(Article) विकास की बूंद- बूंद को तरसता बुंदेलखंड
विकास की बूंद- बूंद को तरसता बुंदेलखंड
क्या
होगा बुन्देलखंड का यह सवाल बुन्देलखंड के लोगांे के बीच आने वाले दिनों में सख्त
होते मौसम के मिजाज के बीच अपने आपको जददोजहद के साथ खड़े रहने और अपनी बात सूबे के
मुख्यमंत्री के दरबार में कहे तो कौन कहे को लेकर है। पिछले सरकार में सबसे अधिक
मत्रालयों और सबसे पावरफुल मंत्रियों का क्षेत्र रहा बुन्देलखंड सिर्फ माया ही नही
कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी का भी दुलारा रहा है। लेकिन वक्त बदलने के साथ सब
कुछ उल्टा उल्टा नजर आने लगा है। प्रदेश मंत्री परिषद में अपना एक भी नुमाईदा न
पाकर बुन्देलखंडी इस सोच में डूबे है कि उनके आंसू कौन पोछेगा ?कवि विमलेश के
शब्दों में-
वे हम ही हैं
जिन्हें इलाज की सबसे अधिक जरूरत
समय नही
सदी नही
इतिहास और भविष्य नही
सबसे पहले खुद को ही खंगालने की जरूरत!
देश के बीमारू राज्यों में शामिल उत्तर प्रदेश के सात जिलों में फैला बुंदेलखंड आज भी जल, जमीन और जीने के बाद के लिए तड़पते लोगांे का केंद्र बना हुआ है। महिलाओं, दलितों और वंचितों की जिंदगियां मानवीय विसंगतियों की बेपनाह गाथाओं की पुनरावृत्तियों में समाती जा रही है। रोजी-रोटी और कहीं-कहीं पानी की विकट समस्या से त्रस्त लोग साल-दर-साल पलायन के लिए मजबूर होते रहते है। सामंती मानसिकता में जकड़े कुछ लोगों की मुटठी में इन गरीब बेबस लोगों के साथ कानून की सिसकिया भरता नजर आ रहा है। प्रदेश के कुल क्षेत्रफल का आठवां हिस्सा अपने में समेटे यह समूचा अंचल भूमि उपयोग व वितरण, कार्यशक्ति, जलवृष्टि, सिंचाई, उत्पादन, सूखा व बाढ़, आजीविका जैसे तमाम मसलों पर बहुत ही पीछे है। मानवाधिकारों का तो यहां कोई पुरूसाहाल नहीं है। झांसी और चित्रकूट मडलों मं विभाजित बुंदेलखंड में प्रदेश की कुल आबादी की लगभग पांच प्रतिशत जनसंख्या है। औसत से कम बरसात के कारण प्रत्येक दो-तीन वर्ष बाद बुंदेलखंड सूखे की चपेट में आ जाता है।
कभी खरीफ तो कभी रबी और कभी दोनों फसलें चैपट हो जाती है। हर
साल तकरीबन अठारह प्रतिशत बालध्आवस्यक विवाह होते हैं। लगभग सोलह प्रतिशत जमीन बंजर
अथवा गैर कृषि योग्य कार्यो में है। बेसिक व हायर सेकंेडरी स्कूलों की स्थिति
प्रदेश के अनुपात में कही दो, कही तीन तो कहीं एक प्रतिशत के लगभग ही है। विकास के
तमाम कामों के बावजूद गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों की संख्या लगभग चालीस प्रतिशत
है, जो लोकतंत्र के मुंह पर एक करारा तमाच है। बुंदेलखंड के चित्रकूट मंडल में तो
हालात और भी बदतर है। यहां चार-चार दशकों से लोग पट्टे की जमीन पर कब्जे के लिए
भटकते नजर आते है। ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष तौर से महिलाओं और गरीबों, वंचितों
की हालत गुलामी जैसी है। अनेक तरह की खनिज सम्पदाओं पर सामन्ती विचार के लोगों के
कब्जे है। एक ही जमीन पर वन विभाग और राजस्व विभाग अपने-अपने कब्जे बताते हुए
आदिवासियों को खदेड़ देते है। भूख से मौत को गले लगाते बुन्देलखण्ड के किसानों,
मजदूरों के जीवन से हताशा निराशा और कुण्डा ने यहां की बदत्तर होती हालत
को और अधिक भयावह बना दिया है। सूबे के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मानवीय संवेदना
का परिचय भले ही दिया है लेकिन राहत का झुनझुना के स्थान पर व्यवस्था में अमूल्य
चूल परिवर्तन की वाट जोह रहे यहां के वाशिन्दों के लिऐ आने वाले दिन दूसरे कालाहांड़ी
की तरह दिख रहे हैै क्योंकि जल संकट के चलते लगातार सूखा की मार झेल रहे है।अखिल
भारतीय समाज सेवा संस्थान के संस्थापक गोपाल भाई कहते है असीमित संसाधनों पर सीमित
लोगों ने अवैध, अनैतिक अधिकार जमा रखा है। याद रहे! सच यह है कि संसाधन असीमित हैं
तथा आवश्यकताएं सीमित हैं। इस सच के बाद भी लोग भूख, अभाव, शोक, संताप से दम तोड़ रहे
हैं। सत्ता पुत्र स्व-प्रसाद के कारण इस स्थिति को स्वीकार करने को तैयार नहीं है।
ब्रिटिश काल की अपसंस्कृति का दास जिलाधिकारी नाम का अधिकार सम्पन्न काल मानव? दानव?
सत्ताधीशों का अन्तिम सत्य बन बैठा है?
लोकमत मारा-मारा भटक रहा है। यदि जिलाधिकारी ने कह दिया, लिख दिया कि भूख से कोई नहीं मर रहा, कहीं कोई अकाल, दुकाल, सूखा नहीं है, तो फिर मुख्यमंत्री का यह अन्तिम सत्य होता है?
सूबे का राजा फिर वही बोलता है जो मंत्र उसे जनता के सेवक किन्तु जिले के शेर खाल ओढ़े सिंयार मालिक से मिला है। यह कैसा दुर्भाग्य है? जिनके मत के सहारे सत्ता पुत्रों को राज सुख भोगने का अवसर मिलता है, उनके ही जीवन सच को मदमस्त होकर उनके द्वारा ठुकरया जाता है। दुर्योधन, रावण, कंस जैसे सत्ताधीशों ने लोकहितों की अवहेलना की थी, उस काल के दुष्परिणाम कौन नहीं जानता? क्या आज वैसा ही दृश्य नहीं है? चित्रकूट मंडल की धरती का दर्द बहुत ही गहरा है। इसे जहां से छुएं सिसकियां ही सिसकारियां हैं। वन विनाश, पहाड़ों का विनाश, नदी तटों की कटान, उनकी क्षमता का हास, उद्योगांे के नाम पर स्टोन क्रेसर, ग्रेनाइट आदि कार्यो के अनियमित विस्तार, धन-बलियों के साथ सत्ता के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोग, वनीकरण के नाम पर यूकेलिप्टस अथवा विलायती बबूल के रोपण, जड़ी-बूटियों और अन्य वन उपजों के क्षरण, प्राकृतिक अंसतुलन, रासायनिक खादों के बेहिसाब प्रयोगांे से खेतों की उर्वरता नष्ट होने, अधिक पानी वाली फसलों के उत्पादन पर जोर और निष्प्रभावी प्रशासन तंत्र आदि-आदि व्याथियों से घिरी यह धरती वेदना के अथाह सागर में डूबी है। चित्रकूट मंडल के पाठा क्षेत्र में पानी की त्राहि-त्राहि है। जबकि इसके भूगर्भ में 12 किलोमीटर चैड़ी और 110 किलोमीटर लंबी नदी बहती है। जहां से जहां से तीस से चालीस हजार गैलन प्रति घंटे के हिसाब से पानी निकाला जा सकता है। यह सब एक भगीरथ प्रयास से ही संभव है। यदि काई भगीरथ ऐसा ठान ले तो हर साल बुंदेलखंड में साठ से सत्तर करोड़ रू. का बजट केवल पानी की उपलब्धता के लिए बनाने की जरूरत नहीं रह जायेगी। सरकारी ग्रामीण विकास योजना गांव की अर्थव्यवस्था को सुधार नहीं पायी है। गरीबी, असमानता, बेरोजगारी और पलायन जैसी विकराल समस्याएं आज भी बरकरार है। आज तक ग्रामीणों को बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो पायी । केन्द्रसरकार ने प्रदीप जैन आदित्य को केन्द्रीय राज्यमंत्री बनाया है । लेकिन बुन्देलखंड के उत्तर प्रदेश के भू-भाग में आज जनता के पास दो वक्त खाने का अनाज नहीं है। और न कोई रोजगार उपलब्ध है। सिंचाई, स्वास्थ्य और शिक्षा की सारी योजनाएं अपना व्यापक असर नहीं डाल पायी है।
सरकारी वायदें और नीतियों ने ऐसें चैराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है। जहां से लौटना कठिन है समाजवादी विचारक राजेन्द्र रजक कहते है कि सत्ता के दलालों का बुन्देलखण्ड में बोलबाला है। मजदूरों की मजदूरी हड़पना इनकी नीति बन गयी है। महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना बेरोजगारी की समस्या का हल नहीं कर पायी। लाखों लोग गांव छोड़कर छह से आठ मास के लिए पलायन कर जाते है। सामाजिक सुरक्षा योजना द्वारा गरीबों को मिलनेवाले अनाज डीलरों द्वारा खुले बाजार में बेच दिया जाता है। आय वृद्धि योजना के तहत अनेक ग्रामीणां को कर्ज के फंदे में लटका दिया गया है। राशन की दुकानों से गरीबी रेखा से नीचे के लोगों द्वारा राशन का उठाव बहुत कम है। विकास कार्यो के निर्माण में कमीशन, लेबी और चोरी आम है। कई ठेकेदार बताते है कि किसी भी निर्माण कार्य में उन्हें 35 प्रतिशत तक अफसरों को कमीशन देना पड़ता है। ग्रामीण विकास कार्य ठोस नीति और जनभागीदारी के अभाव में विफल साबित हुआ है। अभी तक ऐसी कोई नीति नहीं बनाई गइ्र जो ग्रामीण समुदाय के लिए संरचनात्मक ढांचा उपलब्ध करा सके। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद सूचनाएं आम जनता तक नहीं पहुंच पाती है। असंवेदनशील अफसरों की सामन्ती मानिकसता के कारण कई दिशा-निर्देशों का अनुपालन नहीं किया जाता। गरीब आदिवासी अपने पेट की आग शांत करने के लिए सामा घास की रोटी खाने को मजबूर है। स्थानीय प्रशासन भूख की समस्या को सामने नहीं आने देता चाहता है क्यांेकि उनकी कलई खुलने का खतरा रहता है। सकरा का सच सामने आने के बाद ललितपुर के मड़ावरा ब्लाक में स्थानीय प्रशासन की नींद थोड़ी टूटी है, लेकिन सामंतो का यहां भी शासन है। कांग्रेस के झांसी पूर्व जिलाध्यक्ष सुधांशु त्रिपाठी कवि अग्निवेद की यह कविता कोड करते है ‘ऊचे बंगले और घर तभी तक रहेगे कायम जब तक झोपड़ियों में जलते दीपक में है दम!’ बीहड़ और डाकुओं के लिए बदनाम बुन्देलखण्ड के किसानों को पेट की आग के लिए बीहड़ों का रास्ता तय करने को मजबूर होना पड़ेगा। सामाजिक कार्यकर्ता वासुदेव कहते हेै ” भवंरा तोरा पानी गजब कर जाये, गगरी न फूटे खसम मर जाये“ यह शब्दो मे पिरोये बुन्देलखण्ड के उस सच की अभिव्यक्ति है कि पानी कितना अनमोल है। गा्रमीण अर्थ व्यवस्था की धुरी जल स्त्रोतों के घटने कारण पूरी तरह चरमरा जाने की चिन्ता से परेशान वैज्ञानिक भूमिगत जल भण्डार में इजाफा करने के लिए तुरन्त उपाय अपनाने की भले ही चेतावनी दें लेकिन बुन्देलखण्ड में सिचाई के परम्परागत साधन चन्देलकालीन तालाब पिछले दो दशकों में अतिक्रमण के चलते समाप्त होने की दशा में पहुंच गये हैं। पूर्ववर्ती सरकार के दौर में भूगर्भ जल स्तर बड़ाने के लिए बुन्देलखण्ड में चैक डेम निर्माण में व्यापक धांधली का नंगा नाच हुआ है पूर्व में बने चैक डेम को नया चैक डेम बताकर पूरी की पूरी राशि हड़प ली गई है जाँच की आँच से भले ही धन की बंदरबाट करने वालों को कानून अपनी गिरफ्त में लेकर सजा दिलाये पर ऐसी विषम परिस्थितियों में निश्चत हो आने वाले दिनों में जल संकट का क्या रूप होगा। यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम आबादी को किस तरह नियंत्रित कर पाते है। जल संकट संबंधी आंकड़े कितने भी भयावह क्यों न हो, अब हमें चैंकाते नहीं है, क्यों कि हम अपने समय के साथ जीते हैं तथा भविष्य की समस्या हमने आने वाली पीढ़ियों के लिए रख छोड़ी है। देश के बड़े भाग में गर्मी की शुरूआत के साथ ही भीषण सूखे की पदचाप सुनाई देने लगती हैं। कभी वर्षो होने में थोड़ी देर हुई नहीं कि देश में सूखा पड़ने का हाहाकर मच जाता है। विगत वर्षो से पड़ रहे सूखे से देश के सामने गंभीर स्थिति खड़ी कर दी है। अगर लोग पानी के प्रति सचेत नही हुए तो स्थिति और भी हो सकती है।
डा. आशीष पटैरिया कहते है। प्रदेश में बढ़ती जनसंख्या के दबाव के कारण वनों को अंधाधुंध काटा जा रहा है जंगल हरियाली के बजाय कंक्रटी के जंगलों में तब्दील होने जा रहा है। गांवों और शहरांे में पुराने तालाब, बावड़ियो को भर दिया गया है जो बरसात में पानी को एकत्रित कर शेष महीनों में भू-जल का स्तर बनाये रखते थे। बुन्देलखण्ड पैकेज की लूट को मुद्दा बनाने के साथ-साथ बुन्देलखण्ड की खनिज सम्पदा पर बसपाराज में पड़ी खुली डकैती का सिलसिला अब भी जारी हैसपा के लोगो पर शिकजा कौन कसेगा ? क्या केन नदी में बालू के अत्याधिक दोहन करके प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ने वाले सीखचो में होगे ? बुन्देलखंड कांग्रेस के अध्यक्ष रणबीर सिंह यादव बुन्देली भाषा में कहते है कि बिना धनी धोरी को निकरो बुन्देलखंड क्षेत्र अभागों, पैलें अंग्रेजन ने ई भाग को दो पाटन में बाँट दौअ और अब हमें मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश सरकार
मिलन नही दे रई।
ऊ का जानै पीर पराई
घाव होता ना जेखे
ख्यालीराम नेह की नईया
पर लगा देव खे के ।।
बुंदेलखंड में विकल्प एवं पहल की संभावनाएं पर ध्यान देने के लिए युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से ठोस पहल की आवश्यकता है क्योंकि पिछले लगभग एक दशक में चित्रकूट मंडल के बांदा, महोबा, हमीरपुर, चित्रकूट जिलों में औसत वर्षा होती रही है। लेकिन जरूरत के समय एक-एक महीने तक लगातार बारिश न होने से फसले सूख जाती है। बेतवा,केन, धसान, सहजाद, मंदाकिनी जैसी नदियांे के बावजूद सिंचाई के संसाधनों का समुचित विकास नहीं किया गया। फलतः सिंचाई के अभाव में यह क्षेत्र लगातार सूखा झेलता आ रहा है। समाजसेवा की आढ़ में अनेक स्वयंसेवी संस्थाऐं बुन्देलखंड को चारागाह के रूप में इस्तेमाल कर रही है उन्हें इस क्षेत्र के गरीबांे से कोई मतलब नहीं है। खादी का कुर्ता और जीन्स पहनकर बुद्धिजीवी बने तथा कथित लोग पुरूस्कार पाने की होड़ में सेवा का का नाटक करते हुये करोड़ों रूपये का अनुदान हड़प रहे है। इन स्वयंसेवी संस्थाओं ने एक भी कार्य ऐसा नहीं किया है जिसका उललेख किया जा सके। फर्जी सेमीनार और गोष्ठीयों के बल पर बिल बावचर बनाकर मालामाल हो रहे है। झांसी मण्डल तथा चित्रकूट मंडल से जुड़े ललितपुर एवं चित्रकूट जिले में खासतौर से प्राकृतिक संसाधनों के समतामूलक स्वामित्व और उपयोग को गरीबी अन्मूलन के प्रमुख हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन मड़ावरा, जखौरा, बार ब्लाक ललितपुर के उपेक्षा का दर्द सह रहे है। चित्रकूट जिले के मानिकपुर और मऊ ब्लाकों में शुरूआती दौर में कुछ स्वयंसेवी संगठनों ने थोड़ा बहुत कार्य किया है। चित्रकूट जिले की लगभग छह लाख की आबादी में एक लाख साठ हजार अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग निवास करते है। मऊ और मानिकपुर ब्लाकों में अनुसूचित जाति और जनजाति के तिहत्तर हजार लोग रहते है, इन दोनों ब्लाकों की कुल आबादी लगभग दो लाख चालीस हजार है। इस क्षेत्र में रहने वाले ज्यादातर कोल तथा सहरिया आदिवासी पहले अपनी भूमि के मालिक होेते थे। लेकिन पिछली लगभग एक शताब्दी के दौरान शोषण के गहन कुचक्र के कारण वे अपनी ही जमीन पर बंधुवा मजदूर बनकर रह गये। डेढ़ दशक पहले उत्तर प्रदेश डेवलपमेंट कारपोरेशन (यूपीडेस्को) के सर्वेक्षण में बताया गया था कि पाठा के 7336 अनुसूचित जाति के परिवारों में से 2316 परिवार बंधुवा मजदूर थे। पूरे क्षेत्र में डाकुओं के गिरोह भी अरसे से सक्रिय है। ललितपुर के मड़ावरा में आदिवाशी भारी कुपोषण के शिकार है तो विद्यालयों में घटिया खाद्ययान का वितरण हो रहा है। पेंशन के लिए चित्रकूट में महिलायें भटक रही है। झांसी तथा हमीरपुर के नागरिक प्रदूषण पैदा कर रही है क्रेसर और मौंरग की खदानो से परेशान है तो महोबा में शिक्षा के लिए बच्चे मध्यप्रदेश में पलायन कर रहे है। चारों ओर आक्रोश फैला हुआ है। कवि पाश के शब्दों में आपके मानने या न मानने से सच को कोई फर्क नहीं पड़ता।
इन दुखते हुए अंगों पर सच ने एक जून भुगती है।
और हर सच जून भुगतने के बाद
युग में बदल जाता है
और यह युग अब खेतों और मिलों मंे ही नहीं
सेना की पांतों में भी विचर रहा है।
कल जब यह युग
लाल किले पर परिणाम का ताज पहने
समय की सलामी लेगा
तो आपको सच के असली अर्थ समझ आएंगे।
अब हमारी उपद्रवी जाति को
चाहे इस युग की फितरत कह लें,
यह कह देना,
कि झोपड़ियों में फैला सच
कोई चीज नहीं।
कितना सच है?
आपके मानने या न मानने से
सच को कोई फर्क नहीं पड़ता।
By: सुरेन्द्र अग्निहोत्री