्य थी । पुष्पमालाओं से सज्जा की प्रथा भी थी । कानों में कुण्डल सभी स्री-पुरुष पहनते थे, पर कर्णफूल स्रियों का आभूषण था (रुपकषटकम्, रुक्मिण. लोक ४) । सिर में सीसफूल एवं बीज सभी स्रियाँ धारण करती थीं (रुपकषटकम् पृ. १३७) । कटि में करधौनी या मेखला हर चंदेली और कलचुरी मूर्ति में उत्कीर्ण है । करधनी को सात लड़ी होने के कारण सतलड़ी कहलाने का गौरव मिला था ।
हाथों में केयूर, अंगद, बरा, वलय, कंकण, कंगन, खग्गा, चूड़ियाँ और पैरों में नूपूर, साँकर या पायजेब जैसा आभूषण, बिछिया और अनौटा प्रचलन में थे (रुपकषटकम्, पृ. ५९, २९, और त्रिपुरी की योगिनी मूर्तियों में उत्कीर्ण) । पुरुष और बालक तोड़े और कड़े भी पहन लेते थे । महोबा से प्राप्त नीलतारा की प्रतिमा के कानों में कर्णवलय या कुण्डल जैसा आभूषण काफी बड़े आकार का है, जिसका प्रचलन मध्ययुग में नहीं मिलता । नाक के किसी आभूषण का पता नहीं चलता, इससे प्रतीत होता है कि नाक के आभूषणों का प्रचलन इस्लामी संस्कृति की देन है । साथे पर टिकुली जैसा आभूषण कंदरीय मंदिर की सुंदरी प्रतिमा में दााया गया है । वत्सराज के रुपकों में पुष्पों के आभूषणों का वर्णन है ।
तोमर काल
१५वीं ाती के ¸ोष्ठ कवि विष्णुदास हिन्दी की रामकृष्ण काव्य-धाराओं के प्रवर्तक कवि हैं । उन्होंने एक स्थल पर लिखा है-'अति आभरन रुप की रासि', जिससे उनकी इस मान्यता का पता चलता है कि आभरण सौंदर्य की राा हैं । उनकी कृतियों-'रामायणी-कथा' और 'महाभारत' में तथा एक कथाकृति 'छिताईचरित' में आभूषणों का यत्र-तत्र उल्लेख मिलता है । कृतियों के अनुसार स्रियाँ माथे पर टीका, कानों में तरिका या तरिवन और खुटी, नाक में नकफूली, गले में कण्ठश्री, छूटी, गजमुक्तामाल, मोतीहार, हार; हाथों में चूरि (चूड़ी), पहुँची कंकन और पैरों में नेवर पहनतीं थीं । पुरुष कानों में कुण्डल; गले में कण्ठमाल, कण्ठश्री, हार, चौकी, नवग्रही; हाथों में कंकन और मुंदरी तथा कटि में मेखला धारण करते थे ।
बुंदेल काल
बुंदेलों के पहले खंगारों का राज्य गढ़कुण्डार को सांस्कृतिक केन्द्र बनाने में सफल रहा, क्योंकि सौ-डेढ़ सौ वर्षों में जहाँ खंगारों द्वारा स्थापित मूल्य विकसित हुए, वहाँ दो सौ वर्षों के दीर्घकाल तक बुंदेलों के आर्दा भी पुष्पित हुए । ओरछा तो १५३१ ई. में बसाया गया था और १५३९ में उसके दुर्ग का निर्माण हुआ था, अतएव १५३१ ई. तक गढ़कुण्डार ही राजधानी बना रहा । इस संदर्भ में गढ़कुण्डार का योगदान लोकपरम्परा को पालने-पोसने में है । उसने हर दिाा में लोकमूल्यों और लोकरीतियों को आगे रखा है । कुछ विद्वानों का मत है कि 'खंगौरिया' खंगारों की देन है । यदि इस मत को न भी माना जाय, तो इतना सही है कि शंगारों के समय में लोकाभूषणों का अधिक प्रचलन हुआ और वे आंचलिक आभूषणों की परम्परा के विकास में सहायक हुए ।
गढ़कुण्डार की संस्कृति ओरछा में और अधिक विकास पाकर उत्कर्ष पर पहुँची । १६वीं-१७वीं ाती में भक्ति की लहरें लोकमन को आंदोलित कर उठीं । एक तरफ वि श् ाी संस्कृति केर तत्त्व सत्ता का सहारा पाकर अपना जोर आजम रहे थे, दूसरी तरफ संस्कृति की रक्षा के लिए लोकसंस्कृति सबल बन रही थी । इस पृष्ठभूमि में लोकाभूषणों का व्यापक प्रसार हुआ । तुलसी ने राम के राजसी रुप के अंकन हेतु किंकिनी, हार, मुक्तामाल, मणिमाल, मुक्तावली, कंकन, कुण्डल और नूपुर का वर्णन किया है । वे विवाह के समय कटि-सूत्र (डोरे की करधनी), बाहुओं के आभूषण, मुद्रिका आदि पहने हुए हैं । उनके उपने (दुपट्टे) में दोनों पल्लों पर मणियों और मोतियों की झालरों टँकी हैं (मानस-बाल. ३२७/२-४) । लेकिन वे लोक-आभूषणों का उल्लोख करने में नहीं चूके । पैजनियाँ, पहुँची, नथुनियाँ कठुला, बघनहा, लटकन आदि के साथ नगफनियाँ का विस्मरण नहीं कर सके । ये सभी लोकाभूषण हैं । नगफनियाँ नाग के फन की आकृति का एक आभूषण है, जो कान में पहना जाता है (गीतावली १/३१,१/२८) । वेद के साथ लोक का पुजारी ही नगफनियाँ जैसे लोकाभूषण की परख कर सकता था । १६वीं ाती के भक्त कवि हरिराम व्यास ने भी अपने पदों में लोकाभूषणें को स्थान दिया है । उनमें खुटिला, खुभी, झलमली, पोत, गजरा, चूड़ी और पहुँची प्रमुख हैं । उनके साथ ताटंक, नकबेसर, हार, किंकिनी, नूपुर आदि अभिजात आभूषण भी सम्मिलित हैं । (व्यासजी के पद, सम्पा, वासुदेव गोस्वामी, संख्या ३६८, ३६९, ३७०) ।
१७वीं ाती के लोकप्रचलित आभूषणों की सूची आचार्य श् ाव के एक छंद में मिलती है, जो निबंध के प्रारंभ में उद्धृत किया गया है । उसमें पैर कीर अंगुलियों के बिछिया और अनौट (अनवट, जो बुंदेली में अनौटा हो गया है), पैरों के बाँकों, घुँघरु और जेहर; कटि के छुद्रघंटिका (करधनी), हाथ की अँगुलियों के मुँदरी, हाथ के कौंचा में पौंची, कंकन, वलय और चूड़ी; कण्ठ के कण्ठमाल और हार, कानों के कर्णफूल और खुटिला, नाक के नकमोती, माथे का तिलक, माँग का माँगफूल, सीस का सीसफूल तथा वेणी का वेणीफूल उल्लिखित हैं और बारह आभरण को शास्रीयता पूरी करते हैं । इतना निचित है कि उक्त सभी आभूषण लोकाभूषण थे और तीन-साढ़े तीन सौ वर्ष तक लोकप्रिय रहे हैं । इनके आलावा ताटक, कुण्डल, कण्ठश्री और गजरा भी प्रचलित थे (कविप्रिया, छंद ५१, ६४ और रामचंद्रिका, २/३३१, २८/२०१) ।
१८वीं शती में आचार्य केाव जैसा छंद प्रसिद्ध रीतिमुक्त कवि बोधा ने भी लिखा था, जो यहाँ देना उचिंत है-.
बेनी सीसफूल बिजबेनिया में सिरमौर,
बेसर तरौना केसपास अँधियारी-सी ।
कंठी कंठमाला भुजबंद बरा बाजूबंद,
ककना पटेला चूरी रत्नचौक जारी-सी ।
चोटीबंद डोरी क्षुद्रघंटिका नयी निहार,
बिछिया अनौटा बाँक सुखमा की बारी-सी ।
राजा कामसैन के अखाड़े कंदला कों पाय,
माधो चकचौंध रहो चाहिकै दिवारी-सी ।।
(बिरहबारीा, १३/४१)
उक्त छंद में बिजबेनिया, बरा, पटेला नये आभूषण हैं । कवि ने पछेला और बेनीपान अन्यत्र दिये हैं । बिजबेनिया (संभवत: बीज और दाउनी) बीज को साँकर से जोड़रकर सीधा वेणी से बाँधने में अथवा बीज को साधती हुई दो साँकरें केाराा में खोंसने से स्थिर शोभित होता है । बेनिया बीज और वेणी को जोड़नेवाली साँकर या डोरी है । बार बाजू में, पटेला चूड़ियों के बीच कौंचा में और पछेला कौंचा में ही सबसे पीछे पहने जाते हैं । वेणीपान वेणी को बाँधने वाला पान केर आकार का आभूषण है । 'विरहवारीा' (८/१५) में 'जलज कंठुका' दिया गया है, जो कमल जैसी बनक (डिजाइन) वाला गले का हार है । कण्ठिका एक लड़ी का हार कहलाता है, कण्ठिका से ही कंठुका हुआ है । पद्माकर कविराज ने अपने ग्रंथों में कुछ रियासती गहनों, जैसे-कलंगी, गोापेंच और सिरपेंच का उल्लेख किया है । कलंगी सिर पर पहनने का एक जड़ाऊ गहना है, जिसे कलगी भी कहते हैं । सिरपेंच पगड़ी पर बाँधने का गहना है । गोा फारसी शब्द है, जिसका अर्थ कान होता है । गोापेंच कानों में पहनने का आभूषण है, जो विद श्ेाी है ।
१९वीं शती में आभूषणप्रियता इतनी बढ़ गयी थी कि युद्ध में भी दोषरहित आभूषण धारण किये जाते थे । श् 'ात्रुजीत रासो' में कवि ने लिखा है- "तहँ जंग काज दूषन रहित भूषण मंडियो ।" कविवर गुमानकृत 'कृष्णचंद्रिका' में आभूषणों की वही बहार है, जो बोधा या पद्माकर के ग्रंथों में मिलती है । उसमें गुल्क और करन्न नये नाम हैं- 'उतै फैल पाटीन पै गुल्क भारे । मनो नील आकास पै तेज तारे ।' (१६/९) और 'बिच बाहु अंग करन्न कंकन मेखला कटि सों कसी' (१५/२४) । पहले उदाहरण में गुल्क मोतियों की माला है, जो पाटीन (या पटियों-केाराा) पर पड़ी रहती है । कवि ने पाटीन का अर्थ गले का एक गहना बताया है, जो ठीक नहीं बैठता । शिख-नख के क्रम से वह गले का वर्णन नहीं है । दूसरे उदाहरण में बाहु केर गहने करन्न और कंकन दिये गये हैं । कौंचनग कौंच पर्वत में पाये जाने वाले नग थे, जो आभूषणों में जड़े जाते थे ।
मध्ययुग में समाज के तीन वर्ग थे-१. राजसी और सामंती वर्ग २. अभिजात या उच्च वर्ग ३. मध्यम और निर्धन वर्ग । पहले वर्ग के श्रृंगार और वस्राभरण की नकल दूसरा वर्ग करता था, ताकि वह तीसरे वर्ग में अपनी धाक जमा सके । तीसरा वर्ग ही वास्तविक लोक था, जो बहुसंख्यक होता हुआ भी दबाव में रहता था । वह जहाँ उच्च वर्ग का थोड़ा-बहुत अनुसरण करता था, वहाँ अपने बीच के चलन को उससे भी अधिक महत्त्व देता था । अब तक उसके और खासतौर से गाँवों के चलन में बेंदा, टिकुली, छूटा, बिचौली, सुतिया, हमेल, ककना, दौरी, गजरा, बजुल्ला, पुंगरिया, दुर, कनफूल, छापें-छला, चुरियाँ, करधौनी, पैजना, बिछिया आदि आभूषण प्रमुख थे ।
पुनरुत्थान काल
पुनरुत्थान का अर्थ लोकसाहित्य के पुन: उत्कर्ष पर आने से है और यह काल-परिधि उन्नीसवीं शती के अंतिम चरण से लेकर बीसवीं, ाती के प्रथम चरण तक मानी जा सकती है । इस युग का प्रतिनिधि लोककवि ईसुरी है, जिसने लोकाभूषणों को भी महत्त्व दिया है । उनकी फागों में आभूषणों के प्रभाव का स्पष्ट संकेत है-
१. तकत तीर से लगत 'ईसुरी', जे नग तरन-तरन के ।
२. चलतन परत पैजना छनके, पाँवन गोरी धन के
सुनतन रोम-रोम उठ आउत, धीरज रहत न तन के ।
३. जो तुम छैल छला हो जाते, परे उँगरिअन राते ।
ईसुरी का फागों में वर्णित गहने हैं-पैर में पैजना, पैजनियाँ; कटि में करघौनी, हाथ में ककना, गजरा, चुरीयाँ, बाजूबंद, बजुल्ला, छापें, छला, मुँदरी; गले में छूटा, गुलूबंद, गजरा, कंठा, बिचौली, छुटिया, पोत का गजरा, कठला; कान में कर्णफूल, लोलक; नाक में पुँगरिया, दुर; माथे में बेंदा, बेंदी, बूँदा, दावनी टिकुली । छंदयाऊ फाग केर पुरास्कर्ता भुजबल ने एक फाग में अनेक गहनों के नाम दिये हैं, जो क्रमबद्ध रुप से यहाँ प्रस्तुत हैं-सिर में सीसफूल, बीज; वेणी में झाबिया, माथे में बेंदी, दावनी, टीका; कानों में कर्णफूल, साँकर, लोलक, ढारें, बारी, खुटिया; नाक में बेसर, पुँगरिया; गले में सरमाला, चंद्रहार, सुतिया, पँचलड़ीं, बिचौली,
चौकी, लल्लरी; हाथ की अँगुलियों में मुँदरी, छल्ला, छापें; बाजू में बरा, बजुल्ला, बगवाँ; कौंचा में ककना, दौरी, चूरा हरैयाँ बंगलियाँ चूड़ी, नौघरई (नौग्रही), पछेला; कटि में करधनी, गुच्छा; पैर में कड़ा-छड़ा, चुल्ला, बाकें, घुमरी, पायजेब, पाँवपोा, पैजनियाँ, पैजना; पैर की अंगुलियों में बिछिया, गेंदें, चुटकी, गुटियाँ और अनवट ।
'लक्ष्मीबाई रासो' (१९०४ ई.) में सैनिकों की सज्जा के लिए करधौनी बजुल्ला, कंकन, तोड़ा, पौंचियाँ, मुँदरी, छला, गुंज, गोप, सेली जैसे गहनों का उल्लेख है (भाग ४, छंद ११) । नारी के आभूषणों में मुहरमाला, चिचिपिटी और जेहर नये हैं, जिनमें पहले दो गले के और तीसरा पैर का है ।
इस युग के अंत में आभूषणों का जगमगाहट कम होने लगी थी । पैरों में पैजना, बिछिया, अनौटा; कटि में करधौनी, हाथों में बरा और खग्गा, गले में खंगौरिया, हमेल, सुतिया; कानों में कनफूल, बाली; नाक में पुँगरिया तथा माथे में बीज-दाउनी प्रमुख थे । उनमें भी बदलाव ाुरु हो गया था । भारी आभूषणों के स्थान पर हल्के आभूषण आ गये थे, जैसे-पैरों में अवनोखा, लच्छा और छैलचूड़ी, हाथों में दस्तबंद, बेलचूड़ी, चूरा और गुंजें, गले में मटरमाल और हार, कानों में ऐरन और झुमकी तथा माथे में बैंदी ।
आधुनिक काल
बीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में पुराने गहने लुप्त होना ाुरु हो गये थे । राष्ट्रकवि मैथिलीारण गुप्त की तृतीय पत्नी स्व. सरयू देवी गूजरी पहनती थीं, पर उनकी बहू ने उसे स्वीकार नहीं किया । अभी चालीस वर्ष पहले बोरादार पायल चलती थी, जिसकी चौड़ाई डेढ़ इंच और वजन एक सेर होता था । धीरे-धीरे उनकी चौड़ाई और वजन तथा बोरा (घुँघरु) कम होते गये तथा अब सौ डेढ़ सौ ग्राम की बौरादार और बिन बोरा की झूलादार बीस-पच्चीस ग्राम तक बनती हैं । आजकल नगरों में माथे में बेंदी, नाक में नथ और कील, कानों में बाला-झाला, झुमकी, टाप्स; गले में हार, मंगलसूत्र, जंजीर; हाथों में कंगन सैट, चूड़ी, पाटला, अँगूठी; पैर में पायल और बिछिया प्रचलित हैं । गाँवों में उक्त आभूषण के अलावा गले में सुतिया और हमेल, कटि में करधौनी, पैरों में बोरादार पायल, अँगुलियों में छला पहने जा रहे हैं ।
परिवर्तन का यह दौर इतना द्रुतगामी है कि आदिवासी युवतियों ने परम्परित गहने पहनना छोड़ दिया है । आदिम जाति कल्याम विभाग के छतरपुर हॉस्टल में सेवारत कन्नू कोंदर की पत्नी से साक्षात्कार करने पर कोंदरों के परम्परित जेवरों में केवल टोड़र, पैजना, करधौनी, बहुँटा, चंदौली, कँटीला गजरा, मुँदरी, छला, कन्नफूल, पुँगारिया, खँगौंरिया और टकार तथा पुरुषों के घुँघरु आभूषणों के नाम मिले, जो उसने अपनी पिछली पीढ़ी, में प्रचलित देखे थे । स्पष्ट है कि नयी तरह के गहने अब आदिवासियों के घरों तक पहुँच गये हैं ।
सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह है कि वर्तमान में आभूषणों की बनक (डिजाइन) पर जोर दिया जा रहा है । हालाँकि पहले भी यही बिन्दु प्रभावााली रहा है, पर उसकी सीमाएँ गाँव की कारीगरी से गाँव की हाट तक, फिर गाँव के बाहर जिले में अथवा जनपद के सिकी मेले की हाट तक और अब दूसरे प्रांतों की राजधानियों तक बढ़ गयी है । इस वजह से बाह्म प्रसाधनों की जनपदीय पहचान अब नहीं के बराबर रह गयी है । दूसरी बात यह है कि आभूषण अब वजन में इतने हल्के बनने लगे हैं कि हाथ की जगह माीन का ही बोलबाला हो रहा है । आयातित आभूषण बाजार में हावी होते जा रहे हैं ।
आभूषणों का स्वरुप
बुंदेलखण्ड के आभूषणों, खास तौर से उन पुराने आभूषणों को, जो अब प्रचलन में नहीं हैं या लुप्त होने की कगार पर हैं, पहचानना और उनका नाम स्मरण रखना कठिन है । इसलिए उनके स्वरुप को समझना आवयक है । यहाँ संक्षेप में उनकी पहचान रेखांकित की जा रही है ।
स्रियों के आभूषण
(क) पैर की अँगुलियों के आभूषण
आभूषणों के साथ लोकविश्वास जुड़े हैं और उनमें सबसे अधिक महत्त्व मिला है बिछिया को, जो सुहाग का प्रतीक है और पैर की अँगुलियों का प्रधान है । विवाहिता नारी है उसका प्रयोग करती है । ाीलसंपन्न लक्ष्मण पैर के आभूषण ही पहचानते हैं । आप भी पहचानें-
१. अनौटा-चंदेलनरेा परमर्दिदेव के अमात्य वत्सराज ने अपने ग्रंथ 'रुपकषटकम्' में इसका उल्लेख किया है । तब से लेकर बीसवीं ाती के पूर्वार्द्ध तक इसके प्रचलन के साक्ष्य मिलते हैं । संस्कृत के 'अनवट' से अनौटा होना कोई कठिन नहीं है, पर आज की नारी ने उसे अपनी पुरानी चुलिया में ही रखे रहना उचित समझा । यह पाँव के अँगूठा में पहना जाता है । इसकी बनक छला की तरह होती है । ऊपर चाँदी की चौड़ी-सी पत्ती और नीचे चाँदी, पीतल या ताँबे की टूटदार पत्ती होती है । चौड़ी पत्ती पर रवा रखे जाते हैं और कोई कारीगरी रहती है।
२. चुटकी-चाँदी, गिलट, कसकुट के छला पर पट्टेदार, रवादार, पलियादार, ईंटदार, मछरियादार आदि कई तरह के बनक की होती है ।
३. छला-लोककवि ईसुरी ने छला की सही महीमा समझी है और लिखा है की "जो तुम छैल छला हो जाते, पड़े उँगरिअन राते । मौं पोंछत गालन खाँ लगते, कजरा देत दिखाते ।" आखिर प्रेमी को छला ही क्यों बनाया, और न जाने कितने कीमती आभूषण थे ? यह उसकी लोकप्रियता का प्रमाण है । साथ ही उसके कई रुप हैं, अपनी-अपनी बनक के साथ ।
कटीला-चाँदी या गिलट के छला पर कलसियादार । ऊपर काँटे-सी अनी निकली हुई ।
गुच्छी-चाँदी या गिलट के छला पर गुच्छों के रुप में बोरा लगे रहते हैं, जो चलने में मधुर ध्वनि करते हैं ।
गेंदें-चाँदी या गिलट के छला पर गेंद की बनक के कारण गेंदें कहे जाते हैं ।
गुटियाँ-चाँदी या गिलट के छला पर गुट्टा की बनक होती है, तभी छन्दयाऊ फाग के प्रवर्तक कवि भुजबल ने उन्हें गुटियाँ कहा है । कवि ने गेंदें का उल्लेख अलग से किया है ।
गरगजी-दुर्ग की गुर्ज की बनक के अँगूठा में पहने जाते हैं और मोतीचूर की लड़ों से दूसरे छल्लों से जुड़े होते हैं ।
जोडुंआ-अँगूठा में पहनने के चाँदी, गिलट या कसकुट के बने छला, जिनमें रवादार पट्टी या टूटदार पाँत बैंड़े-सी लगी रहती है ।
पाँतें-अँगुठा के चाँदी के बने पाँतदार छला, जो छिंगरी के छला के साथ चाँदी की लड़ से जुड़े रहते हैं ।
बिरमिदी-खुरमा की बनक की छल्ली, जो थोड़ी देर के लिए मन को बिरमा (रोक) लेती है । बनक की सुंदरता के प्रभाव को स्पष्ट करता नामकरण।
४.पाँवपोस-पंजों पर पहनने का रजत आभूषण । बहुत कलात्मक, कई तरह की बनक-झिंझरियनदार, ककनियनदार आदि के होते हैं । पान-चिड़ी-फूलदार मध्ययुग की लोकप्रिय बनकें थीं । कटमा, गढ़ता और ढरमा, तीनों तरह के बनते हैं । नीचे की तरफ कुंदों में लगी साँकरें दो छल्लियों से जुड़ी रहती हैं, जो अँगुलियों में पहनी जाती हैं । कभी-कभी तीन या पाँच छल्ले लगे रहते हैं । ऊपर की तरफ दो कुंदों में पड़ी साँकर टखने के चारों ओर घेरे आभूषण को साधे रहती है । बीच में पंजे पर पूरी तरह फैला पाँवपोस सफेद फूल की तरह लगता है और पाँवफूल कहा भी जाता है । वस्तुत: पोा फारसी शब्द है जिसका अर्थ है-ढ्ँकनेवाला, जैसे नकाबपोा । इसलिए इसका नाम हँतफूल (हथफूल) की तरह पाँवफूल था, पर विदेाी प्रभाव से पाँवपोा हो गया । अब तो इसका प्रचलन समाप्त है ।
५.बाँकें-अंगूठा के तरफ की अँगुली से छिंगुरी तक छल्लों पर पट्टा लगा होता है और पंजे की तरफ पान-फूलदार या दूसरी बनक की कलाकारी होती है । चाँदी की टेढ़ी-मेढ़ी बनक के कारण बाँकें कहलाती हैं ।
६.बिछिया-एक बहुत पुराना आभूषण । आकृति में बीछी (बिच्छू) से कुछ मिलता-जुलता और भावना में बिच्छित्ति (विच्छित्ति) हाव वाला । विच्छित्ति हाव में जिस तरह थोड़े ही श्रृंगार से प्रिय को मोहित करने का प्रयास होता है, ठीक उसी तरह का सम्मोहन बिछिया का है । चाँदी, गिलट, कसकुट के छला पर दो गुटियों वाला कलसियादार, झिंझरियादार आदि बनक का बिछिया नारी के सौभाग्य का प्रमुख चिन्ह है । चंदेलकालीन नाटककार वत्सराज, हिंदी की रीतिकविता के प्रवर्तक आचार्य केाव, रीतिमुक्त कवि बोधा एवं छंदयाऊ फाग के प्रवर्तक भुजबल की कविता में उसका स्मरण आदरपूर्वक किया गया है । आज भी उसके व्यक्तित्व की उतनी ही गरिमा है । लोकगीतों में भी उसका गायन हुआ है । पहले विवाह के समय एक लोकगीत बहुत प्रचलित था-"कउँ गिर गओ नारि नवल बिछिया, कउँ गिर गओ ।" इतना ही नहीं, जब पहले बिछियों की लड़ से जुड़े घुँघरु बजते थे, तो गली में घूमते मन कसक उठते थे । पाँवफूल ती ठसक बिछियों की झनक तो अच्छों-अच्छों को वा में कर लेती है ।
(ख) पैर के आभूषण
ये आभूषण एड़ी के ऊपर उभरी हड्डी की गाँठ (टखना) के सहारे मुरवा (ऊपरी भाग) में पहने जाते हैं । कुछ ऊपर ही कसे रहते हैं और कुछ नीचे झूलते-से हैं । कुछ टखने के नीचे चिपके रहते हैं । पायल टखने के नीचे लुरकती है, जबकि गूजरी ऊपर ही सुाोभित होती है । बहुधा एक आभूषण ऊपर और एक नीचे पहनने का रिवाज था, जिससे पाँव भरा-भरा लगे । यहाँ पुराने गहनों की पहचान का संकेत प्रसुतुत है-
१.अनोखा-चाँदी या गिलट के बने उमेंठे तारों के लच्छों के बीच-बीच समान अंतर से लगे कुंदों में घुँघरु (बोरा) गँसे रहते हैं, जो बजनिया (बजने वाले) और दिखनौसू (न बजने वाले), दो तरह के होते हैं । बजनिया मधुर झंकृति से आकर्षण फैला देते हैं । अनोखा लच्छों के साथ पहने जाते हैं ।
२.कड़ा-वैदिक आभूषण है, जो बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध तक प्रचलित रहा है । चाँदी का ठोस बना लगभग आधा इंच मोटा गोलाकार कड़ा अपने दोनों सिरों में गुटियोंदार होता था । वह सादा और डिजाइनदार, दोनों तरह का रहता था ।
३. गूजरी और गुजरिया-चाँदी, गिलट, कसकुट की बनी चार-से-छ: इंच चौड़ी ऊँची पट्टादार, बीच में टूटदार और दोनों छोरों पर कुंदों में सींक या कील रहती है, जिससे वह कसी रहती है । इसका वजन आधा सेर से लेकर डेढ़-दो सेर तक रहता था । हल्के वजन और कम चौड़ी पैजना की तरह गुजरिया होती है । दोनों में कंकड़ पड़े रहते थे, जिनसे मधुर झनकार उठती थी । उन्हें श्रमिक जातियाँ पहनती थीं । विोष रुप से पिछड़ी और हरिजन जातियाँ । पहनने का अभ्यास जरुरी था । अब इनका प्रचलन नहीं रह गया ।
४.घुँघरिया, घूँघरु और नूपुर-'नूपुर' नाम सबसे पुराना है । ताम्रयुग में ताँबे के नूपुर बनते थे । भरहुत, साँची और देवगढ़ की मूर्तियों में नूपुर उत्कीर्ण है। वत्सराज, विष्णुदास, तुलसी और हरिराम व्यास के ग्रंथों में नूपुर का उल्लेख है, जबकि इसका आंचलिक नाम घुँघरु और घुँघरियाँ हो गया । आचार्य केाव (१६-१७वीं ाती) ने इसे घुँघरु लिखा है । बाद में स्रीलिंग 'घुँघरिया' ही कहा जाने लगा । कोंदर पुरुष घुँघरु पहनते रहे । चाँदी, गिलट, कसकुट, पीतल के पतले पत्ते की घुँघरियों में ककरा डले रहते हैं और हर घुँघरिया डोरा या तार से गुँथी रहती है । अब इसका प्रचलन नहीं है, पर नृत्यों में इसका प्रयोग होता है।
५. चुल्ला-चाँदी, गिलट, कसकुट, काँसे के गोलाकार बनते थे । काफी वजनी होते थे, आधा सेर से डेढ़ सेर तक । इन्हें गधेरे और आदिवासी स्रियाँ पहनती थीं । पैर में कसे होने से अकेला यह गहना पर्याप्त होता है । भुजबल ने अपनी फाग में चुल्ला का उल्लेख किया है, अब उसका प्रचलन नहीं है ।
६.चूरा-चाँदी, गिलट, कसकुट के सादा और कामदार बनते हैं । वे गोलाकार ठोस या पोले होते हैं । इनकी बनक कड़ा की तरह होती है ।
७. छड़ा-चाँदी, गिलट के इंच के दसवें भाग जितने मोटे और चौथाई इंच चौड़े पत्ते के बने आभूषण हैं, जो कड़ा के साथ पहने जाते हैं । उनमें कई तरह की कलाकारी की जाती है । छड़ा का उल्लेख बीसवीं ाती के पूर्वार्द्ध में मिलता है ।
८. छागल-चाँदी या गिलट के पट्टेदार होते हैं । उनमें घुँघरु लगे रहते हैं । वे लच्छों के नीचे पहने जाते हैं ।
९. छैलचूड़ी-चाँदी और गिलट के मोटे पत्ते की एक इंच चौड़ी गोलाकार बनी होती है और उस पर फूल-पत्ती और बेल के अलावा कई बनकों का काम रहता है।
१०.जेहर-ओरछा के आचार्य कवि के शव (१६-१७वीं शती) एवं झाँसी के कवि मदनेा (१९०४ ई.) ने जेहर का उल्लेख किया है । यह पायजेब की तरह का आभूषण है । तीन लरों की तिकोनी अंत में पट्टे से जुड़ती है और पट्टों के कुन्दा में सींक डालकर रहनी जाती है । अधिकतर चाँदी या गिलट की बनती हैं ।
११. झाँझें-चाँदी या गिलट की गोलाकार अधिकतर पोली बनीं होती हैं । फूलदार, झिंझरियनदार आदि कई बनक की कलात्मक रहती हैं और छोर पर गुट्टे होते हैं । झनकार के लिए कँकरे डाले जाते हैं और बिना कँकरों की भी प्रचलन में रही हैं । आजकल कोई नहीं पहनता, बीस-पच्चीस वर्ष पूर्व झाँझें-लच्छा चढ़ाये में रखे जाते थे ।
१२.टोड़र-कोंदर स्री के अनुसार टोड़र चाँदी, गिलट के २ इंच मोटे, गोल, कसे, गुट्टा या कीलदार होते हैं । उनमें कँकरा नहीं डाले जाते, दो गुच्छा (बोरों के) लगे रहते हैं । वे एक किलो वजन के छीताफली या दूसरी बनक के बनते हैं । गुट्टा गुठमा के होते हैं । आदिवासियों से ही इनका चलन आया है, अब उन्हें कम पहनते हैं ।
१३.तोड़ा-गोंड़ आदिवासियों का आभूषण था, पर बाद में क्षत्रियों में चलन हो गया । राजा, कवि या सैनिक को तोड़ा प्रदान कर सम्मानित करता था । तोड़ा गुठमा के चाँदी के दो टुकड़ों से गुठा होता था । उसके सिरे पर गुट्टे बनाये जाते थे । क्षत्रियों के दूल्हा उन्हें अवय पहनते थे । तोड़ा तीन प्रकार के होते हैं-
१. तोड़ा सादा, जो वजन में १५० ग्राम से लेकर ६०० ग्राम तक रहता था और जिसे लोदी, काछी, चमार, मेहतर आदि पहनते थे । २. तोड़ा गुच्छादार, जो सादा तोड़ा जैसा होता है, पर प्रत्येक तोड़े पर अंगूर के गुच्छे जैसी डिजाइन के दो गुच्छे लगे रहते हैं । ३. तोड़ा करीदार, जिसमें कड़ी जोड़ी जाती है । इनके अलावा पतले तोड़ा तोड़ियाँ कहलाते हैं, जिन्हें हल्के होने के कारण स्रियाँ पहनती हैं ।
१४. पायजेब-चाँदी की साँकरों की बनी गोलाकार पायल की तरह होती है, पर वह पैरों में फिट और चौड़ी रहती है तथा उसमें घुँघुरुओं के गुच्छे गाँसे रहते हैं, जो चलने पर बजते हैं । छोरों पर पेंच लगाने के लिए कुंदा बनाये जाते हैं । दोनों का वजन दो सौ ग्राम से लेकर एक किलो तक होता है । इनका प्रचलन यहाँ चंदेल-काल से अब तक है ।
१५. पायल-चाँदी या गिलट की साँकरों से बनी गोलाकार कुछ ढीली-सी रहती हैं । कटमादार, मीनादार, पलियादार, चंदकदार, पान, चिड़ी, फूल कई तरह और कई बनक की होती हैं । आजकल इनका प्रचलन सर्वाधिक है । कुछ में बर्जानेया और कुछ में बिना बजनिया, बोरा (घुँघरु) लगे रहते हैं, लेकिन बिन बोरादार पायलें अधिक पहनी जा रही हैं । पहले पायल की रुनझुन का वर्णन कविता, कहानियों और उपन्यासों में खूब हुआ है । थोड़ी-सी लय बँधने और तेज होने पर झनक-झनक की झनकार सुनाई पड़ती है, जो दूर से ही आकर्षित कर लेती है ।
१६. पैजना-पैजनियाँ-चाँदी, गिलट और कसकुट के एक-से-दो इंच तक मोटे पैजना खोखले होते हैं, जिनके भीतर लोहे या पत्थर के कँकरा डले रहते हैं । वे कटमा, गढ़मा, ढरमा के चपटे और गोल तथा ऐंठी, कौंड़िया, मेड़ासिंगी, जालीदार, कँगूरेदार, छीताफली आदि कई बनक के होते हैं । नगरों के नाम पर छतरपुरी, पलेरासाई, टीकमगढ़ी, दतियासाई, सागरी आदि से पैजनों की विविधता दिखाई पड़ती है । पैजना के झनाके प्रसिद्ध रहे हैं । कसकुट और गिलट के पैजना तो और अधिक बजते हैं, जिससे गली-खोरें निनादित हो उठती हैं । लोककवियों ने पैजना का वर्णन अधिक किया है । ईसुरी ने लिखा है-
चलतन परत पैजना छनके, पाँउन गोरी धन के ।
सुनतन रोम-रोम उठ आउत, धीरज रहत न तन के ।
छूटे फिरत गैल-खोरन में, सुर मुख्त्यार मदन के ।
'ईसुर' कौन कसाइन डारे, जे ककरा कसकन के ।।
पैजना का प्रचलन इस अंचल में इतना अधिक रहा कि हम उसे बुंदेलखंड का जनपदीय आभूषण कह सकते हैं । पैजनियाँ पैजना का छोटा रुप है, जिन्हें किाोरियाँ अधिक पहनती हैं । इनका वजन सौ ग्राम से छ: सौ ग्राम तक होता है, जबकि पैजना दो किलो तक के रहते हैं । पैजनियों की ठनक तो और भी घातक है ।
१७. पैंदना-पैजना पोले होते हैं, जबकि पैंदना चाँदी का ठोस आभूषण है । वह कड़े की तरह गोल होता है । इनका वजन पैजनों से अधिक रहता है ।
१८. पैरियाँ-चाँदी, गिलट और कसकुट की पायजेब की तरह बनती हैं । बीच में खुलवाँ होती हैं । दोनों छोरों पर कुंदा बने रहते हैं, जिनमें कील डार कर पहनी जाती हैं । चन्दक और सादा दो बनक की होती हैं । आदिवासी स्रियाँ पहनती हैं ।
१९. बाँकें-चाँदी या गिलट की लच्छा जैसीं, पर टेढ़ी-मेढ़ी लहरियादार बनती हैं । लच्छों के साथ पहनी जाती हैं ।
२०. महाउर-चाँदी या गिलट की बाँकें जैसीं, पर उनसे अधिक चौड़ी होती हैं । अब इनका प्रचलन नहीं है ।
२१. रुल-चाँदी या गिलट की तोड़ा की तरह, पर उससे पतली बनी रुलें टोड़र के साथ पहनी जाती थीं । अब चलन नहीं है, केवल कोंदर स्रियाँ कहीं-कहीं पहनती हैं ।
२२. लच्छा-चाँदी या गिलट के तारों को उमेंठ कर बनते हैं । स्रियाँ हर पैर में चार-छ: से दस-बारह तक झाँझों के साथ पहनती हैं ।
२३. साकें-चाँदी या गिलट की गुजरियों से कम चौड़ी होती हैं । नीते बोरा लगे रहते हैं, जो बजनारे और बिन बजनारे-दोनों तरह के होते हैं ।
२४.अन्य-चाँदी या गिलट के अन्य आभूषणों में घुन्सी, रमझूलें, घुमरी आदि हैं, जिनके उल्लेख मिलते हैं ।
(ग) कटि के आभूषण
कटि का आभूषण करधौनी है, जो सोने, चाँदी और गिलट की काँकरों की बनती है । कटि के चारों ओर पहनी जाती है, इसलिए लरों के बीच-वीच में पक्खे या ठप्पे बने रहते हैं, जिनमें लगे कुंदों से साँकरें जुड़ी रहती हैं । छोरों पर पेंचदार होती है, जिससे कील लगने पर वह कस जाती है । साँकरें मोतीचूर या इमरतीदार बनक की और पक्खों पर फूल-पत्ती, मोर आदि की कलाकारी आकर्षण का केन्द्र होती है । करधौनी के नीचे झालरें लगी होने से झालरदार या झलराऊ और चटाई की तरह पट्टियों की बुनी रहने से पेटी कहलाती है । साँकरें और झालरें कटमा, डेमन और मीना की बनती हैं ।
एक लर की करधौनी को कड्डोरा या डोरा कहते हैं । कड्डोरा में झालरें लगी होने से झलरया कड्डोरा कहलाता है । दो-तीन लर का, बीच-बीच पान-चिड़ी, फूलादि बने सोने या चाँदी का बिछुआ होता है । अधिक लरों का बिछुआ करधौना कहा जाता है, जो करधौनी का पुर्जिंल्लग रुप है । बारालरी बोरादार करधौनी चौरसी और आधी जगह पहने जानेवाली तथा दोनों छोरों के काँटों से खुसी करधौनी अध करधौनी कही जाती है । चौड़े पट्टे से बनी करधौनी कमरप या कमरपट्टा है, जो उतनी लोकप्रिय नहीं हो सकी ।
ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय, तो करधोनी का सबसे प्राचीन रुप कटिसूत्र था, जिसे आज डोरा या कड्डोरा (कटि का डोरा) कहा जाता है । ताम्रयुग में ताँबे के कटिसूत्र प्रचलित थे । वैदिक युग कीर करधनी न्योचनी हुई । राना हर्षयुग में कही गयी । चंदेलकाल में सतलड़ी बनी । १५वीं शती में कटिमेखला, १६वीं में किंकिणी, १७वीं में छुद्रघंटिका, १८वीं से २०वीं तक करधौनी के नाम से ख्यात रही है ।
(घ) हाथ की अँगुलियों के आभूषण
हाथ की अँगुलियों के आभूषण प्रागैतिहासिक काल से अब तक चले आ रहेर हैं । आदिवासी गौंड, कोंदर, कौंर आदि सभी अँगुलियों का श्रृंगार करते थे । गोंड स्री और पुरुष, दोनों को अँगूठी पहनने का सबसे अधिक चाव है । वैदिक काल में अंगूठी को हिरण्यपाणि कहा जाता था । देवगढ़ और भरहुत की मूर्तियों में अँगूठियाँ का अंकन मिलता है । चंदेलकालीन नाटककार वत्सराज केर रुपक 'कर्पूरचरित' में अंगुलीयक (अँगूठी) का उल्लेख है, पृ. २९ । मध्यकाल के आचार्य कवि शव से लेकर आधुनिक लोककवि भुजबल तक अनेक कवियों की रचनाओं में मुँदरी का वर्णन आया है, जिससे उसकी लोकप्रियता की बानगी मिलती है ।
१. छला-सोने, चाँदी, ताँबे केर तार केर दो-तीन गोल घेरे को छला या छल्ला कहते हैं । आदिवासी कोंदर से लेकर अब तक के व्यक्ति कार यह प्रिय आभूषण रहा है । चौंड़े और चपटे छला को पोरा कहा जाता है, जिसे मुसलमान स्रियाँ पहनती हैं ।
२. छाप-सोने, चाँदी के पत्ता पर सिक्के या अन्य वांक्षित का चित्र बना होता है और वह एक छल्ला से जुड़ा रहता है । छापें पहनने कार चलन अभी बीस-पच्चीस वर्ष पहले तक रहा है ।
३. फिरमा-सोने केर पतले तार का गोलाकार छला जैसा आभूषण ।
४.मुँदरी-सोना, चाँदी, गिलट, पीतल, ताँबा, लोहा, अष्टधातु की बनती है । छला पर पत्ता जुड़ा रहता है और उसे कई बनकों का बनाया जाता है । उसमें मोती, हीरा आदि रत्न, कई तरह के नये ककरा और काँच जड़े जाते हैं । मुँदरी कई तरह की होती हैर । नगजड़ी जड़ाऊ और नौ रत्न-हीरा, मोती, मूँगा, गोमेद, मानिक, नीलम, पन्ना, पुखराज और लसुनिया जड़े होने से नौरत्नी कहलाती है । सात धातु की सतधातू और अष्ठ धातु की अष्टधातू । अँगूठा में पहने जाने वाली अंगोस्थानो है जो फारसी शब्द अंगुतान: से बना है । अँगूठी में आरसी जड़ी हो, तो उसे अ"याऊ कहते हैं । उससे पीछे आने वाले को देख लिया जाता है । यदि अँगूठी में इत्र का फोहा (रुई)र रखने के लिए डिब्बी-सी बनी है, तो इत्रयाऊ और उसे जहर रखने में प्रयुक्त किया जाय, तो जहरयाऊ नाम से जाना जाता है । रियासती-काल में दोनों तरह की मुद्रिकाएँ अधिक प्रचलित थीं ।
(ड.) कौंचा के आभूषण
इस अंचल में कौंचा हाथ का वह अंग है, जिसमें हथेली के पीछे का भाग और कलाई, दोनों सम्मिलित हैं । कौंचा के आभूषणों की परम्परा ताम्रयुग से प्रारंभ होती है, जिसमें तॉबे का कंगन पहना जाता था । उसके पूर्व पाषाण-काल में पत्थर के आभूषणों का प्रयोग था, पर उनके बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं मिल सकी । आदिवासी गोंड़ों, कोंदर, सौंर आदि के आभूषणों में चूरा, चुरिया जैसे प्रमुख थे, जिसका प्रभाव अन्य जातियों के आभूषणों पर निचित था । कड़ा वैदिक आभूषण था । रामायण में 'सर्वाभरण' के प्रयोग से हर अंग के आभूषण का अस्तित्व निचित है । पवायाँ से प्राप्त मूर्तियों में कंगन और चुरियाँ, भरहुत में कड़े और चुरियाँ तथा देवगढ़ में कंगन उत्कीर्ण हैं । वत्सराज (चंदेलकालीन रुपककार) के रुपकों में कंकन, चूड़ी, कंगन, खग्गा का उल्लेख है । तोमरकालीन ग्रंथों-'महाभारत' और 'छिताईचरित' में पौंची, कंकन, चूरी एवं हरिराम व्यास, तुलसी और केाव की रचनाओं में पौंची, कंकन, वलय, गजरा आभूषणों का नाम आया है । १८वीं शती के कवि बोधा ने चूड़ी, ककना, पटेला, रत्नचौक, पछेला, कंकन और १९वीं शती के ईसुरी ने गजरा, ककना तथा २०वीं ाती के भुजबल ने चूड़ी, चूड़ा, बंगलियाँ, ककना, पछेला, दौरी, हरैयाँ, नौघरई आभूषणों के वर्णन या सूची अपनी रचनाओं में दी हैं ।
१.कंकन, कंगन और ककना-संस्कृत कंकण से कंकन, ककना और कंगन बने हैं । इस अंचल में तीनों नाम प्रचलित रहे हैं । गाँवों में ककना ही अधिकतर कहा जाता रहा है, इसलिए साहित्य में कंकन या कंगन प्रयुक्त होते रहे । १७वीं-१८वीं शती से ककना भी प्रविष्ट हो गया । आजकल कंगन का चलन ज्यादा है । ककना सभी धातुओं के रवेदार, जालीदार, ककनियनदार और कई बनक के बनते हैं । गोल पत्ते के उठे हुए भाग पर कई कनकें बनाई जाती हैं, पर मूल रुप से रवा की बनक ही पुरानी है । इसमें किनारों पर छोटे-छोटे रवा होते हैं । आज के कंगन में न जाने कितनी नयी-नयी बनकें खेजीर गयी हैं, अतएव ककना चलन के बाहर हो गया है । ककना के छोटे रुप को ककनिया या ककनी और कंगन के छोटे रुप को कंगनी कहते हैं ।
२. कड़ा-सोने, चाँदी, गिलट, ताँबे के बने ठोस या पोले चूरा की बनक के गुट्टादार होते हैं अथवा बिना मुख के चूड़ी की बनक के बनाये जाते हैं । कड़ा सादा या कलात्मक, दोनों तरह के पसंद किये जाते हैं ।
३. कौंचियाँ या पौंचियाँ-कुहँचा या पहुँचा से कौंचा या पौंचा होकर उनका बहुत पुराना आभूषण कौंचियाँ या पौंचियाँ कहा गया था । अंग से संबद्ध नामकरण पुराना और उचित विधान था । पौंचियाँ में सोने, चाँदी या गिलट के गुरिया पक्के डोरा में डाले जाते हैं । पटवा एक गुरिया के बाद सूत का उतना ही गुरिया बना देता है । इस प्रकार कौंचा के नाप की तीन-चार लरें एक साथ छोरों पर काज-बटन से जुड़ी शोभा देती हैं ।
जालीदार पट्टों की चाँद-सितारे लगे हुए और छोरों से तथा बीच-बीच लटकते बोरे मुसलमान स्रियों द्वारा पहनी जाती पौंचियाँ हैं । वे ज्यादातर चाँदी की बनती हैं ।
४. गाजरा, गजरियाँ और कटीला गजरा-सोने, चाँदी, गिलट के महीन तारों के बिलकुल महीन जालीदार बुनावट वाले गोलाकार पोले बनते हैं । छोरों पर पेंचदार या कीलदार होते हैं । गजरा के बीच-बीच बिना बजनारे बोरों की गासी गोल गेंदें-सी लगी रहती हैं । चौपहली चूरानुमा आकृति की, बगलों में उठी-सी और उपर की पहल में निकासी (छीताफली, खजुरीया आदि) वाली गुजरियाँ होती हैं । ऊपर की चौड़ी पट्टी पर नुकीले काँटे से बने होने पर कँटीला गजरा कहलाता है । बनक और निकासी के आधार पर आभूषणों के नाम रख लिये जाते हैं ।
५. गुंजें-चाँदी, गिलट, सोने की साँकरों में समान अंतर से पखियाँ और छोरों में कुंदा और पेंच लगे रहते हैं ।
६. चंदौली-कोंदर स्रियाँ कौंचों में कँटीले गजरा और चंदौली पहनती हैं । चंदौली चवन्नी जैसी बनक की चूड़ी ही है ।
७. चुरियाँ-सोने, चाँदी, गिलट की पतली गोलाकार सब तरह की निकासी वाली और सादा बनती हैं । काँच की चुरियाँ अधिक प्रचलन में हैं । कचेरा काली काँच की चुरियाँ, हैं, जो विवाह में पहनी जाती हैं । कुछ जातीयों में लाल-पीले रंग की चुरियाँ ही नववधू पहनती है, जिन्हें अमरस कहते हैं ।
८. चूरा-सोना, चाँदी, गिलट के ठोस, पोले और चपरा भरे गोलाकार सब तरह के यानी जालीदार, मीनावाले, जड़ाऊ और निकासीदार होते हैं । दो उमठे तारों के इमरतीदार, चूहों जैसे मुख वाले चूहादत्ती, बाघ के मुखवाले बघवाँ या बगुआँ और कई तरह की बनक के, जैसे दा शवतारी, अरस्याऊ, छीताफली, खजुरयाऊ आदि कहलाते थे । ट्टदार भी बना करते थे । संतान-सप्तमी के व्रत में चाँदी का चूरा या चूरी पुत्रवन्ती माताएँ पहनती हैं और हर बार कुछ चाँदी मिलाकर उसे फिर बनवाती हैं । उसे संतानहित की कामना का प्रतीक माना जाता है ।
९. छल्ला और छन्नी-चूरा जैसी बनक का ऊपर की पटली पर रबादार छल्ला कहा जाता है और चूड़ी जैसी बनक की निकासीदार छन्नी कहलाती है ।
१०. तैंतियाँ-छोटी ताबीजें और ढुलनियाँ समान संख्या में बारी-बारी से डोरा में बरी जाती हैं, जिसे दतिया तरफ तैंतियाँ कहते हैं ।
११. दस्तबंद-सोने-चाँदी की साँकरें पट्टा से जुड़ी और कुंदा-पेंच लगे रहते हैं । ठप्पे निकासीदार, बेलबूटी बनी, मीनाकारीयुक्त और नगों से जड़ाऊ होते हैं ।
१२. दौरी-चाँदी, सोने की चूड़ीनुमा बनक की दुहरी चौड़ाई में दोनों तरफ रवादार और बीच में एक रेखा दो चूड़ियों की आकृति देती हुई बनी होती है । दुहरी से दौरी नाम हो गया है ।
१३. नौगरई या नौघरई-निबौरी की तरह दो-दो गुटिया एक साथ कुंदे से जुड़े पटवा द्वारा बरे जाते हैं । गुटिया कलसादार भी होते हैं ।
१४. पछेला-कौंचा में सब आभूषणों के बाद में पहने जानेवाले चाँदी या सोने का पटेलानुमा आभूषण पछेला कहलाता है ।
१५. पटेला, पटेली और पाटला-चाँदी, गिलट, सोने के रेल की पटली जैसी बनक के सादा पट्टे के पटेला होते हैं । पटेली पटेला की बनक की हल्की होती हैं और पाटला में बीच का भाग ऊपर उठा रहता है । पाटला में बेल आदि की निकासी भी बनी रहती है । उनका चलन आजकल अधिक है ।
१६. बंगलियाँ-चाँदी, सोने की पटली पर बीच में रबा धरे जाते हैं और उन पर फूल-फल बारी-बारी से बने रहते हैं ।
१७. बताने-चाँदी, गिलट के ठोस पट्टेनुमा, समान अंतर पर कुंदों के सहारे बोरा लगे रहते हैं । जालीदार बताने छलबल कहलाते हैं ।
१८. बेलचूड़ी, फूलचूड़ी और बंगरी-चाँदी, सोने की लगभग आदा इंच चौड़ी चूड़ी की बनक की गोलाकार पट्टी और उस पर फूल-पत्ती की बेल बनी होती है तथा ोष भाग में जाली रहती है । बेल से बेलचूड़ी और फूल से फूलचूड़ी नाम पड़ गया है । सादा बिन बेल की बेलचूड़ी ही बँगरी या बँगड़ी है ।
१९. रत्नचौक-सोने की आधा इंच चौड़ी चूड़ी, जिसमें रत्नों के चौका लगे हों । कविवर बोधा (१८वीं शती) ने 'विरह-विलास' में इसका प्रयोग किया है ।
२०. रुनझुनियाँ-दतिया की तरफ छोटी-छोटी ताबीजें और ढुलनियाँ कुंदों से डोरा में गुबी रहती हैं और बजनू बोरा लगे रहते हैं, जिनसे रुनझुन की मधुर ध्वनि होती है ।
२१. लाखों-लाख की बनी चूड़ीयों में काँच, मोती, मूँगा आदि जड़े रहते हैं, उन्हें लाखों कहते हैं । कई तरह की लाखों के सेट को जुरिया कहा जाता है । मेलों के अवसर पर गाँव की स्रियाँ पहनती हैं ।
२२. हथफूल या पानफूल-हथेली के पीछे वाले भग में चाँदी-सोने के कई बनक के चिड़ी-पान, फूल आदि बने होते हैं और अँगुलियों की तरफ लगे कुंदों में पाँच या दो साँकरों से सधे रहते हैं, जो छोरों पर छल्लों से जुड़ी रहती हैं और छल्ले अँगुलियों में फँस जाते हैं तथा कलाई की तरफ दो कुँदों में लगी साँकरें आँकड़ों में फँस जाती हैं । हाथ का यह आभूषण पूरे अंग पर छाकर अपनी साख स्थापित कर लेता है ।
२३. हर्रैयाँ-चाँदी की तबिजियों की तरह चौकोर फल में कुँदा लगी और पटवा द्वारा बरी हुई पहनी जाती हैं । फल पर निकासी रहती है ।
२४. अन्य-महेबा (जिला छतरपुर) के गुमान कवि की 'कृष्णचंद्रिका' में एक पंक्ति है-"बिच बाहु अंग करन्न कंकन मेखला कटि सों कसी" में करन्न कौन-सा गहना है । यदि करन्न विोषण है, तो करन्न कंकन कैसा होता है ।
(च) बाजू के आभूषण
आदिवासी कोंदर, गोंड आदि बहुँटा या पटा बहुँटा में अधिक रुचि रखते थे । बाजूबंद वेदिक आभूषण है, जो इस जनपद में बाद में आया । जनपद-काल में केयूर प्रचलित था, बेसनगर की मूर्तियों में अंगद, भरहुत का बाहुवलय-बाजूबंद के विविध रुप हैं । पवायाँ में भुजबंद लोकप्रिय रहा, तो देवगढ़ का अनंतवलय अनंत का ही रुप था । वत्सराज के 'रुपकषटकम्' में भी आभूषणों का यत्र-तत्र उल्लेख है । १६वीं-१७वीं शती में तुलसी और के शव, १८वीं ाती में बोधा और पद्माकर, १९वीं ाती में ईसुरी तथा २०वीं शती में भुजबल की रचनाओं में अधिका श्ंा आभूषणों का प्रसंगवा संकेत मिलता है ।
१. अंनता और अनंतीयाँ-सोने चाँदी, गिलट, ताँबे का चौदह निाानवाला चूरा जैसी बनक का अनंत होता है और उससे पतली और हल्की अनंतियाँ होती हैं । अनंत चौदस की पूजा में पूजकर पहने जाते हैं ।
२. खग्गा-चाँदी, गिलट के दो तारों को उमेंठकर बनाये जाते हैं और बरा-बजुल्ला के ऊपर पहने जाते हैं ।
३. टड़ियाँ-सोने, चाँदी गिलट की चूड़ीनुमा बीच में मोटी और फिर छोरों तक पतली होती लौटादार या गुटियादार बनती हैं । कारीगार इन्हें उतार-चढ़ाव की कहते हैं । वे निकासीदार होती हैं और कौनी (कुहनी) के ऊपर पहनी जाती हैं ।
४.बखौरियाँ-चाँदी के लहरियादार अंग्रेजी के 'एस' आकार के घेरों की बनायी जाती हैं और छोरों पर एक गुट्टा से कसी रहती हैं या खुल जाती हैं । बखौरा से बखौरिया नाम पड़ा है । ये टड़ियों के ऊपर पहनी जाती हैं । गोंड़ स्रियाँ पहनती हैं ।
५. बजुल्ला-चाँदी, गिलट के तारों के बिजना की तरह गुबावदार बनते हैं । बीच-बीच में पखियाँ लगी रहती हैं, जिनमें छोरों पर पेंच और कुंदा लगा दिये जाते हैं । बाजू से बजुल्ला नाम पड़ा है और बरा के साथ पहना जाता है ।
६. बगुआँ-चाँदी या गिलट के पैजनिया की तरह पोले बाघ के मुँह जैसे छोरों वाले सादा या उमठा के कोनी (कुहनी) के ऊपर पहने जाते हैं ।
७. बरा-चाँदी, गिलट, कसकुट के पैजनिया की तरह पोले पहलदार बनते हैं । तीन पहल वाले सादा, झिंझरियनदार, ढरमा, गढ़ता के होते हैं । कोनी के ऊपर और बाजू के नीचे पहने जाते हैं ।
८. बाकें-चाँदी या गिलट की चौड़ी लहरियादार पट्टी की बनती हैं और कोनी के ऊपर पहनी जाती हैं ।
९. बाजूबंद-सोने की तीन साँकरों से या जरी के बीच-बीच ताबीज की तरह सादा, नौरत्नी, पड़ाऊदार जुड़े या गुबे होते हैं । छोरों पर पखियों में कुंदा-पैंच लगे रहते हैं या जरी केर डोरों में जड़ाऊ गुटियाँ लगी रहती हैं ।
१०. बोंटा, बहुँटा, बोंहटा-बाहु से बहुँटा, बोंहटा या बोंटा नाम पड़ा है । चाँदी या गिलट का ठोस या पोला सादा चौपहला होता है । पैजनिया की तरह छोर होते हैं ।
११. भुजबंद-सोने की जड़ाऊ या सादा गोलाकर पक्खावारी टिकियों के दोनों ओर कुंदा डोरा से पुबे रहते हैं और डोरों के छोरों पर गुटियाँ लगी होती हैं । डोरों से ही भुजों में बाँध दिये जाते हैं ।
उक्त आभूषणों का उल्लेख ईसुरी की फागों में देखें-
१. पैरे रजउ ने प्रान हरन के, ककना कमल करन के ।
बइयन पै बाजूबंद बाँदें, बिगरु संग बरन के ।
छापें-छरन बजुल्ला-छलाला, गजरा कैऊ लरन के ।
तकत तीर से लगत 'ईसुरी', जे नग तरन-तरन के ।।
२. बैयाँ लगें बरन सें नौनी, खग्गन संग सलौनी ।
इनई करन में ककना दौरीं, बाजूबंद मिलौनी ।
पौंची पैर पटेला पैरें, पीछें छैल रियौनी ।
बिच-बिच गजरा नई नोंगरें, करन बजुल्ला बौनी ।
कात 'ईसुरी' इन हॉतन पै, कइयक की है होनी ।।
(छ) गले के गहने
गले के सर्वप्रिय आभूषण हार का प्रचलन सबसे प्राचीन है । पाषाण-काल में प्रस्तर-हार भले ही न रहा हो, पर फूलों-पत्तियों का हार सहज स्वाभाविक है । ताम्रयुग में ताँबे के हार का प्रचलन था । माला वैदिक युग में रहा, जो हार का ही एक रुप है । बेसनगर और भरहुत से प्राप्त मूर्तियों में कई प्रकार के हार-सादा हार, कण्ठा, मोहनमाला, तौक आदि उत्कीर्ण हैं । इसी तरह पवायाँ और देवगढ़ में हार, चन्द्रहार या एकावली और मुक्ताहार का प्रमाण मिलता है । चंदेलकाल की मूर्तियों में हार के अनेक रुप प्रदर्किात हैं, लेकिन जगनिक की 'आल्हा' गाथा ने 'नौलखा' हार को उत्तर भारत में सार्वजनीन बना दिया था । उच्च वर्ग में ग्रैवेयक, कण्ठा, वनमाल, तिलड़ीमाल, एकावली, मुक्ताहार आदि प्रिय थे, जबकि ग्रामीणों में गुरीयों और सिक्कों की मालाएँ, सरमाला, हमेल आदि पहने जाते थे । तोमरकालीन ग्रंथों में कंठश्री, कण्ठमाल, गजमुक्तामाल, छूटा-छूटी आदि, तुलसी और हरिराम व्यास की रचनाओं में मुक्तावली, मणिमाल, पोत की मालाएँ आदि तथा के शव और बिहारी के ग्रंथों में कण्ठमाल, उरबसी, चुहूटिनी-माल, पहुला-हार आदि उल्लेख्य हैं । बोधा ने एक नया नाम जलजकंठुका दिया है, जिसे कमलकण्ठा भी कहा जाता है ।
ईसुरी की फागों में गुलूबंद, कठला, कण्ठा, छूटा, बिचौली, गजरा, पोत का गजरा, सरमाला, तल्लरी और मोहरन-हार नाम मिलते हैं । भुजबल ने अपनी सूची में खंगौरिया, लल्लरी, हमेल, बिचौली, सुतिया, सरमाला, पँचलड़ी, चौकी सम्मिलित किये हैं । मदनेाकृत 'झाँसी कौ राइसो' (१९०४ ई.) में मुहुरमाल, गोप, सेली और त्रिचिपिटी नाम आये हैं । आजकल हार, मंगलसूत्र, जंजीर, सुतिया, गुलूबंद, हमेल और छूटा प्रचलन में हैं ।
१. कण्ठमाल और कण्ठी-छोटे-छोटे सोने के गुरिया और उतनी ही जरी की गुटियाँ जरी में बरी पहनी जाती हैं । अब चलन में नहीं हैं ।
२. कटमा-सोने या चाँदी के ठोस या पत्तादार चपराभरे लम्बे से फल मढियादार और ऊपर उठे या उभरे होते हैं, जिनके दोनों तरफ कुंदा लगे रहते हैं और जिन्हें पटवा जरी से बर कर तैयार करते हैं । अभी २०-२५ वर्ष पहले तक प्रचलन में था ।
३. कठला-पुराने सिक्कों में कुंदा लगाकर मजबूत डोरे में बरी माला कठला कहलाती है ।
४. करसली-चाँदी, सोने की उतार-चढ़ाव वाले (छोरों पर पतले) लम्बे से गुरियों की माला मुसलमान स्रियों द्वारा पहनी जाती है ।
५. खँगौरिया, खँगवारी-चाँदी की ठोस बनी उतार-चढ़ाव वाली (छोरों पर पतली) होती है । उसके बीच के भाग पट्टी में बेलबूटी रहती है और छोरों में गूँजें बनी होती हैं । अभी २०-२५ वर्ष पहले तक सभी जातीयों में चढ़ाये में आती और शुभ मानी जाती थी ।
६. गुलूबंद-सोने के निकासीदार वर्गाकार पत्ता के फलों के नीचे मखमल लगा रहता है और कुंदों में डोरा बरने के बाद छोरों में फुँदना लगाये जाते हैं । यह गले में कसा हुआ-सा होता है ।
७. चंदनहार, चन्द्रहार ओर चँदेरिया-चाँदी की चन्द्रनुमा चपटी छल्ली वाली लरों का हार साँकर या जंजीर की तरह गले में पहना जाता था ।
८. चप्पो, चम्पाकली हार-चम्पाकली की तरह पीले सोने के पत्ते के उतार-चढ़ाव के दानों में कुंदा लगते हैं और कुंदों में सोने का तार या डोरा डाला जाता है । पटवा उसे बर देता है ।
९. जलजकंठुका-पन्ना राज्य में खेतसिंह के आश्रति प्रसीद्ध कवि बोधा के ग्रंथ-'विरहवारी श' में 'जलजकंठुका' (८/१५) आया है । कंठुका का अर्थ सम्पादक ने गले का हार दिया है, जिससे वह गले के विाष्टि हार के लिए प्रयुक्त हुआ है । जलज के अर्थ कमल और मोती-दोनों हैं । भूषण-कला के ज्ञाता से ज्ञात हुआ कि कमल-कंठुका गले का वह हार था, जिसमें कमलाकृति के सोने के गुरिये जरी में बरे रहते थे । यदि जलज का अर्थ मोती लिया जाय, तो फिर जलजकंठुका मुक्ताहार का पर्याय ही सिद्ध होता है ।
१०.टकार, टकावर और टकयावर-कलदारों (चाँदी के सिक्कों) में कुंदे लगाकर बनाया गया आभूषण । पटवा उसे जरी से बरकर सजा देते हैं । कोंदर जैसे आदिवासी और काछी, ढीमर, धोबी, लोदी आदि जातियाँ उसे प्रयुक्त करती थीं । इसे झालरो भी कहा जाता है ।
११. ठुसी-एक पट्टे में कम-से कम पच्चीस और अधिक-से-अधिक पैंतीस सोने-चाँदी के फल तथा किनारी में सोने-चाँदी के गुरिया, बोरा और मोती बरे होते हैं । फलों में निकासी रहती है । ठूँस-ठूँसकर गाँसने से ही ठुसी नाम पड़ा है ।
१२. ढुलनियाँ-सोने-चाँदी की उतार-चढ़ाव वाली अर्थात् बीच में मोटी और छोरों में पतली ढोलक की बनक की होती है । कुंदों से बरी जाती है । ढुलनिया और तबिजिया मंत्र और टोना के लिए डोरा में बर कर पहनी जाती है ।
१३. तिंदाना-मखमल की पट्टी पर सोने की मोतियों की तीन लड़ें जड़ी रहती हैं और छोरों पर गुटियादार डोरा बरा रहता है । पटवा की कलाकारी होती है । तिंदाने के बीच में लगा जड़ाऊ फल 'टेकड़ा' कहा जाता है । सोने के ठप्पादार तिंदाना कहीं-कहीं 'करमा' कहलाता है ।
१४. धुकधुकू-सोने के हार के बीच कमानीनुमा तारों में हीरा जड़ा रहता है और उससे जुड़ा लटकन साँस लेने पर घड़ी के लटकन की तरह हिलता है । हृदय का धड़कन के आधार पर उसका नाम पड़ा है ।
१५.पाटिया-सोने केर जड़ाऊ और निकासीदार टुकड़े (वर्गाकार) मखमल की पट्टी पर जड़े रहते हैं । कुंदों से जुड़कर पटवा द्वारा बरे जाते हैं । छोरों पर डोरा और डोरा से बने गुरिया (सराबो) रहते हैं । गुलूबंद के पहले पाटिया का ही प्रचलन था ।
१६. बिचौली-सोने के जड़ाऊ या निकासीदार वर्गाकार फल, छोटे-छोटे गुरियों और मोतियों की लरें डोरा में गुबी रहती हैं और बीच में पहनी जाने के कारण बिचौली कहलाती हैं ।
१७. मंगल सूत्र-आधुनिक प्रचलन में सौभाग्य का प्रतीक बन जाने से काफी प्रसिद्ध आभूषण हो गया है । काली पोत, सोने के गुरिया और निकासीदार या मीनादार फल एक डोरा या साँकर में गँसे रहते हैं और बीच में सोने का कामदार टिकड़ा लटकता रहता है । इस हारनुमा आभूषण को मांगलिक माना जाता है ।
१८. मालाएँ-सोने के गोल, चौखूँटे और अठपहले गुरियों को डोरा में बर कर माला बनायी जाती है । यह पुष्पमाला की तरह लम्बी होती है । मालाएँ कई तरह की होती हैं । सोने के लम्बे गुरियों की माला सर या सरमाला कहलाती है और चढ़ाये में चढ़ती है । ऊपर की तरह क्रमा: पतले होते मटर के दाने के आकार वाले सोने की गुरियों की माला मटरमाला कही जाती है । सोने के मोतियों के बीच-बीच काले मोती लगाये जाने से मोहनमाला बन जाती है । इलायची की आकृति के मोतियों का माला इलाचयी दानों की माला के नाम से प्रसिद्ध है । सोने के छोटे-छोटे गोल गुलियों की माला गटरमाला है । लड़ियों के अनुसार दुलड़ी, तिलड़ी, चौलड़ी पचलड़ी और सतलड़ी मालाएँ होती थीं । भरहुत की मूर्तियों में तिलड़ी और छहलड़ी की बनक से इस अंचल की अलंकरणप्रियता का पता चलता है । महाकवि बिहारी की 'सतकई' में बनमाल (बिहारी-रत्नाकर, १५४) मुक्तामाल (१५६), मणिमाल (१५६), मौलिश्री माल (२०४), गुँजों की माल (३१२), चंपकमाल (५४४), आदि मालाओं को महत्त्व मिला है ।
१९. लल्लरी-सोने के गर्रादार और बीच में रबादार गोल गुरिया के बाद जरी या डोरा की वैसी ही गर्रिया की क्रमिक माला डोरा या जरी से बरी जाती है । दोनों छोरों को सोने की एक गुटिया से निकाला जाता है, जिससे छोर खींचकर उसे छोटा-बड़ा किया जा सके । अभी बीस-पच्चीस वर्ष पहले तक चढ़ाये में चढ़ती थी ।
२०.सुतिया-सोने की ठोस खंगौरियानुमा बनी होती है । बीच में निकासीदार रहती है । समृद्धि की नि शानी मानी जाती है
२१. सेली-सोने के छइयाँ-उतार (छाया की तरह धीरे-धीरे उतार वाले) गुरियों की कई लड़ियों की लम्बी माला सेली कहलाती है । उसके छोरों पर डोरा या जरी के सराबो (गुरिया) लगे रहते हैं । अब इसका चलन नहीं है ।
२२. हँसली-चाँदी की ठोस और ताँबे पर सोने के पत्ता की, सामने के भाग में चौपहली होते हुए चपटी होती हैर । खंगौरिया और सुतिया की तरह । चपटी पहल पर निकासी रहती है । छोरों पर गोल होती हुई गूँजदार बनायी जाती है, ताकि उमकाकर पहनी जा सके ।
२३. हमेल-सोने की मोहरों में कुंदा जड़े जाते हैं और डोरा या जरी में बरे रहते हैं । हमेल लम्बी और छोटी, दोनों तरह की बनती है । कहीं-कहीं इसे मोहर-माल या मोहरों की माला भी कहते हैं ।
२४.हार-मोतियों के जड़ाऊ और मीनाकारी के तथा नोरत्नी अनेक प्रकार के हार होते हैं । सीतारामी हार काफी लम्बा-चौड़ा होता है और उसके बीच-बीच में सोने के टिकड़ा (जड़ाऊ या निकासीदार) तथा मोतियों की लड़ लगे रहते हैं । द शावतारी हार में दस अवतारों के चित्रण में कलाकारी की अनोखी बानगी रहती है । अरस्याऊ हार में आरसी जड़ी होती हैं ।
'आल्हा' गाथा का नोलखा हार रत्नजटित था । आजकल सैकड़ों बनक के हार प्रचलित हैं ।
२५.अन्य-कुछ ऐसे आभूषण भी प्रचलित रहे हैं, जिनके संबेध में जानकारी मिलना कठिन-सी है । कविवर मदन श्ेा के 'लक्ष्मीबाई रासो' (१९०४ ई.) में 'चिचिपिटी' का उल्लेख है । बजट्टी में सोने के मोतियों की तीन लड़े जड़ी जाती हैं । बाँक चंद्रमा कीर बनक का आभूषण है, जिसे मुसलमान स्रियाँ पहनती हैं । कठिया में सोने के तीन बड़े गुरिया और बीच-बीच में मूँगा बरे जाते हैं । ग्रामीण स्रियाँ लाख का गुरिया बीच में लगवाती हैं । कालर, गुटिया, चिकपट्टी और चीलपेटी के बारे में सही जानकारी नहीं मिल सकी ।
(ज) कान के आभूषण
कर्णभूषण भी प्राचीन हैं । ताँबे के बुंदे ताम्रयुग में प्रचलित थे । चक्रनुमा कान का आभूषण वैदिक देन है । भरहुत, बेसनगर और देवगढ़ की मूर्तियों में कुण्डलों का अंकन खूब हुआ है, जिससे उनकी लोकप्रियता प्रमाणित है । भरहुत के कुण्डलों में जितना भारीपन है, उतना देवगढ़ के कुण्डलों में नहीं है । पवायाँ में झुमकीदार आभूषण प्रचलन में आये । कर्णफूल या कनफूल भी बहुत पुराने हैं । उनकी परंपरा देवगढ़ केर दाावतार मन्दिर के काल (गुप्तयुग) से अब तक निरंतर गतिवान् रही है । कनफूल और ढारों में आदिवासियों का रंग रहा है । तोमरकालीन तरिवन और खुटी पूरे मध्ययुग में रही । तुलसी, केाव और व्यास (हरिराम) के काव्य में कर्णवलय, बारी, नगफनियाँ खुटिला, मुरकी, ताटंक, खुभी, झलमली आदि का उल्लेख है । बिहारी, बोधा और पद्माकर ने ताटंक, तरौना, लौंग, खुटिला, कुण्डल, गोापेंच आदि को प्रधानता दी है । ईसुरी की फागों में कन्नफूल, लोलक, बालियाँ, आदि और भुजबल की सूची में कनफूल, लोलक, ऐरन, बालियाँ, झुमकी, खुटी, ढारें, साँकर आदि मिलते हैं ।
१. ऐरन-सोने की गोल जड़ाऊ यी निकासीदार तरकी में कुंदा से एक या तीन पत्ती जुड़ी रहती हैं । पत्तीयाँ जड़ाऊ या कामदार बनायी जाती हैं । बीच की पत्ती में लम्बा-सा लटकन हिलता रहता है । ऐरन के ऊपर की कान को घेरने वाली साँकर कनचढ़ी कही जाती है ।
२. कनफूल-कुकुरमुत्ता जैसी आकृति के सोने के कर्णफूल सादा और झुमकीदार दो तरह के होते हैं । उन पर अधिकतर रबा की समानान्तर पंक्तियाँ रहती हैं । कभी-कभी छीताफली या दूसरी बनक (डिज़ाइन) भी बनाते हैं । डाँड़ी की सीध में ऊपर की तरफ नग जड़ा रहता है । जड़ाऊ कनफूल कम पहने जाते हैं । वजनी होने के कारण कनफूल को साधने के लिए साँकर उरमा, झेला और मकोरा की साँकर कहलाती है । वह या तो डाँड़ी में लगे कुंदे से जुड़ी कान को घेरती है अथवा ऊपर की तरफ सिर में खुसी रहती है या दूसरे कान की साँकर से जुड़ी होती है ।
३. कनौती-सोने, चाँदी, पोत और मोतियों की साँकर, जो कान को घेरती है, कनौती कहलाती है ।
४. कुण्डल-सोने के बाला से बड़े सादा और जड़ाऊ होते हैं । उनमें मोती लटकते रहते हैं । वे कई बनक के होते हैं ।
५. खुटी, खुटियाँ, खुटिला-सोने, चाँदी गिलट और सब धातुओं की पान-चिड़ी, फूल, पत्ती, ईंट आदि बनक की या हीरा, मोती, नीलम की जड़ाऊ बनती हैं ।
६. खुभी-भाले के फल के आकार की खुटिया खुभी कहलाती है । 'बिहारी-रत्नाकार' (दोहा ६) में उसका वर्णन है ।
७. झुमका, झुमकी-सोने के निकासीदार या जड़ाऊ फूल में लगे कुंदा से लटकती छत्रनुमा गोल, चौखूँटी और अठपहली झुमकी के निचले किनारे पर बोरा या मोती लटकते रहते हैं । आकार में कुछ बड़े झुमका होते हैं । झुमकी जालीदार, रबादार, फूल-पत्ती आदि कई बनक की बनती है ।
८. झुलमुली-'बिहारी-रत्नाकर' (दोहा १६) में झाला या पीपलपत्ता के आभूषण का आंचलिक नाम झुलझुली बताया गया है । श्री रामांकर शुक्ल 'रसाल' ने अपने शब्दकोा में झुलझुली के लिए कान में पहने जाने वाला पत्ता लिखा है, जबकि ज्ञानमण्डल के ाब्दकोा में झिलमिली को कान का एक गहना बताया गया है ।
९. ढारें-सोने या चाँदी की कनफूल की तरह गोल निकासीदार या जड़ाऊ होती हैं और निचले किनारे में लगे कुंदों से अंग्रेजी अक्षर यू की तरह साँकरें लटकती रहती हैं, जो क्रमा: भीतर कीर तरफ छोटे यू में बदलती जाती हैं । ये साँकरें कपोलों पर लुरकती सुंदर लगती हैं ।
१०. तरकी-सोने या चाँदी की फूल की तरह निकासीदार या जड़ाऊ कान की कुचिया को स शुाोभित करने वाली तरकी कहलाती है ।
११. तरकुला-सोने के कनफूलनुमा, पर कनफूल से चौड़े रबादार और कलसादार आभूषण, जिसमें रौना (बोरा या मोती) लगे रहते हैं और उनसे जुड़ी झुमकी आभा का अलग रंग बिखेरती है, तरकुला कहलाता है । उससे छोटी-तरकुली कही जाती है ।
१२. तरौना-सोने के कनफूल से जुड़ी झुमकी या झुमकीनुमा लटकन को तरौना या तरिवन अथवा कहीं-कहीं तरकी कहते हैं और इसी को संस्कृत में ताटंक या तालपर्ण कहा जाता है । 'बिहारी सतसई', के दोहों में तरिवन और तरौना-दोनों शब्द आये हैं (बिहारी-रत्नाकर, दोहा ८२, २०) ।
१३. नगफनियाँ-कवि तुलसी ने 'गीतावली' (बाल, ३१य४) में 'कानन नगफनियाँ' लिखकर नाग के फन की आकृति वाले आभूषण का संकेत किया है । अब उसका प्रचलन नहीं है, अतएव उसकी पहचान कठिन है ।
१४. फुल्ली या बैकुण्ठी-सोने की गोलाकार छोटी बारी, जिसमें छोटे-छोटे मोती पुबे रहते हैं और जो कान के अगले भाग में पहनी जाती है ।
१५. वंदनी-माँग में काँटा खोंसकर कर्णफूलों को जोड़ने वाली साँकरें, जो दोहरी और यथोचित लम्बी होती हैं ।
१६. बारी-सोने, चाँदी, पीतल के तार की गोलाकार कई बनक की होती हैं । बारी कई प्रकार की बनती हैं । बारी में त्रिभुज जैसी आकृति जोड़ने पर तीतरी, तीन गुरिया चपटे तार में पुबे होने पर तिगड़ी, छोटी बारी में गुरिया, मोती पुबे होने से दुरबच्ची, बोरनदार बारियों को गुरखुर्रूँ, कान के ऊपरी भाग में पहनी जाने वाली पत्तादार बारी को बारीपत्ता कहा जाता हैं ।
१७. बाला-मोटे तार के गोलाकार लौंड़ी से लटकते हुए । पहले लड़के और पुरुष, मोती, मूँगा पुबे हुए पहनते थे, अब स्रियाँ उन्हें सादा रुप में पहनती हैं ।
१८. बिचली-सोने-चाँदी की कान के गड्ढे में पहनी जाने वाली बारी के बनक की होती है ।
१९. बिजली-सोने-चाँदी की नगदार या जड़ाऊ बारी जो कान के ऊपरी भाग में पहनी जाती है और जिसके हिलने से बिजली जैसी चमक उत्पन्न होती है ।
२०. बुंदे-मुसलमान स्रियों द्वारा पहने जानेवाले ऐरन की बनक के होते हैं ।
२१. मुरकी और मुरासा-सोने-चाँदी के मोटे तार की गोलाकार कान में लौंड़ी से थोड़ी-सी ढीली पहनी जाती है । जड़ाऊ और मोतीदार भी होती है । बड़ी मुरकी जड़ाऊ और मोती पुबे मुरासा कही जाती है, जो कपोलों के स्र्पा करती है । कवलिवर बिहारी ने इसका वर्णन किया है (बिहारी-रत्नाकर, दोहा ६७३) ।
२२. लाला-सोने के टाप्सों में दो मोतीदार लड़ें लटकती हैं, उन्हें लाला कहते हैं और एक लड़ के लटकन वाले झाला कहे जाते हैं ।
२३. लोलक-सोने-चाँदी के झुमकों की तरह सादा और जड़ाऊ कनफूलों के साथ पहने जाते हैं और अकेले भी । सुंदर बनक के कारण लोलक कहे जाते हैं । ईसुरी और भुजबल ने अपनी फागों में इनका वर्णन किया है ।
२४.अन्य-उक्त के अतिरिक्त झिलमिली, झुलझुली, पीपलपत्ता, पानपत्ता आदि कान के ऊपरी भाग में पहने जाने वाले आभूषण हैं, जो गोलाकार होते हुए पान या पीपल के पत्तों की बनक के होते हैं । गोलाकर तार में लटकने वाली पत्तानुमा झिलमिली होती है, जो रह-रहकर चमकती रहती हैं । लुरकी कपोलों पर लुरकने वाली साँकर या लटकनदार आभूषण है ।
(झ) नाक के आभूषण
नाक के आभूषणों के उल्लेख बुंदेलखंड के तोमरयुगीन ग्रंथों में मिलते हैं, पर चंदेलकालीन ग्रंथों, मूर्तियों और ालिालेखों में उनका पता नहीं चलता । इससे स्पष्ट है कि उनका प्रचलन १४-१५वीं शती से हुआ है । 'छिताईकथा' (१४७५-८० ई.) में नकफूली आया है । तुलसी ने 'गीतावली' में (१/३१) नथुनियाँ शब्द का प्रयोग किया है, जो उस समय के प्रचलन का साक्षी है । नथ मुसलमानों की देन है । आतार्य श् ाव ने 'नकमोती' संत कवि हरिराम व्यास ने 'नकबेसर' और बोधा ने 'बेसर' तथा ईसुरी और भुजबल ने पुँगरिया, दुर, बेसर को महत्त्व दिया है । आदिवासी कोंदरों में पुँगरिया और मोघियों में लोंग का अधिक प्रचलन रहा है । मुसलमान स्रीयाँ नथ और बुल्लाक पहनती हैं । आचर्य यह है किर विद श्ेाी आभूषण नथ को हिन्दुओं ने इस तरह अपनाया है कि वह हिन्दू स्रियों में सौभाग्य का प्रतीक बन गया है ।
१.कील-सोने, चाँदी और सब धातुओं की सादा या जड़ाऊ बनती है । इसी को लौंग कहते हैं । इसमें ठुल्ली (डंडी) के ऊपरी सिरे पर फूल जैसी गोलाकार आकृति में नग (हीरा, मोती आदि) जड़ा रहता है और नीचे के सिरे को तरपलिया के पेंच से बंद कर दिया जाता है । कील या लौंग से बड़ी और पुँगरिया से छोटी खुटिया होती हैर । ठोस दाने की छोटी लौंग दुर्रा कहलाती है ।
२. झुलनी-नाक केर निचले भाग में पहनी जाती है, और वह अधर पर लटकती झूलती रहती है, इसलिए उसे झुलनी कहते हैं । झुलनीदार दुर भी होता है, जिसमें झुलनी झूलती रहती है । एक लोककवि ने राई लोकगीत में लिखा है कि "मर जैहौ गँवार, मर जैहौ गाँवार, झुलनी को झूला न पाइहौ ।"
३. टिप्पो-सोने-चाँदी का फूल कीर बनक का आभूषण, जो नाक की टोन के बिच में पहना जाता है । बनाफरी पट्टी और दमोह जिले में इसका प्रचलन अधिक है । इसे कहीं-कहीं ठुल्ली और कहीं ठीपा कहा जाता है ।
४.दुर-सोने का सादा और झुलनी या लटकनदार बारी की बनक का बारी से मोटा और बड़ा बायीं ओर पहने जाने वाला आभूषण आज से पचास-साठ वर्ष पहले खूब प्रचलित था । लोककवि ईसुरी ने स्पष्ट कहा है-"दुर तें नौनी लगत जा मुइयाँ ।" उन्होंने औंदा के दुर कार वर्णन किया है । १९वीं शती के अंतिम चरण और २०वीं शती केर प्रथम चरण में दुर की फागें लिखने की परम्परा थी ।
५. नथ-नथुनिया-सोने की बाली के बनक का बाली से मोटा और बड़े आकार का आभूषण जो नाक के दायें नासापुट में पहना जाता है, नथ कहलाता है । अधिक भार के कारण नथ को सँभालने के लिए मोती की लर, सोने की साँकर या डोरा कान के पास बालों में क्लिप से बाँधा जाता है । यह विवाह के समय अधिक पहना जाता है और इसे सौभाग्य का चिन्ह माना जाता है । तुलसी ने 'गीतावली' में नथुनिया का उल्लेख किया है, जो नथ से छोटी होने के कारण नथुनिया कही जाने लगी । इसे छोटे बच्चे पहनते थे ।
६.नकफूली-फूलदार टिप्पो को पहले नकफूली कहा जाता था । तोमरकालीन ग्रंछ 'छिताईकथा' में इसका उल्लेख मिलता है ।
७. नकमोती-रीतिकालीन कवि के शव ने इसका उल्लेख किया है, जिससे स्पष्ट है कि १६-१७वीं शती में मोतीजटित कील को ही नकमोती कहा जाता था ।
८. नकबेसर या बेसर-कविवर हरिराम व्यास (१६वीं शती), के शव (१६-१७वीं शती) और भुजबल (२०वीं शती) ने नकबेसर तथा बिहारी (१७वीं शती) और बेधा (१८वीं शती) ने बेसर का प्रयोग किया है । इस तरह दोनों नाम प्रतलित थे । सोने के दुर में जड़ाऊ या मोतियों की पत्ती बनी रहती है । बिहारी के दोहा में 'नाक बास बेसर लओ बस मुक्तन के संग' वाली पंक्ति से स्पष्ट है कि बेसर में मुक्ता या मोतियों का लटकन रहता है । एक दोहे में बेसर के मोती को नायिका के अधरों का रस पान करते बताया गया है "बेसर-मोती-दुति-झलक परी ओठ पर आइ । चूनो होइ न चतुर तिय, क्यों पट पौंछो जाइ ।।"
९. पुँगरिया-सोने की लोंग से बड़ी गर्रयाऊ, रवादार, मथानी के फूल जैसी, फूलदार, पालदार, डैमल काट या जड़ाऊ होती है और बायीं ओर पहनी जाती है । लोककवि ईसुरी ने लिखा है-"बनवा लेयँ पुँगरिया तड़कें, आज पिया से अड़कें ।"
१०. बारी-सोने-चाँदी और सब धातुओं की पतले तार की बनती है और उसमें नग भी पुबे रहते हैं ।
११. बुल्लाख, बुल्लाक या बुलाक-सोने या चाँदी की नाक की बिचलि हड्डी में पहनी जाती है । सादा या जड़ाऊ दोनों तरह की होती है । वह झुलनी की तरह अधरों पर झूलती रहती है । मुसलमान स्रियाँ ज्यादा पहनती हैं ।
१२.सिरजा-दुर में लगा मोतीदार जड़ाऊ पत्ता, जो नया सौंदर्य प्रदान करता है । लोककवि ईसुरीक ने लिखा है-"हीरा-लाल जड़े सिरजा में मुख पै होत उजेरा ।"
(ट) माथे के आभूषण
माथे के आभूषणों में टिकुली सबसे प्राचीन है, क्योंकि भरहुत, साँची और चंदेली (कंदरीय मंदिर, खजुराहो) मूर्तियों में उसके र्दान होते हैं । टीका तोमरकालीन ग्रंथों में उल्लिखित है । तिलक का वर्णन आचार्य के शव ने किया है । बुंदेलों के युग में बेंदा, टिकुली और टीका लोकप्रिय रहे हैं । लोककवि ईसुरी ने बेंदी, बेंदा, बूँदा, टिकुली, दावनी की फागों रची हैं, जबकि भुजबल ने बेंदी, टीका और दावनी का उल्लेख किया है । आजकल बेंदी, बूँदा या टिकुली अधिक प्रचलित है ।
१. टिकली-सोने चाँदी की पलियादार गोलाकृति की होती है और रार से चिपकायी जाती है । काँच की टिकली भी लगायी जाती थी, पर आजकल प्लास्टिक की टिकली प्रचलित है ।
२. टीका-सोने की दो से चार अंगुल लम्बी और एक से डेढ़ अंगुल चौड़ी त्रिपुण्ड तिलक के बनक की पत्ती मस्तक के बीच में शोभित रहती है । उसके दोनों ओर बने कुन्दों से डोरा बाँधा जाता है ।
३. तिलक-सोने, चाँदी की पत्ती का अथवा काँच या प्लास्टिक का लम्बे आकार में मनचाही बनक का होता है । पान की बनक अधिक लोकप्रिय रही है । पहले छोरों से डोरा या साँकरों से बाँधा जाता था, बाद में रार से चिपकाया जाने लगा है ।
४. दाउनी या दावनी-सोने, चाँदी की सादा या जड़ाऊ अथवा मोती की लरें माथे की बीच में माँग के नीचे से दोनों ओर कानों के पास बालों में कुंदादार खुस्मा से खुसी रहती हैं । ये झालरदार भी होती हैं । कविवर मनभावन की फाग की दो पंक्तियाँ देखें-"सिर पै दमक दाउनी सोहै, मनमोहन मन मोहै । झालर झूम रई मोतिन की, हीरा-लाल गँसो है ।।" फड़गायकी में दाउनी की फागें लोकप्रिय रही हैं ।
५. बैंदा-बैंदी-सोने का सादा या जड़ाऊ, लगभग गोलाकार और कई बनक का होता हैं और माँग से माथे पर बीचों-बीच लटकने के लिए तीन कुंदों से डोरा या साँकर द्वारा बँधा रहता है । जड़ाऊ बैंदा में हीरा, मानिक, मोती आदि सब कि के नग जड़े रहते हैं । मीनाकारी भी की जाती है । बैंदा के चारों तरफ छोटे-छोटे कुंदों से लटकते हुए मोती एक आभामण्डल-सा बना देते हैं । बैंदी बैंदा से छोटी होती है । बैंदा-बैंदी की सैकड़ों फागें रची गयी हैं । ईसुरी की पंक्ति है-"बैंदा माथे को मतवारो, मोंतिन लगो तुमारो ।"
६.बूँदा-सोने, चाँदी और काँच के कई रंग के बीच माथे में रार से चिपकाये जाते हैं । आजकल प्लास्टिक के भी प्रचलित हैं । बूँदा की कई फागें मिलती हैं, जिनमें से एक की पंक्तियाँ देखें-"बूँदा रजऊ के माथे चढ़कें, लूटन लागो सड़कें ।" अथवा 'बैंदा सें जुलम करें बूँदा, बूँदा नें जबसें दओ बूँदा ।'
(ठ) सिर के आभूषण
सिर के आभूषणों में चिमटी (क्लिप) प्रागैतिहासिक युग का आभूषण है । चंदेलकाल में सीसफूल और बीज का प्रचलन अधिक था । के शव के ग्रंथों में सीसफूल और माँगफूल का उल्लेख है । तुलसी ने चूड़ामणि को महत्त्व दिया है और बोधा ने सीसफूल को । पद्माकर ने कलगी और सिरपेंच का वर्णन किया है । भुजबल सीसफूल और बीज को फागों में स्थान देकर प्रमुख ठहराते हैं ।
१. कौकरपान या केकरपान-सोने-चाँदी की पान की तरह पतली पत्ती का बना एक गोलाकर आभूषण, जिसमें खुरमा की बनक बनी रहती है और जो माँग में पहना जाता है । उससे घूँघट उठा रहता है । अब चलन नहीं है ।
२. झूमर-मुसलमान स्रियों द्वारा पहने जाने वाला आभूषण, जिसमें सोने-चाँदी की साँकरें झूमती रहती हैं और उनमें मोती लगे होते हैं ।
३. बीज-सोने का गोल कमलगट्टे जैसी बनक का पीछे क्रमिक रुप में पतला होता हुआ रवादार बना होता है । आगे माँग में ऊपर उठा रहता है, जिससे घूँघट ऊँचा उठा होता है । उसमें तीन कुंदों से तीन साँकरें या धागे पुबे रहकर पीछे और दायें-बायें हुकदार खुसमा के खोंस दिये जाते हैं ।
४. सीसफूल, माँगफूल, चूड़ामणि-सोने या चाँदी का बीज की तरह का आभूषण, जो रौना या मोती-दार होता है और माँग में माथे की तरफ कुछ झुका पहला जाता है । इससे भी घूँघट ऊपर उठा रहता है । यह ठोस, चपड़ाभरा, सादा, जड़ाऊ-सब तरह का होता है । यह इस अंचल का विोष आभूषण है । सीसफूल की साँकरें मोतियों की होती हैं, इसीलिए फागकार कह उठता है-"ऊपर माँग भरी मोतिन की, सीसफूल को धारें ।"
५. रेखड़ी-चाँदी की गोल ठप्पानुमा कई बनक की होती है, जो माँग के बीच में घूँघट को ऊँचा उठाये रखती है ।
(ड) बेनी के आभूषण
वेणी के आभूषणों का वर्णन कम मिलता है । चंदेलकालीन मूर्तियों में के शपा श, के शबन्ध या चुटीला आदि के बनक-बनक के नमूने मिलते हैं । उदाहरण के लिए दोपतिया टहनी, पाटल पुष्प या पूर्णपुष्पित पुष्प आदि की बनकें लोकप्रचलित थीं । केाव ने बेनीफूल और बोधा ने केापाा, चोटीबंद और बेनीपान का उल्लेख किया है । गोंड़ों में जुरिया और झरका जैसे प्रयोग हैं, जबकि ग्रामीण लोक में झबिया ज्यादा प्रचलित है ।
१. चुटिया या चुटीला-चोटी में बाँधा जाने वाला चाँदी का बना आभूषण, जिसे पहले केसपास या केसबंध कहते थे, कई बनक का होता है ।
२. छैलरिजौनी-चाँदी की पान की बनक की एक लम्बे कुन्दा में छोटी साँकर से जुड़ी रहती है । छैलरिजौनी छैलरिझावनी यानी प्रेमी को आकर्षित करने वाली होती है ।
३. झविया-चाँदी की साँकरों की जाली वाला आभूषण, जो जूड़ा बाँधने के लिए होता है । इसमें गुटियाँ-सी या बोरों की लड़ें-सी लटकती रहती हैं ।
४. बेनीपान-चाँदी का पान की बनक का आभूषण, जो चाँदी की साँकर से जुड़ा रहता है, जिसमें एक ओर बालों में खोंसने का काँटा होता है ।
५. बेनीफूल-चाँदी के फूल की बनक का आभूषण, जो एक तरफ साँकर और दूसरी तरफ काँटे से जुड़ा होता है ।
६. अन्य-इनके अलावा चाँदी की साँकर से जुड़ी किलपें, जो चाँदी की ही कई बनक की होती हैं, चाँदी के काँटे, जो बालों को फँसा लेते हैं और चाँदी के गजरा, जिमें चाँदी के फूल साँकरों से गुँथे रहते हैं, आदि प्रचलन में रहे हैं । अब चाँदी का स्थान प्लास्टिक ने ले लिया है ।
पुरुषों के आभूषण
१. पैर के आभूषण-इनमें कड़ा, चूरा और तोड़ा पुरुष पहनते हैं, पर उनका विवरण स्रियों के आभूषण में दिया जा चुका है । वस्तुत: प्राचीनकाल में कुछ आभूषण स्री और पुरुष दोनों पहनते थे, बाद में लिंग के आधार पर उनका विभाजन हुआ है ।
२. हाथ के आभूषण-इनमें छला, फिरमा, मुंदरी (अंगूठी), कड़ा और चूरा प्रमुख हैं, जिनका विवरण पहले ही दिया जा चुका है । बाजू में बाजूबंद या भुजबंध और अनन्त पहनते थे, जिनका परिचय भी पूर्व पृष्ठों में वर्णित है ।
३. गले के आभूषण-इनमें कण्ठा, गजरा, गुंज, गोप, जंजीर (साँकर), तौक, तबिजिया, बनमाल, मोतीमाल, हार प्रमुख हैं । कण्ठा में सोने के मोटे और गोल गुरिया जरी में बरे रहते हैं । उनके साथ जरी की गुटियाँ बीच-बीच में गूँथी जाती हैं । रियासतों में उच्च वर्ग के लोग कण्ठा पहनते थे और राजा भी पुरस्कार में कण्ठा दिया करते थे । गजरा पोत का होता था और उसके बीच में तबिजियाँ और ढुलनियाँ होती थीं । गुंज में सोने की चार-पाँच लम्बी लरें बीच-बीच में समान दूरी पर सोने की पत्ती से जुड़ी रहती हैं । हर लर सोने के महीन तारों की बनी कलात्मक होती है और उसके छोर पर कुलाबे लगे रहते हैं । गोप में सोने की मोटे तारों की दो लरें बीच में पन्ना, हीरा, मानिक आदि नगों से जटित टिकरा से जुड़ी रहती हैं । गुंज-गोप की लरों की बुनावट गुंजों जैसी होने के कारण वे गुंजन की लरें कहलाती हैं । मध्य युग में गुंज-गोप समृद्धि का ही नहीं, प्रतिष्ठा का भी प्रतीक था । साँकर (जंजीर) सोने के तारों की कई बनक की बनती थी, जिसे बनक के अनुसार कई नामों से पुकारा जाता था । जलजकंठुका नाम कमल की बनक के कारण रखा गया था । तौक हँसली की बनक का सोना या चाँदी का ठोस या पत्तादार आभूषण होता था । गुलामों को पहनाये जाने के कारण इसका प्रचलन नहीं था । तबिजिया, मोतीमाल, और हार का वर्णन किया जा चुका है । वनमाल, मुक्तामाल और मणिमाल पुरुषों को बहुत पसंद थीं । कविवर बिहारी ने वनमाल और मनि-मुक्तिय-माल का उल्लेख अपने दोहों में किया है ।
४. कान के आभूषण- इनमें कुण्डल, गुरखुरु, चौकड़ा, झेला, बारी और मुरकी प्रमुख हैं । कुण्डल, बारी और मुरकी के विवरण दिये जा चुके हैं । गुरखुरु सोने का बेर की गुठली जैसा काँटेदार आभूषण है । उसकी बनक गुरखुरु की तरह होने के कारण उसका नाम गुरखुरु पड़ा है । चौकड़ा में सोने की चार बालियाँ जुड़ी होती हैं । झेला कुण्डलों से जुड़ी उन्हें सँभालने वाली साँकरों को कहा जाता है ।
बालकों के आभूषण
१. पैर के आभूषण-इनमें चूरा और तोड़ा ही पहले पहने जाते थे और उनका विवरण दिया जा चुका है । अंतर केवल इतना है कि वे छोटे होते थे । नवजात शि शु के 'पथ' के रुप में अब तोड़ा के स्थान पर पायल दी जाती है । तुलसी ने बालक राम को 'पैजनियाँ' पहने चित्रित किया है-"ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनियाँ ।" वे नूपुर भी पहने हुए हैं ।
२. कटि के आभूषण-इनमें छोटी करधौनी प्रमुख है । एक या दो लर की सादा करधौनी डोरा कहलाती है । तुलसी ने किंकिणी और मेखला दोनों, बालक राम के लिए लिखी हैं । किंकिणी में ककरा डले बोरा लगे होते हैं, जिनसे मधुर ध्वनि निकलती है । बड़े होने पर मेखला पहनी जाती है । दोनों का विवरण पहले दिया जा चुका है ।
३. हाथ के आभूषण-इनमें कड़ा, चूरा और पहुँचियाँ (पौंचियाँ-कौंचियाँ) हाथ के कौंचा के और अनंतियाँ बाजू के बालकों द्वारा पहने जाते हैं । तुलसी ने बालक राम के लिए कंकन और पहुँची लिखा है । इन सभी के विवरण दिये जा चुके हैं, परंतु बालक उनके लघु आकारीय रुप का ही प्रयोग करते हैं ।
४. गले के आभूषण-इनमें कठुला या कठुली, तबिजियों-ढुलनियों का गजरा, चंदा, बघनखा और हायचंद्रमा हैं । बच्चों के गले की वह माला, जिसमें चाँदी या ताँबे की तबिजियाँ, ढुलनियाँ, हाय, चंद्रमा या चंदा, बजरबट्टू, बघनखा आदि काले डोरा में पुबे रहते हैं, कठला या कठुली (तुलसीकृत 'गीतावली') अथवा गजरा कही जाती है । तबिजियाँ और ढुलनियाँ चाँदी या ताँबे की चौकोर और ढोलक के आकार की होती हैं, जिनमें मंत्रादि रहते हैं । हाय और चंद्रमा में चाँदी के गोलाकर कल्दारनुमा पत्ते पर 'हा' और दोज का चंद्रमा बना होता है । बघनखा में चाँदी के चौकोर ताबीजनुमा खोल में बाघ के नाखून रहते हैं ।
५. कान के आभूषण-सामान्यत: बालक कानों में बारियाँ या लोंगें कुछ वर्षों पहले तक पहनते रहे हैं । बारियों का एक भेद दुरबच्ची है और तुलसीकृत 'गीतावली' में उल्लिखित नगफनियाँ भी बारी की एक बनक मालूम पड़ती है । सभी के विवरण दिये जा चुके हैं ।
६. नाक के आभूषण-इस जनपद में बालक नाक नहीं छिदाते और न आभूषण पहनते हैं । जिनकी मनौदी होती है, वही नाक छिदाकर बारी पहनते हैं । तुलसीकृत 'गीतावली' में 'ललित नासिका लसति नथुनियाँ' से बालक राम का नथुनियाँ पहनना स्पष्ट है, जिससे उस समय नथुनियाँ के प्रचलन का पता चलता है ।
वस्रों में टाँकने वाले आभूषण
१. घूँघट में टाँके जाने वाले आभूषण-साड़ी की घूँघट वाली किनारी पर चाँदी की कटोरियों की लर टाँकी जाती थी । खासतौर से विवाह के समय नववधू का घूँघट अलंकृत रहता था ।
२. पल्ला या आँचर के छोर में टाँके जाने वाले आभूषण-साड़ी के पल्ला या आँचर के छोर में चाँदी के घण्टीनुमा बोरा टाँके जाने का रिवाज था, पर अब प्रचलन नहीं है ।
३. फरिया में टाँके जाने वाले आभूषण-फरिया या ओढ़नी की ऊपर की किनारी पर भी चाँदी की रौनादार साँकर टाँकने का चलन था, जो अब नहीं है । उसके स्थान पर जरी या गोटा की कई बनक की किनारियाँ चलन में आ गयी थीं । अब वे भी अप्रचलित हो रही हैं । सोने या चाँदी के महीन तारों से बने जरी या गोटा के कई बनक के फूल-तारे, मोर-मछली आदि फरिया या साड़ी और लहँगा में टाँके जाते थे । उन्हें जड़तारी या जरतारी कहा जाता था । लोककवि ईसुरी की पंक्ति हैं-"कपड़ा भींज गये बड़-बड़ के जड़े हते जरतारन ।"
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Courtesy: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र