(कविता "Poem") 'क्रषक' by चेतन' नितिन राज खरे
(कविता) 'क्रषक'
'निज कर से करते क्रषि कार्य,
वो क्रषक तभी कहलाते हैं,
अपने अतीत को दे बिसार
नित नव कोपलें सजाते हैं
'हर घडी हर पहर में
लू व शीतल लहर में
रुकता नही वो कर्मवीर
किसी प्रक्रति के भी कहर मे
'डाल भाग्य का दाना भू पर
कुछ उससे आश संजोता है
फिर रखता है उम्मीद उसी से
जो हंशी-खुशी से बोता है
'फिर भी उस गरीब किसान को
अब लगती किसी की हाय है
हो जाती बरसात बे-मौसम
नही होता कोई सहाय है
सूबे की सरकार तुरत फिर
सबको राहत देती है
सौ-दो सौ की नकदी देकर,
उसकी चाहत लेती है
नित उस पर भी बैंकर्स के
बन्धे कमीशन अपार हैं
मिलते हैं छ: सौ रुपये
गर आये जो हजार हैं
अब क्या करे किसान वह
बन्द न्याय के दरबार हैं,
फैला है चहुंदिश अन्धेरा
लटकती नग्न ये तलवार है
'By : चेतन' नितिन राज खरे महोबा, बुन्देलखण्ड
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