बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय - बुंदेलखंड की जीवनोपयोगी हस्तकला (Bundelkhand's Life-purpose handicraft)
बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय
बुंदेलखंड की जीवनोपयोगी हस्तकला (Bundelkhand's Life-purpose handicraft)
बुंदेलखंड की अनेक जातियाँ जीवन की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति की दिशा में नाना प्रकार की हस्तकलाओं को प्रस्तुत करने में अपना सानी नही रखती। विशेषत: कोरी, लुहार, बढ़ई, कुम्हार, गड़रिये और बसीरों के कर्म में कला प्राण रुप में लेकर रमा है। कोरी सूत कातते हैं और बुनकर बुनते हैं। इनके द्वारा जाजम, दरी, कालीन इत्यादि तैयार किये जाते हैं। अनेक ग्रामों में लुहार इतने चतुर हैं कि वे बन्दूक के कुन्दे और नाल आदि भी तैयार कर लेते हैं। यत्रतत्र गड़रिये भी बहुत हैं। ये सुन्दर कंबल तैयार किया करते हैं। बजीर लोग तरह-तरह की चटाईयाँ, बच्चों के लेटने के लिए चँगेला था चंगेर, टोकनियाँ, चुलिया-टिपारे और पँखे आदि बड़ी कुशलता से बनाते हैं। गृहकला के सड़े-गले कागज़ और कपड़ों को गलाकर मटोल्लियाँ और दिकोलीयाँ तैयार की जाती हैं। ख की सिकोली, उरई की सींको के लचकदार पंखे, चिरैया तथा मुठी-खुनखुने तैयार किये जाते हैं। उच्च जाति की स्रियां त्यौहारों में भाँति-भाँति के रंग-बिरंगे चौक पूरती है और दीवारों पर भावपूर्ण चित्रकारी करती है।
जैसा की संकेत किया गया वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार प्राचीन काल से ही अनेक जातियाँ अपना-अपना कार्य कुशलता से करती आ रही हैं, आज की उत्तम हस्तकला को परंपरागत मान लेने पर हम कह सकते हैं कि प्राचीन हस्तकला इससे उच्चकोटि की रही होगी।
दस्तकारी के लिए इस प्रदेश की प्रसिद्ध दूर-दूर तक है। चंदेरी के कपड़ा और ज़री के काम के लिए, गऊ कपड़ बुनने के लिए तथा दतिया, ओरछा, पन्ना और छतरपुर मिट्टी के बर्तन तथा लकड़ी और पत्थर के काम के लिए प्रसिद्ध है।
बुंदेलखंड की तपोभूमि:
बुंदेलखंड के पर्वतीय भागों, प्राकृतिक उपत्यकाओं, खोहों तता आश्चर्यजनक जलाशयों ने ॠषियों-मुनियों को प्रभावित किया है, इसके अनेक उदाहरण हमारे समझ है। कोलाहल से बड़ी दूर पर गिरि-गहर, झर-झर निर्झर और तुहित बिन्दुपूर्ण दूर्वादल पर चारुचन्द की छन-छन आने वाली शीतल शान्तिदायिनी किरणों का आनन्द पाने के लिए "रामचरित मानस' बहुत हैं। तपोभूमि के संबंध में लिखते समय हमने गो० तुलसीदास की कवितावली के अयोध्योकांड का २८वां मुक्त उद्धत किया है। उससे स्पष्ट है कि विन्ध्यभूमि (बुंदेलखंड) में बड़े-बड़े ब्रह्मचारी तपस्या किया करते थे।
मर्यादा पुरुषोतम राम, लक्षमण और सीता सहित भारद्वाज मुनि के आश्रम से लेकर आगस्त ॠषि के आश्रम तक सहस्रों तपस्यारत ॠषियों मुनियों के आश्रम इसी प्रान्त में थे।
अयोध्या से प्रस्थान करने के बाद राम प्रयाग तक बिना किसी मुनि से भेंट किये पहुंचे। प्रयाग में वे भारद्वाज मुनि से मिले। फिर वे बाल्मीकि ॠषि के आश्रम में पधारे। यह आश्रम करबी के निकट है। इसकी पुष्टि अनेक विद्वानों ने की है। रामायण में भी स्पष्ट कि राम प्रयाग से चित्रकूट आने पर किसी मध्यवर्ती स्थान में ही बाल्मीकि से मिले थे। अत: वह स्थान करबी से नज़दीक ही होनो चाहिए। इस स्थान में पाये जाने वाले प्राचीन चिन्ह और महर्षी की स्मारक स्वरुप मूर्ति भी पाई जाती है। यहीं उन्होंने श्री राम को चित्रकूट पर्वत पर निवास करने का परामर्श दिया था :
चित्रकूट गिरि करहु निवासु।
तहं तुम्हार सब भाँति सुपासू।।
सैल सुहावन कानन चारु।
करि केहरि मृत विहंग बिहारु।।
चित्रकूट बुंदेलखंड में ही है। गो० तुलसीदास ने अपनी सिद्धी सधी लेखनी में इस प्रदेश का प्राकृतिक सौंदर्य समस्त रामायण के पाठकों के मनस्तल पर अंकित कर दिया है। रहीम कवि ने चित्रकूट के बारे में लिखा है:
चित्रकूट में काम रहे, रहिमन अवध नरेश।
जा पर विपदा पड़त है सो आवत पहि देश।।
अत्रि-अनुसूइया का आश्रम भी चित्रकूट पर्वत श्रेणी के अन्तर्गत है। जब राम को चित्रकूट में वास करने कि लिए बाल्मीकि जी ने परामर्श दिया था, तब उन्होंने अत्रि-अनुसूइया के आश्रम के बारे मे भी संकेत दिया था:
नदी पुनीत पुरान बखानी।
अत्रि प्रिया निज तप बल आनी।।
सुरसीर दार नाऊ मन्दाकिनि।
जो सब पातक पोतक डाकिनी।।
अत्रि आदि मुनिवर बहु बसहिं।
करहिं योग जप तप तन कसहीं।।
अत्रि आश्रम से विदा होकर राम शरभंगा ॠषि के आश्रम में पहुँचे। यह स्थान पन्ना, सोहावल राज्यों की सीमा पर सोहवल राज्य में है और इटारसी-इलाहाबाद रेलवे लाईन पर मझगवां स्टेशन से ८-९ सील उत्तर पूर्व में स्थित है। यह पर्वत आज भी शरभंगा पर्वत कहलाता है। यहाँ ॠषि के नाम पर एक जल कुण्ड है। कुण्ड मन्दिर के समीप है। मन्दिर में ॠषि की ध्यान-मग्न मूर्ति है। एक दूसरे मन्दिर में राम लक्ष्मण और जानकी की मूर्तियाँ हैं।
इस प्रकार राम ने उस क्षेत्र में तपस्या करने वाले ॠषियों मुनियों से भेंट की। वे इस भाग के दूसरे स्थान में बी आये। वह स्थान "आरंग तीर्थ' के नाम से प्रसिद्ध है। यह तीर्थ पन्ना से १० मील पूर्व और देवेन्द्र नगर से लगभग १५ मील उत्तर में स्थित है। इस आश्रम में अगस्त ॠषि के शिष्य सुतिक्षण मुनि तप किया करते थे। इस स्थान का बुंदेलखंड में अपना विशेष महत्व है। सारंग की पहाड़ी के चारों ओर दो सौ छोटे छोटे मठ बने हुए हैं।
पुण्यमयी नर्मदा का प्रवाह क्षेत्र बुंदेलखंड ही है, वह दक्षिण में मण्डला जिले से निकल कर जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद और निमाड़ होती हुई खम्भात की खाड़ी में समुद्र में जा मिलती है। यह अपना मार्ग अधिकांशत: पहाड़ों आदि को चीर कर खाई-खन्दकों के बीच मे बनती है। ऐसा माना जाता है कि यह संघर्ष का सफलता का संदेश देती है। इसके किनारे अनेक ॠषियों-मुनियों ने तपस्या की थी। उनमे भृगु ॠषि का तप स्थल भेड़ाघाट प्रसिद्ध है।
ॠषियों ने इस नदी की अनेक रुपों में प्रार्थना की है। इसे किसी ने शंकर के तेज से अविर्भूत माना है तो किसी ने उनके शरीर से। स्कन्दपुराण इसे शिव का स्वरुप ही मानता है। इसे सामवेद-मूर्ति भी माना गया है। कथा है कि नर्मदा ने र्तृकड़ों वर्षों तक ब्रह्मा ने नर्मदा से वर माँगने के लिए कहा। नर्मदा ने निवेदन किया कि मुझे गंगा के समान बना दीजिए। ब्रह्मा ने कहा कोई किसी की बराबरी नही कर सकता। निराश हो नर्मदा काशी जाकर तप करने लगी। शंकर जी प्रसन्न हुए और उन्होंने वरदान दिया, तुम्हारे तट पर के पाषाण खण्ड शिवलिंग स्वरुप हो जायेंगे और गंगा, यमुना तथा सरस्वती के स्नान से जिन पापों की निवृती होती है, वे सब तुम्हारे दर्शन मात्र से नष्ट हो जायेंगे।
""स्मरणाज्जन्मजं पापं, दर्शानेन त्रिजन्मजम्।
स्नानाज्जन्म सहसाख्यं, हान्ति रेवा कलियुगे।।''
इसलिए नर्मदा के तट पर अनेक नगर, घाट और मंदिर हैं। नर्मदा तट के अनेक स्थानों पर विभिन्न पर्वों� पर मेले लगते हैं। बरमान घाट और भेड़ाघाट के मेले प्रसिद्ध हैं।
त्रिपुरी क्षेत्र की उत्पत्ति-कथा बाल रामायण में दी गई है। उससे इस प्रदेश का महत्व भली-भाँति प्रकट होता है। बताया गया है कि त्रिपुरासुर से अप्रसन्न होकर शिव ने उसके तीन नगरों को जला डाला। उसके कुछ भाग आकाश से गिर का पृथ्वी पर "त्रिपुरी' के नाम से प्रख्यात हुआ।
पन्ना अपने प्रणामि संप्रदाय के मंदिर के लिए सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध है। नेपाल को छोड़ कर भारत में उक्त समुदाय का इतना बड़ा मंदिर नहीं है। प्रतिवर्ष शरद पूर्णिमा के अवसर पर गुजरात, काठियावाड़, मुम्बई और सिन्ध तथा नेपाल के सहस्रों यात्री पन्ना में एकत्र होते हैं।
इस संप्रदाय को स्वामी प्राणनाथ ने चलाया। वे छत्रसाल के गुरु थे। छत्रसाल की प्रेरणा से ही प्राणनाथ जी पन्ना आये थे। वहीं उन्होंने समाधि भी ली।
प्रणामी संप्रदाय हिन्दु धर्म में एक उदार और सुधारवादी दृष्टि को लेकर सामने आया था। इसमें कबीर, नानक और महाराष्ट्र के संतो का व्यापक प्रभाव है। प्रणामी साहित्य में परमात्मा को अक्षरातीत कह कर संबोधित किया गया है। हिन्दू और मुसलमानों का भेद अथवा जाति-पाति का भेद इस संप्रदाय को मान्य नही है।
इस संप्रदाय में सैद्धान्तिक रुप से मूर्ति पूजा का विरोध किया गया है, फिर भी प्रतीक रुप कृष्ण की बाँसुरी और उनके मुकुट की पूजा की जाती है। प्रसाद और चरणामृत भी वितरित किया जाता है। यह संप्रदाय भारत मे किसी समय प्रचलित प्रतीक महत्ता का पुनरोदय करता है।
बुंदेलखंड में अनेक जैन तीर्थ भी हैं। इनके केन्द्र स्वर्णगिरी (सोनागिरि), नयणगिरि (रेसन्दीगिरि) और द्रोणागिरि प्रमुख हैं। इनके सिवा चंदेरी, देवगढ़, पपौरा और कुण्डलपुर भी प्रसिद्ध हैं। इनमे से अनेक स्थानों पर तीथर्ंकरों की विशाल पाषाण प्रतिमाओं युक्त मन्दिरों के साथ सनातन-धर्मी विष्णु-शिव आदि देवताओं के भी मंदिर हैं। इन स्थानों के जैन मंदिरों का निर्माण काल ५वीं से १२वीं शताब्दी के बीच बताया गया है। चंदेरी के जान मंदिर तेरहवीं सदी में मुस्लमानों के आक्रमण के समय खंडित कर दिये गये।
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Courtesy: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र