बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - लोकदेवता (Lok Devata)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

लोकदेवता (Lok Devata)

लोकदेवता किसी भूभाग के लोक द्वारा पूजित देवता है । वह लोक द्वारा मान्य और प्रतिष्ठित होता है । उसके पीछे कोई विशिष्ट मत या सम्प्रदाय नहीं होता और न ही वह किसी सम्प्रदाय या विशिष्ट विचारधारा को खड़ा करता है । लेकिन इतना निश्चित है कि उसके संबंध में कोई-न-कोई ऐसी कथा या घटना प्रचलित रहती है, जो रहस्य या चमत्कारप्रधान होती है और जिससे एक रहस्यपूर्ण भय कीर भावना अथवा कुछ प्राप्त करने की लोभमयी छलना स्वतः जग जाती है । हर आदमी किसी-न-किसी अभाव से पीड़ित रहता है और उससे छुटकारा पाने की आशा में वह सभी तरह के प्रयत्न करता है । जब वह थककर हताश हो जाता है, तब देवता की शरण में जाता है और वहाँ कुछ न मिलने पर भी जो एक मानसिक तुष्टि प्राप्त होती है, वह देवता के वरदान या प्रसाद की तरह आनंद कीर सृष्टि करती है ।

वस्तुतः लोकदेवता लोक की किसी-न-किसी भावना का प्रतीक है और यह प्रतीक हर युग के लोकमन के अनुसार बदलता रहता है । लोक की रुचि निर्णायक भूमिका अदा करती है, लेकिन वह भी मानसिक जलवायु पर निर्भर करती है । लोकजीवन में उपयोगिता की कसौटी हर कालखंड में मान्य रही है । लोकदेवता के देवत्व की गरिमा का मापन उपयोगिता ही करती है । उपयोगी न होने पर उसका देवत्व घट जाता है और धीरे-धीरे उसकी मान्यता विलुप्त हो जाती है तथा उसकी जगह पर दूसरा देवता प्रतिष्ठित हो जाता है । इस तरह लोकदेवताओं का भी अपनाइ तिहास है । हर युग के लोकदेवताओं की जाँच-पड़ताल से लोकरुचि और लोकमानस का इतिहास उजागर हो जाता है ।
लोकमानस बड़ा विचित्र है । वह अच्छों-अच्छों की परवाह नहीं करता । बहुत ऊँचाई पर खड़े, लोक की पहुँच से बाहर होते हैं, इसलिए वे देवता नहीं बन पाते । देवता वही हो पाते हैं, जो लोक के अपने हैं, लोकहित से जुड़े हैं और अपनी शक्ति एवं चमत्कार से लोक को प्रभावित करने में सक्षम हैं । लोक फल का लोभी होता है । उसके लिए वही देवता है, जो मनवांछित फल दे । चाहे वह फल व्यक्ति की अपनी कमाई हो, पर उसमें देवता की कृपा का भ्रम अवश्य रहता है । साथ ही किसी फल को देवता का मानने में व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारी से बच जाता है । लोक की यह मानसिकता देवत्व जुटाने में सहायक होती है ।

देवता कई तरह के होते हैं । डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने वेद और लोक की कोटियों के आधार पर वैदिक देवता और लोकदेवता के दो वर्ग बनाये हैं । उनके अनुसार वैदिक देवता टकसाली और पद-प्रतिष्ठा में बहुत ऊँचे हैं जबकि दूसरे ठछुटभैये' देवता हैं, क्योंकि उनका संबंध आदिम जातियों से है अथवा उनकी परम्परा सामान्य लोक में है । एक सीमा तक तो श्री अग्रवाल कीर टिप्पणी अपना औचित्य रखती है, पर लोकदेवताओं और लोकदेवियों को ठछुटभैये' कहना इसलिए ठीक नहीं है कि वे लोक द्वारा स्वीकृत देवता हैं, जबकि वैदिक देवता एक विशिष्ट वर्ग या संप्रदाय द्वारा मान्यता प्राप्त होते हैं ।
लोकदेवताओं को निम्न वर्गों में रखा जा सकता है-
1. प्रकृतिपरक देवता-वृक्ष, भूमि, पर्वत, नदी, पवन, सूर्य, चंद्र आदि ।
2. अनिष्टकारी देवता-अग्नि, सर्प, भूत-प्रेत, आँधी, मृत्यु आदि ।
3. आदिवासियों के देवता-बड़ा देव, ठाकुरदेव, नारायन देव, घमसेन देव आदि ।
4. स्थलपरक देवता-गाँव की देवी, खेरमाई, मिड़ोइया (खेत की मेड़ के देवता), घटोइया (घाट के देवता), पौंरिया बाबा आदि ।
5. जातिपरक देवता-कारसदेव, ग्वालबाबा और गुरैयादेव (अहीरों के), मसानबाबा (तेलियों के), भियाराने (काछियों के), गौंड़बाबा आदि ।
6. अतिप्राकृत देवता-यक्ष, गाधर्व, भूत, राक्षस या दानव, नाग आदि ।
7. स्वास्थ्यपरक देवता-शीतलामाता, मरईमाता, गंगामाई आदि ।
8. अर्थ या समृद्धि-परक देवता-मणिभद्र, कुबेर, लक्ष्मी, नाग आदि ।
9. विवाहपरक देवता-दूलादेव, हरदौल, पार्वती या गौरी, गणेश आदि ।
10. शक्तिपरक देवता-शिव, दुर्गा, काली, हनुमान, चंडिका, भैरोंदेव आदि ।
11. वरदायी देवता-शिव, इन्द्र, वासुदेव, राम, शारदामाई, दशारानी आदि ।
12. कुलदेवता-गोसार्इं बाबू, सप्तमातृकाएँ, खुरदेवबाबा आदि ।
13. संतानरक्षक देवता-रक्कस बाबा, बीजासेन, षष्ठी देवी, बेइया माता आदि ।
14. विध्नहरण देवता-गणेश, पितृदेव, संकटा देवी आदि ।

प्रागौतिहासिक लोकदेव

बुंदेलखंड के आदिवासी पुलिंद, निषाद, शबर और गोंड़ ही लोकपूजा में प्रमख रहे हैं । प्रारंभ में प्रकृतिपरक लोकदेव ही प्रधान रहे हैं, क्योंकि नग्न वन्यजातियों में फल देने वाले वृक्ष, जल देने वाली नदी और प्रकाश देने वाले सूर्य-चन्द्र उपयोगी सिद्ध हुए । फिर अनिष्टकारी देवों की पूजा शुरू हुई, ताकि सर्प, आँधी और मृत्यु से रक्षा हो सके । उसके बाद अन्य देवों का उदय हुआ । आदिवासियों ने अपना प्रमुख देवता ठबड़ा या बड़का देव' माना है, जो आगे जाकर ठमहादेव' या ठशिव' हो गया है । इस अंचल के हर गाँव में ठठाकुर देव' के चबूतरे थे । ठगाँव-गाँव कौ ठाकुर' पंक्ति बहुप्रचलित रही है, जिससे ज्ञात होता है कि गोंड़ देवताओं का प्रभाव जनपदीय देवों पर इतना था कि उनके अवशेष आज भी मिलते हैं । ठठाकुर' गोंड़ों का ग्रामदेवता था, जो धीरे-धीरे सबका हो गया है । उनका स्थान गाँव के बाहर वृक्ष के नीचे रहता है और उनके प्रतीकस्वरूप वृक्ष पर ·ोत धुजा लगा दी जाती है । गाँव को आपत्तियों से बचाना और उसकी रक्षा करना इन देवता की जिम्मेदारी है ।

गोंड़ों के देव हैं-नरायन देव, घमसेन देव, नागे·ार देव, दूल्हादेव और खूँटा देव तथा देवियाँ हैं-खेरमाई, वनजारिन माई, गंगाइन माई, शारदा भाई और शीतला माई । चेचक की देवी हैं-बुढ़ी माई और कसलाई माई तथा हैजा एवं प्लेग की देवी हैं-मरई माता । आज भी इस जनपद में दूला देव, खूँटा देव, खेरमाई, गंगामाई, शारदा माई, शीतला माई, मरई माता लोकप्रचलित हैं । अंतर इतना है कि दूला देव-1 रसोई का देवता न होकर विवाह का हो गया है, शीतला चेचक की देवी हो गयी हैं । शबर भी दूल्हादेव और भवानी (देवी) की पूजा करते हैं । ठकादम्बरी' में शबर-सेनापति को देवी चंडिका का भक्त बताया गया है । बूढ़ा देव की पूजा भी होती थी । आदिवासी अपने अनुभवों से पूजा का संधान करते-करते आज के बहुदेववाद के पुजारी बन गये हैं ।

गुहाचित्रों में एक देव का रेखाचित्र-सा मिला है, जिसे श्री वाकणकर ने पाशुपत बताया है । सिंधु घाटी के अवशेषों के साक्ष्यों से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि उस समय पाशुपत जैसे किसी देव और एक देवी की पूजा होती थी ।इ तना निश्चित है कि गुफा-युग में ऐसे विचित्र मानवी चित्र मिले हैं, जो तत्कालीन देवत्व के प्रमाण-से प्रतीत होते हैं, लेकिन उनका नामकरण कठिन है । कृषि-युग में मातृपूजा को प्रधानता मिली । भूदेवी प्रमुख देवी बनीं, क्योंकि वे उपज देती थीं और लोक के लिए सबसे अधिक उपयोगी थीं । उनकी पूजा आज भी भुइयाँ रानी या भियाँरानी के रूप में होती है । काछियों (कछवारा करने वालों) में भियाँरानी ही पुरुष रूप में भियाँराने हो गये हैं । पशु से संबंधित देव भी इसी युग में स्थापित हुए थे, पर उनके नामरूपों का प्रमाण मिलना संभव नहीं है । संभव है कि खूँटा देव इसी समय के हों ।

रामायण-काल में वैदिक देवताओं का प्रवेश आर्यों की आश्रमी संस्कृति के प्रतिष्ठापक ऋषियों और मुनियों से हुआ था । विन्ध्यवासियों ने उनके प्रति श्रद्धा और प्रेम प्रदर्शित किया था, जबकि दक्षिण के राक्षसों या उनकी संस्कृति से उनका घोर विरोध था । कौन से वैदिक देवता यहाँ आकर लोकदेवता बन गये, यह कहना कठिन है, परंतु यह निश्चित है कि दोनों तरह के देवताओं का सम्मिलन इस युग में हुआ था ।

महाभारत-काल

महाभारत के आदि पर्व में छंद 17 से 27 तक के 11 छंदों में चेदिनरेश उपरिचर वसु द्वारा इन्द्र कीर पूजा और ठइन्द्रमह' लोकोत्सव के आयोजन का उल्लेख है । इन्द्र ने प्रकट होकर उन्हें एक विमान, एक वरमाला और एक वैणवी यष्टि प्रदान की थी । वैणवी का अर्थ है बाँस की बनी हुई । बाँस की लाट का पूजन इन्द्र-पूजा का प्रतीक था । उसी के साथ शिव और यक्ष देवों की पूजा भी लोकप्रचलित थी ।इ स प्रकार वैदिक देवता इन्द्र को इस युग में अधिक महत्त्व मिला । इस समय यादवों द्वारा विकसित लोकसंस्कृति का फैलाव हुआ । चेदिनरेश शिशुपाल बहुत ही दबंग राजा था, उसमें वासुदेव कृष्ण को चुनौती देने का अदम्य साहस था ।इ धर कृष्म ने इन्द्र के स्थान पर गिरि की पूजा-2 प्रारम्भ करा दी थी । गोवद्र्धन का विरुद भी उन्हें मिला था, क्योंकि उन्होंने गोमाता के पूजन को भी लोकमान्य बना दिया था । इन्द्र आँधी-तूफान-बिजली-वर्षा के देव होकर लोकस्वीकृत हुए थे, लेकिन जब लोक ने उन्हें अमान्य कर दिया, तब वे श्क्ति के प्रतीक-रूप में प्रभावशाली बने थे ।

यक्ष-काल

इन्द्र अतिकाय और शक्तिशाली ते, लेकिन यक्ष भी विराट् काया और अपार शक्ति के स्वामी थे । इसलिए इस अंचल ने यक्षदेव को ही प्रधान माना । दूसरे, यक्ष भौतिक समृद्धि प्रदान करने और अमरत्व का मंत्र देने में सबसे आगे थे । इन्द्र उनकी तुलना में नहीं ठहर सका । असल में, यक्ष धरतीपुत्रों से जुड़े थे, जबकि इन्द्र आकाशी देव थे ।

श्री वासुदेवशरण अग्रवाल का मत है कि यक्ष निषाद भाषा के शब्द की संस्कृत में अनुकृति है । बुंदेलखंड में निषाद जातियों का ही निवास था, अतएव यक्ष की लोकप्रियता स्वयंसिद्ध है । भरहुत के शुंगकालीन स्तूप और पवायाँ प्राप्त नागकालीन यक्षमूर्तियों से प्रमाणित है कि यहाँ ईसा की पाँचवी शती तक यक्ष-पूजा प्रचलित रही । पवायाँ का मणिभद्र यक्ष की मूर्ति के पाद पर अंकित अनेक नाम यक्षों की सामूहिक उपासना के साक्षी हैं । महाभारत की युधिष्ठिर और यक्ष की प्रश्नोत्तरी शौली बुंदेली लोकगीतों में अवतरित हो गयी थी । चंदेलकाल में स्थापित मनियाँदेव का मन्दिर मणिभद्र यक्ष का ही मंदिर है, जिसका प्रमाण कवि हरिकेश के प्रबंध ठजगतराज की दिग्विजय' में मिलता है-

1. तिहि समय ऐल विल पार्·ा मणि, दै चंदेल कहि हित सहित ।

मणि देव यक्ष रक्षक सुपुनि, धन कलाप प्रति नित्य नित ।। 500 ।।

2. जब-ससि चंद्रब्राहृ उपजाये, यज्ञ समय धनपति तहँ आये ।

पारस दै मणि देव यक्ष दै, अवनी पर दरसन प्रतक्ष दै ।। 673 ।।

दोनों उदाहरणों में मणिदेव यक्ष और पारस मणि का स्पष्ट उल्लेख है । पहले में प्रतिलिपिकार ने ठपारस या पार्स' का ठपार्·ा' कर दिया है, जो उचित नहीं है । पारस मणि की घटना लोकप्रचलित है, जिसका संबंध मणिदेव यक्ष से ही है, क्योंकि वे मणि के स्वामी हैं । मणिदेव का लाकप्रचलन में मनियाँदेव हो जाना सहज है । ठआल्हा' गाथा में ठमनियाँदेव महोबे क्यार' के द्वाराइ सी लेकदेवता की वन्दना की गयी है । लेकिन इतिहासकार श्री वी. ए. स्मिथ के मत का अनुसरण करते हुए सभीइ तिहासकारों ने उन्हें मनियाँदेवी (गोंड़ों की देवी) माना है और चंदेलों की कुलदेवी सिद्ध किया है । इसी आधार पर चंदेलों को ठहिंदुआइज्ड गोंड' कह दिया गया है, जो सही नहीं है । ठदिग्विजय' का रचना-काल 1722-23 ई. है, अतएव 18वीं शती के प्रथम चरण तक यक्ष का देवत्व मान्य था ।

महाकवि तुलसी ने विनयपत्रिका के 108वें पद में ठबीर' (यक्ष) की आराधना को भक्ति का एक साधन माना है । इस जनपद में एक प्रचलित उक्ति है-ठगाँव-गाँव कौ ठाकुर गाँव-गाँव कौ बीर', जिसका अर्थ है कि हर गाँव में पहले गोंड़ों के ठाकुर देव थे और फिर बीर (यक्ष) बाद में प्रतिष्ठित हुए । बीर के चबूतरे हर गाँव में बनते थे । आज भी लोकप्रसिद्ध है कि पीपल के वृक्ष में बरमदेव रहते हैं । उन्हें बिरबरम्ह भी कहा जाता है । बरम्ह या ब्राहृ शब्द के कारण लोग उन्हें ब्रााहृण मानने लगे, जबकि वह यक्ष के लिए प्रयुक्त होता था । ब्राहृमह यक्षों के उत्सव के लिए प्रयुक्त होता था । यक्ष का पर्याय ब्राहृ ही था । मतलब यह है कि यक्ष का देवत्व 19वीं शती तक किसी-न-किसी रूप में बना रहा । यह बात अलग है कि यक्षों का उत्कर्ष 5वीं शती तक ही रहा है, उसके बाद उनका स्थान शिव ने सँभाला ।

यक्ष देव की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जो उन्हें लोकप्रिय बनाने में सफल हुई हैं । पहली बात तो यह है कि यक्ष का रूप सुन्दर और अद्भुत होता है । यक्षिणी तो सौन्दर्य में अतुलनीय होती है । यक्ष की काया सुडौल और पुष्ट तथा शक्तिशाली होती है । यक्ष के विशेषणों के रूप में राजा, महत् और महाराज प्रयुक्त हुए हैं, जिनसे यक्षों की श्रेष्ठता प्रतिपादित होती है । यक्ष का पर्याय ब्राहृ उन्हें बहुत ऊँचाई पर खड़ा कर देता है । यक्षों का निवास ब्राहृपुर कहा जाता है । लोक का वि·ाास है कि यक्षों के पास अमृत है और धन का कोष भी ।-3 स्वास्थ्य और शक्ति की गवाह हैं-महाकाय यक्ष-प्रतिमाएँ । यही सब कुछ पाने के लिए यक्षपूजा प्रचलित हुई । गाँव-गाँव में यक्षों के चबूतरे बन गये । उन पर शंकुनुमा मिट्टी की यूही खड़ी कर दी जाती है, जिसका अवशेष आज भी अखाड़े की पट्टी में बच रहा है और जिसे पहलवान कुश्ती शुरू होने के पहले मिट्टी चढ़ाकर पूजते हैं । यक्ष-पूजा में पत्र-पुष्प, हल्दी-अक्षत्, दीप-गंध, प्रसाद और लोकगीत ही प्रमुख उपकरण हैं, जिनसे लोक की पूजा-पद्धति प्रारंभ हुई है और जो वैदिक पद्धति के प्रमुख सूत्रधार सिद्ध हुए हैं । प्रसाद के रूप में रोट का चूरना इस अंचल की अपनी विशेषता है ।

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Courtesy: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र