(NEWS) || बांदा || चालीस फीसदी लोगों का सहारा है जलाऊ लकड़ी
बांदा।
जिले में गरीब तबके के 40 फीसदी लोगों की रोजी-रोटी वन विभाग के ईधन में इस्तेमाल होने वाले पेड़ों की लकड़ी से चल रहा है। शहरों व कस्बों में प्रतिदिन सैकड़ों महिलायें जलाऊ लकड़ी को धड़ल्ले से बेचकर अपना परिवार पाल रही है।जंगलों के किनारे बसे मवई, निवाइच, पपरेदा, लामा, गंछा, ग्यौंड़ी बाबा आदि नाला के निर्धन लोगों को आजीविका चलाने का मुख्य आधार वन विभाग की जलाऊ लकड़ी बन गयी है। वनों में ईधन में इस्तेमाल होने वाले बबूल, विलायती बबूल व चिलबिल के पेड़ बहुतायत में है। इसके अलावा कचनार, काला सिरस, नीम, सुबबूल, सेंजन व बबूल चारा प्रजाति के पेड़ आते है। वन विभाग के जंगलों में शीशम, सागौन, महुआ, सिरस जैसे पेड़ों की संख्या कम है। यहां पर फलदार बेल, महुआ व आंवला के अलावा शोभादार अमलतास व नाभि जैसे वृक्षों का भी अभाव है। जंगल के किनारे के गरीब बांशिदों को बहुतायत में पायी जाने वाली विलायती बबूल प्रजाति की लकड़ी आसानी से उपलब्ध हो रही है।
गांवों में गरीब तबके के पुरुष जहां मजदूरी में व्यस्त रहते है, वहीं इन परिवारों की महिलायें सुबह से खा-पीकर जंगलों की ओर कूच कर जाती है। जंगलों में 80 फीसदी विलायती बबूल के पेड़ होने से महिलायें आसानी से लकड़ी काटकर गट्ठर बना लेती है। यह महिलायें प्रतिदिन तीन-चार किलोमीटर पैदल चलकर शहरों में 20 से 30 रुपये तक का गट्ठर लकड़ी बेच लेती है। कस्बों, शहरों में यह जलाऊ लकड़ी होटल वाले खरीद लेते है। पिछले कुछ वर्षो से वन विभाग द्वारा सड़कों के किनारे तैयार किये गये वृक्षों में अब बबूल के पेड़ों की भरमार देखी जा रही है।
धीरे-धीरे महिलायें सड़कों के किनारे के बबूल भी काटकर उसकी लकड़ी बेचने लगी है। ग्राम मवई की रामकली, गंछा की लक्ष्मी कहती है कि यही रोजी का सहारा है। कुल मिलाकर गरीब तबके के लोगों की आजीविका चलाने में जलाऊ लकड़ी अहम् भूमिका निभा रही है।
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