बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - महोबा के मनियाँदेव् (Mahoba Ke Maniyandev)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

महोबा के मनियाँदेव् (Mahoba Ke Maniyandev)

महोबा या महोत्सवनगर एक ऐतिहासिक नगर है । इतिहासप्रसिद्ध चंदेल-नरेशों की राजधानी होने की वजह से इसका महत्त्व पूरे देश में प्रतिष्ठित हुआ था, लेकिन लोक उसे आल्हा-ऊदल का महोबा कहकर उसकी पहचान बताता है । यों तो महोबा में चंदेलकालीन मंदिर, दुर्ग, प्रासाद, प्रस्तराभिलेख, मूर्तियाँ आदि पुरातात्त्विक महत्त्व के अनेक अवशेष प्राप्त हुए हैं, पर लोकगाथाओं में सबसे पहले मनियाँदेव की वन्दना होती है । ऐसा प्रतीत होता है कि चंदेलकाल में शिव और चण्डिका के साथ मनियाँदेव लोकदेवता के रूप में विख्यात थे । हिन्दी के आदिकवि जगनिक ने अपने लोकगाथात्मक महाकाव्य में मनियाँदेव को काफी महत्त्व दिया है । प्रश्न उठता है कि ये मनियाँदेव कौन हैं ।

इतिहासकारों में बहुचर्चित मत बी. ए. स्मिथ का है, जिसके अनुसार महोबा के मनियाँदेव को मनियाँदेवी माना गया है और उन्हें चंदेलों की कुलदेवी कहकर चंदेलों को गोंड़ों का आर्यकृत वंशज (हिन्दुआइज्ड गोंड) सिद्ध किया गया है ।-1 छतरपुर जिले में छतरपुर-पन्ना मार्ग पर चन्द्रनगर ग्राम में मनियाँगढ़ नाम का एक दुर्ग है, जो एक ऊँचे पर्वत पर अवस्थित है । पहले वह गोंड़ शासकों का गढ़ था, बाद में चंदेलों के इतिहासप्रसिद्ध आठ दुर्गों में से एक रहा । आर्केल्यॉजिकल सर्वे रिपोर्ट, भाग सात, पृष्ठ 44 पर पुरातत्त्ववेत्ता जे. डी. बैगलर ने लिखा है कि एक छोटे-से सादा मंदिर के अवशेषों में हाथ में तलवार लिये एक स्त्री की मूर्ति मिली थी । उसने उस मूर्ति को ब्रााहृणों की पार्वती तथा गोंड़ों की अश्लील नग्न स्त्री-प्रतिमा का समन्वित रूप कहा है । साथ ही उसकी मान्यता है कि वह गोंड़ों द्वारा पूजित देवी से अधिक भिन्न नहीं है । इस स्थिति में एक प्रश्न अनायास खड़ा हो जाता है कि उस स्त्री-प्रतिमा का नाम मनियाँदेवी कैसे पड़ा । मेरी समझ में मनियाँगढ़ के एक मंदिर में मिलने से ही उसे मनियाँदेवी नाम से अभिहित किया गया था, वरना बैगलर या कनिंघम के पास कौन-सा ऐसा प्रमाण था, जिससे वे उस मूर्ति को मनियाँदेवी कहते । यदि मनियाँदेवी के कारण इस दुर्ग का नाम मनियाँगढ़ था, तो मनियाँदेवी की प्रसिद्धि पहले से स्थापित होनी चाहिए थी ।

मनियाँगढ़ या मनियाँदेवी नाम की गुत्थी सुलझने का कोई सही रास्ता नहीं दिखाई पड़ता । यह अवश्य है कि महोबा में प्रचलित जनश्रुति के अनुसार मनियाँदेव (महोबा के) चंदेलों के कुलदेव या पूजित देवता थे । 12वीं शती में रचित ठआल्हा' गाथा में ठमनियाँदेव महोबे क्यार' मिलता है । महोबा के मदन सागर के किनारे एक प्रस्तर दीपस्तंभ के सामने मनियाँदेव का मन्दिर है । इस मंदिर में स्थापित मूर्ति पुरानी है, इस तथ्य से बैगलर महोदय सहमत हैं, लेकिन वे इसे (पुरुष) मनियाँदेव न मानकर (स्त्री) मनियाँ देवी सिद्ध करते हैं । उसे चंदेलों की कुलदेवी तो कहते ही हैं, पर विचित्र है इतिहासकार स्मिथ की यह धारणा कि जब नवीं सदी के प्रारंभ में चंदेलों ने महोबा को अधीन किया, तब अपने साथ वे मनियाँदेवी की पूजा भी लेते आये ।-2 इसका अर्थ यह है कि मनियाँदेव की मूर्ति मनियाँगढ़ से महोबा लायी गयी थी, जो चन्देलों के लिए कठिन कार्य नहीं था (मनियाँदेव की शिला काफी बड़ी लगती है, जिससे यह तथ्य संदेह के घेरे में आ जाता है ) । इसका आशय यह है कि मनियाँगढ़ में मनियाँदेव और मनियाँदेवी दोनों थे । कुलदेव या कुलदेवी को मूलभूमि से लाने की प्रथा बुंदेलखंड में प्रचलित है, इसीलिए इतिहासकारों ने अपनी सिद्धि के लिए उसका सहारा लिया है ।

मूल प्रश्न यह है कि महोबा के मनियाँदेव कौन हैं । पहली बात यह है कि मनियाँदेव (पुरुष) नाम बहुत पहले से लोकमुख में प्रचलित रहा है, अतएव उन्हें मनियाँदेवी (स्त्री) मानना सही नहीं है । दूसरे, ठआल्हा' गाथा या ठआल्हखंड' (रचनाकाल 1182 ई. -1200ई.) में मनियाँदेव ही उल्लिखित हैं, मनियाँदेवी नहीं । तीसरे, आज भी लोक उन्हें मनियाँदेव के नाम से पुकारता है । चौथे, काशी नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित ठपरमालरासो' (16वीं शती) में उन्हें देव (पुरुष) ही कहा गया है । दसवें सर्ग के छंद 400-402 में ठदेव' शब्द का प्रयोग है तथा रानी मल्हन की विनय-ठतुम चंदेलन बंस राख आये' में भी क्रिया पुÏल्लग कर्ता की है ।

कविवर द्विज हरिकेश के इतिहास-ग्रंथ ठजगतराज की दिग्विजय' (1722-23 ई.) में आये दो छंदों से एक समाधान स्पष्ट हो जाता है-

(1) तिहि समय ऐलविल-3 पार्·ा मणि, दै चंदेल कहि हित सहित ।

मणि देव यक्ष रक्षक सुपुनि, धन कलाप प्रति नित्य नित ।। 500।।

(2). जब ससि चंद्रब्राहृ उपजाये, यज्ञ समय धनपति तहं आये ।

पारस दै मणि देव यक्ष दै, अवनी पर दरसन प्रतक्ष दै ।। 673-4 ।।

पहले छंद में पारस मणि के साथ (पार्·ा मणि) यक्ष रक्षक ठमणिदेव' का स्पष्ट उल्लेख है । दूसरे छंद में यज्ञ के समय धनपति (कुबेर) का आना तथा पारस और ठमणिदेव' यक्ष प्रदान करना उसी की पुष्टि करता है । पारस मणि चंदेलों के पास थी । उसका उल्लेख ठआल्हा' गाथा या आल्हखंड में है-"पारस पथरी है महुबे मा, लोहा छुअत सोन हुई जाइ ।" और लोकमुख में आज तक जीवित है । ठमहोबा खंड' और ठपरमाल रासो' में भी पारस मणि की चर्चा है । ठमहोबा खंड' में लिखा है कि पारस मणि की भेंट चन्द्र देवता ने दी थी,-5 परन्तु यह सही नहीं है, क्योंकि पारस मणि के स्वामी यक्ष ही थे । ठपरमाल रासो' में उसे प्रदान करने का कार्य धनपति या कुबेर करते हैं-"कुब्बेर अति सुख पाय । पारस्स मनि दिय आय ।।"

अब पारस मणि के रक्षक मणिदेव यक्ष के संबंध में जिज्ञासा होती है, जिनका उल्लेख ठजगतराज की दिग्विजय' में किया गया है । वस्तुतः मणि के स्वामी और रक्षक मणिभद्र या मणिभद्र यक्ष यक्षों के राजा थे । अतएव मणिदेव मणिभद्र ही थे, जो बाद में मनियाँदेव के नाम से प्रसिद्ध हुए । मणि या माणि से बुंदेली में मनियाँ हो जाना सहज है । मणिवाले सर्प को मनियारे कहा जाता है, इसी तरह मणि वाले देव का मनियारेऊमनियाँ देव होना भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से सही है और लोकप्रचलन में भी संगत है । चंदेलकाल में यक्ष-पूजा का प्रचलन था । नाटककार वत्सराज ने जो कि अपने को चंदेलनरेश परमर्दिदेव का अमात्य कहता है, ठरूपकषटकम्' की रचना की थी । उसके एक नाटक ठकर्पूरचरितभाणः' पृ. 32 में भगवान् मणिभद्र की पूजा का वर्णन है ।-7 स्पष्ट है कि मणिभद्र की पूजा का प्रचलन चंदेलों के समय में भी था ।

बुंदेवखंड में यक्ष-पूजा बहुत प्राचीन है । भरहुत के शुंगकालीन स्तूप में यक्षों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । पवॉया में नागकालीन यक्ष-मूर्तियाँ अधिक संख्या में प्राप्त हुई हैं । इस प्रामाणिक अधार पर यहाँ यक्ष-पूजा का प्रचलन ईसा से सौ वर्ष पूर्व हुआ था और 150 ई. से 350 ई. तक उसका उत्कर्ष ऐतिहासिक सिद्ध हुआ । गाँव-गाँव में यक्षों के चबूतरे बन गये । एक कहावत है कि ठगाँव-गाँव कौ ठाकुर गाँव-गाँव कौ बीर ।' बीर यक्ष ही थे । पीपल के बरमदेव यक्ष ही हैं । वे लोकदेवता की तरह दीर्घकाल तक मान्य रहै । ठठाकुर' गौंड़ देवता हैं, जो ग्राम की रक्षा करते हैं । दैनों लोकप्रिय रहे, पर उच्च वर्ग में बीर ही स्वीकृत हुए ।-8 असल में, बीर या यक्ष हर प्रकार की सिद्धि के दाता हैं । तुलसीदास ने विनयपत्रिका में लिखा है-

बीर महा अवराधिये साधे सिधि होय ।
सकल काम पूरन करै जानै सब कोय ।।
बैगि, बिलम्ब न कीजिए लीजै उपदेस ।
बीज-मंत्र जपिये सोई जो जपत महेस ।।
प्रेमवारि तर्पन भलो घृत सहज सनेह ।
संसय-समिधि अगिनि-छमा ममता-बलि देह ।।
अघ उचाटि मन बस करै मारै मद मार ।
आकरषै सुख संपदा संतोष बिचार ।
जे यहि भाँति भजन किये मिले रघुपति ताहि ।
तुलसीदास प्रभुपथ चढ¬ो जो लेहु निबाहि ।। 108 ।।

स्पष्ट है कि यक्ष-पूजा इस अंचल में 16वीं शती में भी रही । यक्ष की मूर्तियाँ महाकाय और सुंदर होती थीं, क्योंकि यक्ष शारीरिक सौंदर्य और शक्ति के प्रतीक थे । यक्ष-प्रश्न उन्हें प्रतिभा के धनी सिद्ध करते हैं । धन-सम्पदा के लिए यक्षों की आराधना होती थी । इसीलिए यजि चंदेलों के आदि पुरुष ने अर्थ, बल, प्रतिभा आदि सभी सिद्धियाँ प्राप्त करने के लिए मणिभद्र देव की पूजा की हो, तो

Click Here To Download Full Article

>>Click Here for Main Page  

Courtesy: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र