बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - सुअटा या नौरता (Suaata Ya Naurata)
बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास
सुअटा या नौरता (Suaata Ya Naurata)
सुअटा या नौरता कुमारी कन्याओं द्वारा खेला जाने वाला एक अनुष्ठानपरक खेल है, जोकि आ·िान-शुक्ल प्रतिपदा से नौ दिन तक चलता रहता है।इ स आख्यानक खेल का सबसे महत्त्वपूर्ण पात्र 'सुअटा' है, इसीलिए उसका नाम 'सुअटा' पड़ा है। नवरात्रि में खेले जाने के कारण और शक्ति से जुड़े होने से उसे 'नौरता' कहा गया है। पहले आ·िान शुक्ल पूर्णिमा को स्कंदमह नामक उत्सव मनाया जाता था, जिसमें स्कंद की पूजा होती थी, फिर क्वाँरी कन्याओं द्वारा गौरी की पूजा होने लगी और दोनों उत्सवों को मिलाकर एक कर दिया गया, जिसे कोई सुअटा और कोई नौरता कहने लगे। सुअटा की पहचान विस्मृति के गर्भ में चले जाने से अबइ स खेल की कथा में कई प्रश्नचिन्ह लग गये हैं और विद्वान् व्याख्याकारों ने लोक की चिंता न करते हुए जो प्रच्छन्न निष्कर्ष निकाले हैं, उनसे विवादों के दायरे बन गये हैं। वस्तुतः किसी भी लोकोत्सव या लोकखेल की व्याख्या लोकदृष्टि से ही होना उचित है।
लोकप्रचलित कथा
इस खेल के प्रमुख आधार के रूप में समस्त बुंदेलखंड जिस कथा को महत्त्व देता है, वह एक दानव, राक्षस या भूत से संबंधित है। सुअटा दैत्य-दानव या भूत था, जो कुमारी कन्याओं को सताता था। एक वर्णना के अनुसार वह उनको पकड़कर खा जाता था, जबकि दूसरी वर्णना के अनुसार वह कन्याओं से छेड़छाड़ करता था और तीसरी जनश्रुति में उनका अप्रहरण कर उन्हें संकट में डालता था। इन कारणों से कन्याओं को उसकी पूजा करने को विवश होना पड़ा । साथ ही उससे रक्षा के लिए उन्हें माँ गौरी से प्रार्थना करनी पड़ी। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर माता ने उस दानव या राक्षस का विनाश कर डाला। इस अंचल के कुछ भूभागों में देवी पार्वती द्वारा राक्षस के संहार का उल्लेख नहीं है, पर वहाँ कुछ क्रिया-व्यापारों के माध्यम से इसका संकेत मिलता है। उदाहरण के लिए, दानव या भूत की मिट्टी की मूर्ति को मिटा देना या उसके अंग-भंग करना, गली में बने उसके चित्र को मिटाना, उसे अपमानित करना, उसकी 'मरग' (अंत्येष्टि भोज) करना आदि।
कथा का एक रूप यह है कि 'सुअटा' और 'मामुलिया' सगे भाई-बहिन थे। मामुलिया ने अपने भाई की अपहरण करने की आदत खत्म करने के लिए अपना बलिदान कर दिया था और अंतिम क्षणों में अपहरण न करने का वचन लिया था। सुअटा ने अपनी तरफ से यह शर्त रखी थी कि यदि कन्याएँ उसकी मूर्ति बनाकर नौ दिन तक पूजा करेंगी, तो वह उन्हें कभी परेशान नहीं करेगा। इसीलिए कुमारी कन्याएँ नवरात्रि में उसकी पूजा करती हैं।
दतिया-वर्णना में एक विशेष तथ्य यह है कि आ·िान-पूर्णिमा को 'सुअटा' की गर्दन 'पड़ा' द्वारा काट दी जाती है। कन्याएँ ढिरिया लेकर माँगी हुई वस्तुओं या धनराशि से सामूहिक भोज करती हैं, जिसे अंत्येष्टि-भोज भी कहते हैं।
कथा का विवेचन
लोकप्रचलित कथा से यह निश्चित है कि नौरता में एक दानव, राक्षस या भूत की पूजा की जाती है और यह पूजा भय की भावना से प्रेरित है। अनिष्ट करने वाले की शक्ति से पराभूत होकर उसे पूजने के कई उदाहरण ग्रंथों में आये हैं। आदिवासी आदिम संस्कृति के युग में अग्नि, वर्षा, मरुत, नाग आदि की पूजा इसीलिए करते थे। रुद्र और स्कंद ऐसे ही देव थे जो भयंकर ग्रहों के कारण पूजित हुए। इसी प्रकार हारीति, षष्ठी, जरा आदि लोकदेवियों की तरह पूजी गयीं। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने लिखा है कि हारीति राजगृह की बालघातिनी कोई क्रूर देवी थी, जो वहाँ के बच्चों को पकड़कर उनका भक्षण कर लिया करती थी। बाद में भगवान् बुद्ध के उपदेश से वह बच्चों की अधिष्ठात्रि देवी बन गयी। भयंकर मातृदेवी के रूप में हर अंचल ने एक लोकदेवी पायी और सबका अन्तर्भाव षष्ठी में हो गया। षष्ठी की पूजा बच्चे की छठी को अवश्य होती है। इसी प्रकार घोर ग्रहों का अंतर्भाव स्कंद में हुआ है। ये ग्रह मांस और मधु के लोभी थे और प्रजा का भक्षण करते थे, इसीलिए स्कंद या कार्तिकेय की पूजा शुरू हुई। डॉ. अग्रवालने स्पष्ट किया है कि ये महाग्रह 16 वर्ष की आयु तक बच्चों के लिए भयंकर रहते हैं। जितने मातृग्रह और पुरुषग्रह हैं, सबको स्कंद ग्रह ही समझना चाहिए (ये च मातृगणाः प्रोक्ताः पुरुषाश्चैव ये ग्रहाः, सर्वे स्कंदग्रहा नाम ज्ञेया नित्यं शरीरिभिः-आरण्यक, 219/42)। अतएव सकंद या कार्तिकेय खोटे या घोर ग्रहों के प्रतीक रूप में लोकपूजित हुए थे और नौरता में बनाया गया तथा पूजा गया भूत, राक्षस या दानव दैत्य यही स्कंद हैं। लोक में उनकी पहचान लुप्त हो गयी,इ सलिए वे राक्षस या भूत रूप में रह गये और इसीलिए उनके वध, मरग आदि की कथाएँ प्रचलित हो गयीं।
भिण्ड में प्रचलित प्रेमकथा में सुअटा
श्रीमती रमा श्रीवास्तव ने भिण्ड में प्रचलित कथा सुनाई थी, जिसका संक्षिप्त रूप इस प्रकार है। बहुत समय पहले किसी राज्य का राजा भीमसेन निस्संतान था। बड़ी साधना-आराधना के बाद उनके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम टेसू रखा गया। राजा उसे राजकाज की सीख देने का प्रयत्न करता था, जबकि उसकी रुचि कविता में थी। जब भी समय मिलता, वह दूर निकल जाता और कविता-गीत सस्वर गाया करता। पास ही, नदी के किनारे एक कुम्हार लड़की झुँझनू ढोर (पशु) चराने आती थी। एक दिन राजकुमार गा रहा था कि उसने वही अपने मधुर स्वर में दुहरा दिया। उसका स्वर राजकुमार कोइ तना भाया कि वह उससे रोज आने और उसकी रचना गाने का आग्रह करने लगा। वह भी रोज निर्धारित समय पर प्रतीक्षा करती। इस तरह दोनों में प्रेम हो गया।
राजा को चिंता हुई कि राजकुमार इतनी देर तक कहाँ रहता है। उसने अपने मंत्री सुअटा को भेजा। सुअटा द्वारा पूरा पता पाकर राजा ने राजकुमार और झुँझनू के पिता से बातें कीं। राजकुमार और झुँझनू एक-दूसरे से ही विवाह के लिए प्रतिबद्ध थे। जब वे नहीं माने, तब उन्हें कारागार में बंद कर दिया गया। एक रात वे वहाँ से भागकर जंगल पहुँच गये और झोपड़ी बनाकर बस गये। शुभ मिती में जब वे शादी कर रहे थे, तब सुअटा पता लगाकर वहाँ पहुँच गया। उसने बाधा डाली, जिसके कारण एक युद्ध-सा मच गया। अंत में वे दोनों तो मार डाले ही गये, सुअटा भी जीवित न बच सका।
इस कथा में सुअटा दो प्रेमियों के विवाह में बाधक तत्त्व है, इसलिए उसका मारा जाना लोकमान्यता प्राप्त कर लेता है। लेकिन नौरता में सुअटा की पूजा के आधार की बुनावट इस कथा में नहीं है। इस कारण उसका प्रसार इतना अधिक नहीं हो सका। इस कथा में झुँझनू को निम्न जाति का कहकर अंतर्जातीय प्रेमसूत्रों को मजबूत किया गया है। एक क्षेत्र में इस खेल को निम्न जातियों द्वारा खेला जाने वाला बताया गया है (पृथ्वीपुर, जिला टीकमगढ़ से लिया गया सात्क्षात्कार)। सकंद के घोर गणों की आकृति भूत-प्रेतादि की भाँति बतायी गयी है। यही कारण है कि नौरता में उसे भूत-प्रेत की तरह दैत्याकार, भयंकर और उलेटे पाँव वाला अंकित किया गया है। 'नारे सुअटा' की पुनरावृत्ति हर गीत में होती ह
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Courtesy: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र