(Report) बुन्देलखण्ड में जड पकड चुकी सूखे की समस्या

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बुन्देलखण्ड में जड पकड चुकी सूखे की समस्या

बचाव और पुनर्वास विकासीय योजनाओं की नीति और माडल में परविर्तन के बाद ही सम्भव: अवधेश गौतम

http://t0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSlov-TFn2LVhJ_3uY4WpMZLiwt-LNQoXZLoYB3ClCSrpmUZR4&t=1&usg=__sd23773bc5SQM7n1LjebYfxO0Zs=पिछले 21 वर्षों से बुन्देलखण्ड सूखे की मार झेल रहा है। यहां सूखे ने अपनी सारी सीमाएं पार कर दी हैं। तालाब गन्दे नाले नालियों के संगंम क्षेत्र बन कर रह गए हैं, बरसात के दिनों में भी नदियां अपना जलस्तर ठीक नहीं कर पाती। तालाब, कुंए तथा हैण्डपम्प साल के दस महीनें सूखे रहते हैं, भूगर्भ जल अत्यन्त नीचे जाकर भी गिरावट से थमने का नाम नहीं ले रहा। नदियां बरशात के दिनों में भी अपने बांधों को छमता के अनुसार भर नहीं पा रही। खेती ऊशर हो चली है, बडे किसान साहूकारों और बैकों के कर्जे न अदा कर पाने की ग्लानिवश आत्महत्याऐ कर रहे हैं। मझोले-छोटे किसान, कृषक मजदूर, कृशिगत व्यवसाइ गांवों से पलायन कर गए है। बाजारों में गरीबी का सन्नाटा पसरा है। सूखा अभी तक के परिभाषित सभी चरण पूरे कर नए आयाम गढने जा रहा है।

मेटोलोजिकल (सतही) सूखा तो यहां प्रतिवर्ष ही बना रहता है। यह सूखे की वह स्थिति है जब किसी निश्चत क्षेत्र में एक निश्चत समय अन्तराल में औसत वर्षा में आधे से अधिक की गिरावट आ जाती है, ऐसी स्थिति में जमीन की समह पर एकत्र पानी सूख जाता है। तालाबों, नालों का पानी सूख जाता है और कुओं तथा उथलें हैण्डपम्पों का जलस्तर नीचे चला जाता है। सूखे के इस स्तर से निपटने केलिए यहां के किसानों ने एक विशेष कृशिसंस्कृति विकसित कर ली थी। घाटे मुनाफे कि फिक्र छोड कम पानी में पैदा होने वाली फसलों की मिश्रत खेती किसान अपनी आजीविका के आधार के रुप में करते रह हैं।

चूंकि मेट्रोलोजिकल सूखे की स्थिति यहां हमेषा ही बनी रहती है इसलिए एग्रीकल्चरल (कृशीय) सूखा यहां एबस्ल्यूट (परम) स्थिति में ही पडता है, और एक दो साल के अन्तराल में यह सूखा भी यहां अक्सर पडता है। पिछले इक्कीस सालों में यह सूखा हरसाल या एक साल बाद यहां दस्तक दे रहा है। सूखे की इस स्थिति में साल में वास्तविक वर्षा, औसत से भले ही बहुत अधिक क्यों न हो लेकिन, किसी निर्धारित अवधि में जलवायु और मिट्टी में निर्धारित आद्रता का प्रतिषतदर बहुत कम हो जाती है, जिससे फसलों की प्रगति रुक जाती है, वह पकने के पहले ही सूख जाती हैं। खेती फिर तो घाटे का सौदा हो जाती है।

किसान बेरोजगारी और गरीबी से पूरी तरह टूट जाता है। लेकिन उसकी आवाज कहीं नहीं सुनी जाती। अन्ततः किसान टूट जाता है और वह कृषि के अलावा अपनी आजाविका कि तलाश अन्य कहीं करता है, जिसमें से एक पलायन भी है। वह अपनी आजाविका सूरत पंजाब में तलाशता है। किसानों का अपना फसलचक्र टूट जाता है, कृशक मजदूर और कृषि के सहयोगी व्यवसाइयों के पलायन से कृषि मशीनों का दबाव बढता है, उसकी उत्पादन लागत में बृद्धि हो जाती है तथा कृषि पर बाजार का नजायज दबाव भी बढ जाता है।

सूखे का तीसरा और सबसे भयावह चरण है हाइड्रोलोजिकल (भूगर्भीय) सूखा। निरन्तर दस या इससे अधिक वर्शों तक मैट्रोलोजिकल तथा एग्रीकल्चरल सूखा एक साथ पडने के बाद यह स्थिति पैदा होती है। सूखे की इस स्थिति में भूगर्भ जलस्तर बहुत नीचे चला जाता है। सतहीजल, कुएं, हैण्डपम्प सूख जाते हैं, नदियों तथा भूगर्भ का जलस्तर बहुत नीचे चला जाता है और भूस्खलन शुरु हो जाता है। पषुपक्षी तथा मनुष्य पेयजल केलिए व्याकुल हो जाते हैं। नदियों तथा भूगर्भ का जलस्तर नीचे गिरने से शहरों की जलापूर्ति भी प्रभावित हो जाती है और फिर चारो तरफ शोर मचता है, तब कहीं जाकर सरकार चेतती है और तब सूखे केलिए राहत और बचाव कार्य शुरु होता है।

सूखे का चौथा और अन्तिम चरण है, सोशियो इकनोमिक (समाजार्थिक) सूखा। सूखे की निरन्तरता के साथ एक दसाब्दी से अधिक व्यतीत होने के बाद सूखे का यह चरण आता है, जिसमें पूरे समाज का ही व्यवहार ही बदला हुआ नजर आता है। समाज में आक्रामकता बढती है और सहनशीलता घट जाती है। रोजी रोजगार की तलाश में गांव के गांव खाली हो जाते हैं। गरीबी गांवों के साथ ही अब शहर और बाजार में भी पांव पसारने लगती है। शोषण, भ्रष्टाचार और अराजकता पांव पसारने लगती है, व्यवस्था के ऊपर से जनसामान्य का विश्वास उठ जाता है। समस्याओं की गम्भीरता को देख व्यवस्था भी समाधान की बजाय समस्या और उसके कारणों को गलत ढंग से परिभाषित करने लगती है।

बुन्देलखण्ड सूखा आज इन परिथितियों को भी पार कर चुका है। अस्सी का दसक खतम होते होते यहां के गांवों से पलायन की समस्या उजागर हो गयी थी और उन्नीसवीं सदी पूरी होते होते यहां का बडा और मंझोला किसान कर्जदार हो गया था। गरीबी और कुपोषण के चलते किसानों की मौते तथा कर्जदाताओं का कर्ज अदा न कर पाने के कारण उनके द्वारा आत्महत्याओं की खबरें सन 2001 में आने लगी थी। सन 2006-7 में भूगर्भ जल के अत्यन्त नीचे जाने, से गांवों तथा शहरों में पेयजल का संकट गहरा गया था और धरती दरकने से भूगर्भवैज्ञानिक भी सकते में आ गए थे।

उसी समय गरीबी गांवों के बाद षहरों में भी अपना साम्राज्य बना चुकी थी जहां बहुत सारे लोग गरीबी के कारण बेहाल हो गए हैं वहीं चन्द लोगों के घरों में साक्षात लक्ष्मी वास करनें लगी है। केवल सामाजिक मूल्यों का ही नहीं बल्कि मानवीय मुल्यों का भी जबरजस्त हृास हुआ है। यदि गरीबों के साथ लूट - खसोट की घटनाएं आम हुई हैं वहीं खुद को और अपनें बच्चों को भुखमरी से बचाने केलिए मां बाप अपने दुधमुहें बच्चों का सौदा कर डाला।

"अवधेश गौतम ने एक विस्लेषण के बाद कहा है कि सूखे के ये चार चरण और प्रत्येक चरण के यह परिणाम किसी स्वैच्छिक सामाजिक संगठ का कोई अध्ययन या परिकल्पना नहीं बल्कि अस्सी के दशक केलिए उत्तर प्रदेश सरकार के योजना आयोग ने सूखोन्मुख क्षेत्र विकास कार्यक्रम (डी0पी0ए0पी0) के परियोजना प्रस्ताव की भूमिका में यह तथ्य उजागर किए थे, बाद में सूखे के इसी तथ्य को कृषि प्रसार और प्रशिक्षण निदेशालय ने अपने प्रशिक्षण साहित्य में उद्ध्रत किया है।

इस बात से सब को खुशी होनी चाहिए कि हमारी सरकारें हमारी आपदाओं को पहचानती तो बहुत बेहतर तरीके से हैं, लेकिन अफसोश बस इस बात का है कि आपदाप्रवन्धन के लिए किए जा रहे सारे प्रयास आपदा को और अधिक गहराने वाले क्यों हो जाते हैं। यदि वास्तव में हमारी सरकारें हमारी आपदाओं के प्रति संवेदनशील हैं तो अब तो विकास नीति और विकास के मांडल में ही अमूल चूल परिवर्तन की आवष्यकता होगी। बिना ऐसा किए अब बुन्देलखण्ड को रेगिस्तान और वीरान होने से बचाया नहीं जा सकता।

अवधेश गौतम, उत्तर प्रदेश