Diwari Dance of Bundelkhand बुंदेलखंड का दिवारी नृत्य



Divari Dance of Bundelkhand बुंदेलखंड का दिवारी नृत्य

Author - डॉ. जनार्दन प्रसाद त्रिपाठी  (एम. ए., बी. एड., पी. एच. डी.) 



पौराणिक पृष्ट भूमि

दीवारी नृत्य की व्युतपत्ति: दीवारी नृत्य का उद्भव भगवान राम के समय : लंका विजय के उपरान्त अयोध्या पहुँचनें पर हुआ। उस समय अयोध्या में हर्षोल्लास का वातावरण था। लाखों की संख्या में दीप प्रज्जवलित किये गये। इस समारोह को दीपावली या दीवाली का नाम दिया गया। इस अवसर पर जिस विशेष नृत्य की प्रस्तुति हुयी उसे 'दीवाली नृत्य' का नाम दिया गया। आगे चलकर अपभ्रंश होकर इसे 'दीवारी नृत्य' कहा जाने लगा। इस नृत्य का प्रारम्भ भले ही भगवान राम के समय हुआ हो, परन्तु इसका कृमिक विकास द्वापर युग में भगवान कृष्ण के समय हुआ।

दीवारी नृत्य की व्युत्पत्ति द्वापर युग में भगवान कृष्ण के समय से हुयी। इसका प्रारम्भ भगवान कृष्ण के बाल्यकाल के समय से हुआ। उस समय कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था थी। जिसके लिये गौवंश का होना आवश्यक था। भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलराम अस्त्र के रूप में हल धारण करते थे। इससे स्पष्ट है कि उस समय कृषि कार्य के लिए भी हल का प्रयोग होता था। घी, दूध, दही और छाछ के लिए गायों को पाला जाता था। इनसे उत्पन्न बछड़ों और बैलों का प्रयोग कृषि कार्य में होता था। भगवान कृष्ण का गायों के प्रति प्रेम जग जाहिर है। कुछ विद्वानों का मत है कि कृषि से सम्बन्धित होने के कारण ही भगवान का नाम कृष्ण पड़ा।

अखिल भारतीय आत्मक समाज की सर्वोदयी नेता एवं राज्य सभा सदस्य दीदी निर्मला देशपाण्डे के साथ मॉरीशस में दीवारी नृत्य कलाकार..... साथ में रमेश पाल 

योग गुरु बाबा रामदेव जी से आशीर्वाद प्राप्त करते रमेश पाल एवं दीवारी नृत्य कलाकार.....

 

संगीत नाटक अकादमी, नई दिल्ली 29 जून 2018 को श्री अश्वनी शर्मा के साथ दीवारी नृत्य कलाकार (बीच में श्री अश्वनी शर्मा व उनके बाई और श्री रमेश पाल ) 

भगवान कृष्ण जब बाल्यकाल में ग्वालों के साथ जंगल में गौ चराने जाते थे, उस समय लकड़ी के छोटे डण्डों को लेकर भी नृत्य किया करते थे। यह छोटे डण्डे छोटे ग्वाल बालों के लिए सर्वथा उपयुक्त थे। भगवान कृष्ण को संगीत और नृत्य बहुत पसन्द था । उनका प्रिय वाद्य यंत्र बाँसुरी थी। बाँसुरी प्राय: बाँस की बनीं होती थी। इसीलिये हलधर पूजन (हरछठ) के दिन विभिन्न अनाजों के पूजन के साथ बाँसुरी का भी पूजन किया जाता है। कृषि कार्य के लिए हल चलानें के लिये बैलों का प्रयोग होता था। बैलों को हल में जोतने (हल चलाने के लिये) के लिए एक लकड़ी का उपकरण का प्रयोग किया जाता था, जिसे जुआँ कहते थे। इसमें चूँकि दो जुड़वा बैलों को जोता जाता था, | अतः यह उपकरण जुआँ कहलाया। आज भी गाँवों में देशी हल से होने वाली प्राचीन परम्परागत खेती में इसका प्रयोग देखा जा सकता है। इसका प्रयोग खेत जोतनें, उसकी बुवाई करने में होता था। बैलगाड़ी से फसलों की ढुलाई होती थी। यह यातायात का भी साधन थी। जुआँ में बैलों का प्रयोग करते समय दोनों बैल इधर-उधर न जाकर सीधे चलते थे, इसके लिए दो छोटे डण्डों का प्रयोग किया जाता था, जिन्हें शैला या सइला कहा जाता था। आज भी इनका प्रयोग होता है।

बाल्यकाल की छोटी उम्र में ग्वालबालों के लिए लकड़ी के ये शैले (छोटे डण्डे) घरों में सरलता से उपलब्ध होते थे। इन छोटे डण्डों का प्रयोग बाल गोपाल, कृष्ण जी के साथ नृत्य में करते थे। आगे चलकर यहीं नृत्य "पाई-डण्डा नृत्य" कहलाया। इन छोटे डण्डों के प्रयोग पाई-डण्डा नृत्य के साथ गुजरात में गरबा एवं चौसड़ नृत्य में भी होता कहने का तात्पर्य यह है कि लकड़ी के यह छोटे इण्डे कई नृत्यों के अपरिहार्य अंग (उपकरण) हैं।

प्रक्रिया

कृष्ण ग्वाल बालों के साथ पाई-डण्डा नृत्य लकड़ी के इन छोटे डण्डों का प्रयोग करते थे। इसमें ग्वाल-बाल गोले के आकार में खड़े होकर घूमते हुये अपनें दोनों हाथों से अपने अगल-बगल दोनों ओर के सखाओं पर उन डण्डों से प्रहार करते थे। उनके सखा इस प्रहार को अपने डण्डों से रोकते थे। यह उपक्रम गोले के आकार में घूमते हुए लगातार चलता था। आज भी दीवारी के पाई डण्डा नृत्य में इसी परम्परा का निर्वाह किया जाता है। किशोर वय के बड़े ग्वाल-बाल छोटे ग्वाल-बालों को अपने कंधे पर बिठाकर उनके हाथों में छोटे डण्डे थमा देते थे। स्वयं दो डण्डे लेकर जमीन में किशोर ग्वाल-बाल उन डण्डों को उपरोक्त क्रम में प्रयोग करते हुए गोले के आकार में घूमते हुये पाई-डण्डा नृत्य करते थे। आज भी पाई डण्डा नृत्य में इसे दृष्टिगत किया जा सकता है। पाई-डण्डा नृत्य दीवारी नृत्य का ही लघु रूप है। इस नृत्य में बाल्यकाल से ही दोनों कलाइयों के साथ भुजाओं को सौष्ठव प्राप्त होता है। इस नृत्य में दोनों कंधों की मजबूती के साथ-साथ ग्रीवा (गर्दन) को सीधा रखने में मदद मिलती है। पीठ का मेरुदण्ड सीधा रहते हुए मजबूत होता है। यह नृत्य घूमनें के साथ-साथ गति, लय एवं संतुलन पर आधारित है। योग में मेरुदण्ड और ग्रीवा (गर्दन) के सीधे होने के महत्व को योग के साधक भली भाँति जानते हैं। विभिन्न आसनों, प्राणायाम एवं ध्यान की साधना की प्रक्रिया में मेरुदण्ड एवं ग्रीवा का सीधा एवं मजबूत होना अपरिहार्य है। योगिराज कृष्ण के लिये अपने साथ-साथ अपनें ग्वाल-बालों के लिए नृत्य के साथ-साथ योग का आधारभूत प्रशिक्षण सर्वथा उपयुक्त था। नृत्य की लय, सांसों की लयबद्धता में सहायक होती है, जो योग साधना में प्राणायाम एवं ध्यान की प्रारम्भिक अवस्था में बहुत उपयोगी होती है। बड़ी उम्र में छोटे-छोटे डण्डों के स्थान पर बड़े इण्डों एवं ठोस बाँस की मजबूत लाठी का प्रयोग होने लगा। खोखले बाँस की बाँसुरी वादन एवं ठोस बाँस की लाठी गोपालन तथा दीवारी नृत्य के लिये उपयोगी थी।

भाव भंगिमा, लय एंव गति

दीवारी नृत्य में ठोस बाँस की लाठी का प्रयोग होता है, यह बाँस की लाठी ही इस नृत्य का मुख्य आधार है। इस लाठी की लम्बाई लगभग 6 फुट होती है तथा वजन 500 ग्राम के आसपास रहता है। इसे प्रत्येक कलाकार अपने साथ लेकर नृत्य में इसका प्रयोग करता है। इसमें वीर रस की प्रधानता रहती है, हुंकार भरी जाती है। प्रतिद्वन्दी को ललकारा जाता है। इस नृत्य की भाव भंगिमा में आक्रोश, गुस्सा एवं साहस प्रदर्शित होता है। लय में गति की तीव्रता बढ़ जाती है। गति की तीव्रता में भी लयबद्धता कमाल का हुनर है। इस नृत्य की पूरी प्रक्रिया में एकाग्रता एवं संतुलन की आवश्यकता होती है। भुजायें फड़कती हैं। इसकी तुलना शिव के ताण्डव नृत्य से की जा सकती है।

यह नृत्य योद्धाओं के युद्ध कौशल पर आधारित है। कहा जाये तो यह एक प्रकार का युद्ध कौशल ही है। पाई डण्डा एवं दीवारी नृत्य संसार के सभी मार्शल आर्ट्स का जन्मदाता है। जूडो-कराटे में तीव्र गति के साथ मजबूत कलाइयों एवं भुजाओं का प्रयोग होता है। कुंग फू जैसे मार्शल आर्ट्स में लाठी डण्डों का प्रयोग होता है। कालान्तर में लोहे के मोटे-मोटे डण्डों का प्रयोग भी होने लगा। इस कला का विकास भारत के बौद्ध मठों से बौद्ध भिक्षुओं द्वारा हुआ। यही से यह तिब्बत, चीन, जापान, कोरिया, लंका, इंडोनेशिया में फैला। ज्ञातव्य है कि जहाँ-जहाँ बौद्ध धर्म का विकास हुआ, उन्हीं देशों से मार्शल आर्ट्स के युद्ध कौशल का विकास हुआ।

दीवारी नृत्य में युद्ध कला का प्रदर्शन करते हुये योद्धा अपने प्रतिद्वन्दियों पर लाठियों से प्रहार करता है। इस माध्यम से उन्हें युद्ध के लिए ललकारता है। अपने कई प्रतिद्वन्दियों द्वारा किये जाने वाले लाठी के प्रहार को रोक कर अपनी रक्षा करता है तथा स्वयं उन पर प्रहार करता है।

दीवारी नृत्य से प्राप्त युद्ध कौशल में भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम को दक्षता हासिल थी। वह युद्ध के हथियार के रूप में 'हल' का प्रयोग करते थे। इसीलिये 'हलधर' कहलावे। हल में एक लम्बे, चपटे मजबूत लकड़ी के डण्डे का प्रयोग होता है, जिसे हरीश कहते हैं। हलधर ने विभिन्न युद्धों के साथ 'महाभारत युद्ध' में इसका प्रयोग किया। इसीलिये दीवारी नृत्य के साथ-साथ युद्ध कौशल भी है।

स्थान

दीवारी नृत्य का उद्गम एवं विकास बुन्देलखण्ड के बाँदा जनपद से हुआ। यहाँ के राजा विराट थे। अज्ञातवास के समय पाण्डवों ने यहाँ निवास किया। कृष्ण यहाँ आ तथा उनके सम्बन्धी भी यहाँ रहते थे। विराट की गायों को कौरवों द्वारा बलपूर्वक ले जाने पर विराट के साथ पाण्डवों ने छद्म वेश पराजित किया था। कौरवों से युद्ध कर उन्हें

डण्डा-पाई एवं दीवारी नृत्य का प्रारम्भ भले ही मथुरा एवं वृन्दावन में हुआ हो, परन्तु भगवान कृष्ण के आगमन से इसका विकास विराटपुरी वर्तमान में बाँदा जनपद में हुआ। 

बाँदा नवाब अली बहादुर जो प्रसिद्ध नृत्यांगना मस्तानी का पुत्र था, उसने इस कला को संरक्षण एवं बढ़ावा दिया।

कृष्ण की बुआ श्रुतिस्रवा, फूफा जद्घोष यहीं रहते थे। चेदि राज्य का राजा शिशुपाल, जद्घोष का पुत्र था । यहाँ भगवान कृष्ण आते-जाते थे। चेदि राज्य की राजधानी को वर्तमान समय में शेरपुर स्योढ़ा गाँव के नाम से जाना जाता है।

इस कला का यहाँ भरपूर विकास हुआ।

बुन्देलखण्ड का बाँदा जिला जहाँ "दीवारी नृत्य" की उत्पत्ति हुयी तथा वर्तमान में श्री रमेश पाल इसके संवर्धन के कार्य में जुटे हुए हैं। 

दीवारी नृत्य के मध्य पिरामिड की आकृति बनाकर तिरंगा फहराकर सलामी देते कलाकार 

दीवारी नृत्य आयोजन पूर्व व्यायाम करते कलाकार

वाद्य यन्त्र

पाई- -डण्डा एवं दीवारी नृत्य में युद्ध के समय प्रयोग होने वाले वाद्य यन्त्र नगाड़ा एवं उसका लघु रूप नगड़िया का प्रयोग होता है। पैर एवं कमर में घुंघरू की पाजेब एवं पेटी का प्रयोग होता है।

वस्त्र

रंग-बिरंगे जाँघिये एवं हार्फ शर्ट की तरह की बंडी का प्रयोग होता है। इसमें लाल रंग की प्रधानता होती है । अन्य रंगों की पट्टियों से इसे आकर्षक रूप दिया जाता है। सर पर पट्टी एवं कमर में फुलरा व पीठ में गलगन्दा बाँ हैं। कृष्ण के अनुयायी होने के कारण मोर पंख भी लगाते हैं।

गायन

इसमें 'टेर' और 'दीवारी' के विशेष गीत एक विशिष्ट शैली में गाये जाते हैं। इसमें अलाप की प्रधानता रहती है। इसकी अन्तिम पंक्ति में दीवारी के गायक का साथ उसके समूह के कई गायक एवं दीवारी नृत्य के कलाकर देते हैं। इस प्रकार इसका प्रारम्भ एकल गायन से प्रारम्भ होकर अपने अन्तिम सोपान में सामूहिक गायन (कोरस) में बदल जाता है।

समय

दीवारी नृत्य का प्रारम्भ भादौं (भाद्र पक्ष) की पंचमी से लेकर दीपावली तक होता है। भादौं की पंचमी से कलाकार इसका अभ्यास (रिहर्सल) गाँव-गाँव में प्रारम्भ करते हैं। इसका श्रेष्ठतम रूप कलाकार दीपावली के समय दक्षता के साथ प्रदर्शित करते हैं।

मौन चराना

“मौन” चराने की परम्परा दीवारी से अभिन्न रूप से जुड़ी है। दीवारी के बाद के पहले दिन परीवा को दीवारी नृत्य के कलाकर तथा अन्य लोग “मौन वृत" का पालन करते हैं। यह लोग कृष्ण के अनुयायी होने के कारण कई मोर के पंखों को एकत्र कर मुठवा बनाकर हाथ में लेते हैं। बंधन के रूप में गाय के पूंछ से बनी रस्सी (नोई) का प्रयोग करते हैं। इस दिन गायों को रस्सी एवं खूंटे से नहीं बांधा जाता है। यह भगवान कृष्ण की प्रिय गायों की स्वतंत्रता का प्रतीक है। इस दिन ज्वार के खेत लेकर 'मौन' व्रत रखने वाले, जिन्हें 'मौनिहा' कहा जाता है। गायों को चरने के लिये छोड़ देते हैं।

मौन चराने की परम्परा भी भगवान श्रीकृष्ण के पौराणिक कथानक से जुड़ी है। जब भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को ग्वाल-बालों के लाठियों एवं डण्डों के साथ उठाया था। उन्होंने ग्वालों को 'मौन' रहकर एकाग्र चित्त रहने को कहा था, जिससे सन्तुलन बना रहे और शक्ति स्थिर रह सके। यह भगवान कृष्ण द्वारा सामूहिक योग का प्रदर्शन था। इसीलिये इस दिन ‘मौनिहा' मौन व्रत रखते हैं और पाँच गांवों में पहुँचकर या पाँच गाँवों की सीमा को छूकर आने के बाद अपना मौन व्रत तोड़ते हैं। विवेकानन्द के अनुसार 'मौन' आत्मशक्ति को बढ़ाता है।

दीवारी नृत्य का प्रचलन वर्तमान समय में अहीर, गड़रिया, पाल जाति के मध्य अधिक देखने को मिलता है। 'मौन' सभी चराते हैं।

मोर पंख हाथ में लेकर “मौन चराते” दीवारी नृत्य के कलाकार 

कार्यशाला को सम्बोधित करते दीवारी नृत्य कलाकार श्री रमेश पाल 

अन्तर्राष्ट्रीय कला महोत्सव, बंगलुरू (कर्नाटक) में दीवारी नृत्य कलाकार 

पाई-डण्डा एवं दीवारी नृत्य के संरक्षण, संवर्धन के लिये समर्पित कलाकर रमेश पाल 

रमेश पाल बुन्देलखण्ड के बाँदा जनपद के बड़ोखर खुर्द गाँव निवासी एक ऐसे समर्पित कलाकर हैं, जो इस लुप्त हो रही लोककला को बचाये रखने के लिये संघर्षरत है। वह अपने परिवार की इस पारम्परिक धरोहर को संजोये हुये उसके विकास के लिए निरन्तर प्रयत्नशील हैं। उनके इस प्रयास को राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा एवं स्वीकारोक्ति मिली है। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर अनेकों पुरस्कार सरकार, स्वैच्छिक जगत एवं विभिन्न कला मंचों से प्राप्त किये हैं। उनके द्वारा अनेक संस्थाओं ने छात्र/छात्राओं को प्रशिक्षित कराया है।

उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने सम्मानित किया है। गणतन्त्र दिवस 2005 के पावन अवसर पर उनकी प्रस्तुति लाल किले के सामने हुई है। दिल्ली में आयोजित कॉमन वेल्थ गेम के अवसर पर उनकी प्रस्तुति पर भूरि-भूमि प्रशंसा की गयी। सर्वोदयी नेता श्रीमती निर्मला देशपाण्डे के साथ मॉरीशस में भी उन्होंने अपनी टीम के साथ प्रस्तुति दी है।

बुन्देलखण्ड साहित्य एवं संस्कृति परिषद भोपाल (म.प्र.) की ओर से 2009 में पुरस्कृत हुये हैं। जालंधर (पंजाब) में अखिल भारतीय रचनात्मक समाज की ओर से वर्ष 2004 में अन्तर्राष्ट्रीय अमन की प्रस्तुति को सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन का पुरस्कार मिला। गुजरात इण्डस्ट्रीज नवरात्रि फेस्टिवल सोसाइटी, गांधी नगर में वर्ष 2007 में पुरस्कृत किये गये। प्रसिद्ध भोजपुरी लोक गायिका पद्मश्री मालिनी अवस्थी की संस्था 'सोन चिरैया' ने पुरस्कृत किया। 'लोकलय’ समाजसेवा संस्थान, न्यास, सांस्कृतिक कलामंच, उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र (भारत सरकार) ने पुरस्कृत किया। ने अब तक 2000 हजार छात्र/छात्राओं को इस नृत्य में श्री रमेश पाल द्वारा प्रशिक्षित किया जा चुका है।

श्री रमेशपाल अपनी संस्था 'नटराज जन कल्याण समिति' के माध्यम से इस लोक कला को जीवित बनाये रखने तथा आगामी पीढ़ी को हस्तान्तरित करने के लिये संघर्षरत हैं। आप सभी के सहयोग, समर्थन एवं आशीर्वाद की आवश्यकता इस कलाकार एवं उनकी संस्था को हमेशा बनी रहेगी। इनसे निम्न पते पर सम्पर्क किया जा सकता है

  • श्री रमेश पाल, दीवारी नृत्य कलाकार सचिव, नटराज जन कल्याण समिति
  • ग्राम व पत्रालय- बड़ोखर खुर्द,
  • जिला बाँदा, पिन- 210001 ( उ०प्र० )
  • मोबाइल - 9838978057
  • ईमेल- natrajjankalyansamiti@gmail.com


दीवारी गीत

सुमिरनी - सदा भवानी दाहिनी, सनमुख रहे गणेश । तीन देव रक्षा करें, ब्रह्मा, विष्णु, महेश ।।

टेर - वृन्दावन बसवौ तजौ, अरे हौन लगी अनरीत। तनक दही के कारने, बहिया गहत अहीर।।

दीवारी -

1. राम लखन वन को गये कर गये अवध निराशा रे नृप दशरथ व्याकुल भये सुरपुर कीन्हो वासा रे ।।

2. अगहन शुक्ला अष्टमी सैन सहित भगवाना रे । उतरा फागुन नखत माँ लंका कियो पयाना रे ।।

3. सुनों उमा बरनन करौ राम कथा सुखधामा रे । नारदमुनि के श्राप के धरे मनुज तना रामा रे ।।

4. पहिले सुमिरौ धरती माता का, दूजै भवानी तोया रे । तीजो सुमिरौ अपनी माता का, जो कुंछा में डारे नहीं नवमासा रे ।।

5. सावन माँ सजी कजलियाँ और भादौं सजी पूछारा रे । कार्तिक माँ सजे मौनियाँ, सो लहे गऊ के पूंछा रे ।।

6. देश दीवारी दस दिन की, भइया गउरा माँ बारौ मांस रे । नित राही गोधन धरय, कॉन्हा खिलावै गाया रे ।।

7. दीवारी घुरावै नदी पार से, सुन मल्लाहे बाता रे नदी पार उतार दे, कार्तिक निकरो जाता रे ।।

8. हम पंछी तुम केवला, सदा रहै भरपूरा रे । हाड़ चाम चाहै जहाँ रहै, पर प्राण तुम्हारे पासा रे ।।

9. राधा निकरी ती पनिया का, कृष्ण उबेरी गाया रे । जैसी पियारी तोरी मांथे की बेंदी, वैसी पियारी मोरी गाया रे ।।

10. सरस्वती बरनन करौ, गुरुचरनन की आशा रे । ग्राम बड़ोखर खुर्द बसो है, तिन्दवारा के पासा रे।।

11. ठुमुक ठुमुक ढोलवा बाजै, जेरा लहरियाँ लेया रे । सास ननदिया बारे कै बैरिन, ढोलवा न देखन देया रे ।।

12. राधा जी के बाग मां, फूलो फूल सफेदा रे राधा पूंछा कृष्ण से, सो कृष्ण नाम नहीं लेया रे।।

13. चम्पा त्वहमा तीन गुन, रंग रूप और बांसा रे । और गुण त्वहमा कौन है, कि भौंरा न आवय पासा रे ।।

14. चम्पा राधा बरन है, भंवर कृष्ण का दासा रे । माता अपनी जान कै, भंवरा न आवै पासा रे ।।

15. देवी मनावैं मैं चली, लै ओली भरा आ फूला रे । देवी मनायें न मानै तौ, सूखे ओली के फूला रे।।

16. लाल ग्वाल को संग लै, कुंज गलिन से आना रे। आन सखी को छेड़ कर, लेत है दही का दाना रे ।।

17. ब्रज चौरासी कोष में, चार गाँव निज धामा रे। ब्रन्दावन और मधपुरी, बरसानो नंदगांवा रे ।।

18. दूधा पीके आई दीवारी औ, बैठी बरा की डारा रे I आवत-आवत बहुत दिन लागे और जातय न लागे देरा रे।।

19. गांई चरावै दोई जने, इक बुड्ढा एक ज्वाना रे I बुढा बैठे झूला झूले, ज्वान बह्वारे गाया रे ।।

20. माता मरे से कलेउना छूटगा, भाई मरे से बांहा रे। बहनी मरे से बहनोई छूटगा, पिता मरे से राजा रे ।।

21. बे पत्तन कै महुली रौववे, बे सींगन के गाया रे । बिना विरन कै बहनी रोवै, गलियां बिसूरत जाया रे।।

22. धरती केर कुचझ्या लैगय, चील उड़ाया रे । अरै गुनी मैं तुमसे पूछौ, कहाँ बैठ के खाया रे।।

23. धरती खोदे जल मिलय, मिन्त्र मिलय परदेशा रे। माता का जन्मों फिर न मिलै, भटकय चारौ देश रे।।

24. तेलीन बड़ी पूजेरिन पूजै, बरा कै डारा रे। आओ हाड़ी लैय गा खखरिया, पूजै मनुष के हाड़ा रे।।

25. छत्रसाल तोरी राज मां, धिक-धिक धरती होया रे। ज्यो-ज्यो घोड़ा पग धरयै, त्यों-त्यों हीरा होया रे।।

26. हती हमारी गिर गई, गई पिया के पासा रे उन माँगी हम दय दई, तासे चली निराशा रे ।।

27. जग में जब-जब जुल्म भे, सहि न सही मही भारा रे। तब तब हरी ने है लियो, मनुज रूप औतारा रे ।।

संदर्भ ग्रन्थ

1- रामायण - महर्षि वाल्मीकि

2- श्रीराम चरित मानस गोस्वामी तुलसीदास

3- महाभारत विराटपर्व एवं युद्ध पर्व वेदव्यास

4- श्रीमद्भगवत गीता

5- योगसूत्र - पतंजलि

6- नृत्य एवं ध्यान आचार्य रजनीश (ओशो) -

7- राज योग, कर्म योग, ध्यान योग- स्वामी विवेकानन्द

8- योग- धीरेन्द्र ब्रह्मचारी

9- भावातीत ध्यान महर्षि महेश योगी

10- आर्ट ऑफ लिविंग - श्रीश्री रविशंकर

11- धम्म पद बौद्ध साहित्य

12- बौद्ध धर्म- दलाई लामा

13- जूडो कराटे, फुंग शू आलेख- ब्रूस ली

14- मस्तानी एहसान आवारा

15- रिपब्लिक प्लेटो

16- द पॉलिटिक्स- एथेंस एवं स्पार्टा वाला अध्याय - अरस्तू 

17- गोरिल्ला वार आलेख फिदेल कास्रो, चे ग्वारा

18- सोन चिरैया पाती - सम्पादन, पद्मश्री भोजपुरी लोक गायिका मा० मालिनी अवस्थी

19 बुन्देली संस्कृति दर्शन, पृष्ठ 29 - आचार्य पं. नवल महाराज

20- कलाश्री हिन्दी मासिक पत्रिका, जून 2008, बुन्देलखण्ड शौर्य नृत्य, बाँदा

21- लोक तरंग- नैनीताल फोक डांस फेस्टिवल, 2005, पाई-डण्डा नृत्य

22- केनका, 2003-2004, सूचना एवं जन सम्पर्क विभाग, बाँदा

23- लोकलय वर्ष 2008, पृष्ठ 100, प्रकाशक- समाज सेवा न्यास

24- किशोरिया - बुन्देलखण्ड के नृत्य एवं कलाकार, विशेषांक प्रकाशन, किशोर मंच, सांस्कृतिक कला संस्थान, महोबा, सत्र 1997-98, पृष्ठ 11, दीवारी नृत्य

25- धरोहर, वर्ष 2015, पृष्ठ 36, प्रकाशक- सोन चिरैया, गोमती नगर, लखनऊ

26- शैलजा, वार्षिक पत्रिका, वर्ष 2015, चौ. पहलवान सिंह इण्टरमीडिएट कॉलेज, इचौली, हमीरपुर (उ.प्र.)

27- संजीवनी लोकधारा, अयोध्या शोध संस्थान, अयोध्या, फैजाबाद (उ.प्र.) सैफई महोत्सव

28- साझी विरासत कलाकार निर्देशिका, संस्कृत विभाग, उत्तर प्रदेश, वर्ष 2015-16, पृष्ठ 66 एवं 74

29- Indian Journal of Archaeology, Editor Vijay Kumar, Rock Paintings of Chitrakoot, Page 94, Group of Diwari Dancers trained by Ramesh Pal.