केन्द्रीय ग्रामीण विकास रिपोर्ट 2012-13
केन्द्रीय ग्रामीण विकास रिपोर्ट 2012-13
केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री श्री जयराम रमेश ने आज यहां अपने मंत्रालय की 2012-13 की रिपोर्ट जारी की। इस अवसर पर योजना आयोग के सदस्य डॉ. मिहिर शाह और आईडीएफसी फाउंडेशन के कार्यकारी अध्यक्ष डॉ. राजीव लाल ने भी रिपोर्ट के मुख्य बिन्दुओं पर प्रकाश डाला। बाद में ग्रामीण आजीविका को बढ़ावा देने पर विचार-विमर्श भी हुआ।
श्री जयराम रमेश ने सरकारी कार्यक्रमों के अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में प्रभावी नहीं होने के मामले में कहा कि हम इस सिलसिले को ठीक करने के ध्येय से स्वतंत्र और समवर्ती आकलन कार्यालय स्थापित करने जा रहे हैं ताकि निरंतर आकलन से हम अपने ग्रामीण विकास कार्यक्रमों में सुधार करते रहें। योजना आयोग के सदस्य डॉ. मिहिर शाह ने पानी को ग्रामीण जनजीवन की केन्द्रीय आवश्यकता बताया। उन्होंने कहा कि संबद्ध सरकारी विभागों और समुदायों की भागीदारी से जल प्रबंधन के विभिन्न पहलुओं पर समग्र रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि यह ग्रामीण आजीविकाओं को खासतौर से प्रभावित करता है। डॉ. राजीव लाल ने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों की चुनौतियों के नवोन्मेषी समाधान बहुत जरूरी हैं क्योंकि ग्रामीण उपभोग और आकांक्षाएं दोनों ही बढ़ रहे हैं। हम ग्रामीण जनसंख्या की आजीविका के संसाधनों को बढ़ाने के लिए उसे आधारभूत सेवाएं और अवसर प्रदान करने में और अधिक विफल नहीं रह सकते।
रिपोर्ट में ग्रामीण जन-जीवन के विभिन्न पहलुओं की विस्तृत समीक्षा की गयी है। इनमें क्षेत्रीय विषमताएं और अभाव, आजीविकाओं की बदलती प्रवृत्तियॉ प्राकृतिक संसाधनों की स्थिति, राज्य और स्थानीय निकायों की बदलती भूमिकाएं शामिल हैं। इसके साथ-साथ महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कार्यक्रम (मनरेगा) सहित ग्रामीण विकास से जुड़े सभी मुख्य केन्द्रीय कार्यक्रमों और योजनाओं की समीक्षा भी इस रिपोर्ट में शामिल है। इस रिपोर्ट को नीति निर्माताओं, राज्य सरकार और स्थानीय निकायों, अनुसंधानकर्ताओं और निजी क्षेत्र के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन माना जा सकता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि आधारित आजीविकाओं के लिए नई रणनीतियां बनाने की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि --
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ग्रामीण जनता, विशेष रूप से लघु और सीमांत किसान केवल कृषि आधारित आय से अपना जीवनयापन नहीं कर सकते। देश में 85 प्रतिशत लघु और सीमांत किसान ही हैं। इसके अलावा कुल कृषि भूमि में से 50 प्रतिशत से अधिक भूमि गैर-सिंचित भूमि होने के कारण वहां के किसानों को अपनी आजीविका की व्यवस्था करने में और अधिक कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
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गैर-सिंचित कृषि भूमि पर मक्का जैसी परम्परागत फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इसके लिए मक्का की विभिन्न पोषक किस्मों की खेती को बढ़ावा देना होगा तथा उसकी खरीद और सार्वजनिक वितरण प्रणाली से बिक्री को प्रोत्साहित करना होगा।
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अकेले लघु अथवा सीमांत किसान को फसलों में निवेश, उनके भंडारण, ऋण और बिक्री को लेकर अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है इसलिए ऐसे किसानों द्वारा सामूहिक खेती को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
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आंध्र प्रदेश में लगभग 20 लाख किसानों ने सामूहिक रूप से प्रबंधित खेती अपनाकर इस दिशा में अच्छा काम किया है। इससे उनकी खेती की लागत घटी है और उत्पादन बढ़ा है।
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कृषि क्षेत्र में जल उपादेयता भी संकट में है क्योंकि 80 फीसदी जल का प्रयोग कृषि कार्यों में होता है। जल को सामुदायिक संसाधन के रूप में लेना चाहिए और भूजल और सतही जल दोनों के प्रबंधन को जल के विभिन्न प्रकार के उपयोगों का एक समग्र दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए।
गैर कृषि आय स्रोत का तेजी से बढ़ता महत्व– 43 फीसदी ग्रामीण परिवार अपने महत्वपूर्ण आय स्रोत के रूप में गैर-कृषि रोजगार पर भरोसा करते हैं।
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भारतीय ग्रामीण परिवार बहुआयामी प्रकृति का होता है, जो अपने खेतों में काम करते हैं, दूसरों के खेतों में काम करते हैं, पशुपालन का कार्य करते हैं और गांवों एवं शहरों में गैर-कृषि कार्यों के लिए आते-जाते हैं।
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गैर-कृषि रोजगारों में अच्छी मजदूरी मिलती है और इससे निम्न जाति के लोगों को कृषि श्रम से बाहर निकलकर सामाजिक रूप से उपर उठने का मौका मिलता है। इस बात के भी सबूत हैं कि उच्च गैर-कृषि मजदूरी की वजह से कृषि मजदूरी में भी बढ़ोत्तरी हुई है।
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निर्माण एवं व्यापार जैसे गैर-कृषि कार्यों की प्रकृति आकस्मिक होती है। विनिर्माण क्षेत्र से जुड़े रोजगार भी कई बार अनौपचारिक रूप से बढ़े हैं। इससे कामगारों को रोजगार सुरक्षा और औपचारिक रोजगार के फायदे नहीं मिलते हैं।
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गैर-कृषि आजीविका में कर्ज मिलने में असुविधा, विपणन एवं क्षमता जैसे महत्वपूर्ण बाधाओं से निपटना जरूरी है। वित्तीय क्षमता प्रशिक्षण कठिन है। प्रशिक्षुओं को नौकरी या अच्छे वेतन का भरोसा नहीं मिलता और नियोक्ता ऐसे प्रशिक्षण को उपयुक्त नहीं मानते। जबकि, कुछ परियोजनाओं ने इसके लिए उच्च स्तर के समाधान की जरूरत दर्शायी है।
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हाल ही में सरकार ने आजीविका नाम से एक कार्यक्रम को आरंभ किया है, जिसका उद्देश्य कौशल विकास, छोटा व्यवसाय शुरू करने में गरीबों की मदद करना और स्वयं सहायता समूहों के जरिए गरीबों की पूंजी तक पहुच बढ़ाना है।
गरीबी हालांकि घट रही है लेकिन फिर भी कुछ क्षेत्रों और सामाजिक समूहों में यह निरंतर बढ़ रही है --
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वर्ष 1993-94 में सात राज्यों झारखंड, बिहार, ओडिशा, असम, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में 50 प्रतिशत गरीब थे जबकि 2011-12 में इनकी संख्या 65 प्रतिशत हो गयी। हालांकि 2009-10 के बाद बिहार, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश में गरीबी काफी घटी है।
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राजस्थान के साथ ये राज्य अब तक शिक्षा, बाल और मातृत्व स्वास्थ्य तथा चिकित्सा सेवाओं के क्षेत्र में भी सबसे पिछड़े हुए हैं।
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इन राज्यों में केवल 18 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों को ही तीन आधारभूत सेवाएं - अपने परिसरों में पेयजल, शौचालय और बिजली की सुविधा उपलब्ध है। इनकी 20 प्रतिशत आबादी को तो यह सुविधाएं बिलकुल भी उपलब्ध नहीं हैं।
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इन तीनों सुविधाओं से सर्वाधिक वंचित 200 जिले राजस्थान और असम को छोड़कर उक्त सात राज्यों में ही हैं।
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अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के वर्ग में सर्वाधिक गरीबी व्याप्त है। वर्ष 2009-10 में ग्रामीण गरीबों में 44 प्रतिशत संख्या इन्हीं वर्गों की थी।
रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्पादकता को बढ़ाने वाली आधारभूत संरचना गरीबी निवारण में राजकीय सहायता (सब्सिडी) से अधिक कारगर साबित होती है --
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पिछले कुछ वर्षों में सड़कों, बिजली और दूरसंचार के साधनों से गांवों में आपसी संपर्क बढ़ा है। हालांकि इन सुविधाओं की गुणवत्ता और रखरखाव की स्थिति बुरी है।
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देशभर के गांवों को हालांकि विद्युत ग्रिड से जोड़ दिया गया है लेकिन फिर भी 45 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास बिजली के कनेक्शन नहीं हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में विद्युत आपूर्ति भी विश्वसनीय नहीं है। जलापूर्ति का अभाव है अथवा प्रदूषित पानी उपलब्ध होता है। 70 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास शौचालय की सुविधा नहीं है।
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शिक्षा, पोषण और स्वास्थ्य की स्थिति भी बहुत खराब है, जिसका मुख्य कारण सरकारी स्वास्थ्य कर्मियों और अध्यापकों का अनुपस्थित रहना होता है।
रिपोर्ट में कहा गया कि पिछले अनुभव के आधार पर सरकार की बदलती हुए नीतियों में निम्नलिखित उपाय आवश्यक हैं --
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ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी परिसंपत्तियों के सामुदायिक स्वामित्व को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। अनेक स्थानों पर सामुदायिक निगरानी व्यवस्था के अच्छे परिणाम सामने आए हैं।
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प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के अंतर्गत जो 12 मासी सड़कें बनाई जा रही हैं उनके ठेकों में रखरखाव भी शामिल होता है। राज्यों को इन सड़कों के रखरखाव के लिए अलग से धन की व्यवस्था रखनी चाहिए।
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वर्ष 2011 की सामाजिक-आर्थिक और जातीय गणना में अनेक अभावों की बात सामने आई है, जिनकी ग्राम सभाओं ने भी पुष्टि की है। राज्य सरकार को इस तरफ ध्यान देना चाहिए।
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राज्य सरकारों और पंचायत राज संस्थानों के लिए स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप केन्द्रीय योजनाओं में पर्याप्त लचीलापन रखा जाना चाहिए।
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योजनाओं के बेहतर कार्यान्वयन की दृष्टि से विभिन्न मंत्रालयों और राज्य सरकार तथा स्थानीय निकायों के बीच जवाबदेही सुनिश्चित की जानी चाहिए।
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ग्रामसभाओं द्वारा विभिन्न सेवाओं की लेखा परीक्षा को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। ग्रामसभाओं को उनके कार्यनिष्पादन के आधार पर अधिक धनराशि दिया जाना भी ठीक रहेगा।
पंचायत राज संस्थानों के बारे में सोचा गया था कि वे भागीदारी और जवाबदेही के आधार पर स्थानीय प्रशासन को और अधिक पारदर्शी और कुशल बनाने में सक्षम होंगे किंतु कई कारणों से वे ऐसा करने में विफल रहे हैं --
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राज्य सरकारों को और अधिक धनराशि तथा आवश्यक स्टाफ उपलब्ध कराकर पंचायत राज संस्थाओं को मजबूती प्रदान करनी चाहिए।
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ग्रामसभाओं की भागीदारी के अधिकार और सामाजिक लेखा-परीक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ाकर ग्रामीण विकास के कार्यक्रमों में भ्रष्टाचार और बड़े लोगों के हस्तक्षेप पर प्रभावी ढंग से अंकुश लगाया जा सकता है।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के अंतर्गत लगभग 25 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों को 40-50 दिन का रोजगार उपलब्ध हुआ है जिससे यह देश के इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा कार्यक्रम बन गया है --
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इस योजना से गरीबों, वंचित परिवारों, महिलाओं तथा अजा/अजजा के वर्गों का खासतौर से भला हुआ है।
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इस योजना के अंतर्गत सृजित कुल कार्य-दिवसों में 50 प्रतिशत कार्य-दिवस महिलाओं को उपलब्ध हुए हैं।
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इस योजना से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से गरीबी निवारण में काफी मदद मिली है और इसके कारण कृषि मजदूरों का पारिश्रमिक भी बढ़ने का दबाव पैदा हुआ है।
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सर्वाधिक गरीबी से पीडि़त उक्त राज्यों में काम की मांग के बावजूद इस योजना का समुचित कार्यान्वयन नहीं हो पाया है। इसका मुख्य कारण उक्त राज्यों में कमजोर प्रशासन ही दिखाई देता है।
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कार्य उपलब्ध कराने और मजदूरी के भुगतान में विलम्ब तथा इंजीनियरिंग स्टाफ की कमी इस योजना की अन्य खामियों में शामिल हैं। इन्हें दूर करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
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अच्छी गुणवत्ता वाली परिसंपत्तियों के निर्माण तथा ग्रामसभाओं की अधिकाधिक भागीदारी की इस योजना को और बेहतर बनाने में कारगर भूमिका हो सकती है।
Courtesy : PIB
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