(Poem) राष्ट्रधन की अंतर ज्वाला

 राष्ट्रधन की अंतर ज्वाला 

धधक रही उर अंतरज्वाला इन भ्रष्टाचारियों को सबक सिखलाऊंगा

इन सुप्त चिंगारियों से एक दिन मैं इनके नीड जलाऊंगा

डाल रहे हैं नित्य डाका ये मेरे राष्ट्रधन पर

इन व्यभिचारी अनाचारियों को मैं सदाचार पढ़ाउंगा

बहुत हुआ अनुनय विनय ये पशु न समझने वाले

इनकी ही भाषा में मैं अब इनको समझाऊंगा

देश की गरिमा को धूमिल करती है इनकी कुटिल चाल

हाहाकार मचाते इन दानवों को मैं रौद्र रूप दिखलाऊंगा

यदि लहू जमा न हो तो करता हु आवाहन शिव का

बन कुपित काल टूट पड़ो इनपे मैं जान से जान लड़ाऊंगा

हो गयी है असमर्थ देश की सर्वोच्य न्यायालय

जनता की अदालत में इन दागियों को सजा दिलाऊंगा

लोकपाल के अधिकार को युद्धरत अपने देश के मानस को

जनकल्याण हेतु बना मैं एक जनपाल दिलाऊंगा

मृत्यु का नही है मुझको भय मुझे क्या मारेंगे ये नपुंसक

है शपथ आज़ाद भगत की मुझको उनसा कृत्य कर जाऊंगा

शर्म आती है जब लोक तंत्र का सजग प्रहरी शाही शादी को सुर्खी बनता है

हुई क्लीव इस राष्ट्रशक्ति को मैं कर कर आवाहन जगाऊंगा

जागो हे मात्रीभूमि के अमर सपूतों माँ की करुण पुकार है

मांग रही आज़ादी माँ इस अनाचार से मै आजाद कराऊंगा

अब भी न जगे अगर "पंडित जी" माँ की करुण पुकार है

न जाने जननी अब तुमसे लाल ये श्राप दिए जाऊंगा !

-
Ashish Dixit Sagar