(लेख "Article") लुप्त होती बुंदेली परम्पराए अब नहीं डलते सावन के झूले - चपेटा को भूली बालिकाए


लुप्त होती बुंदेली परम्पराए अब नहीं डलते सावन के झूले - चपेटा को भूली बालिकाए


बुंदेलखंडी जीवन शैली वैसे तो प्रकृति से सामंजस्य की अदभुत जीवन शैली है । यहां का हर त्यौहार , प्रकृति और लोक रंजन से जुड़ा है । पर अब शायद बुंदेलखंड की इस जीवन परम्परा को भी आधुनिकता का ग्रहण लग गया है । सावन की कई परम्पराए जो कभी लोगों के प्रकृति प्रेम और आपसी समन्वय और प्रेम को दर्शाती थी अब सिर्फ किस्से कहानियो तक सिमट कर रह गई हैं ।

वर्षा ऋतू में जब चारों और हरियाली व्याप्त हो ऐसे में किसका मन प्रफुल्लित ना होगा । ऐसे में बुंदेलखंड के घर - घर में ऊँचे वृक्ष की डाल पर झूले डाले जाते थे । धीरे - धीरे ये गाँव के झूलो तक पहुँच गए । और अब किसी किसी गांव में ही ये झूले और झूलों पर झूलती बालाएं देखने को मिलती हैं | सावन का महीना उल्लास और उमंग का महीना बुंदेलखंड में माना जाता था ।गाँव - गाँव में महिलाये और बालिकाए गाँव में लगे मेहँदी के पेड़ से मेहँदी तोड़ कर लाती थी , उसे पीस कर आपस में लगाती थी , लोक मान्यता थी जिस कन्या के हाथ में जितनी गहरी मेहँदी रचेगी उसे उतना ही सुन्दर पति मिलेगा । पहले गाँव -गाँव में बाल _गोपाल चकरी , भौरा (लट्टू) चलाते , तो कोई बांसुरी की धुन छेड़ते मिल जाता था । वहीँ बालिकाए लाख के कंगन और चपेटों से खेलते मिल जाती थी । अब मेहँदी के वृक्ष बचे नहीं तो बाजार से अपनी सामर्थ्य अनुसार मेहँदी ले आती हैं , ना ही वो घूमते लट्टू रहे और ना चपेटे के साथ हंसती खिलखिलाती बालिकाए । बुंदेलखंड के नगरीय इलाकों से तो परम्पराए काफी पहले लुप्त हो गई थी ।

लोक जीवन की इन परम्पराओ की समाप्ति के पीछे का जो मुख्य कारण है वह आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में हम सब प्रकृति से अलग हो गए हैं । गाँव के घरो में लगे पेड़ कट गए , गाँव में लगे कुछेक वृक्ष किसी ना किसी की बपौती हो गए , उस पर उनके घर के लोगों के अलावा दूसरा कोई जा नहीं सकता । इस तरह से झूला की परम्परा समाप्त हो गई । लट्टू और चकरी पहले गाँव का बढ़ई बना दिया करता था फिर बाजार में मिलने लगे अब वे भी नहीं मिलते । बांसुरी की तान बांस से बनी बांसुरी से ही आ सकती है , उसका स्थान प्लास्टिक ने ले लिया है । चपेटा जरूर खेला जाता है पर बहुत कम क्योंकि लोगों को अब टीवी से ही फुर्सत नहीं मिलती ।

लुप्त हुई सावनी भेजने की परम्परा :

प. रामकृपाल शर्मा बताते हैं की सावन के महीना में बुंदेलखंड में सावनी भेजने की परम्परा थी । यह भी अब समाप्त सी हो गई है इसका स्थान अब पैसों ने ले लिया है । इस परम्परा में विवाहित महिला पहली बार जब सावन के महीने में अपने मायके आ जाती है । तब उसके पति के घर से उसके लिए सोने -चांदी की राखी , कपडे , लकड़ी के खेल खिलौने आदि भेजे जाते हैं ।ससुराल से आई राखी ही बहिन अपने भाई की कलाई पर बांधती है । इसका बाकायदा गाँव के लोगों को निमंत्रण दिया जाता था , वे लोग आकार सावनी में आये सामान को देखते थे । अब सावनी के सामान के स्थान पर पैसा भेज दिया जाता है ।

परम्पराए आपसी सम्बन्ध को मजबूत करने की एक कड़ी थी किन्तु अब ये सिर्फ ओप्चारिक्ताये बन कर रह गई हैं । वे कहते हैं की दरअसल इस दौर में वही सब कुछ हो रहा है जो लोग सुबह से साम तक देखते हैं ?

By: रवीन्द्र व्यास