(Poem) डायरी (Diary) by Ashish Sagar Dixit
कविता
डायरी
रोज की आपा-धापी (भागदौड़) और जरूरतों के बीच,
कुछ अनकहे षब्द डायरी में उतारों।
अन्तर की घुटन, जीवन का मर्म, अस्मिता पर खड़े होते यक्ष प्रष्न!
खुद से, खुदी के रंग कोरे कागज में उभारो,
कुछ अनकहे षब्द डायरी में उतारों।।
टूटते रिष्ते, मिटती संवेदना, स्वार्थी मान्यता,
क्यो बन गई है उलझने ?
हैं कहां मतभेद, आपमें या मुझमें, मिलकर सुधारों,
कुछ अनकहे षब्द डायरी में उतारों।।
माकूल है लम्हा रोषनी के लिए,
न उदास कर चेहरा इक खुषी के लिए।
बोझिल सी जिन्दगीं बेमानी है यार,
हम भी दे सकते है भावना को आकार।
अपनों के लिए सपने सवारों,
हंसते हुए पल-प्रतिपल गुजारो।
कुछ अनकहे षब्द डायरी में उतारो।।
मां के गर्भ में पनपती ऋचाएं,
राश्ट्र को देने लगेगीं दिषाएं।
उम्मीद से है सब कुछ न उम्मीद को हारो,
कुछ अनकहे षब्द डायरी में उतारों।।
By:
सादर- आषीश सागर दीक्षित
प्रवास सोसाइटी-बांदा
मो0- 9621287464
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