(Poem) खेत के दर्रे , दमघोट ! - सुनील ‘चित्रकूटी’

खेत के दर्रे

निहार रहा है अन्नदाता बरसती
आॅंखो से बादलों के चिन्ह/
सूखे आसमान की परत/धर्मगृहीता/
मासूमों के चिपके पेट/ हल की गोठिल नोक/
बैलो के भथिले खुर/ खटाखट मंजर/
खेत के दर्रे

टूट गये चने के बजते घुंघरु/पैर/
जल गया सरसों का तेल कड़ाही में
प्क्षियों में सिसकती चहक का होता प्रवाह
पशुओं में लड़खड़ाती चलन
लिपट रही जिह्वा तालु में सजीव/निर्जीव/
खेत के ढेले की/उगल रहे तपता धुआ
खेत के दर्रे

ससाहस भरे बीज के स्वर...
फेंक दो हमें दर्रो के गर्भ में
करेंगे अर्ज ईश्वर से नमी की
मनेगा तो आयेगें हम दूसरा
लेके अवतार नहीं तो हो जायेंगे
ब्लिदान खेत के दर्रें में

स्ंापूर्ण जगत की भूख मिटाने की आशा
लिए अन्नदाता फेंकता गया बीज फेंकते ही
स्वाहा हो गये बन के राख धुआ के साथ उड़
के जा पहुंचे बादलों के चिन्ह के दर्रेें में

 

दमघोट !

सूख गया किसान खेत की
सूखी फसल देख के
खलिहानों में पसरा है आजकल
डरावना सन्नाटा
न चने/मसूर/गेहूं के
टीले जैसे रास है
न भूसा ललौसा और
न ही नाक में दम करने
वली भस
कहां से करेगा बिटिया के
हाथ पीले ?
कहां से करेगा बैंक साहूकारो
का कर्ज अदा ?
हर वक्त साहूकारों /बैंक कर्ताओ की
दबिस /बेबसी /लाचारी के
फंदे में कृषक कर लेता अपना दमघोट !!

 

रचना-सुनील ‘चित्रकूटी’