बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - लोकदेवता हरदौल (Lok Devata Hardaul)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

लोकदेवता हरदौल (Lok Devata Hardaul)

देवी-देवताओं के संबंध में न जाने कितनी कथाएँ प्रचलित हैं । कोई सुरसा की तरह मुँह फैलाये और कोई द्रोपदी के चीर की तरह मनमाना शरीर बढ़ाये । कभी-कभी रक्तबीज की तरह खून की एक-एक बूँद से दूसरी कथाएँ जन्मती हैं और उनके सही रूप का पता लगाना बहुत कठिन हो जाता है । कौन-सी कथा में कितनी सच्चाई है और कितनी कल्पना, यह तो स्वयं देवता भी नहीं बता सकते । मुश्किल यह है कि एक तथ्य-रूपी वृक्ष पर कथाओं की अमरबेलें ऐसे लिपटी रहती हैं कि वृक्ष को खोजना किसी के वश की बात नहीं है । फिर भी हर देवी-देवता के अपने चमत्कार हैं, जो मन में एक रहस्यपूर्ण, भयमिश्रित फुरफुरी भर देते हैं, अपने वरदान हैं, जो भीतर छिपे लोभ की मौन चहचहाहट जगा देते हैं औरइ न दोनों का संगम है देवता, जो हमारी आत्माओं पर हावी बना रहता है । लेकिन हरदौल ऐसे लोकदेवता हैं, जो साढ़े तीन सौ वर्ष पहले 17वीं शती में हमारी ही तरह के आदमी थे । हमीं जैसे उलझनों में बिंधे, संघर्षो, में जूझे और सोच में सीझे । आखिर इतने पास का, या यों कहिए कि हाल का एक आदमी देवता कैसे बन गया । न तो तुलसी और सूर जैसे महाकवि देवता बन सके और न शिवाजी और गाँधी जैसे राजनेता । फिर कौन-सी ऐसी जादुई बात थी, जिसने हरदौल को देवत्व की सीढ़ी पर बिठा दिया ? यह समझने के लिए हरदौल को ठीक से परखना आवश्यक है ।

प्रामाणिकता के निकष पर

इतिहास के ग्रंथों में हरदौल की चर्चा नहीं के बराबर है और जनश्रुतियों में भरी पड़ी है ! इतिहासकार भी क्यों लिखे ! उसे तो राजा या बादशाह से मतलब, आदमी के देवता होने से उसका क्या संबंध संभवतः इसी वजह से इतिहास लोक से बहुत दूर होता गया और लोक का इतिहास किंवदंतियों और जनश्रुतियों में ही पलता रहा । हरदौल के संबंध में भी यही न्याय हुआ है, लेकिन मैं यहाँ कुछ ठोस आधारों का साक्ष्य देकर प्रामाणिक निष्कर्ष निकालने के लिए कटिबद्ध हूँ ।
कुछ विद्वानों और कवियों ने हरदौल का वास्तविक नाम 'हरदेवसिंह' या 'हरिसिंह देव' बतलाया है, जबकि आचार्य केशव ने अपने ग्रंथ 'वीरसिंहदेव चरित' (रचना-काल सं. 1664 वि.) में 'पुनि हरदौल बुद्धि गंभीर' लिखा है, जिससे 'हरदौल' नाम ही प्रामाणिक ठहरता है । आचार्य केशव उसी समय ओरछा के राजकवि थे, अचएव विवाद का कोई प्रश्न ही नहीं है । इसी ग्रंथ के आधार पर हरदौल के वंशवृक्ष की जातकारी भी मिलती है । किन्तु आश्चर्य है कि एक प्रसीद्ध विद्वान् ने इसकी कुछ पंक्तियों का भ्रामक अर्थ लगाकर जो वंशवृक्ष अंकित किया है, वह हरदौल को ओरछा के राजा रामसाहि के पौत्र भारतसाहि का पुत्र ठहराता है, जबकि उन पंक्तियों में कोई अस्पष्टता नहीं है-

तिनतें लहुरे उर आनियै । राजा बीरसिंघ जानियै ।।
सुत तिनके एकादस सुनौ । एकादस रुद्रहि जनु गिनौ ।।
जेठ जुझारराइ रनधीर । पुनि हरदौल बुद्धि गंभीर ।।

निर्विवाद है कि हरदौल ओरछानरेश वीरसिंहदेव के द्वितीय पुत्र थे ।इ तिहासकार पं. गोरेलाल तिवारी के अनुसार उनकी माता का नाम गुमानकुँवरि था और वे इन्हीं रानी से उत्पन्न चार सगे भाई-हरदौल, भगवंतराय, चंद्रभान और बिसुनसिंह थ तथा एक बहिन् ा-कुं जकुँ वरि ।
हरदौल की जन्मतिथि विवादग्रस्त है । ओरछा में फूलबाग की ब् ौठक और रामराजा मंदिर के चौक में बने लगभग चार फीट ऊँचे स्तंभ में सं. 1665 वि. अंकित है, जो बहुत पुरानी नहीं है । कुछ विद्वानों ने 'ओरछा रिकाई दस्तूरात' पृ. 255 के आधार पर उसे सं. 1665, माघबदी 2, शनिवार, रात्रि 9 बजे माना है । लेकिन केशवरचित 'वीरसिंहदेव चरित' की रचनातिथि-सं. 1664 वि.,बसंत के शुक्ल पक्ष की अष्टमी बुधवार तो असत्य नहीं मानी जा सकती और उस ग्रंथ में हरदौल को 'बुद्धि गंभीर' वाला लिखा गया है तथा उनके तीनों सगे भाइयों के नाम भी दिये गए हैं, जिससे स्पष्ट है  कि हरदौल का जन्म सं. 1664 के पूर्व का है । 'बुद्धि गंभीर' को ध्यान में रखकर यदि अनुमान लगाया जाय , तो वे सं. 1664 में कम-से-कम आठ-दस वर्ष के रहे होंगे और इस आधार पर हरदौल की जन्मतिथि सं. 1656 वि. या उसके आसपास मानना उचित प्रतीत होता है ।

आप सोचते हा ेंगे कि जन्मतिथि के इस गुणा-भग की क्या जरूरत थी, पर में यह  बताना चाहत् ाा ह ूँ कि मृत्यु के समय हरदौल एक भावावेशी नवयुवक नहीं थे, जो भावुकता के झोंके में आकर अपने प्राण दे देता है , वरन् विचारशील व्यक्ति थे, जो बहुत सोच-समझकर प्राणों की बाजी लगाता है । वस्तुतः उनकी मृत्यु जानी -समझी थी । मृत्युतिथि के संबंध में अधिक झमेला नहीं है । ओरछा की बैठक और मंदिर-स्तंभ में सं. 1688 खुदा हुआ है, जबकि पं. गोरेलाल तिवारी सं. 1685 बतलाते है ।-1 निश्चित है कि सं. 1685 और 1688 के बीच कभी उनकी मृत्यु हुई थी । इस प्रकार लगभग 29 और 32 वर्ष के अन्तराल की आयु में एक आदमी का बलिदान कोरी भावुकता का परिणाम नहीं म ाना जाना चाहिए, वह तो एक प्रौढ़ मस्तिष्क की उपज था ।

वह घटना जोइ तिहास बन गई

हरदौल के जीवन की उस प्रमुख घटना की खोज किसी भी ऐत् िाहासिक शोध से कम नहीं है, जिसके कारण वे इतनी लोकप्रसिद्धि पा गए । पं. गोरेलाल तिवारी ने लिखा है कि सं. 1685 में ओरछानरेश जुझारसिंह किसी क ारण हरदौल से अप्रसन्न हो गए थे । उन्होंने अपनी रानी से उनका नेवता करवा कर भोजन में विष दिलवा दिया था । रानी ने देवर हरदौल को सच्ची घटना बता दी थी, फिर भी हरदौल विषमिश्रित भोजन खाकर मृत्यु को प्राप्त हुए । तिवारी जी ने स्वीकार किया है कि उन्होंने यह तथ्य जनप्रतलित कथा से ही लिया है ।-2 परंतु जनश्रुतियों में यह घटना कई रूपों में मिलती है । मैंने ओरछा और आसपास के क्षेत्रों में जाकर अनेक जनश्रुतियाँ संगृहीत की हैं, जिनके आ धार पर तीन प्रमुख वर्णनाएँ खोजी जा सकती हैं ।

लोकमुख में जीवित तीन वर्णनाएँ

पहली वर्णना जो बहुप्रचलित है, इस प्रकार चलती है । ओरछानरेश जुझारसिंह की रानी चम्पावती अप ने देवर हरदौल से बहुत अधिक प्रेम करती थी और हरदौल भी भौजी को माता की तरह मानते थे । जुझारसिंह के मुगल -दरबार या मुगल- सेना में रहने पर हरदौल ही ओरछा का राजकाज सँभालते थे । वे न्यायप्रियता, सत्यवादिता, वीरता आदि गुणों के कारण काफी लोकप्रिय हो गए थे । इस कारणर्इ ष्र्यालु दरबारियों और मुगलप्रतिनिधि ने मिलकर राजा के का न भरे और देवर- भौजी के विशुद्ध प्रेम को अनैतिक और लांछित बताया । शक की कोई दवा नहीं होती, फलस्वरूप राजा ने रानी के पतिμात धर्म की परीक्षा लेनी चाही और उसे देवर को विष देने के लिए विवश किया । रानी ने विषमि श्रित भोजन हरदौल को परोसा, पर उनकी आँखें बरस पड़ी । पूछने पर उन्होंने सच्ची बात बता दी । अब हरदौल के प्रेम की परीक्षा थी और उसमें वे सोलह आने खरे उतरे । भोजन करने पर उनके प्राण-पखेरू उड़ गये ।

दूसरी वर्णना इससे भिन्न है । कहा जाता है किर ओरछा में नियुक्त मुगल प्रतिनिधि सरदार हिदायत खाँ के बेटे ने राजपरिवार की किसी बेटी के साथ छेड़खानी की थी और जबर्दस्ती बलात्कार का प्रयत्न किया था । हिदायत खाँ हरदौल की बैठक के बगल में फूलबाग की बारादरी में रहता था । हरदौल को जब किसी रक्षक ने संकेत दिया, तब उन्होंने उस के बेटे को मार डाला और हिदायत खाँ को फूलबाग खाली करने का आदेश दिया । हिदायत खाँ ने क्रुद्ध होकर बादशाह से शिकायत की, फलस्वरूप अनवर खाँ पठान के नेतृत्व में मुगल-सेना ने ओरछा घेर लिया, परंतु हरदौल ने उसे बुरी तरह पराजित कर दिया । अनवर खाँ युद्ध में मारा गया और सैनिकों को घेर-घेर कर उन्हें अच्छा सबक सिखाया गया । इस पर मुगल बादशाह शाहजहाँ ने राजा जुझारसिंह को गद्दी से हटाकर ओरछा को अधीन करने की धमकी दी । राजा चिंतित होकर ओरछा आए और गद्दी बचाने के लिए हरदौल को हटाने की युक्ति खोजने लगे । तभी हरदौल के किसी खास विरोधी ने रानी द्वारा विष दिलाने की तरकीब सुझाई । उसने राय दी कि यदि रानी मना करती हैं, तो उन पर अनुचित संबंध का लांछन लगाने से काम चल जाएगा । राजा ने इसी का अनुसरण किया । शेष घटना पहली जैसी है ।

तीसरी वर्णना इन दोनों से मेल नहीं खाती । उसके अनुसार सारा दोष राजा का था । राजा की अनुपास्थिति में हरदौल इतने लोकप्रिय और प्रभावशाली हो गए थे कि वे राजा की आँखों में काँटे की तरह गड़ने लगे । राजा को यह चिंता थी कि कहीं हरदौल उनकी गद्दी न छीन ले । इसलिए उन्होंने हरदौल को रास्ते से हटाने के लिए विष देने का षड¬ंत्र स्वयं रचा था । शेष घटना यथावत है ।

पवित्र प्रेम का एक खुशबूदार गुलदस्ता

उपर्युक्त तीनों वर्णनाएँ एक दूसरी से भिन्न अवश्य हैं, पर तीनों में प्रकारांतर से भौजी और देवर के प्रेम तथा विष देने की घटना विद्यमान है ।इ ससे स्पष्ट है कि हरदौल अपनी भौजी के प्रेम की पवित्रता सिद्ध करने के लिए बलिदान हो गए । वास्तव में यह बलिदान एक तरफा त्याग नहीं है, वरन् उसमें दोनों ओर के कई आदर्शों का संगम है । रानी का पातिμात्य और देवर के प्रति वत्सल भाव तथा हरदौल का भौजी से प्रेम, उसके धर्म की रक्षा का संकल्प और अपने प्रेम की पवित्रता में खरे उतरने का उत्साह । तात्पर्य यह है कि हरदौल का प्राणत्याग वैयक्तिक प्रेम का प्रतीक मात्र नहीं है, वरन् उसमें भारतीय संस्कृति के आदर्श का पूरा उत्कर्ष है । वह नारी और पुरुष-दोनों के पवित्र प्रेम का ऐसा गुलदस्ता है, जिसकी सुगंध कभी बासी नहीं होती ।

प्रासंगिक कथाओं से झाँकता व्यक्तित्व

जहाँ तक प्रासंगिक कथाओं का प्रश्न है, उनमें अंतर का कारण दोषारोपण सकी भिन्नता है । लोक राजा जुझारसिंह को दोषी समझता है, भले ही दोष राजलोभ से हो या ईष्र्या से अथवा किसी संदेह से । राजा के सन्देह के कारणस्वरूप भी कई प्रसंगों की रचना हुई है, जैसे रानी का हरदौल को चन्द्रहास तलवार दे देना और बाद में उसका हरदौल के पास बरामद किया जाना, राजा को चाँदी के और हरदौल को सोने के थाल में भोजन परोसा जाना आदि । कुछ कथाएँ हरदौल के व्यक्तित्व को और ऊँचा उठाने के लिए बुनी गई हैं, उदाहरण के लिए, ओरछा में एक वीर पठान का अखाड़े में दंगल हाँकना और ओरछा की प्रतिष्ठा बचाने के लिए हरदौल का उससे द्वंद्व युद्ध तथा उस पर विजय । इस घटना से तत्कालीन अखाड़ों का यथार्थ रूप और उनमें वीरों का प्रतिद्वंद्विता का चित्र उभर आता है तथा हरदौल का शौर्यसंपन्न व्यक्तित्व उजागर हो जाता है । इसी प्रकार हरदौल का मुगलविरोधी अभियान और युद्ध उनके देशप्रेम या राष्ट्रीयता का आभास देता है । आशय यह है कि इन सभी प्रसंगों के मूल में कोई न कोई तथ्य बीज की तरह छिपा हुआ है ।

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Courtesy: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र