मदन सागर तालाब, जतारा, टीकमगढ़ (Madan Sagar Taalab Jatara, Tikamgarh)
मदन सागर तालाब, जतारा, टीकमगढ़
(Madan Sagar Taalab Jatara, Tikamgarh)
मदन सागर सरोवर जतारा, टीकमगढ़ जिले के उत्तरी-पूर्वी अंचल में, टीकमगढ़ से 40 किलोमीटर की दूरी पर 25.1 उत्तरी अक्षांश एवं 79.6 पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। जतारा नामकरण के बारे में आइने अकबरी ग्रन्थ (ब्लोचमैन भाग-2, पृ. 188) में उल्लेख है कि यहाँ एक सूफी सन्त अव्दर पीर रहा करते थे। उनके दर्शनों के लिये आगरा से अबुल फजल यहाँ की जात्राएँ (यात्राएँ) किया करते थे। अबुल फजल की जात्राओं के कारण ही इस कस्बा का नाम जतारा पड़ गया था। पं. गोरेलाल तिवारी ने अपने ग्रन्थ ‘बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास’ में बतलाया है कि जतारा का प्राचीन नाम जटवारा था, कालान्तर में जटवारा से जतारा हो गया। ओरछा स्टेट गजेटियर में यह भी उल्लेख है कि “नौ सौ बेर, नवासी कुआँ, छप्पन ताल जतारा हुआ।”
जतारा तालाब के दक्षिणी पार्श्व में गौर (गौरइया) पहाड़ है तो उत्तरी पार्श्व में दतैरी देवी पहाड़ है। गौरेया माता पहाड़ एवं दतैरी देवी पहाड़ को जोड़ती पहाड़ी नीची श्रृंखला थी, जिसकी पटार (खाँद) से पश्चिमोत्तर क्षेत्र का बरसाती धरातलीय जल प्रवाहित होता रहता था, जो पूर्व दिशा की नीची भूमि से उर नदी में चला जाता था। पश्चिमोत्तर भाग में बड़ी ऊँची-ऊँची अनेक टौरियाँ-पहाड़ियाँ थीं जो हरे-भरे पेड़ों से आच्छादित बड़ी आकर्षक मनोहारी लगती रही हैं।
मदन वर्मा चन्देल ने प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर जतारा के गौरेया माता पहाड़ एवं उत्तर-पूर्व के दतैरी माता पहाड़ के मध्य की पहाड़ी नीची श्रृंखला को बीच में दबाते-चपाते हुए विशाल सरोवर का निर्माण करा दिया था, जिसे मदन वर्मा के नाम से मदन सागर तालाब कहा जाने लगा था। इस मदन सागर सरोवर के अतिरिक्त पानी के निकास के लिये गौरेया पहाड़ के दक्षिणी-पश्चिमी पार्श्व में एक छोटा-सा बाँध निर्मित किया गया था, जो तालाब के पूर्ण भराव का प्रतीक (मान) था। अतिरिक्त पानी इसी बाँधनुमा पाँखी को पार कर दक्षिण-पूर्व की निचली भूमि से बहता चला जाता था। मदन सागर तालाब का मुख्य प्रथम बाँध लगभग 600 मीटर लम्बा, 30 फुट ऊँचा एवं 60 फुट चौड़ा है, जो आगे-पीछे पत्थर की पैरियाँ लगाकर बीच में मिट्टी का भराव कर बनाया गया है। इसका भराव क्षेत्र तीन हजार एकड़ से भी अधिक है। जब यह तालाब पूर्णरूपेण भर जाता है तो एक समुद्र की भाँति दिखता है। जतारा कस्बा एवं यहाँ के मदन सागर तालाब की यह विशेषता है कि बस्ती पहाड़ों के पूर्वी अंचल की निचाई में है और मदन सागर तालाब पहाड़ों के मध्य की ऊँचाई वाली समतल पटारी भूमि पर है। बस्ती निचाई में, तालाब ऊँचाई पर, जिस कारण यहाँ हर समय समशीतोष्ण मौसम बना रहता है। इसीलिये जतारा को बुन्देलखण्ड का स्विट्जरलैण्ड माना जाता है।
मदन सागर तालाब के प्राकृतिक मनमोहक सौन्दर्य का आनन्द लेने हेतु राजा मदन वर्मा चन्देल ने तालाब के मध्य के ऊँचे पठार पर एक भवन बनवा दिया था, जिसे मदन महल कहा जाता था। उक्त महल वर्तमान में ध्वस्त हो चुका है, परन्तु उक्त महल के स्थान पर एक शिव मन्दिर बनवा दिया गया है। तालाब के बाँध से पहाड़ियों, टौरियों की हरीतिमा के मध्य से अस्त होते सूर्य की लालिमा की छवि निहारते ही बनती है। ऐसा लगता है मानो सूर्य की लालिमा तालाब की लोल-लोल लहरों के ऊपर बैठकर अठखेलियाँ करती पालना (झूला) झूल रही हों। चाँदनी रात में उत्तुंग लोल लहरें मानों चारूचन्द्र की स्वच्छ चाँदनी में अनूठी छटा बिखेरती अठखेलियाँ कर रही हों अथवा मानो अगणित चन्द्र मदन सागर तालाब के जल में क्रीड़ा करते हुए मदमस्त होकर झूम रही हों।
तालाब के दक्षिणी पार्श्व में गौर पहाड़ (गौरइया पहाड़) है जिस पर गौरइया देवी का मन्दिर है। शायद इन्हीं देवी के नाम पर पहाड़ का नाम गौरइया पहाड़ पड़ा हो अथवा चन्देल राजाओं के पूर्व यहाँ गोरवंशीय क्षत्रियों का आधिपत्य रहा हो, जिससे इसे गौर पहाड़ कहा गया हो। गौर पहाड़ के नीचे बाँध के पूँछा पर सत मढ़ियाँ (सात मढ़ी) बनी हुई थीं। जिनका उल्लेख ओरछा स्टेट गजेटियर 1907 पृ. 78 पर है। लिखा है कि मढ़ियों पर एक शिलालेख था जिसमें उल्लेख था कि “सतमढ़ी के छायरैं और तला के पार। धन गड़ो है अपार। जो होवे चन्देल कौं सो लेव उखार।”
सतमढ़ियों के समीप ही प्राचीनकालीन ईदगाह मस्जिद है। बाँध के ऊपर एक सुन्दर विश्रामगृह बना हुआ है। विश्रामगृह के पास ही सन् 1897 ई. में महाराजा प्रताप सिहं ने तालाब से कृषि सिंचाई हेतु जल निकासी के लिये कुठिया, सलूस एवं नहरों का निर्माण कराया था। बाँध के पीछे नहर दो शाखाओं में विभक्त है। एक शाखा बाँध के पीछे के नजरबाग में से किले के पास से बस्ती में से गुजरती हुई राम बाग आदि बगीचों को सिंचाई जल देती गाँव के बाहर दूर दूर तक चली गई है। दूसरी शाखा मुख्य नहर (दायीं नहर बैरवार क्षेत्र की भूमि की सिंचाई करती है। किटा खेरा, मचौरा, पिपरट, बहारू एवं बैरबार ग्रामों की कृषि सिंचाई इसी दायीं नहर से होती है। बाँध के पीछे नौ देवियों के मन्दिर एक पुंज रूप में निर्मित खड़े हुए हैं। बाँध के उत्तरी पूर्वी भाग की पहाड़ी पर किला है, जो ओरछा नरेश भारतीचन्द ने बनवाया था। उनके भाई मधुकर शाह भी इस किले में रहे थे। जतारा का किला एवं महल हिन्दू मुस्लिम स्थापत्य शैली में निर्मित है जबकि किले का पूर्वाभिमुखी प्रवेश दरवाजा हिन्दू शैली का ही है। यहाँ की एक भग्न गुर्ज रामशाह गुर्ज नाम से जानी जाती है। किले में हनुमान मन्दिर है। इसी से संलग्न तालाब की ओर मुस्लिम शैली की इमारतों के खण्डहर हैं तो बाँध के पीछे दक्षिणी-पूर्वी भाग में स्लामशाह सूर (पुत्र शेरशाह सूरी) के समय के अनेक स्लामी भग्न मकबरे हैं, जिनमें बाजने का मठ, बारह दरवाजी मकबरा के अतिरिक्त 20 से 30 भवनों, मकबरों के भग्नावशेष अवलोकनीय हैं। किला से संलग्न बाँध में तालाब के भराव की ओर एक कुहनी निर्मित है जो तालाब के जल का दबाव (जलाघात) रोकने के लिये है। नदियों-नालों से आता वेगपूर्ण जल कुहनी से टकराकर दाएँ-बाएँ विभक्त होकर भराव क्षेत्र में फैल जाता है और बाँध सुरक्षित रहता है।
मदन सागर तालाब में बरसाती धरातलीय जल लाते दो बड़े नाले पटैरिया नाला एवं कुसैरिया नाले आते हैं। जो ताल लिधौरा, बगौरा, शा, बाजीतपुरा एवं बैरवार ग्रामों के मौजों का बरसाती जल लाते हुए, इसे भरते हैं। परन्तु अब इसमें पानी की आवक कम हो गई है क्योंकि इसके जल स्रोतों (नालों) पर नए-नए बाँध बन गए हैं। फिर भी तालाब एक छोटा समुद्र-सा है। बाँध की पैरियाँ खिसक रही हैं। तालाब के बाँध पर सिंचाई विभाग का कार्यालय है, जिसकी नाक के नीचे बाँध दुर्दशा का शिकार है। तालाबों की मरम्मत-दुरुस्ती का धन अधिकारियों एवं जनप्रतिनिधियों की जेबों में चला जाता है। भ्रष्टाचार कर लेने को अधिकारी-कर्मचारी एवं जनप्रतिनिधि चौकस-चौकन्ने रहते हैं और ग्राम क्षेत्र के तालाबों की देखरेख, सुरक्षा एवं मरम्मत-दुरुस्ती जैसे रचनात्मक कार्यों में उदासीन रहते हैं क्योंकि सार्वजनिक हित के कार्यों के बजाय वे व्यक्तिगत हित अधिक साधते हैं।
चन्देल काल में जतारा परिक्षेत्र में जल प्रबन्धन हेतु सर्वाधिक तालाबों का निर्माण कराया गया था। पहाड़-पहाड़ियों एवं टौरियों के मध्य से बरसाती जल के नाले-नालियाँ बहते थे, जिन्हें पत्थर की पैरियों एवं मिट्टी के विशाल सुदृढ़ बाँधों से रोककर बड़े-बड़े तालाब बनवा दिए गए थे। प्रवाहित जल को तालाबों में थमा दिया गया था। पानी थमा तो लोगों का चलता-फिरता घुमन्तु जीवन थम गया था। पानी थमा तो पानी का जलस्तर ऊँचा बढ़ा। सैकड़ों बेरे (बावड़ियाँ) और कुँआ बने। जतारा की लोह लंगर व्यापारियों द्वारा बनवाई बावड़ियाँ तो शायद भारत में अपने ढंग की निराली हैं, जो आकार में विशाल और गहरी हैं। उनमें सीढ़ियाँ नहीं है बल्कि दूर से पानी तक सपाट ढालू मार्ग हैं ताकि पशु भी आसानी से उतरते हुए पानी पीते रहें। ऐसी निराली स्थापत्य शैली में बनी लोह लंगर बावड़ियाँ केवल जतारा में ही हैं जिनमें आदमी, पशु सभी स्वमेव स्वतन्त्रतापूर्वक जल पीते रहे हैं।
जतारा में पानी का भरपूर प्रबन्ध हुआ तो क्षेत्र का आर्थिक, धर्म, संस्कृति कि विकास हुआ। आइने अकबरी में व्लोचमैन ने लिखा है कि मदन सागर बाँध के ऊपर निर्मित किले की दक्षिणी दीवाल से संलग्न एक दरगाह अब्दा पीर की है, जहाँ अबुल फजल दुआ लेने आया करता था। वह अब्दा पीर सन्त सम्भवतः सूरीवंश के सुलतान स्लामशाह सूरी के समय जतारा में रहे हों। स्लामशाह सूरी के समय जतारा स्लामिक संस्कृति का नगर था। उस समय उसे स्लामाबाद के नाम से जाना जाता था।
टीकमगढ़ जिला गजेटियर सन 1995 पृ. 100 पर अब्दा पीर साहब के विषय में उल्लेख है कि अजमेर के ख्वाजा मुइनुद्दीन चिस्ती (सन्त) ने अपने एक मुरीद (शिष्य) ख्वाजा रुकनुद्दीन समरकन्दी की शाहबूरी के जतारा क्षेत्र में रहने की हिदायत दी थी। अपने गुरू की हिदायत पाकर ख्वाजा रुकनुद्दीन साहब, जो उस समय चन्देरी में रहते थे, जतारा (स्लामाबाद) आए और मांचीगढ़ के फूटा ताल को एकान्त-शान्त उपयुक्त समझ, वहीं रहने लगे थे। जैसे ही क्षेत्र के लोगों को ख्वाजा रुकनुद्दीन साहब के माँची के फूटा ताल पर ठहरे होने एवं उनके चमत्कारों का पता लगता गया, तो लोग उनके पास अपने दुखों-दर्दों से निजात पाने के लिये पहुँचने लगे। एक स्थानीय शेख शाह मुहम्मद रसीद साहब ख्वाजा साहब की सेवा के लिये जतारा से नित्य आने-जाने लगा। वह अपने घर से रुकनुद्दीन साहब के लिये पका हुआ खाना भी लाया करते थे।
एक दिन शेख शाह मुहम्मद रसीद, ख्वाजा रुकनुद्दीन साहब के लिये भोजन लेकर आए तो उनका पुत्र अब्दा भी बिना वालिद रसीद की जानकारी के उनके पीछे-पीछे चुपचाप चला आया और ख्वाजा रुकनुद्दीन साहब के दर के बाहर छिपकर खड़ा हो गया था।
ख्वाजा रुकनुद्दीन साहब ने कुछ देर बाद अपनी दिव्य दृष्टि से बालक अब्दा का बाहर चुपचाप अकेला खड़ा होना जाना तो शेख रसीद से उसे अन्दर दर पर लाने को बोला। शेख रसीद दर से बाहर निकले और अब्दा को चुपचाप खड़ा देखकर चकित हुआ तथा पुत्र अब्दा को लेकर ख्वाजा साहब के पास पहुँचा। ख्वाजा रुकनुद्दीन साहब ने बालक अब्दा को अपने पास बैठाकर, अपने खाना में से खाना खिलाते हुए, उसकी मुराद पूछी। बालक अब्दा ने कहा, “मुझे ऐसा वरदान दीजिए कि मैं जो चाहूँ सो वह हो जावे।” ख्वाजा साहब ने प्यार से अब्दा की ओर देखते हुए कहा, “हाँ, तेरी इच्छा पूरी होगी, जो तू चाहेगा, वही होगा।” इस प्रकार अब्दा ख्वाजा रुकनुद्दीन साहब का मुरीद (शिष्य) हो गया था। एक दिन बालक अब्दा ने ख्वाजा साहब के वरदान के परीक्षण हेतु सोचा कि जो मछली मैंने खाई है, वह जिन्दा हो जावे, तो पेट में खाई मछली मुँह से जिन्दा निकल पड़ी और तालाब में उछल गई। इस घटना से वह अपने गुरू ख्वाजा साहब के पक्के मुरीद विश्वासी हो गए थे।
कुछ समय बाद अब्दा के पिता शेखशाह मुहम्मद रसीद दिवंगत हो गए थे तथा ख्वाजा रुकनुद्दीन साहब चन्देरी चले गए थे। तब रूहानी शक्तियों से मंडित अब्दा पागल की भाँति फकीरी भेष में घूमने-फिरने लगे थे। वे कभी फूटा ताल माँची में दिखते तो कभी जतारा में बस्ती से दूर किले की दीवाल के सहारे खड़े टिके दिखते। कभी-कभी जतारा से दूर बम्हौरी गाँव की पहाड़ी पर दिखते थे। लोग उन्हें पागल सिर्री मानते थे, जबकि उनके पास तो ख्वाजा रुकनुद्दीन साहब की रूहानी (दैवी, ईश्वरीय) शक्तियाँ थीं, जिस कारण लोग उनके पास अपनी व्याधियों, दुखों के निवारणार्थ आने लगे थे। अब्दा की वाणी सफलीभूत होने लगी थी। धीरे-धीरे अब्दा फकीर पागल से अब्दा पीर रूप में प्रसिद्ध हो गए थे। वह ख्वाजा रूकनुद्दीन साहब की राह के सन्त चिस्ती ही बन गए थे।
एक दिन एक व्यक्ति अब्दा पीर साहब के पास कम्बल ओढ़े थर-थर काँपता आया। उसे तिजारी चढ़ी हुई थी। अब्दा पीर साहब ने उसकी पीड़ा देख कर, उससे कहा कि कम्बल को शरीर से हटाकर दूर रख दो। जैसे ही तिजारी वाले व्यक्ति ने अपने शरीर से कम्बल पृथक कर अलग रखा तो अब्दा साहब ने अपनी रूहानी शक्ति (दैवी शक्ति) से तिजारी को कम्बल पर चढ़ा दिया और वृद्ध व्यक्ति ठीक, स्वस्थ हो गया। परन्तु कम्बल काँपने लगा था। तिजारी उतरने से वृद्ध घर चला गया और फिर उनके पास नहीं आया। तो अब्दा साहब ने वृद्ध के हालचाल पूछने के लिये स्वयं उसके पास चलने हेतु, जमीन से कहा कि तू मुझे उस वृद्ध के पास ले चल। पलक झपकते वे उस वृद्ध के पास जा पहुँचे।
ऐसे रूहानी चमत्कारों से प्रभावित होकर लोग अब्दा पीर साहब के पास समूहों में आने लगे थे। लोग अब्दा पीर साहब को घेरने लगे थे, जिस कारण वे कभी माँची तो कभी जतारा चलते-फिरते रहने लगे थे। परेशान होकर एक दिन जतारा माँची छोड़ चार-पाँच किलोमीटर दूर पूर्व दिशा में स्थित ग्राम बम्हौरी की पहाड़ी की खोह (गुफा) में प्रविष्ट होकर छिप गए थे तथा खोह के दरवाजे को एक विशाल प्रस्तर शिला से बन्द कर लिया था। वह पहाड़ी आज भी ‘अब्दा पीर साहब की पहाड़ी’ नाम से प्रसिद्ध है। आज भी लोग बिना धर्म-जाति विभेद के अपने दुखों-व्याधियों से निजात पाने की दुअा लेने-मांगने अब्दा पीर साहब की गुफा पहाड़ी (दर) पर जाते हैं। भादों माह के जुमेरात के दिन अब्दा पीर पहाड़ी पर विशाल मेला लगता है। ओरछा राज्य की महारानी साहिबा ने पहाड़ी पर यात्रियों की सुविधा के लिये एक कोठी (सराय) बनवा दी थी। अब्दा पीर पहाड़ी के पूर्वोत्तर पार्श्व में धरम सागर (थर) नामक विशाल सरोवर है।
Courtesy: डॉ. काशीप्रसाद त्रिपाठी