(Story) Siyasat Ki Mandi Bundelkhand
सियासत की मंडी बुंदेलखंड
‘‘ईंटे से, गारे से , पत्थर से घर
नहीं बनता, नदियां फना न हों तो समंदर नहीं बनता।
अष्कों के सपूतों ने हंसाया है जहां को, जो खुषियों में पला हो वह जोकर नहीं बनता।।’’
कुछ ऐसी ही है बुंदेलखंड
की राजनीतिक आबोहवा का पानी। निजाम आए, सरकारें आईं, आकर जाती रहीं, मुद्दों को
उछाला गया और वोटर इन्हीं मुद्दों की उछल-कूंद में कभी खो-खो तो कभी गुल्ली डंडा
बनकर रह गया। सरकारों को गठजोड से बचाने में पिछडे, दलित बाहुल्य, जाति आधारित
बुंदेलखंड ने हर बार -बार बार अवसर दिए। यहां तक की सरकार को बनाने का खाका भी
बुंदेलखंड के मुद्दों ने सरकारों को दिया। पलायन, किसान आत्महत्या, सूखा, दैवीय आपदा,
उद्योगों का अभाव तो कभी पैकेज की सियासत। बावजूद इसके सियासत की मंडी बनकर क्यों
रह जाता है बुंदेलखंड ये ही यक्ष प्रष्न है?
बानगी स्वरूप पिछली बसपा सरकार को ही इस पैमाइष में रखा जाना कमोवेष ठीक है क्योंकि
बनती बिगडती सस्ता और निजाम की भीड में इस सरकार ने ही कुछ विकास के आधे-अधूरे ही
सही पत्थर तो बुंदेलखण्ड में बीते एक दषक के बाद रखे हैं। इसके पीछे एक बड़ा कारण यह
भी रहा कि बसपा षासन काल में सरकार ही बुंदेलखंड के इषारे पर चला करती थी। यूपी
राज्य सत्ता की रीढ़ कहे जाने वाले नसीमुद्दीन सिद्दीकी, बाबूसिंह कुषवाहा, दद्दू
प्रसाद चि़त्रकूट मंडल से ही ताल्लुकात रखते थे।
सरकार का दलित गढ़ बुंदेलखंड की यह ठेठ पट्टी रही है। बसपा की ज्यादातर बड़ी बैठकें, विकास के लोकार्पण बुंदेलखंड के सातों जनपदों से ही पहले पहल गुजरते थे, लेकिन विकास कार्यो को कराने के लिए जिन मापदंडों, मानवीय श्रम, कार्यदायी संस्थाओं का प्रयोग किया गया वे अधिकतर इन्हीं सफेदपोष मंत्रयों, पार्टी के पदाधिकारियां के करीबी होते थे। इन सबकी वजह से बुंदेलखंड का विकास भ्रश्टाचार की मांद में सडांध मारने लगा। अपनी सरकार में वन मैन आर्मी बसपा मुखिया मायावती के अनुश्रवण, मानीटरिंग की कमी की वजह से ही सोषल हारमोनी की तर्ज पर गढ़ी गई पूर्ण बहुमत वाली सरकार विकास के नाम पर बुंदेलखंड को हासिये पर खड़ा कर गयी।
मायावती के साथ षब्द का यह मर्म माकूल बैठता है कि कातिल ने की कुछ इस तरह कत्ल की साजिष, थी उसको नहीं खबर लहु बोलता भी है।
बसपा सरकार में हुए पांच सालों में हुए विकास कार्यो की पड़ताल करने पर यह जमीन का सच है कि अकेले जनपद बांदा में ही लोक निर्माण विभाग जो मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी के सुपुर्द रहा है, ने 7.5 अरब की सड़कें बनवा डालीं। नेषनल हाइवे 76 जो अब 35 बन गया है ने किसी भी सड़क पर सड़कों की उधड़ी हुई तस्वीर को देखा जा सकता है। यह और बात है कि बांदा में मुख्यमंत्री अखिलेष यादव के आने की सुगबुगाहट से चिल्ला राश्टीय राजमार्ग में सड़कों को नए कपड़े पहनाए जाने लगे हैं। वित्तीय वर्श 2005 से 2012 तक बुंदेलखंड के सात जनपदों में वन विभाग ने पांच सौ करोड़ के पौधरोपण कराने का कागजी दावा किया है। अगर बुंदेलखंड में 500 करोड़ का पौधरोपण हुआ है तो यह भी अहम प्रष्न है कि जंगल तैयार हो जाने के बाद बुंदेले रहेंगे कहां ? वहीं बुंदेलखंड पैकेज से 100 करोड़ रूपया यहां की अन्ना प्रथा को खत्म करने के लिए ठिकाने लगा दिया गया। अन्ना प्रथा आज भी जस की तस है। अनियोजित षहर के बाजारों और गांवों की बदहाल सड़कों में हुजूम के साथ आवारा पषुओं को सहजता से देखना आम बात है। इसी 100 करोड़ की धनराषि से 15 करोड़ 33 लाख रूपया एक गैर सरकारी संस्था बायफ को कृत्रिम गर्भाधान के लिए दिया गया था। पषुपालन पर 13 करोड़ खर्च किए गए, 27 करोड़ डेयरी दुग्ध विकास में खर्च हुए और अन्ना प्रथा की जागरूकता के लिए 97 लाख रूपया व्यय किया गया। प्रत्येक जनपद में 2-2 सचल पषु अस्पताल अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस उपलब्ध कराए जाने की भी योजना इस पैकेज के रूपयों में षामिल थी। 5 करोड़ 68 लाख रूपए सीधे तौर पर पषु चारे में खपाए गए, मगर विकास का पैमाना बनने की बजाय बिगड़ता ही जा रहा है।
इसी प्रकार पूर्व बसपा सरकार ने बुंदेलखंड को विकास की दौड़ में आगे रखने के लिए नरैनी कालिंजर मार्ग पर समय की नितांत मांग मेडिकल कालेज की भी नींव रखी थी। कृशि विष्वविद्यालय इसकी एक और कड़ी में जोड़ा गया। राश्टीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिषन के तहत अकेले जनपद बांदा में ही सवा 6 अरब रूपए तामझाम के साथ खर्च किए गए, पर वह भी 5 हजार करोड़ के हाईप्रोफाइल घोटाले का एक छोटा सा हिस्सा मात्र बनकर रह गया। बुंदेलखंड के 7 जनपदों में बिना डाक्टर ग्रामीण स्तर पर बीमार बुंदेलखंड, कुपोशित बच्चों और समेकित बाल विकास परियोजना से चलने वाली आंगनवाड़ी की लूट को देखना बड़ी बात नहीं है। बच्चों के पोषाहार को चलाई जाने वाली आंगनवाड़ी हाट कुक्ड योजना, आटे की पंजीरी को यहां की पषुओं का निवाला बनाया जा रहा है। बदौसा क्षेत्र के उदयपुर ग्राम पंचायत के मजरा नकटापुरवा में चल रही आंगनवाड़ी इस बात की तस्दीक है।
प्रति बोरी 210 रूपए आंगनवाड़ी पंजीरी गांव की गाय-भैंस को सहायिका की मिलीभगत से भंट चढ़ाई जाती है। ऐसी तमाम नजीरें हैं जिसे मात्र खबर का हिस्सा बनाने भर से ही बुंदेलखंड की तस्वीर को सुधारा नहीं जा सकता है। कृशि विष्वविद्यालय और मेडिकल काॅलेज की अनुदान राषि वर्तमान समाजवादी सरकार ने क्यां रोक रखी है और क्यों विकास के मुद्दों पर राजनीति की जाती है यह सवालिया निषान है समाजवाद की परिभाशा के लिए। यह कार्य जनहित में षुरू किए गए और फिर जनता के कामों पर सियासत कैसी ? पूर्व सरकार के विकास कार्यों का माखौल बांदा विकास प्राधिकरण ने भी जमकर उड़ाया है। बानगी के लिए तुलसी नगर आवासीय परियोजना में साल 2006 से 2012 तक 6.5 करोड़ बंदरबांट किया गया। इस आवासीय परियोजना में सड़क, नाली निर्माण, पार्क सुंदरीकरण, वाटर टैंक, मिट्टी भराई और विद्युतीकरण के नाम पर 6,40,20,229 लाख रूपए खर्च किए गए हंै, जिसके ज्यादातर ठेके आलाधिकारियों ने बसपा समर्थित कंपनियों, नामचीन ठेकेदारों को देकर रेवड़ी की तरह जनता का पैसा दोनों हाथों से लुटाया। किसी सरकार की साख पर बट्टा लगाने की साजिष अपनों के द्वारा कैसे रची जाती है यह पूर्व मुख्यमंत्री को काफी हद तक समझ में आ जाना चाहिए जिससे कि भविश्य में राजनीति उनके लिए दलित विकास और सर्वजन हिताय के नारे को मजबूती से पुख्ता कर सके।
वर्तमान सरकार के सौतेलेपन से बुंदेलखंड आहत है। बांदा की विधानसभा क्षेत्र बबेरू से इकलौते सपा विधायक विषंभर प्रसाद यादव, जनपद चित्रकूट से वीर सिंह पटेल ही सदन में बुंदेलखंड की आवाज को उठाने के लिए प्रतिनिधि की भूमिका में हैं। बांदा-चित्रकूट लोकसभा सांसद आरके पटेल 3 सालों तक जहां अपनी निज संपत्ति को मजबूत करने में लगे रहे वहीं उनकी नींद लोकसभा चुनाव 2014 के नजदीक आते-आते टूटने लगी है। मुद्दा वही की आखिर कब बदलेगा बुंदेलखंड और कब सुधरेगा यहां विकास का ढांचा ?
वर्श 1950 मंे बांदा की तहसील अर्तरा जो धान का कटोरा कही जाती थी में स्थापित 30 राइस मिल बदहाली का षिकार हैं। कभी यहां आसानी से मिलने वाला रामभोग, महाचिंन्नावर और कालीमूंछ (परसन बादषाह) चावल अब सूखे की मार झेल रहा है। बारिष के जल को सुरक्षित रख पाने की तकनीकी का अभाव, नपुंसक बीजों की भरमार, रासायनिक उर्वरकों ने मिट्टी की उत्पादकता को काफूर कर दिया है। बुंदेलखंड का कठिया गेहूं, कांदो जैसे मोटे अनाज आज विलुप्ति की कगार पर हैं।
कुछ ऐसा ही चित्रकूट में स्थापित बरगढ़ ग्लास फैक्ट्री, रानीपुर वन्य जीव अभ्यारण्य कैमूर रेंज, बांदा का सजर उद्योग जो दुनिया में अकेले इस षहर की षान है, कताई मिल मजदूरों की भी सच्चाई है। बुदेलों के मन में एक यही प्रष्न कचोटता है कि हर बार हम ही क्यों राजनीति के हमाम में नंगे खड़े होते हैं। बुंदेलखंड के 7 जनपद बांदा, चित्रकूट, महोबा, हमीरपुर, जालौन, झांसी, ललितपुर में जल, जमीन, जंगल के सिवाय कुछ भी नहीं था। इसे भी राजस्व की चाहत में दोहन का जरिया बना लिया।
यहां कुल 176 बहु महत्वपूर्ण पुरातत्व स्मारक हैं जिनकी देखभाल 40 सरकारी कर्मचारी 96.24 लाख रूपए सालाना वेतन लेकर करते हैं। यदि यहां की चंदेलकालीन तालाबों मसलन महोबा के कीरत सागर, मदन सागर, चरखारी स्टेट, बांदा के कालिंजर, रनगढ़ का किला, नबाब अली बहादुर की यादें बचाकर चित्रकूट को पर्यटन हब बना दिया जाय और सात जनपदों से बालू-पत्थर खनन के नाम पर 500 करोड़ राजस्व बुंदेलखंड को ईमानदारी से दे दिया जाए तो फिर किसी सरकारी खैरात की जरूरत बुंदेलखंड को नहीं पडे़गी।
तिंदवारी विधानसभा क्षेत्र के युवा कांग्रेस विधायक दलजीत सिंह जिन्होंने सपा के ही राश्ट्रीय महासचिव और निसाद बिरादरी से 4 बार विधायक रहे, विषंभर प्रसाद निषाद को मात दी। उनका कहना है कि सबसे पहले विधायक निधि बंद होना चाहिए। वे मानते हैं कि जीते हुए विधायक निधि को स्वहित में कमीषन तय कर ठेकेदारों को बेंच देते हैं। यहां के बारिष के पानी को सुरक्षित रखने के लिए वे चैक डेम, बंधी की वकालत करते हैं मगर क्या करें, बुंदेलखंड पैकेज से बनाए गए जनपद चित्रकूट के लाखों रूपयों की बंधी और चैकडेम को जो कि बारिष की पहली मार भी न झेल सकी।
इस बावत पूर्व सदर विधायक कांग्रेस के प्रोफेसर चंद्रप्रकाष षर्मा का कहना है कि 29 अगस्त 1980 को उन्होंने सदन में एक गैरसरकारी संकल्प मसौदा प्रस्तुत किया था। जिसमें बंदेलखंड के चैमुखी विकास के लिए पर्वतीय क्षेत्रों की तर्ज पर बुंदेलखंड विकास परिसद के गठन की बात कही गई थी। जिस पर करीब 2 घंटे बहस चली। वर्तमान वरिश्ठ सपा नेता मोहन सिंह ने भी इसका समर्थन किया था। तत्कालीन वित्त मंत्री ब्रह्मदत्त ने यह आष्वासन दिया था कि इस सुझाव को अमल में लाकर नीतियां बनाई जाएगी। 1980 में ही पूर्व प्रधानमंत्री विष्वनाथ प्रताप सिंह ने बुंदेलखंड विकास प्राधिकरण का गठन किया जिसकी बैठक झांसी में हुई थी, लेकिन वह अब बुंदेलखंड विकास निधि तक ही सीमित होकर रह गई है। प्रो. षर्मा कड़े षब्दों में बुंदेलखंड विकास परिसद बनाकर प्रदेष में इस क्षेत्र को विषेष दर्जा दिए जाने की पैरवी करते हंै जिससे कि जल-जमीन जंगल की संपदा को नश्ट कर चुके बुंदेलखंड के विकास पर सरकारें गहनता से चिंतन और मंथन करके समग्र विकास की आधारषिला रख सकें।
आषीश सागर
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