(News) भोजन का अधिकार एवं काम के अधिकार पर दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला
भोजन का अधिकार एवं काम के अधिकार पर दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला
1. सरकारी योजनाओं में व्याप्त व्यापक भ्रष्टाचार और बी0पी0एल0
कार्ड धारकों के चयन पर उठाये गये सवाल,
2. ग्रीन पीस व आशा नेटवर्क और भारतीय किसान यूनियन ने किया
ब्राई बिल (बायोटेक्नालाजी रेग्युलेटरी अथारिटी आफ इण्डिया), जी0एम0 फसलों का
पूरजोर विरोध,
3. बुन्देलखण्ड़ में हो रही किसान आत्महत्याओं पर रोक के लिये
प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन पर दिया जोर,
झांसी- हृयूमन राइट्स ला नेटवर्क एवं बुन्देलखण्ड आपदा निवारण मंच, अन्य कई समाज सेवी संगठनो के संयुक्त प्रयास भोजन के अधिकार व काम के अधिकार अभियान पर दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला का आयोजन झांसी की वीर भूमि में 27,28 अगस्त 2011 को आयोजित किया गया। इस कार्यशाला में कई राज्यों के स्वतंन्त्र कार्यकर्ताओं, समाजिक संगठनो के साथ-साथ मानवाधिकार कार्यकर्ताआं ने सहभागिता की।
कार्यशाला के प्रथम दिवस भोजन के अधिकार व काम के अधिकार पर सम्बांधन करते हुये मंच का संचालन कर रहे उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट के अधिवक्ता के0के0राय ने बुन्देलखण्ड के सन्दर्भ में सिलसिलेंवार हो रही किसान आत्महत्याओं पर चिंता व्यक्त की। उन्होंने हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा 1 लाख से कम रकम वाले किसानों से कर्ज वसूली के लिये बैंको को रोके जाने के निर्देश की भी बात रखी। के0के0राय ने बताया कि तीन विधि छात्रों ने बुन्देलखण्ड के 62 गांव का भ्रमण कर किसान आत्महत्याओं के जो तथ्य जुटाएं है वह बुन्देलखण्ड की भयावह स्थिति की तरफ संकेत करते है। भोजन के अधिकार की उत्तर प्रदेश कनवेनर बिन्दु जी ने समाजिक संगठनो से साझा अभियान की बात उठाई। उरई की समाज सेवी संस्था परमार्थ के संजय सिंह ने बड़े ही बेबाक शब्दों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के बढ़ते हुये कदमों की आहट बुन्देलखण्ड की तरफ आने की बात कहीं। उन्होंने कहा कि प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में खामियां और बुन्देली किसानों को जिस तरह से बैंको की मकड़ जाल में उलझाया जा रहा हैं उनसे किसानो की मनोदशा आत्महत्या की तरफ प्रेरित होती है। भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष यदुबीर सिंह ने प्रदेश की सरकारो को आड़े हाथों लेते हुये भूमि अधिग्रहण कानून की आड़ में किसानो को उनकी ही जमीनों से बेदखल करने के आरोप लगाते हुये केन्द्र सरकार को चारों तरफ से घेरा। अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि कारपोरेट सेक्टर, बिल्ड़रो को जिस तरह से सेज और बहुमंजिला बिल्ड़िंग के नाम पर किसान की जमीने सरकार अधिग्रहण करके सौंप रही है उससे प्रदेश की सरकार किसानों की कितनी हिमायती है इस बात का अंदाजा लगता है।
सरकार पर सवाल खड़े करते हुये भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ने कहा कि बड़ी कास्तकारी व्यवस्था के पुर्नजन्म होने के आसार नजर आ रहे है। पाकिस्तान की सामंतवादी कृषि की ओर इशारा करते हुये बताया कि वहां पर छोटे किसान बधुंआ किसानो की तर्ज पर दिखाई देते है। भारतीय राजनीति भी किसानो से लगान बसूली करने वाली किसानी की तरफ कदम बढ़ा रही है। जिस तरह से कारपोरेट सेक्टर लोगो को कृषि क्षेत्र में लाया जा रहा है और भूमि अधिग्रहण कानून से किसानो की जमीने मुआवजा देने की बात कहकर छीनी जा रही है उसने ही भारत के 50 प्रतिशत हिस्से में नक्सलवाद की दस्तक दी है। पंजाब और हरियाणा का उदाहरण देते हुये कहां कि वहां के कई गंवो की जमीने पत्थर हो चुकी है। इसका एक बड़ा कारण किसानो को परम्परागत बीज छोड़कर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के द्वारा बनाए गये नपुसंक (संकर प्रजाति) बीज से खेती करने की नीतियां ही दोषी है। ये कम्पनियां खुद बीज तैयार करती हैं और इनका परीक्षण अपनी ही प्रयोगशाला में किया जाता है। केन्द्र सरकार तो केवल इनको एन0ओ0सी0 देने का काम करती है। इसका अर्थ यह हुआ कि मरीज भी हम हैं, दवा भी हम खुद करेंगे और स्वस्थ होने का प्रमाण पत्र डाक्टर द्वारा जारी किया जायेगा। उन्होने बीटी बैगन तकनीकि व जी0एम0 फसलों पर प्रहार करते हुये विदर्भ के सन्दर्भ में कपास की खेती और किसान आत्महत्याओं को एक साथ जोड़कर सवाल खडे़ किये कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियां ने भारतीय कृषि पद्यति को किस आधार पर नकार दिया जबकि सत्यता है कि अमेरिका एक वर्ष में 250 किस्मों की फसलें उगाता है और हमारेे किसान 650 प्रजातियों की फसले अपने खेतों में तैयार करते है। कभी गांव की महिलायें जो देशी बीज संग्रह करने की मास्टर हुआ करती थी उनको ही भारत में आधी आबादी का दर्जा दिया गया और वे ही ग्राम पंचायतो में हासिये पर खड़ी है।
ग्रीन पीस व आशा नेटवर्क के कार्यकर्ता कपिल मिश्रा ने सरकार पर मानसून सत्र में बायोटेक्नोलाजी रेग्युलेटरी अथारिटी आॅफ इड़िया (बीआरएआई) विधेयक को सूचीबद्ध करने के कदम पर प्रश्न खड़ा करते हुये कहा कि सरकार का झुकाव उन बहुराष्ट्रीय की तरफ है जो परिष्कृत फसलों को बढ़ावा दे रही है। विवादास्तपद जी0एम0 तकनीकि के कारण हमारी कृषि, स्वास्थ और पर्यावरण पर जो बादल मंडरा रहे है, इस बिल में उन पर बिल्कुल भी ध्यान नही दिया गया है। देश में पहली खाद्य फसल के रूप में पिछले साल बीटी बैगन के व्यावसायिक उत्पादन को अनुमति देने पर विचार किया गया तो देश भर में इसको लेकर जबरजस्त बहस हुयी थी। सर्वाधित बैगन पैदा करने वाले पश्चिम बंगाल, बिहार और उड़ीसा समेत देश के दर्जन भर राज्यों ने भी जीनीय रूप से परिष्कृत इस अप्राकृतिक फसल पर चिंता जताई थी तब सरकार ने समझदारी दिखाते हुये 9 फरवरी 2010 को बीटी बैगन के व्यावसायिक उत्पादन पर रोक लगा दी। प्रस्तावित ब्राई बिल ऐसी ही एक महत्वपूर्ण कोशिश है। इसके अलावा पांच सदस्यीय बायोटेक्नोलाजी रेग्युलेटरी अथारिटी सूचना अधिकार कानून 2005 की परधि में भी नही होगी उसे इसके प्रावधानों के निरस्त करने का अधिकार होगा। इस बिल सेक्शन-2, 28,70,77 में अभिव्यक्ति की स्वतंन्त्र के मूल अधिकार, जीने के अधिकार को भी दबाने के कोशिश की गयी है। इस बिल से स्पष्ट है कि परम्परागत बीजो से किसानो को दूर करते हुये मोनसेंटो जैसे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को हमारे बीज बाजार में एकाधिकार सौपने की तैयारी है।
कार्यशाला दूसरे दिवस भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष राकेश टिकैत ने केन्द्र और राज्य सरकारों को किसानों की जमीने लीज पर लेने की बात रखी। उन्होने कहा कि कारपोरेट सेक्टर और बिल्ड़रों के प्रोजेक्ट कुछ सालो के लिये होते है जबकि किसान अपनी जमीनो से आने वाली कई पीढ़ियों के लिये आनाज पैदा करता है। उसे उसकी जमीन का उचित अधिकार और पार्टनरशिप क्यों नही दी जाती है? कर्नाटक से आई समाजिक कार्यकर्ता शारदा गोपाल ने बिन्दास लहजे में कर्नाटक सरकार पर सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। उन्होंने कहा कि कर्नाटक में हर मंत्री और शासक का अपना-अपना समाचार पत्र है। एक जनपद की खबरें दूसरे जनपदों में नही जाती है। वहां पत्रकारिता व्यवसाय है मिशन नही। मनरेगा जैसी रोजगार और काम के अधिकार वाली योजना में भी मंत्री और शासन का दखल है। कर्नाटक मंे 1 लाख 20 हजार परिवार है लेकिन वहां का पी0डी0एस0 सिस्टम पूरी तरह भ्रष्टाचार की भेट चढ़ चुका है। कर्नाटक में तीन प्रकार के बी0पी0एल0 कार्ड धारक है जिनमें की अस्थायी (6 माह), स्थायी (पहुँचवाले), वी0आई0पी0 (मंत्रियों के खास)। आंगनबाड़ी योजना मं भी मद्रास की एक कम्पनी से अनुबन्ध किया गया है जो कि अपने द्वारा नियुक्ति की गयी सुपरवाईजर महिलाओं को आंगनबाड़ी सेन्टर में बनाए रखने के लिये सरकार को 11 लाख रू0 प्रति सेन्टर सुविधा शुल्क देती है। झारखझण्ड के समाजिक कार्यकर्ता और दामोदर बचाओं अभियान के संयोजक गुलाब चन्द्र ने झारखण्ड मंे कोयले की खदानों पर खनन् माफियाओं की दबंगई की दुख भरी कहानी सुनाई और कहा कि वहां मजदूरों के परिवार बधुवा मजदूरी के लिये मजबूर है।
बुन्देलखण्ड के समाजिक कार्यकर्ताओं में डा0 वी0एस0 सिंह (प्रवक्ता महत्मागांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्व विद्यालय), जितेन्द्र गांधी समर्थ फाउन्डेशन, विद्याधाम समिति के राजा भईया आदि ने कर्ज, सूखा, अल्पवर्षा के चलते बुन्देलखण्ड की बदहाली और किसानों व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कृषि की उपज पर चिंता व्यक्त की। कार्यशाला में झांसी घोषणा पत्र का भी प्रस्ताव रखा गया जिसमें बी0पी0एल0 कार्ड के चयन, भोजन के अधिकार, काम के अधिकार, किसान आत्महत्याओं पर सामूहिक रणनीति तैयार करने की चर्चा की गयी। अन्य राज्यों में आसाम, मेघालय, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, सिक्किम आदि ने अपनी समस्याओं को रखा जो बुन्देलखण्ड परिदृष्य से अलग नही है। फर्क सिर्फ इतना है कि उन राज्यों में प्रदेश सरकार के दबंग मंत्रियों ने बुन्देलखण्ड की तरह पहाड़ो, वनो, नदियों, सड़को को कम स्तर पर बीरान बनाने का काम किया है जबकि बुन्देलखण्ड में प्राकृतिक संसाधनो, किसानो की खेती की भ्रूण हत्या प्रायोजित तरीके से की जा रही है।
By. आशीष सागर,
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