‘लोरी‘ - लोकगीतों की कस्तूरी


‘लोरी‘ - लोकगीतों की कस्तूरी


बच्चों को सुलाने-सुलझानें के लिए स्त्रियों के द्वारा गाया जाने वाला लोकगीत लोरी हैं। स्त्रियों के अनेक भूमिकाएँ होती हैं, माता, बहन, बुआ, दादी, नानी, भाभी, आदि-आदि स्त्री की इन्हीं भूमकियों में लाेरी गायी जाती हैं। स्त्री की एक ओर भूमिका है - ‘पत्नी‘। पत्नी की भूमिका में लोरी गायन निषेध हैं। पत्नी के केन्द्र में प्रणय-भाव हैं जबकि लोरी का अन्तर्गत रस ‘बाल्य‘ है। कबीन्द्र रवीन्द्र के शब्दों में-

‘हमारे अलंकार शास्त्रों में नौ रसों का उल्लेख हैं। पर लोरियों में जो रस प्राप्त हैं वह शास्त्रोक्त रसों के अन्र्तगत नही है। अभी-अभी जोती जमीन से जो गन्घ निकलती है, या शिशु के नवनीत कोमल देह से स्नेह को उबाल देने वाली गन्ध है, उसे फूल, चन्दन, गुलाब, जल, इत्र व धूप की सुगंध के साथ एक श्रेणी में नही रखा जा सकता। सभी सुगन्धों के मुकाबलें में उसमें एक अपूर्व आदिमता है।उसी प्रकार लोरियों में एक आदिन सुकुमारता है। जिसकी मधुरता को को ‘बाल्य‘ रस नाम दिया जा सकता है।

‘बाल्य‘ रस लोरी की प्राण-धार है। लाेरी लोकगीताें की स्निग्ध मुस्कान है। लोरी मातृत्व की सहजता रागिनी है। आदिम माँ के शब्द-लय की लाडली हैं। भाषा और भाव उत्पत्ति के साथ लाेरी की उत्पत्ति को परिभाषित किया गया है। किन्तु भाषा की उत्पत्ति के पूर्व भी माँ के ह्रदय में प्रसव का सुकुमार भाव मौज ूद होता हैं जिसे गुँगी माँ अपने भीतर गुनगुनाती हैं। लोक भल े ही इस े ला ेरी न कहें पर मातृत्व तो इसे स्वीकारता हैं।

मातृत्व स्त्री का अन्यतम रुप हैं। स्त्री-जीवन का सर्वाधिक श्रेष्ठ और सार्थक समय प्रथम गर्भकाल का तीसरा माह होता हैं। गर्भकाल का प्रथम माह अनिश्चिय होता हैं। दूसरे माह में मातृत्वबोध का ऊहापोह रहता हैं। असन्न संकट और सुख की अनुभूतियों की धमा चैकडी मची रहती हैं। वधू-मन में कौख की रेखाएँ कुड़मुडाती हैं। तीसरे माह तक बधु-वन मातृत्व को स्वीकारता हैं। अपने हृदयाकाश में इन्द्र धनुषी स्वप्न उतरता हैं। स्त्री-जीवन में ऐसा बहुमूल्य काल एक ही बार  आता हैं- वह हैं प्रथम गर्भकाल का तीसरा माह। कालान्तर के गर्भकाल सामान्य होते हैं।

लोरी की उत्पत्ति की जमीन और जलवायु आदिम माँ के प्रथम गर्भ काल का यही तीसरा माहीना है। जिसमे ं क्वारी संव ेदना का सिन्दूरी स्पर्श होता है। कोमल भाव और उर्वशी लय का मधु मिलन रहता हैं। रति का सात्विक अभिसार और आंचल की उजली धार का आलिंगन अठखेलियाँ करता है। लोरी में मंत्र-सा सम्मोहन होता है। भौतिक जगत गुरुतव बल से अनुशासित होता हैं। चेतन-सत्य मंत्र शक्ति से अनुशासित होता हैं। किन्तु प्राण-तत्व लोरी की लय पर थिरकता हैं। लोरी मातृत्व का पुष्टतम अनुशासन हैं। आत्म ही नहीं ब्रहा्र भी लोरी के वातसल्य बंधन से बंधा हैं। साध्वी अनसुईया माँ ने त्रिदेंवाे को शिशु बनाकर पालने में डाल दिया था। माता यशोदा की लाेरी सुनकर ब्रहा्र कन्हैया पालनें में झूलनें लगा। सूरदास ने इस वास्तव को भलीभाँति पहचाना है-

यशोदा हरि पालने झुलावै।
हलराबै दुलराय मल्हावै।।
जोय-जोय कुछु गावै।
मोरे लालका आब निदरिया।।
काहे न आनि सुलाबै।‘‘

मातृत्व-बन्धन में बंधकर कृष्ण कैसा कोतूहल करते है। माँ भाव विह्वल है। पुत्र का पालना हिलाती-डुलाती हैं, जो कुछ मन में उमडता है गुनगुनाती है। ‘जोय-सोय‘ कुछ गाती हैं। बालकृष्ण की पलके ढप जाती हैं। यदाकदा अधर हिल उठते है। बाल्य रस का अनूठा परिपाक इस मनोहर झांकी से छलता हैं।

लोरी माँ के प्यार की डोरी है। लाेकगीताे की कस्तूरी हैं। नारी मनकी सारी ममता शिशु को सुलाने में घनीभूत हो जाती हैं। दुनिया भले राग-द्वेष की ज्वाला में जल कर भस्म हो जाये पर माँ का लाडला सुख की नीद सोये कुछ ऐसे ही भाव अवधी लोरी में मुखरित है -

‘‘ आउ रे चिरइआ बन झँझिया लगाइ जा
तोरी झाँझी आगी लागइ
भइया खेलाइ जा, सोबाइ जा‘‘

(अरी चिडिया आ.....................वन में अपना घोसला बनाआे। तुम्हारे घाेसलें में आग लगे, किन्तु मेरे मुन्नें को सुलाजाओ, खिला जाओ।) बघेली लाेरी की अपनी अलग अर्थ छटा है-

‘‘ आउ रे निदिया तइ आउते नही
लाला का हमरे साेबउते नही।‘‘
‘‘ आउ रे चिरइआ तैं परवाना कुलाउ।
तोरे पेटै आगी लागइ लाला का सोबाउ।‘‘

(चिेडिया तुम अपना पंख कड़कडा कर आओ। अरी चिडि़या तुम तो अपनी भूख मिटाने में लगी हाे। तुम्हारी भूख को आग लगे पहले मेरे मुन्नें को सुलाआे।)

By- गाेमती प्रसाद विकल