बुंदेलखंड में विकास के नाम पर विनाश का आमंत्रण
बुंदेलखंड में विकास के नाम पर विनाश का आमंत्रण
पर्यावरण दिवस के नाम पर हर साल मनाये जाने वाले इस दिन, जानकार और स्वयं सेवी संस्थाओं के लोगों ने गम्भीर चिंतन और मनन किया । कुछ लोगों को पर्यावरण जागरूकता के लिए पहल का संकल्प भी लिया हैं । ये अलग बात है की कुछ इस अभियान में जीवन पर्यन्त लगे रहते हैं और कुछ शमशान के ज्ञान की तरह घर पहुँचते ही इसे भूल जाते हैं । यही हालात बुंदेलखंड जैसे इलाके की भी है , जहां के अतीत की जीवन शैली भले ही प्रकृति के अनुकूल रही हो किन्तु वर्तमान की जीवन शैली , लालशा,और बढ़ती आबादी के बोझ ने लोगों को प्रकृति से दूर कर दिया । इसमें जितने हम और आप जिम्मेदार हैं उतनी ही प्रयोग वादी सरकारें भी जिम्मेदार हैं । विकाश की आंधी में शहरी संस्कृति को बढ़ावा दिया गया ,प्रकृति और पर्यावास को नष्ट कर विनाश को आमंत्रित किया गया । इसी का परिणाम है की प्राकृतिक विपदाओं का बार बार सामना करना पड रहा है ।
कभी बुंदेलखंड का इलाका एक घने वन क्षेत्र के तौर पर जाना जाता था । लोगों के जीवन का आधार यही वृक्ष थे , अचार ,महुआ ,तेंदू , आम और आंवला ऐसे वृक्ष थे जो यहां के लोगों की आय के मुख्य श्रोत थे । वनों में पाई जाने वाली जड़ी बूटियाँ लोगो के हर मर्ज की दवा थी । आज हालात ये हैं कि उत्तर प्रदेश वाले इलाके में मात्र 7. 92 फीसदी और मध्य प्रदेश वाले इलाके में 29. 9 फीसदी वन क्षेत्र बचा है । उत्तर प्रदेश वाले वाले बुंदेलखंड इलाके के ललितपुर में 15 फीसदी चित्रकूट में 16. 4 फीसदी , झाँसी में 6 . 9 जालौन में 5. 6 फीसदी , हमीरपुर में 6. 2 फीसदी , महोबा में 4. 2 फीसदी और बांदा जिले में मात्र 1.2 फीसदी ही वन क्षेत्र हैं । दूसरी तरफ मध्य प्रदेश वाले इलाके के छतरपुर जिले में 24. 8 फीसदी , टीकमगढ़ में 13. 7 फीसदी , पन्ना में सर्वाधिक 42. 6 फीसदी , दमोह में 2 6. 8 फीसदी ,सागर में 29 . 1 फीसदी और सबसे कम 8. 4 फीसदी वन क्षेत्र दतिया जिले में हैं । ब्रिटिश शासन काल में 1894 में पहली राष्ट्रीय वन नीति बनाई गई , आजादी के बाद 1952 में राष्ट्रीय वन नीति बनाई गई । इस नीति में देश के एक तिहाई भू भाग को वनाच्छादित रखने का लक्ष्य रखा गया था । आंकड़े बताते हैं की देश का सिर्फ 21. 23 फीसदी हिस्सा वनाच्छादित है । मध्य प्रदेश में 30. 72 फीसदी और उत्तर प्रदेश में 6. 88 फीसदी वनक्षेत्र है । आंकड़ों की ये भाषा बताती है की बुंदेलखंड इलाके में वनों के विनाश में कोई कसर नहीं छोड़ी गई । वनों के विनाश का ही परिणाम है की जल स्तर में तेजी से गिरावट हुई , बीहड़ो का विस्तार हुआ । अतीत में जो हरियाली लोगों को लुभाती थी आज उसकी जगह वीरानी छाई है । भूमि की नमी समाप्त हो गई है और मानव व अन्य जीव बून्द बून्द पानी के लिए मोहताज है ।
प्रकृति के इस विनाश की कीमत लोगों को चुकाना पड़ रही है , पर सरकार के विकाश का संकल्प देखिये वह छतरपुर जिले के बक्स्वाहा रेंज में आस्ट्रेलियन माइनिंग कम्पनी रिओ टिंटो को हीरा खोदने के लिए 50 हजार व्रक्षो की बलि देने की तैयारी में जुटी है । ये वो इलाका है जहां बड़ी संख्या में वन्य जीवो का आवास है यहाँ बहती नदी उनके जल का श्रोत है , दुनिया में लुप्त हो रहे बाघों और गिद्धों का बसेरा है । ऐसा नहीं की प्रशासनिक स्तर पर इसका विरोध ना हुआ हो , तत्कालीन कलेक्टर उमाकांत उमराव ने इसका विरोध अपने तरीके से किया तो उन्हें अचानक छतरपुर स्थानांतरित कर दिया गया था । अब सब कुछ मल्टी नेशनल कम्पनी के हिसाब से चल रहा है , इसलिए उम्मीद है की जल्दी ही दुनिया का सबसे बेहतरीन किस्म का हीरा निकालने में रिओं टिंटो सफल हो जायेगी । रही बात जीवन की तो जीवन देने वाले वृक्ष जब नष्ट कर देंगे तो बुंदेलखंड के ये लोग कब तक ज़िंदा रह पाएंगे । , फिर ना कोई विरोध होगा ना कोई अवरोध ।
बुंदेलखंड में वनों के विनाश की सरकारी पहल सिर्फ बक्स्वाहा तक ही सीमित नहीं रहेगी बल्कि इसके लिए पन्ना टाइगर रिजर्व का क्षेत्र भी चुना गया है । यहां केन बेतवा लिंक परियोजना का ढोंढन बाँध बनना है । जिसमे बड़ी तादाद में व्रक्षो को काटा जाएगा , गाँव विस्थापित होंगे और वन्य जीव प्रभावित होंगे । सरकार देश के तमाम पर्यावरण जानकारों के विरोध के बावजूद कम पानी वाली केन नदी को बेतवा नदी से जोड़ा जाएगा ।
वनों के विनाश में खनिजों के वैध और अवैध उत्खनन ने भी महत्व पूर्ण भूमिका अदा की है । हरी भरी पहाड़िया जो जैव विविधिता के महत्व पूर्ण केंद्र थे उनको समतल मैदान और गहरी खाइयों में बदल दिया गया । विनाश के इस विकाश में सरकार , प्रशासन , पॉलिटिशियन और खनिज माफियाओं का महत्व पूर्ण योगदान रहा । पत्थर खदान के नाम पर , क्रेशर बेशकीमती मिनिरल्स के नाम पर सरकार ने खनन के कारोबार को बढ़ाया किन्तु इसमें पर्यावरण के नियमों की जम कर अनदेखी की गई । खनन के इस खेल में मिटटी मुरम और रेत के खनन में तो जैसे वैध अवैध का कोई भेद ही नहीं रह गया । जिसकी जहां मर्जी वहां से रेत निकालता और बाजार में बेच आता । केन नदी की रेत पर तो जैसे माफिया राज ही चलता है । रेत के इस अवैध खनन में सियासत के नामधारी लोग भी लिप्त हैं , जो रेत के परिवहन के लिए अवैध पुल का निर्माण कर रेत उत्तर प्रदेश के इलाकों में बेचते हैं । खजुराहो सेंड के नाम से यह रेत रीवा गोरखपुर तक पहुँचती है ।
सवाल यही खड़ा होता है की आम जन मानस पर्यावरण के मुद्दे पर कितना सजग और कितना चेतना शून्य है । आज गाँवों से भी प्रकृति से जुड़े दोना पत्तल गायब हो गए हैं , कुल्ल्हड़ तो देखने को नहीं मिलते । बाजार में सब्जी वालों से भी हम पॉलीथिन मांग कर सब्जी खरीदते हैं , थैला लेकर चलना लोगो की शान के खिलाफ हो गया है । जब हम रोजमर्रा की जिंदगी में पर्यावरण के प्रतिकूल आचरण करेंगे तो कैसे उम्मीद करेंगे की वातावरण में सुधार होगा । इस मामले में छतरपुर जिले के प्रमुख धर्म स्थल जटाशंकर धाम के ट्रस्ट अध्यक्ष अरविन्द अग्रवाल ने जरूर प्रशंसनीय पहल की है । उन्होंने मंदिर परिषर में किसी भी दूकान पर पॉलीथिन के उपयोग पर पूर्णतः प्रतिबन्ध लगा रखा है और उसका सख्ती से पालन भी करवा रहे हैं । वरना पॉलीथिन के उपयोग पर प्रतिबन्ध तो कई नगर पालिकाएं और नगर पंचायत लगाए हैं पर पालन कहीं नहीं होता ।
By: रवीन्द्र व्यास