बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - लोकमूल्य (Lokmulya)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

लोकमूल्य (Lokmulya)

  • उद्भव और विकास
  • आदिकाल
  • महाभारत-काल
  • महाजनपद-काल
  • धार्मिक जागृति का युग
  • नाग-वाकाटक काल
  • पौराणिक काल
  • चंदेल-काल
  • तोमर-काल
  • बुंदेल-काल
  • पुनरुत्थान-काल
  • आधुनिक काल

लोकमूल्य लोक के उद्देश्य और हित में साध्य वे लोकस्वीकृत आदर्श हैं, जो लोकजीवन के हर व्यवहार का दिशा-निर्देशन और नियंत्रण करते हैं तथा उसके मूल्यांकन के लिए लोकमान्य कसौटी का काम करतै हैं । लोक के साध्य लोकमूल्य हैं, इसलिए लोक के हर व्यवहार और अभिकरण उनकी तरफ अभिमुख रहते हैं, तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक मानदंड, लोकरीतियाँ, लोकरुढियाँ, लोकप्रथाएँ, लोकसंस्थाएँ आदि लोकमूल्यों को प्राप्त करने के लिए ही कार्य करते हैं । लोक के संगठन की स्थायी रखने के लिए लोकनियंत्रण आवश्यक है और लोक पर नियंत्रण की सबसे अधिक प्रभावकारी क्षमता लोकमूलयों में होती है । वास्तव में, लोकमूलयों द्वारा नियंत्रण सहज स्वाभाविक होता है । लोक के संबंधों, व्यापारों और संस्कारों का निर्धारण लोकमूल्य ही करते हैं, यहाँ तक कि लोकजीवन की अंत:क्रियाओं के प्रभावी स्वरुप का निश्चय भी लोकमूल्यों से होता है । इस तरह लोकमूल्य लोक की ऐसी रचनाधर्मी शक्ति है, जो उसके निर्माण, पोषण और परिवर्तन में ब्रह्मा-विष्णु-महेश जैसा दायित्व सँभालती है ।

कुछ विद्वानों का मत है कि लोकमूल्य समूचे लोक द्वारा बनाये जाते हैं, पर इससे सहमत होना कठिन है । यह ठीक है कि लोकमूल्य लोक के लिए, लोक द्वारा स्वीकृत होते हैं और कोई भी मूल्य लोकमूल्य तभी बन पाता है, जब वह लोक से मान्यता प्राप्त कर लेता है । लेकिन लोकमूल्य लोक-शक्ति से फूटता है । जिस काल में लोक को जैसी आवश्यकता होती है, उसी के अनुरुप किसी व्यक्तित्व में निहित लोक-शक्ति से लोकमूल्य जन्मता है और धीरे-धिरे लोकमान्य होकर लोकप्रचलित हो जाता है । इस प्रक्रिया को समझने के लिए बुंदेलखंड के इतिहास से एक प्रामाणिक साक्ष्य प्रस्तुत है । इस जनपद में भौजी (भाभी) को उचित सम्मान नहीं था, क्योंकि उसे लोकगीतों में निर्दय और कठोर माना गया है-" माई के रोये नदिया बहत है, बाबुल के रोये बेलाताल, मोरे लाल । वीरन के रोये छतिया फटत है, भौजी के जियरा कठोर, मोरे लाल ।" और " माई कहै बेटी नित उठ अइयौ, बाबुल कहैं दोई जोर, मोरे लाल । बीरन कहै बहिना औसर अइयौ, भौजी कहै कौनै काम, मोरे लाल ।" तथा " आउत देखे भौजी ननदी के डोला, हन लये भजर किवार, मोरे लाल ।" लेकिन इस लोकभावना को बदलने की जिम्मेदारी लाला हरदौल ने लेकर एक नया लोकमूल्य ही खड़ा कर दिया । दूसरे, भौजी-देवर के संबंध पहले विनोद के थे । देवर को दूसरा वर ही माना जाता था और इस आड़ में प्रेम-क्रीड़ाएँ भी चलती थीं । शायद इसी लोकप्रचलित संबंध के कारण बुंदेला नरेश जुझारसिंह (१६२७-२८ ई. से १६३४ ई. तक) ने शंका में फँसकर अपने अनुज हरदौल को विष दिलवा दिया था । उनकी पतिव्रता पत्नी महारानी चंपावती अपने देवर हरदौल को पुत्रवत् मानती थी, परंतु स्वार्थ-सिद्धि में हरदौल को बाधक समझकर ईर्ष्यालु दरबारियों और मुगल प्रतिनिधि सरदार हिदायत खाँ के मिले-जुले षड्यंत्र या उनकी बढ़ती लोकप्रियता से भयग्रस्त होकर राजा की गुप्त योजना के फलस्वरुप उसे हरदौल को विष देना पड़ा । हरदौल ने भौजी के प्रेम की पवित्रता सिद्ध करने के लिए अपनी बलि दे दी, जिससे रानी का पातिव्रत्य और देवर के प्रति वत्सल भाव तथा हरदौल का भौजी से प्रेम सब बारह बान खरे उतरे । यह घटना तो नितांत वैयक्तिक थी, परंतु उसका प्रभाव पहले ओरछा पर और फिर पूरे जनपद पर छा गया । हरदौल लोकदेवता की तरह पूजित हुए और भौजी-देवर के पवित्र प्रेम की विजय हुई ।-१ इस तरह एक नया लोकमूल्य प्रतिष्ठित हुआ, जिसने परिवार की एक विषम समस्या को सुलझा दिया और विजातीय विलासितापरक मूल्य से संघर्ष करने की अमित ऊर्जा प्रदान की ।

उक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि लोकमूलयों में परिवर्तन तभी होता है, जब तत्कालीन आवश्यकता के अनुसार कोई नया मूल्य प्रकट होता है और धीरे-धीरे लोकमान्य हो जाता है । पहले लोक के सदस्यों में अनुपयोगी मूल्यों के प्रति उदासीनता आती है, बाद में परिवर्तन होता है । परिवर्तन की स्थिति में कुछ जागरुक ही नये मूल्यों को स्वीकार करते है, जबकि कुछ पुराने मूल्यों से चिपके लोग विरोध में खड़े हो जाते हैं । देवराला की सती के माध्यम से संघर्ष के मनोविज्ञान को परखा जा सकता है । असल में सतीत्व का लोकमूल्य विदेशी आक्रमणकारियों से रक्षा के साधन-रुप में बहुत अधिक लोकप्रिय रहा है । बुंदेलखंड में सबसे पुराना सतीस्तंभ एरण में उपलब्ध है, जिसके अनुसार गुप्तों और हूणों के युद्ध में गुप्त सेनापति गोपराज मारा गया था और उसकी पतिव्रता पत्नी चिता पर आरोहण कर सती हो गाई थी ।-२ यह घटना ५वीं शती के अंतिम चरण की है । उसके बाद मुगलकाल तक सतीत्व का लोकमूल्य निरंतर लोकप्रचलित रहा, जिसके प्रमाण में अनेक सतीस्तंभ गवाह हैं । बाद में, जबरन जलाकर सती बनाने का चलन कहीं-कहीं जोर पकड़ने लगा, तब उसे कानून से बंद किया गया । आज भी वही कानून लागू है, लेकिन देवराला की सती के प्रकरण ने लोक को दो वर्गों में विभाजित कर दिया है । एक वर्ग उस लोकमूल्य में परिवर्तन के पक्ष में वकालत करता हुआ सामूहिक विरोध खड़ा कर रहा है, तो दूसरा उसकी महिमा के समर्थन में आंदोलन की तैयारी कर रहा है । इस रुप में एक लोकमूल्य को लेकर जिस संघर्षपरक स्थिति का जन्म हुआ है, वह लोक के हर सचेतन सदस्य के मन में निरंतर जारी हैर । नये लोकमूल्यों की प्रतिष्ठा ऐसे ही संघर्ष के बीच होती है ।

परिवर्तन की प्रक्रिया में धुरी का काम करती है लोक की तत्कालीन आवश्यकता और पहियों को चलाती है लोक की नयी वैचारिकता । बुंदेली जनपद में नये लोकचिंतन ने पुराने लोकमूलयों को परखा है और उनकी उपयोगिता के अनुसार या तो उन्हें बदलने का प्रयत्न किया है या फिर गौण बना दिया है । अधिकतर दूसरी स्थिति अनुकूल सिद्ध होती है । किसी भी प्रमुख लोकमूल्य को गौण बनाकर अपदस्थ कर देना ही परिवर्तन का प्रथम चरण है, क्योंकि लोकमूल्य को एकदम हटा देना बहुत कठिन होता है । गौण होने से लोक उसके प्रति उदासीन हो जाता है और वह धीरे-धीरे मंच के बहुत पीछे पहुँचकर अदृश्य हो पाता है । बहरहाल, लोकमूल्यों में परिवर्तन होता है और उसका अपना इतिहास है, जिसे विद्वानों ने उपेक्षित रखा है ।

यह प्रक्रिया दीर्घकालिक मूल्यों में दूसरी तरह से घटती है । मूल्य तो वही रहते हैं, उनके रुप देश-काल की परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार बदल जाते हैं । व्यक्ति के स्वभाव, विवेक और व्यक्तित्व के अनुरुप भी उनमें थोड़ा-बहुत अंतर आता है । सत्य, शिव, सौंदर्य, समता, स्वतंत्रता, प्रेम, त्याग आदि हर युग की निधि रहे हैं, लेकिन उनके रुपों में कुछ-न-कुछ अंतर अवश्य रहा है । उदाहरण के लिए प्रेम को ही लें, उसके न जाने कितने रुप प्रचलित रहे हैं, आदिम मानव से लेकर आज के बौद्धिक मानव तक प्रेम के विकास का एक खासा इतिहास रहा है । इसी तरह हर लोकमूल्य का विकास परखा जा सकता है । हर मूल्य गतिशील है । यदि वह देश-काल के अनुसार सक्रिय नहीं है, तो फिर धीरे-धिरे अपना अस्तित्व खो देता है । लोकमूल्यों की गति जीवन के हर क्षेत्र में होती है, इसीलिए उन्हें शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक, आध्यात्मिक आदि वर्गीं में रखा जा सकता है । हर वर्ग का क्रमिक विकास अथवा हर युग में लोकप्रचलित मूल्यों का महत्त्व अंकित करने से लोकमूल्यों की परंपरा खोजना लोकसंस्कृति के विद्वानों का दायित्व है, पर उसका निर्वाह नहीं हुआ ।

बहुधा लोकविश्वास और लोकमूल्य को एक समझने की भ्रांति हुई है, जबकि उनमें अंतर हे । यह सही है कि हर लोकमूल्य लोकविश्वास पर निर्भर है, लेकिन हर लोकविश्वास लोकमूल्य नहीं हो सकता । टोने-टोटके-संबंधी लोकविश्वास को लोकमूल्य के पद पर आसीन करना उचित नहीं है । लोकविश्वास लोकानुभवों की निंव पर बनते हैं, जबकि लोकमूल्यों में लोकचिंतन का प्राणद्रव रहता है । एक व्यावहारिक जीवन से संबद्ध हैं, तो दूसरे सैद्धांतिक होने के कारण जीवन के गंतव्य से । इस कारण दोनों लोकजीवन के दो पक्षों का हित-साधन करते हैं । वैसे, लोकमूल्यों की गति पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक आदि सभी क्षेत्रों में है और आवश्यकता एवं उपयोगिता उनकी प्रमुख कसौटी है, लेकिन लोक की तत्कालीन वैचारिकता के मंथन से वे रत्नों की तरह प्रकट होते हैं और लोकसंस्कृति के आंतरिक स्वरुप को प्रतिबिम्बित करते हैं ।

लोकसंस्कृति के निर्माण में लोकमूल्यों का विशेष योग है । वे उसके आत्मिक जगत् की संरचना करते हैं, जिससे उसके किसी भी बाहरी रुप का विकास और निखार संभव होता है । लोकमूल्य किसी भी लोकसंस्कृति की पहचान हैं, कसौटी हैं और उसकी गतिशील यात्रा के आखिरी पड़ाव । हर जनपद की लोकसंस्कृति का अपना एक विशिष्ट व्यक्तित्व है और उस वैशिष्ट्य को रेखांकित करने वाले हैं लोकमूल्य । वर्तमान युग में मूल्यों का संकट और संस्कृतिक पिछड़ाव (कल्चरल लैग) मौजूद है, जिसके कारण लोकसंस्कृति और लोकमूल्यों के प्रति एक नया आकर्षण उरत्पन्न हुआ है । ऐसी स्थिति में लोकमूल्यों के इतिहास की खोज और उनकी गतिशीलता के द्वारा यह विश्वास दृढ़ होता है कि आगे चलकर और भी व्यापक लोकमूल्य विकसित होंगे, जो आज की विषम समस्याओं को एक नया प्रकाश और नया मार्ग देंगे । युद्ध के ज्वालामुखी जब चारों तरफ फूट रहे हों, तब लोकमूलयों की शीतल जलधाराओं का उफान निश्चित ही सार्थक और प्रासंगिक होगा ।

उद्भव और विकास

यह सिद्ध है कि उत्तर पुराश्मीययुग में ' लोक' का उद्भव हो चुका था, क्योंकि तत्कालीन शैलचित्रों में सामूहिक शिकार, उसका सामूहिक भोग और तज्जन्य संतुष्टि से सामूहिक नृत्य-गीत के दृश्य मिलते हैं । लोक तभी बनता है, जब लोकमूल्य बन जाते हैं । इस युग के लोकमूल्यों का कोई प्रामाणिक साक्ष्य नहीं मिलता, लेकिन चित्रों से यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इस समय का सबसे प्रमुख मूल्य ' सहकारिता' और ' एकता' था । प्रकृति के प्रकोपों से बचने के लिए दो साधन थे-एक था समूह के रुप में बाधक तत्त्वों से संघर्ष और दूसरा था प्रकृति की शक्तियों की पूजा से उन्हें प्रसन्न करना । दोनों में एक ही उद्देश्य-' प्रकृति से रक्षा' निहित था, जिसके साधनगत मूल्य थे-समूहगत वीरता और पूजा । एक था सामाजिक और दूसरा था धार्मिक लोकमूल्य । वैसे धर्म की वह भावना उनमें नहीं थी, जो धर्म की संज्ञा प्राप्त करती, लेकिन धर्म का आदिम रुप यही था ।

उत्तर पाषाणकाल में तक्षण-कला और चित्र-कला से मानव की हृदयगत विशेषताओं का पता चलता है । प्रसिद्ध विद्वान् बिल डूरंट ने लिखा है कि चित्र कोमलता, शक्ति और निपुणता में परिपूर्ण हैं । यद्यपि ये रेखाचित्र पूर्णतया प्रारंभिक अवस्था में हैं, तथापि इनमें एक अभिव्यक्ति है । डॉ. वि. श्री. वाकणकर ने उनका व्यापक अध्ययन किया है, जिससे स्पष्ट होता है कि उनमें हृदयगत मूल्य, जैसे प्रेम और वत्सलता शुरु हो गये थे । सौंदर्य की रुचि भी जाग्रत हो गयी थी । संतुष्टि-असंतुष्टि से सुख-दु:ख की भावनाएँ प्रकट हो गई थीं, लेकिन आनंदपरक मूल्यों का बुनाव अभी नहीं हुआ था । प्रकृति के उपकरणों की पूजा से उनका प्रारंभिक स्थिति ही मानी जा सकती है । फिर बुंदेलखंड के तत्कालीन मूल्यों के विशिष्ट अध्ययन के लिए शैलचित्रों का सूक्ष्म विश्लेषण आवश्यक है ।

आदिकाल

इस कालखंड के अंतर्गत वैदिक और रामायण-युग अथवा महाभारत-काल के पूर्व की कालसीमा रखी गयी है । बुंदेलखंड के प्रारंभिक इतिहास में आदिवासियों का ही साम्राज्य था । प्राचीन ग्रंथों-वाल्मीकि रामायण, महाभारत, हर्षचरित, कादम्बरी आदि और पुराने अभिलेखों से स्पष्ट है कि यहाँ पुलिंद, निषाद, शबर, रामठ, राउत आदि जनजातियाँ शुरु से ही वास करती थीं और गौंड़, कोल, भील आदि बाद में आकर बस गये थे । विंध्याटवी आटविक या वन्य संस्कृति के लिए प्रसिद्ध थी और उसकी नींव डाली थी पुलिंद, निषाद और शबर जनजातियों ने । आर्यीं के उत्तरी क्षेत्रों पर दबाव से गौंड़, कोल, भील आदि भी उसी लोकसंस्कृति के विकास में जुट गए थे । उस समय उनके कौन-से लोकमूल्य थे, इसकी खोज करना बहुत कठिन है । लेकिन कुछ संकेत उन लोकमूल्यों के प्रतीक बनकर आये हैं, जो उनकी वास्तविकता खोलने में सहायक हैं । उदाहरण के लिए, रामायण में गुह निषाद ने राम को गंगा पार करने में सहायता दी और शबरी (शबर स्री) ने राम की भक्ति स्वीकार की । इसका आशय यह है कि निषाद और शबर जनजातियों ने आर्य-संस्कृति और उसके लोकमूल्यों के प्रति अपनी आस्था व्यक्त की थी । इतना निश्चित है कि उनमें दूसरे की सहायता करना और नि:स्वार्थ प्रेम करना पहले से विद्यमान थे । यही कारण है कि राक्षसों से उनका मेल नहीं था और राक्षस उन्हें हमेशा सताते थे । यद्यपि तीनों अनार्य वर्ग में परिगणित किये जाते हैं, तथापि निषाद और शबर राक्षसों के विरोध और राम की मैत्री में बिल्कुल अलग दिखाई पड़ते हैं । बाद में वे हिन्दू-संस्कृति के साथ रच-बस गये और उन्होंने उसी के लोकमूल्य अपना लिए । ' हर्षचरित' और अनुसार निषाद और शबर विंध्याटवी के निवासी थे । ' हर्षचरित' और ' कादंबरी' में शबरों के वर्णनों -३ से प्रमाणित है कि उनमें आखेटक संस्कृति के सभी तत्त्व मौजूद थे । वीरता, हिंसा, आज्ञाकारिता, स्वतंत्रता आदि प्रमुख मूल्य उनके श्रृंगार थे । चामुंडा देवी की आराधना करना और उसे प्रमन्न करने के लिए बलि चढ़ाना उनका परम मूल्य था ।

बुंदेलखंड के मूल निवासी कौन थे, यह प्रश्न एक विवाद खड़ा कर देता है । डॉ. भागीरथ प्रसाद त्रिपाठी-४ पुलिंद जनजाति को मानते हैं और वाल्मीकि रामायण, महाभारत, रघुवंश, वामन पुराण, मार्कंडेय पुराण आदि से उसके अस्तित्व को सिद्ध करते हैं । यह निश्चित है कि वह अटवी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाली एक आदिम जनजाति थी, जो आज लुप्त हो चुकी है ।-५ चंदेलनरेश त्रैलोक्यवर्मन के शासनकाल (१२०३-४५ ई.) में अजयगढ़ किले के शासक आनंद ने भीलों, शबरों और पुलिंदों आदि वन्य जातियों को आज्ञाकारी बनाया था ।-६ भिलसा अभिलेख में भी एक शबर सरदार सिंह को मार डालने की सूचना है ।-७ इतिहासकार स्मिथ ने चंदेलों के अधीन गौड़, कोल भील एवं अन्य आदिम जातियाँ बतायी हैं ।-८ इन प्रमाणों से पुलिंदों का १४वीं शती तक रहना सिद्ध होता है । शबर (सौंर) के रुप में आज भी गाँवों में बसे हुए हैं । दमोह जिला के अभिलेखों में खरपरिकों का उल्लेख है, जिनके आधार पर उन्हें उत्तरी दमोह, टीकमगढ़ और पन्ना के दक्षिणी भागों का निवासी बताया गया है ।-९ कादम्बरी, कथासरित्सागर और कुछ विद्वानों के अनुसार पुलिंद, शबर और भील एक ही थे । भले ही वे एक न रहे हों, पर उनके लोकमूल्य समान थे । भ्रमणशील, शिकारी, आयुधजीवी होने के कारण वे हिंसा और शारीरिक वीरता पर सर्वाधिक विश्वास रखते थे । लूटमार करना उनका धंधा था और क्रूरता उनका स्वभाव । शक्ति या देवी को पूजा और नर या पशु-बलि से प्रसन्न कर तथा ताजे खून के प्रसाद को मस्तक पर लगाने एवं पान करने के बाद तृप्त होने पर वे अपनी हर सफलता बिल्कुल पक्की समझते थे । जल, पृध्वी, सूर्य, चाँद, अग्नि आदि प्राकृतिक शक्तियों की पूजा भी होती थी । शकुन-अपशकुन तो उनके प्रत्यक्ष अनुभव थे, जो बाद में रुढिबद्ध होकर लोकमान्य हो गए ।

आदिवासियों के सामाजिक, नैतिक और धार्मिक लोकमूल्य उनकी समाज-व्यवस्था के गठन और सांस्कृतिक विकास के आधार पर हर युग में बनते रहे हैं । साथ ही दूसरी जातियों की संस्कृति के संपर्क से भी उन पर काफी असर पड़ा है । उनकी आर्थिक परिस्थितियाँ भी धीरे-धीरे बदली हैं । अतएव उनके लोकमूल्य हर युग में कुछ-न-कुछ बदले हैं, और आज तो यह बदलाव पूरी तरह स्पष्ट है, इस वजह से लोकमूल्यों की परम्परा का अध्ययन एक अलग अध्याय है । यहाँ केवल एक-दो उदाहरण पर्याप्त होंगे । पहला है गोंड़ों के बड़ा देव का । वैसे तो आदिम जातियों में धर्म का सांप्रदायिक या विशिष्ट रुप नहीं है, लेकिन वे आंस्तिक रहे हैं । वे परलोक को नहीं मानते, पर जगत् की सत्ता बड़े देव के हाथ में स्वीकारते हैं । बड़ा देव ही दीर्घकाल से आस्था का केंद्र और परम मूल्य रहा है । धीरे-धीरे हिन्दू धर्म के मूल्यों के प्रभाव से वह आज के भगवान् महादेव या शंकर का पर्याय य बन गया है । दूसरा उदाहरण बलि के मूल्य का है, जो नर-बलि, पशु-बलि, अंडा-बलि, नींबू और नारियल की बलि में क्रमिक रुप से गुजरता हूआ आज अपनी व्याख्या की विस्मृति के कगार पर है ।

गुड़ानो (गोंडवानो अर्थात् गोंड़ों का देश) कहलाने वाले बुंदेलखंड के लोकमूल्यों पर गोंड़ों का प्रभाव सबसे अधिक रहा है । गोंड़ों की केन्द्रीय दृष्टि इहलौकिक थी, इसलिए उनके लोकमूल्य जागतिक और लौकिक यथार्थ से बँधे थे । पारलौकिक या आध्यात्मिक मूल्यों के प्रति उनकी रुचि नहीं थी । मानसिक संतोष और जागतिक आनंद ही उनके परम मूल्य थे । लोकगीत की पंक्तियाँ देखें-

मिलकें करबो खेती धंधा, संझा और सकार ।

ना कोऊ को लेना देना, सोबो टाँग पसार ।।

यही केन्द्रीय दृष्टि द्रविड़ों की थी । इसलिए विद्वानों का यह मत की गोंड़ द्रविड़ हैं, सत्य प्रतीत होता है । कुछ ने शबरों को भी द्रविड़ माना है । इतिहासकारों ने द्रविड़ संस्कृति के उत्कर्ष का चित्र अंकित करते हुए उसे लौकिक माना है और भारतीय संस्कृति में उसके उपयोगी योगदान को स्वीकारा है । बुंदेली लोकसंस्कृति का आधार गोंड़ संस्कृति ही रही है, इसलिए गोंड़ों के लोकमूल्य पहले तो प्रधान थे, बाद में गौण होते हुए भी बुंदेलखेड के लोकमूल्यों के जगत् में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं । केवल सामाजिक, आर्थिक और नैतिक लोकमूल्य ही नहीं, धार्मिक विश्वास और लोकमूल्य तक उनसे प्रभावित हैं । वे इतने रच-पच गए हैं कि उन्हें अलग करना कठिन-सा है । फिर भी उनके लोकमूल्यों की देन बुंदेली लोकसंस्कृति के लिए प्रधान महत्त्व की है और उन्हें अनार्य तत्त्व कहकर उनकी उपेक्षा करना बेमानी है । यहाँ तो केवल आदिकालीन लेखा-जोखा है, पर इस क्षेत्र में गोंड़ों और गोंड़ी लोकसंस्कृति का प्रसार मध्ययुग में भी प्रभावकारी रहा है । लोकप्रचलित पंक्तियाँ-" मउआ मेवा, बेर कलेवा, गुलगुच बड़ी मिठाई । जो इन सबखाँ चाओ तो गुड़ाने करौ सगाई ।।" एक विशिष्ट जनपदीय संस्कृति का संकेत करती हैं और विशिष्ट मूल्यों का भी ।

महाभारत -काल

रामायण-काल में वैदिक संस्कृति के आश्रमी लोकमूल्यों का काफी दबाव रहा, खास तौर से उस संकटकालीन परिस्थिति में, जो राक्षसों की मनमानी और निरंकुश हस्तक्षेप से जन्मी थी । निश्चित है की बुंदेली शबरी वैदिक राम के प्रति भक्तिमयी हो गयी थी और वह निश्चय ही लोकमूल्यों के बदलाव का प्रतीक है । लेकिन इस अंतराल में मूल्यगत संघर्ष से दोनों पक्षों को गुजरना पड़ा है । दो विभिन्न संस्कृतियों के संसर्ग से संघर्ष की रगड़ सहज-स्वाभाविक है । इससे बुंदेली लोकसंस्कृति को गति मिली और उसने उपनी पाचनशाक्ति से बाहरी लोकमूल्यों को आत्मसात् करना शुरु कर दिया ।

महाभारतकार ने विंध्याटवी को महारण्य या दारुण वन कहा है, जिसका अर्थ यही है कि आटविक प्रदेशों में वन्य लोकसंस्कृति प्रधान थी । दूसरी तरफ ' नलोपाख्यान' और चेदि जनपद के वर्णन से उससे बदली हुई संस्कृति का पता चलता है । ' नलोपाख्यान' में राजा नल का जुआ खेलना, राज्य हार जाना आदि के द्वारा नये लोकमूल्यों की पहचान होती है । बुंदेलखंड में उस उपाख्यान के आधार पर एक लोककथा प्रचलित है और आज के इस बदले हुए परिवेश में भी बुंदेली जन अक्सर कह देता है-" राजा नलै अबेरा परी, भूँजी मछरी दौ में परी" जिसका आशय विपत्ति में कल्पना से परे आघात तक लगने से है और जिससे विपत्ति में पड़े मानव को मुसीबत सहन करने की अंदरुनी शक्ति मिलती है । चेदिनरेश शिशुपाल यादव-संस्कृति का प्रतिनिधि था । महाभारत में चेदि देश को समृद्ध, धनधान्य से परिपूर्ण और शक्तिसंपन्न कहा गया है । वहाँ के निवासियों में सच्चाई, आज्ञाकारिता और परहित के लोकमूल्य विद्यमान थे ।-१०

कुरुक्षेत्र के युद्ध में चेदि और दशार्ण दोनों जनपदों ने भाग लिया था, जिससे वैयक्तिक और शारीरिक वीरता के लोकमूल्य की व्यापकता का पता चलता है । युद्ध में वीरगति पाने पर याद्धा को स्वर्गलोक मिलता है, यह मान्यता बुंदेलखंड के आदि निवासियों की देन नहीं थी, वरन् बाहर से आई थी । या तो इसका प्रसार आश्रमी संस्कृति ने किया था या फिर यादवों ने । यादव पशुपालक और रणप्रिय थे । कारसदेव की गोटों में कारसदेव की वीरता की ही कथा है । कसु या बसु से लेकर शिशुपाल तक के शासकों ने दोनों मूल्यों को जन-जन तक पहुँचा दिया था । वन्य जातियाँ भी ऐसे लोकमूल्यों के समर्थन में पीछे नहीं थीं ।

महाजन पद-काल

डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल का मत है कि " लगभग एक सहस्त्र ईसवी पूर्व से पाँच सौ ईसवी तक के युग को भारतीय इतिहास में जनपद या महाजनपद-युग कहा जाता है । सारे देश में एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक जनपदों की एक श्रृंखला फैली हुई थी । एक प्रकार से जनपद राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन की इकाई बन गए थे ।" इस दृष्टि से 'जनपद' आंचलिक संस्कृति और लोकमूल्यों की एकता के प्रतीक थे । चेदि १६ महाजनपदों में से एक था -११, जबकि दशार्ण का नाम जनपद-१२ के रुप में ख्यात था । दोनों राजतंत्रीय जनपद-वर्ग में थे, लेकिन उनमें जनपदीय इकाई की चेतना प्रधान थी । राजसी या सामंती प्रकृति संकीर्णता से परे होकर जनपद के हित के प्रति उत्तरदायी थी । इसी कारण से लोकमूल्यों में समन्वयकारी एकता की प्रक्रिया तेज हो गयी थी । लोकशक्ति या जनशक्ति का बोलबाला था । यदि एक तरफ एक बौद्ध भीक्षु राजा केर गर्व को खंडित करता हुआ उसे प्रजा का दास मानता था, तो दूसरी तरफ राजतंत्र का समर्थक कौटिल्य " प्रजासुखे सुख राज्ञ: प्रजानां च हिते हितम्" कहता हुआ प्रजा को ही महत्त्व देता था । इतना ही नहीं, ' अर्थशास्र' लोकसंस्कृति को सर्वेपरि ठहराता है- " राजा को चाहिए कि वह प्रजा का-सा जीवन अपनाये, उन्हीं का-सा वस्र पहने, उन्हीं की भाषा बोले और उन्हीं के रीति-रिवाजों को माने । प्रजा जिस विश्वासभाव से अपने राष्ट्रीय, धार्मिक और सामूहिक उत्सव मनाती और आमोद-प्रमोद करती हो, उसी का अनुकरण राजा को भी करना चाहिए ।" लोकसत्ता की इस प्रतिष्ठा से स्पष्ट है कि लोकमूल्यों की तरफ हर वर्ग की तरफ हर वर्ग की आँखें गड़ी थीं और यह लोकमूल्यों की महत्ता का युग था ।

ऐसे ही उत्कर्ष-काल में यक्षों के लोकादर्श आये और युग की कसौटी पर खरे उतरे । बौद्ध ग्रंथों और जातक कथाओं में यक्षों के उल्लेखों से सिद्ध है कि उनके सौंदर्य, शक्ति और अमरत्व-संबंधी लोकमूल्य जन-जन में व्याप्त थे । बुंदेलखंड में प्राप्त कुबेर, मणिभद्र आदि यक्षों की मूर्तियों, महोबा में प्रचलित मणि-संबंधी किंवदंती, पवाया में प्राप्त मणिभद्र यक्ष के पाद-अभिलेख में अंकित दान-दाताओं की कल्याण-कामना, तुलसीकृत विनयपत्रिका में वीर-पूजा और आज तक प्रचलित बरमदेव की मान्यता यक्षों के आदर्शों के प्रति निष्ठा का दीर्घ इतिहास प्रस्तुत करती है । मानव की सबसे ज्यादा गंभीर समस्या थी-बुढ़ापा और मृत्यु, जिसका समाधान यक्षों के ' अमरत्व' में मौजूद था । महात्मा बुद्ध ने भी इन रोगों की दवा खोजने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया था, पर उनसे पहले यक्ष-दर्शन की पहल अपना विशेष महत्त्व रखती है ।

धार्मिक जागृति का युग

वैदिक कर्मकांड की जटिलता, जाति-भेद के कारण पुरोहित-वर्ग और अन्य जातियों में विषमता तथा दार्शनिक दूर्बोधता के खिलाफ जैन और बौद्ध धर्म की क्रांति ने एक धार्मिक उथल-पुथल पैदा कर दी थी और उसने लोकमूल्यों पर गहरा असर छोड़ा था । उनके सिद्धांत सरल थे और आम आदमी की समझ में आ जाते थे । इसलिए लोकमूल्यों का बदलाव स्वाभाविक था, लेकिन लगभग उसी समय कुछ मध्यममार्गी धार्मिक संप्रदायों का भी विकास हुआ, जो वैदिक कर्मकांड का विरोध करते हुए भी ईश्वरवादी थे और जिन्होंने लोक से लड़ने के लिए भक्ति और प्रेम का अवलम्बन पकड़ा था । इनमें भागवत और शैव धर्म प्रमुख थे । भागवत धर्म का विकास औपनिषदिक विचारधारा से हुआ था, इसलिए वह वैदिक धर्म के अधिक निकट था । उसमें यज्ञ, तप और पशुबलि को कोई महत्त्व नहीं मिला था, जिससे वह जनता को पुराने धर्म का सुधारवादी रुप ही लगा । फिर भी बौद्ध-धर्म में प्रतिष्ठित आचार और कर्म तथा समता और अहिंसा के महत्त्व का प्रभाव इस जनपद पर भी पड़ा । मौर्यकाल में उज्जयिनी प्रांत के शासक के रुप में अशोक विदिशा में रहा और वहाँ के श्रेष्ठिन की सुपुत्री देवी से प्रेरणा पाकर जब वह बौद्ध हो गया, तब उसने साँची, भरहुत, जबलपुर, होशंगाबाद, एरण और त्रिपुरी में बौद्ध-धर्म का प्रचार-प्रसार किया । निश्चित है कि इस क्षेत्र में अहिंसा के साथ-साथ सदाचार और कर्म-संबंधी लोकमूल्य विकसित हुए थे । ठीक इसके बाद शुंग-काल में दशार्ण जनपद पर शुंगों का शासन रहा और भागवत धर्म के आदर्श लोकप्रचलित हुए । विदिशा के गरुड़ध्वज अभिलेख से पता चलता है कि उसका प्रभाव देश के बाहर भी था । आशय यह है कि भागवती दृष्टि की गतिशीलता के कारण बौद्ध मूल्य स्थिर न हो सके ।

बौद्ध-धर्म ने अशोक के प्रयत्नों से फिर एक बार व्यापकता पा ली. थी, क्योंकि उसके सभी संप्रदायों में एकता की भावना जाग्रत हुई थी । दूसरे, बौद्ध धर्म लोकधर्मी अधिक था । ऐसी प्रभावी स्थिति देखकर भागवत और ब्राह्मण-धर्म एक हो गये थे और तत्कालीन लोकमूल्यों में ऐसे ही समन्वय की धारा अंतरप्रवाहित होने लगी थी । भागवतों के वासुदेव या कृष्ण देवता की तरह पूजे जाते थे । लोक में मूर्तिपूजा का प्रचलन था । ब्राह्मणों को (ब्राह्मण-धर्म के अनुयायी) भी इसे मानना पड़ा । ' अर्थशास्र' में अनेक देवी-देवाताओं के पूजे जाने का उल्लेख है । अग्नि, नदी, पर्वत, वन आदि की पूजा प्राचीन है, लेकिन पूजा का यह रुप यक्षों से ग्रहण किया गया था । बुंदेलखंड में बीर (यक्ष) का चबूतरा या चौरा ही शिव के चौरे में परिणत हुआ था । मूर्ति-पूजा के साथ बलि, मंत्रों से देवी-देवता का आवाहन आदि अंधविश्वास भी जुड़े थे । ऐसे लोकधर्म और लोकमूल्यों का विरोध जहाँ महात्मा बुद्ध ने किया था, वहाँ उनके प्रमुख अनुयायी अशोक ने भी । लेकिन लोकमूल्यों की परम्परा का प्रवाह अपने कर्दम को एकदम अलग न कर सका । इस असफलता के बावजूद बौद्ध-धर्म के आचरण और कर्मपरक मूल्यों ने लोकमूल्यों की धारा में नया मोड़ दिया था-इस तध्य को नकारा नहीं जा सकता ।

नाग -वाकाटक काल

बुंदेली लोकसंस्कृति के इतिहास से प्रकट है कि यह कालखंड लोकसंस्कृति की प्रतिष्ठा और उत्कर्ष का मानचित्र है और उससे यह निष्कर्ष निकालना भी उचित है कि लोकमूल्यों की गढ़न, तराश और दृढ़ता का अद्योग इसी समय हुआ । छ: सौ वर्षों तक प्रेरणा के स्रोत रहै तत्कालीन समन्वयवादी लोकदर्शन और लोकधर्म, जो शैवों की साधना, वैष्णवों की भक्ति और यक्षों की भुक्ति के रासायनिक संयोग से बने थे । तीनों लोकमूल्यों की त्रिवेणी लोकजीवन को अमृततुल्य बना देती थी । नागों ने संहारकर्ता शिव और वाकाटकों ने योद्धा शिव सो सर्वोपरि माना था, जिसका अर्थ था-कल्याणकारी वीरता की सर्वोच्चता की स्वीकृति । यहाँ कल्याण के प्रतीक शिव एक ओर भक्ति (धर्म) का प्रतिमूर्ति थे, तो दूसरी ओर शकों से भारतभूमि की मूक्ति (देश प्रेम या राष्ट्रीयता) के और तीसरी ओर लोकहित (निर्वाण के स्थान पर सामूहिक उद्देश्य) के । इस तरह धर्म, राजनीति और समाज, तीनों राष्ट्रीय चिंतन से जुड़कर एक हो गये थे । राजनीति धर्ममय और धर्म समाजमय और राष्ट्रमय होकर एक-दूसरे के पूरक बन गए थे । लोकमूल्यों के इतने संगठन और इतनी शक्ति की कल्पना पहले कभी नहीं की गयी ।

वैयक्तिक स्तर पर संयम, साधना, त्याग, बलिदान और शौर्य; पारिवारिक रुप में नारी के श्वाभिमान की प्रतिष्ठा और आश्रमी आदर्शों का पालन; सामाजिक या सामूहिक स्तर पर स्वतंत्रता, देश-प्रेम, एकता, बंधुत्व और लोकहित तथा धार्मिक रुप में प्रेम, भक्ति, समपंण, श्रद्धा, मूर्तिपूजा, यज्ञ-तप-जप और धार्मिक उदारता जैसे लोकमूल्य प्रमुख थे । लोकदेवता शिव में जिस प्रकार अनार्य और आर्य प्रतीकों का संगम था, ठीक उसी प्रकार शिव की छत्रछाया में सभी प्रकार के लोकमूल्यों की उपादेयता मान्य थी ।

गुप्त-युग में विष्णु और उनके अवतारों को महत्त्व मिला, जिससे प्रेमाभक्ति का प्रसार हूआ । विष्णु का वराह अवतार पृध्वी के उद्धार करने के लिए हुआ था, उसी से प्रेरणा लेकर शक और हूणों को करारा जवाब मिला । एरण पर तोरमाण हूण-१३ के आक्रमण से सेनापति गोपराज की मृत्यु और उसकी पत्नी का सती हौना नारी के पातिव्रत्य और सतीत्व के लोकमूल्य का साक्षी है । उसका स्मारक एरण के प्राचीन इतिहास का अंग है ।

पौराणिक काल

५वीं से १०वीं शती तक का समय पुराणों के सृजन, प्रसार और महत्त्व का है । देवगढ़ के गुप्तकालीन मंदिरों में विष्णु के अवतारों की कथाओं को उत्कीर्ण किया गया है । अधिकतर पुराणों की रचना इसी समय हुई थी । इससे प्रकाट है कि चार-पाँच सौ पर्ष लोककथाओं द्वारा लोकमूल्यों को स्थिर करने का व्यापक आयोजन होता रहा । देवताओं की सार्थकता सिद्ध करने के लिए हजारों पौराणिक कथाएँ रची गयीं, व्रत-कथाएँ भी लोकप्रचलित हुईं और युगचेतना के अनुरुप मिथकों का उदय हुआ । शकों, हूणों आदि बाहरी आक्रमणकारी शक्तियों से सुरक्षा के लिए असुर, असुरसंहारी देवी और प्रलयंकर देव के प्रतीक तत्कालीन लोक के लिए कवच बन गए । वैदिक और सनातनी मूल्यों को कथाओं के द्वारा लोकाचरण में ढालने की कोशिश इस युग की विशिष्ट देन थी । साथ ही पुराणकारों ने एक विशिष्ट देवता का पक्ष लेते हुए भी अन्य देवों की विशेषताओं को ऐसी समन्वयमूलक भावना से गूँथा कि सम्प्रदायवाद की गंध तक नहीं आ पाई । दरअसल, लोकमूल्यों को लोक के लहू में मिला देने का काम पुराणों ने ही किया है । यदि पुराण न रचे गये होते, तो लोकमूल्यों का इतना फैलाव न होता और लोकसंस्कृति बाहरी दबावों से चरमरा जाती ।

चंदेल -काल

बुंदेलखंड के सांस्कृतिक इतिहास में चंदेलों का युग समन्वय, एकता और उत्कर्ष का रहा है । आठवीं-नौवीं शती में शंकराचार्य की दार्शनिक क्रांति, वैष्णव मत का व्यापक प्रसार और चंदेलों द्वारा लायी शांति एवं समृद्धि ने इस जनपद को स्थायी लोकमूल्य प्रदान किए थे । लोकदर्शन, लोकधर्म और लोकचिंतन में किसी भी तरह की अस्थिरता और विषमता नहीं थी । उनमें एक ओर मनुष्य के सर्वोच्च हित की सुरक्षा का ध्यान था, तो दूसरी ओर लोकमंगल का और तीसरी ओर उस युग की आवश्यकता के अनुरुप लोकमूल्यों के विकास का । इन तीनों का समाहार किसी युगधर्मी लोकमूल्य की व्यापकता में भी हो जाता था । उदाहरण के लिए वीरता के लोकमूल्य को उजागर करती ' आल्हा' की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-

मानसु देही जा दुरलभ हैस आहै समै न बारंबार ।

पात टूट कें ज्यों तरवर को कभऊँ लौट न लागै डार ।।

मरद बनाये मर जैबे कों खटिया पर कें मरै बलाय ।

जे मर जैहैं रनखेतन मा, साकौ चलो अँगारुँ जाय ।।

इन पंक्तियों में युद्ध के मैदान में वीरतापूर्वक जूझ जाने को परम मूल्य माना गया है और उसी में व्यक्ति और समाज के युगधर्मी कल्याण अंतर्निहित हैं । विदेशी आक्रमणकारियों से सुरक्षा में सभी का हित है और मनुष्य की देह को दुर्लभ मानने में मानव और मानवता की गरीमा सुरक्षित है । यूद्ध में मृत्यु का वरण करने से कीर्ति पाने का लोकविश्वास बहुत प्राचीन है और जब तक युद्ध रहेगा, तब तक बना रहेगा । इसी तरह शरीर को पेड़ के पत्ते की तरह नश्वर मानना भी शाश्वत लोकमूल्य है, जो आज भी लोकप्रचलित है ।

वीरता एक वैयक्तिक मूल्य है, लेकिन देशप्रेम व्यक्तिगत सीमाओं से परे एक राष्ट्रीय लोकमूल्य भी है । इतिहासकार फरिश्ता ने लिखा है कि विदेशी आक्रमणकारियों से अपने देश की रक्षा के लिए वीरांगनाओं ने अपने आभूषण और रत्न बेचकर सहायता भेजी थी ।-१४ अलबेरुनी का मत है कि " हिंदुओं का विश्वास है कि यदी कोई देश है तो उनका, कोई जाति है तो उनकी, यदि शासक हैं तो उनके... " उसने यह आक्षेप चाहे जिस कारण लगाया हो, पर यह सही है कि देशप्रेम और स्वाभिमान में भारतवासी कम नहीं थे । उस समय देशप्रेम के लोकमूल्य की आवश्यकता थी । चंदेलों ने आक्रमणकारियों से लड़ने के लिए अपनी सेना पंजाब और उत्तरीय प्रांत में भेजी थी और इस ऐतिहासिक घटना ने बुंदेलखंड की देशभक्ति का प्रामाणिक साक्ष्य उपस्थित कर दिया था ।

इनके अतिरिक्त एक और परम मूल्य था-सुख या आनंद या मोक्ष की प्राप्ति । इस संसार को नश्वर और इसी कारण मिध्या मानते हुए धन-संपत्ति, रस-भोग, तन-मन सभी परममूल्य में बाधक बताये गए हैं ।-१५ मोक्ष के साधन हैं-ईश्वर या इष्ट देव की पूजा, भकिति, तीर्थयात्रा-१६, दान, व्रत-उपवास और परोपकार आदि । दूसरे शब्दों में, धार्मिक मूल्यों का समाज में बहुत आदर था । भक्त, ज्ञानी, दानी, परोपकारी, तीर्थयात्री और मंदिर-निर्माता को श्रेष्ठ माना जाता था । पाप-पुण्य और नरक-स्वर्ग लोकविश्वासों और लोकमूल्यों के मूल आधार थे, इसलिए कर्म और वर्जनाएँ-दोनों महत्त्व रखते थे । बौद्ध और जैन-धर्म के अवसान से अहिंसापरक लोकमूल्यों को धक्का लगा था, लेकिन नव वैष्णव संप्रदाय ने उन्हें फिर वही महत्त्व दिया, जो उन धर्मीं में था । चंदेलों ने वैष्णव और शैव, दोनों मतों का प्रसार-प्रचार किया था, अतएव अहिंसा, भक्ति और योग-१७-संबंधी मूल्यों का प्रचलन अधिक हुआ । जब मंत्रयान और वज्रयान बने, तब धर्म की आड़ में भोग-१८ को प्रश्रय मिला । इस प्रकार तंत्र-मंत्र-१९ और उनके शास्र को प्रतिष्ठा मिली तथा उनका उपयोग भी साधना के रुप में हुआ ।

तत्कालीन लोकगाथाओं-आल्हा, कजरियन कौ राछरौ आदि में नारी का चित्रण गरिमामयी रेखाओं से किया गयार है । आल्हा-ऊदल की माता देवलदे तो विश्व की श्रेष्ठ नारियों में परिगणित की गयी है, माल्हनदे और चंद्रावलि वीरता में किसी से कम नहीं हैं तथा गजमोतिन अपने पति मलखान के जूझने पर सती के धर्म का निर्वाह करती है । लेकिन ' प्रबोधचंद्रोदय' और ' रुपकषटकम्' जैसे तत्कालीन ग्रंथों में स्री को दुष्टा, ईषर्यालु, कायर, दुर्बल, दुराचारीणी, भोग्या, डाकिनी आदि कहा गया है । दोनों में इतना विरोधाभास क्यों है ? इतना स्पष्ट है कि लोकगाथाएँ लोककाव्य हैं, लोक की मानसिकता का प्रतिनिधित्व करती हैं, जबकि संस्कृत के नाटक या रुपक विद्वान् चिंतकों की कृतियाँ हैं, जिनमें तत्कालीन उच्चवर्गीय वैचारिकता की प्रधानता रही है । ' प्रबोधचंद्रोदय' में नारी को धर्मविमुख करने का कारण ठहराया गया है ।-२० शायद इसीलिए नारी में तमाम दुर्गुणों को आरोपित किया गया है । लोककवि धार्मिकता से बँधा नहीं है, इसीलिए उसकी नारी उस आग्रह से सर्वथा मुक्त है । इसी रुप में नारी के लोकमूल्य लेना चाहिए । पातिव्रत्य और सतीत्व नारी का परम लोकमूल्य था, जिसके साक्ष्य ' आल्हा' आर ' रुपकषटकम्' दोनों में मिलते हैं ।-२१ अलबेरुनी का मत है कि सतीप्रथा राजवंशों में थी, जनसाधारण में नहीं । लेकिन ' पत' की रक्षा और पातिव्रत्य का पालन लोकप्रचलित था ।

सच्चाई, ईमानदारी, निश्छलता आदि नैतिक लोकमूल्य उस समय माल्य थे । भाग्य और कर्म पर विश्वास करने वालों के वर्ग अलग-अलग थे और कभी-कभी दोनों विरोधी ध्रुवों को जोड़ने वाला एक अलग वर्ग था । इसी तरह आत्मा को मानने वाले आत्मवादी और पुनर्जन्म पर विश्वास करने वाले पुनर्जन्मवादी भी हर युग में रहे हैं । ये दोनों विश्वास भारतीय लोकसंस्कृति की पहचान हैं । आर्थिक व्यवस्था और मूल्य सामंतवादी थे । निम्न वर्ग और गरीब लोगों के लिए लोकमूल्य सब कुछ थे । उनको लोक की चिंता ज्यादा होती है, इस कारण वे लोकनूल्यों को सहेज कर रखते हैं । इस जनपद में यहाँ की आदिम जातियाँ भी थीं, जिनसे चंदेलों को युद्ध करना पड़ा था । उनके लोकमूल्य भी प्रचलित थे । चंदेलनरेश त्रैलोक्यवर्मन (१२०४-४२ ई.) द्वारा नियुक्त आनंद ने जयदुर्ग (आजयगढ़) के शासक के रुप में भील, शबर और पुलिंद वन्य जातियों को पराजित कर आज्ञाकारी बनाया था ।-२२ अजयगढ़ अभिलेख से सिद्ध है कि ये जातियाँ इस काल में काफी सक्रिय रही हैं, वे कभी बलवती होकर शासन के विरुद्ध युद्ध करती थीं और कभी आज्ञाकारी होकर अपनी शक्ति बढ़ाती थीं । अतएव उनका सामाजिक प्रभाव अवश्य रहा होगा । अनार्य देवों और देवियों की पूजा के प्रचलन का कारण वन्य जातियों की संस्कृति के कुछ मूल्यों की स्वीकृति ही थी । सभी ग्रामों में एक ' चबूतरा' होता था,-२३ जहाँ चर्चा के लिए गाँव के लोग इकट्ठे होते थे । वे चबूतरे ही बाद में छत्रसाल के चबूतरे के नाम से न्याय के केन्द्र बने और फिर ' अथाई' के रुप में चौपाल मात्र रह गए । इन पर हर जाति के लोग बैठते थे और लोकमूल्यों को गति देते थे । कुछ लोकमूल्यों में वन्य जातियों की सक्रिय भागीदारी थी, जैसे ' बलि' से देवता या देवी का प्रसन्न होना सभी में प्रचलित था । ' प्रबोधचंद्रोदय' में वर्णित कापालिक और ' कादंबरी' एवं ' हर्षचरित' के शबर में काफी समानता है।-२४ शबरों में पूजित और रक्त-बलि से प्रसन्नित देवी चामुंडा की मूर्तियाँ महोबा में मिली हैं । चारों दिशाओं में चार मूर्तियाँ थीं, जिनकी पूजा वीर सैनिक करते थे । वे युद्ध की देवी थीं और चंदेलकालीन गाथाओं में उनका वर्णन मिलता है । जिस प्रकार शबरों की देवी-२५ उत्तर भारत के गाँवों में पहुँची, उसी प्रकार उनके मूल्य भी आए और वहाँ की लोकसंस्कृति में घुल-मिल गए ।

तोमर -काल

तोमर-युग लोकमूल्यों के संघर्ष का युग था । विदेशी संस्कृति और उसके मूल्यों का दबाव बराबर बना रहा, लेकिन भारतीय संस्कृति और उसके मूल्यों ने चुनौति का सामना करने के लिए पूरी शक्ति लगा दी थी और उसमें बुंदेलखंड की भागीदारी उल्लेखनीय और ऐतिहासिक रही । बुंदेलखंड की लोकभाषा, साहित्य, देसी संगीत और अखाड़ों ने अगुआ बनकर भाषा, साहित्य और कला को भारतीय परम्परा के अनुरुप विकास दिया, जिससे बाहर के दबाव अपने-आप हटते गए और प्रभाव किसी-न-किसी रुप में हजम होते गए । लोकमूल्यों ने युग की आवश्यकता और राष्ट्र की आत्मा पहचानकर अपनी दिशा बदली । चंदेलकालीन ' वीरता' का लोकमूल्य ' क्षात्रधर्म' के रुप में सर्वोपरि हो गया । युद्ध में जूझने के पहले दो आधार थे-(१) " मरद बनाये मर जैबे कों" , अर्थात् पौरुष के प्रदर्शन या सार्थक सीद्ध करने के लिए और (२) " साकौ चलो अँगारुँ जाय" अर्थात् कीर्ति के लिए । बाद में उसे धर्म के रुप में अनिवार्य-सा मान लिया गया और उसका प्रमुख आधार था-अराष्ट्रिय तत्त्वों को नष्ट कर गोत्र, वंश और मातृभूमि की लाज रखना ।-२६ साथ ही ' सत्त' और ' पत' रखना भी तत्कालीन लोकमूल्य थे, जो संघर्ष में सहायक बने और जिन्होंने लोकसंस्कृति की अस्मिता को सुरक्षित रखा । आपत्ति-विपत्ति और मृत्यु के क्षणों में भी 'सत्त' नहीं छोड़ना चाहिए और ' पत' की रक्षा करना चाहिए ।-२७ मर्यादा रखना, दान देना, पातिव्रत्य और सतीत्व के धर्म का पालन और इन लोकमूल्यों को बचाने के लिए युद्ध करना तथा वीरता दिखाना जरुरी था ।-२८ व्यक्ति यह सब अपनी कीर्ति के लिए करता था, इसलिए कीर्ति इस युग का प्रमुख लोकमूल्य बना रहा ।-२९ नारी-लोक में पतिव्रता और सती की सर्वोच्चता थी, इसीलिए उन्हें नारी का धर्म समझा गया था । सती वही होती थी, जो ' सत्त' रखती थी ।स ' सत्त' ही उसका साधन था और ' सत्त' ही उसका उद्देश्य । ' सत्त' से विमुख करने के प्रयत्न होते थे, पर ' सत्त' तो मन में होता था, तन तो मन का दास है ।-३०

इन परम मूल्यों के साथ ' कर्म का फल' और ' भाग्य के अंक' अमिट हैं,-३१ शरीर की क्षणभंगुरता, मानव योनि की अमूल्यता और ईश्वर एवं अनेक लोकदेवों की भक्ति जैसे शाश्वत लोकमूल्य मिलकर एक अलग समवाय बनाते हैं । सामाजिक लोकमूल्यों में पारिवारिक संबंधों के आदर्श, पारिवारिक एकता, सामाजिक आदर्श एवं एकता आते हैं । विष्णुदासकृत ' महाभारत' प्रबंध में जिन वर्जनाओं का वर्णन है, उनसे लोकनीति का एक चित्र खड़ा होता है और लोकमूल्यों का पता भी चलता है । सामाजिक यथार्थ के पीछे लोकादर्शों की झाँकी मिलती है ।-३२ ' छिताईचरित' में भी यत्र-तत्र संकेत हैं, जैसे अविचल बोल (सत्य), योग, पातिव्रत्य, गंगास्नान आदि ।-३३ उसका कथानक लोकमूल्यों के समूह से युगधर्मी मूल्यों का चुनाव करता है और वे हैं-नारी का ' सत्त', वीरों का ' शौर्य' और योगियों का ' योग', जो तत्कालीन लोक की जीवनीशक्ति बन सकते थे । यही जीवनीशक्ति आक्रमणकारियों का सामना कर सकती थी, लेकिन ' छिताईचरित' में हिंदू-मुस्लिम-समन्वय का आदर्श और उससे फूटता मानवीय प्रेम का व्यापक मूल्य भी एक अद्भुत शक्ति का परिचायक था । भारत का लोक दोनों मार्ग खोले तैयार था ।

बुंदेल -काल

इस युग में भी आक्रमणों का बोलबाला बना रहा । ओरछानरेश मधुकरशाह जैसे लोकप्रिय राजा के समय मुगलों के पाँच आक्रमण हुए, जिससे अंचल की जनता अपनी अस्मिता और लोकसंस्कृति की रक्षा के लिए एकजुट हो गाई । उसके सामने दो रास्ते थे-एक तो भगवद्भक्ति का था, दूसरा संघर्ष का । भक्ति-आंदोलन के प्रभाव से ओरछा में रामकृष्ण की भक्ति प्रसार पा रही थी । ओरछा की महारानी गणेशकुँवरि श्री रामराजा का विग्रह अयोध्या लाई थीं और ओरछा के ही प्रसिद्ध भक्तकवि हरिराम व्यास ने अपने अनेक पदों की रचना यहीं की थी । अतएव जन-जन ने ' ईश्वरभक्ति' के परम मूल्य को अपना लिया था । वही ईश्वरभक्ति, जो जाति-पाँति, छुआछूत आदि के भेदभाव को नहीं मानती थी । व्यासजी ने घोषणा की थी-" भक्ति में कहा जनेऊ जाति" । तुलसी ने भक्ति के संबल को जीवन का सब कुछ बना दिया, इसलिए राष्ट्रनायक छत्रसाल ने अपने संघर्ष में उसी से प्रेरणा ली । भक्ति का यह मूल्य इतना व्यापक हुआ कि उसने पारिवारिक संबंधों, सामाजिक दायित्वों और राष्ट्रीय भावनाओं को एक नयी गरिमा प्रदान की । लोकजीवन उल्लास और उत्साह से भर गया । लोकसंस्कृति में एक नयी दीप्ति और नया दपं, एक नयी जागृति और नया सोच उभरा, जिसने उसकी एकता की शक्ति और पचाने की क्षमता को कई गुना बढ़ा दिया । हर पुरुष अपने को रामकृष्ण और हर नारी सीताराधा समझे, ऐसे लोकगीतों की कतारें खड़ी हो गई । जन्मते ही वह कृष्ण बन गया-" झुला देव माई स्याम परे पलना" और फिर उसमें अदमनीय शक्ति आ गई । सीता के पिता के रुप में तो वह अपना सिर झुकाने को तभी तैयार होता है, जब साजन आते हैं ।

कोट नबै परबत नबै सिर नबत नबाये ।

माथौ जनक जू कौ तब नबै जब साजन आये ।।

पहली पंक्ति में मध्ययुगीन राजनीति की झलक है । जबर के सामने कोट, पर्वत और सिर झुक जाते हैं, लेकिन जनक जू का मस्तक साजन या समधी के आने पर ही झुकता है । लड़की के पिता का स्वाभिमान कितना ऊँचा है और यह आंतरिक ऊर्जा तभी आ सकी, जब वह सीता का पिता जनक बना । लोकसंस्कार इतना प्रभावी होता है कि शक्ति को झुका देता है ।

संघर्ष का मार्ग चंपतराव और छत्रसाल जैसे राष्ट्रनायकों ने चुना और उसी का अनुसरण इस अंचल के लोगों ने किया । इसी कारण लोक का आदर्श क्षात्रधर्म बना रहा ।-३४ नारियाँ भी सतीत्व की रक्षा के लिए अपने प्राण निछावर करती थीं । मध्ययुग की लोकगाथाएँ-' मनोगूजरी' और ' मथुरावली' नारी के बलिदान की प्रामाणिक गवाह हैं । मथुरावली खड़ी-खड़ी जल जाती है, उसका भाई कहता है-" राखी बहना पगड़ी की लाज, बिहँस कहें राजा बीर, ठाँड़ी जरै मथुरावली ।" पगड़ी की लाज रखना इस युग का प्रमुख लोकमूल्य था, क्योंकि अनेक लोकगीतों में इसे प्रधानता मिली हे । असल में पगड़ी पुरुष की प्रतिष्ठा की प्रतीक थी ।

मध्ययुग में ' पत' और ' सत' दो लोकमूल्य लोक में इतने प्रधान थे कि बुंदेलखंड का इस समय का कोई कवि और कोई भी ग्रंथ उनके उल्लेख से अछूता नहीं रहा । लगभग तीन सौ वर्ष ' पत' का बोलबाला बना रहा । स्वामी की पत, कुल की पत और राज की पत । महाभारत, छिताईचरित, रामचरित मानस, रतन बावनी, कामरुप कथा, हिम्मतबहादुर विरुदावली आदि प्रमुख ग्रंथों के साथ लोकगीतों में भी उन्हें काफी महत्त्व मिला है । ' पत' रखने की विनती का एक उदाहरण है-" मोरी मैया पत राखियो बारे जन की ।" कविवर बाधा के प्रेमाख्यानक ' बिरहवारीश' और पद्माकर के ' जगविनोद' जैसे ग्रंथों में ' सत'-३५ की प्रतिष्ठा है । ' सत' से बँधी कई कहावतें हैं-' सत' की बाँदी लच्छमी', ' सत्त तौ सातई घरी कौ होत' आदि ।

इन प्रमुख लोकमूल्यों के साथ कर्म और भाग्य के महत्त्व वाले मूल्य लोक में बहुप्रचलित थे । लोक में यश का अर्जन भी एक लोकमूल्य था । " भरी सभा में सोहै राजा जू की पगड़ी माथे पै बिंदिया हमार ।" नारी को पातिव्रत्य इतना प्रिय था की पातुर प्रवीणराय ने दिल्ली से शाही बुलावा आने पर इंद्रजीत से समस्या का हल खोजने के लिए कहा था-" जामें रहै प्रभु की प्रभुता और मोर पतिब्रत्त भंग न होई ।"

मध्ययुग की अनेक लोककथाएँ लोकादर्शीं और लोकमूल्यों के आधार पर रची गयी हैं । जैसे-कर्म की महिमा और कर्मफल पर ' पसीने की कमाई', ' बैरी बेटे' ' जैसी करनी वैसी करनी', भाग्य पर ' भाग्य बलवान' और ' मनुष्य का मोल', न्याय पर ' लाल की चोरी' तथा बुद्धिमत्ता पर ' बुद्धि बड़ी या पैसा' लोककथा प्रतिष्ठित हैं । लोकहित या कल्याण-कामना हर कथा का अंग-सा-रहा है-" जैसे बिछरे वे मिले, बैसई भगवान सबखाँ मिलाबै" , " जैसे उनकी रती फिरी भगवान सबकी फिरै" आदि । लोकगीतों में भी लोकहित की भावना है-

इस कालखंड में पुराने मूल्य के श्थान पर नया मूल्य उगने का प्रमाण भी मिलता है । ओरछानरेश जुझारसिंह के अनुज हरदौल ने भौजी के प्रति मातृवत् प्रेम की रक्षा के लिए विष खाकर अपने प्राण त्याग दिए और भौजी-देवर के संबंधों में ही नहीं, उनकी प्रेम-भावना में एक नया मोड़ खड़ा कर दिया । इस लोकमूल्य की स्थापना से ही वे लोक के आराध्य लोकदेवता बन गए । लोकमूल्य में कितनी शक्ति होती है और लोक अपने ही हित में उसे गढ़ता है ।

मध्ययुग के एक खास वर्ग में जिन दरबारी या सामंतवादी मूल्यों का प्रचलन था, वे पूरे लोक में प्रचलित न होने के कारण लोकमूल्य की पदवी प्राप्त नहीं कर सके । लोकगीतों में आये महाराज, महारानी, राजा, रानी, मुतियन थार, सोने को गूडुआ, सुन्नें छुरा नरा, रेशम डोरी, मोंतन कुड़री, चंदन पलका आदि से लोकसंस्कृति या लोकसाहित्य को सामंतवादी मान लेना अनुचित है । असल में लोक के हर पुरुष को राजा-महाराजा और हर स्री को रानी-महारानी बना देने तथा हर घर में सोने-मोती, चंदन-रेशम की वस्तुएँ देखने से यह स्पष्ट है कि ये शब्द अपने मूल अर्थ खो चुके हैं । वे न तो सामंती प्रवृत्ति का अर्थ देते हैं और न सामंती लोकादर्श या लोकमूल्य का । उनका सही अर्थ है प्रिय या श्रेष्ठ । राजा-रानी यानी कि सबसे प्रिय, क्योंकि जहाँ धनी, शक्तिशाली और अधिकारी राजा है, वहाँ गरीब, निर्बल और मजदूर भी राजा है । सोने-मोती, चंदन-रेशम आदि से मतलब अच्छी या श्रेष्ठ वस्तु से है, क्योंकि वे हर घर के हैं । सच तो यह है कि लोकसाहित्य ने सामंतवादी मूलयों और प्रवृत्तियों को पनपने नहीं दिया । शिष्ट साहित्य से तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ये शब्द उसमें एक मानस्कता को व्यक्त करते हैं, जबकि लोकसाहित्य में उनकी शारीरिक अर्थवत्ता तक विगलित हो गयी है ।

पुनरुत्थान -काल

बुंदेल-काल के अंतिम पृष्ठ जहाँ बुंदेलों के आपसी वैमनस्य और युद्धों, बाहरी आक्रमणों, भीतरी कूटनीतिक दुरभिसंधियों और अंग्रेजों की घुसपैठी संधियों से रँगे थे, वहाँ इन परिश्थितियों से उत्पन्न ईर्ष्या-द्वेष, बिखराव और विभाजन के कारण लोकमूल्यों के पतन से भरे पड़े थे । ऐसे ही संकट-काल में जैतपुर के राजा पारीछत ने अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह का झंड़ फहरा दिया । बुंदेलखंड की रियासतों ने शपथ लेकर भी साथ न दिया, लेकिन प्रबुद्ध लोक अँगड़ाई लेकर आजादी के संघर्ष में शामिल हो गया । लोक कवि गा उठा-

काऊ ने सैर भाखे, काऊ नें लाउनी ।

अबकी हल्ला में फुँकी जात छावनी ।।

क्षात्र-धर्म वाला पुराना मूल्य फिर नयी जागृति लेकर भास्वर हो गया और उससे जुड़े त्याग-बलिदान और दैश-प्रेम के लोकमूल्य प्रबल हो गए । लोकमूल्यों की इस कड़ी के विकास ने ही १८५७ ई. का स्वतंत्रता-संग्राम लड़ा था । बुंदेलखंड में कटक, समौ, लड़ाई, सैर, लाउनी, काव्य आदि ऐसे ही समय रचे गए थे और लोकप्रचलित हुए थे । हरबोलों ने उन्हें गाँव-गाँव सुनाया और जन-जन में प्रेरणा भर दी थी ।

आजादी के युद्ध में असफल होने पर निराशा में डूबे लोकमूल्य सिर उठाने लगे थे । लोककवि ईसुरी ने " बखरी रैयत हैं भारे की.... " जैसी प्रसिद्ध फाग द्वारा मानवशरीर की क्षणिकता प्रकट की है । जब शरीर नश्वर है, तब दया-धर्म और दूसरों की भलाई जरुरी है-" दीपक दया धरम कौ जारौ, सदा रात उजयारौ । धरम करें बिन करम खुलै ना, बिना कुची ज्यौं तारौ ।।" साथ ही कर्म भी बिना धर्म की सहायता के यशस्वी नहीं हो पाता । करनी से मनुष्य महान् बनता है, लेकिन मनुष्य होना ही भाग्य की बात है-" मानुस बड़े भाग से होबैं" । फिर धर्म के मार्ग पर चलते हुए ईश्वर-भक्ति भी जरुरी है, क्योंकि हर व्यक्ति जानता है कि रावण या कंस जैसे असुरों से लोक की रक्षा ईश्वर ही कर सकता है । पुनरुत्थान के दूसरे चरण के प्रतिनिधि लोककवि ईसुरी के फागकाव्य में लोकमूल्यों की झाँकी अपने यथार्थ रुप में मिलती है । प्रेम का शाश्वत मूल्य तो हर फागकार की संपत्ति रहा है ।

ईसुरी-युग में कुछ रामरसिक भक्तकवयित्रियों ने लोकगीतों की रचना की थी और उनके गीत लोक में प्रचलित भी हुए । लेकिन उनमें लोकमूल्यों के प्रति कोई लगाव नहीं दिखाई पड़ता । वे तो राम के प्रेमरस में डूबी और लोकसंस्कारों में ढली भावाभिव्यक्तियाँ हैं । कुष्ण की माधुर्योपासना से प्रेरित मधुर भाव के लोकगीत भी रचे गए, जिनमें प्रेम और सौंदर्य की प्रधानता है ।

आधुनिक काल

बीसवीं शती के प्रथम चरण से ही आधुनिक काल का प्रारंभ सही सीमारेखा है । १९०० ई. में रचित ` झाँसी को कटक' भाग १ में लोककवि भग्गी दाऊ जू ' श्याम' ने लिखा था-" जो झाँसी की लटी तकै सुन ताय सालका खाई" , जिससे उस राष्ट्रीय भावना का पता चलता है, जो लोक में बहुत पहले से मौजूद थी और जिसने निरंतर गतिशील होकर देश को आजाद करवाया था । आपको आश्चर्य होगा कि इस युग में देश-प्रेम का यह लोकमूल्य सबसे पहले सैर, लाउनी और फाग जैसे लोकगीतों में लिखा गया था और आजादी की पहली लड़ाई के बाद दूसरी में भी लोकगीतों ने अगुआई की थी ।

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त और ख्यात उपन्यासकार बृंदावनलाल वर्मा की कृतियों में आधुनिक लोकमूल्यों का स्पष्ट संकेत है । सिद्धराज के पृष्ठ ११५ से ११७ तक की पंक्तियों में बुंदेली अंचल की समवेत प्रशस्ति है, लेकिन उनमें स्वाभिमान, कलाकौशल और अमृतत्त्व का विशेष महत्त्व है-

१. पानी नहीं, मानो मान पीते वहाँ मानी हीं ।

२. प्रथम प्रतिष्ठा वहाँ होती है कला की ही ।

३. एक बूँद भी उस चंदेलखंड की सुधा

दिव्य कर सकती है भव्य भाव-सृष्टि को ।

नारी की स्थिति को देखते हुए गुप्त जी ने विद्रोह को ही उपचार माना है-" लगता है, विद्रोह मात्र ही अब इसका प्रतिकार है ।" वर्मा जी के उपन्यास ' मृगनयनी' और ' झाँसी की रानी' में तत्कालीन लोकमूल्य घटनाओं और प्रसंगों के साथ बुने हुए हैं । आधुनिक काल के लोकगीतों में भी अनाचारों और कुरीतियों का खंडन प्रधान रहा है । मँहगाई, रिश्वत और दहेज के विरोध में लोकगीत रचे गए, जिनमें वर्जनाएँ ही स्थान पा सकीं । रुढियों के खिलाफ एक आंदोलन-सा चला-" प्राचीन हों कि नवीन छोड़ो रुढियाँ जो हों बुरी ।" यानी, लोकमूल्यों के परिवर्तन में लोक का पूरा विश्वास था ।

देश की आजादी के बाद एक तरफ विज्ञान की नई-नई तकनीक का बढ़ाव था, तो दूसरी तरफ भौतिकता और बौद्धिकता के नये मूल्यों का । तीनों की संगति भी सामंजस्यपूर्ण थी । इनकी वजह से लोक का सोच व्यक्तिधर्मी हो गया था, परंतु इन मूल्यों के प्रति एक प्रतिक्रिया भी शुरु हो गयी थी । व्यक्ति का रागात्मक पक्ष अधिक प्रभावी होने लगा और जिसके फलस्वरुप प्रेम और शांतिपरक लोकमूल्यों में नया तेज फैल गया था । इस आशावादी-परिणति के बावजूद यह सच है कि आज मूल्यों के संक्रमण का युग है । धीरे-धीरे जाते और धीरे-धीरे आते हुए मूल्यों के अदृष्ट संघर्ष का दौर है । इसमें कोई संदेह नहीं कि नये लोकमूल्यों में कर्म या परिश्रम, प्रेम, शांति, मनुष्यत्व, भाईचारा आदि जैसे संरचनात्मक, संवदेनशील और लोकहितकारी मूल्यों की ही विजय होगी । इसी संभाविति के साथ यह भरतवाक्य जरुरी है कि देश के समूचे लोक का सोच लोकधर्मी बने और लोकमूल्यों को ऐतिहासिक क्रमिकता में परखने से उनका स्थैर्य टूटे तथा एक नयी गतिशीलता का विकास हो ।

>>Click Here for Main Page  

Courtesy: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र