(Report) बांदा : बडोखर बुजुर्ग - इन्हे आज भी एक रहनुमा का इन्तजार है..

इन्हे आज भी एक रहनुमा का इन्तजार है

विकास खण्ड महुआ, तहसील नरैनी थाना गिरवां के अन्तर्गत ग्राम पंचायत बड़ोखर बुजुर्ग के ग्राम भटपुरवा जनपद बांदा में बसने वाले 700 दलित कपड़िया आदिवासी को आज भी एक रहनुमा का इन्तजार है। दिनांक 3.03.2010 को प्रवास ने अपनी टीम के साथ बदहाली में बसने वाले इन कपड़िया समुदाय के बीच जाकर जमीनी विकास की बानगी को पेश करने की जहमत उठायी है। शहर बांदा से 15 किमी0 दूर नरैनी विधान सभा क्षेत्र, मेडिकल कालेज मार्ग में 5 किलोमीटर की ऊबड़ खाबड़ सड़क से गुजरने के बाद दूर से ही नजर आता है भटपुरवा आदिवासियों का मजरा कहना गलत नहीं होगा कि जब हमारे पड़ोस में हालात इतने बद्तर हैं, तो सुदूर बीहड़ में रहने वाले गरीब, तंगहाल, भूख से जूझते लोगों की पूंछ कौन करेगा आखिर नक्कार खाने में तूती बोले भी तो कैसे। 28 फरवरी को होली के दिन इस मजरे में भूख से होने वाली खुदकुशी की खबर जिला प्रशासन के साथ उत्तर प्रदेश सरकार में बैठे आला हुक्मरानों को भी नहीं है। उसकी यथा स्थिति की तस्वीर टूटी हुयी झोपड़ी और उसकी दीवारों पर पड़ी लकीरों में साफ देखी जा सकती है। कपड़िया जनजाति आज भी सरकारी, गैरसरकारी विकास की बहुआयामी योजनाओं से पूरी तरह वंचित हैं। लगभग 300 महिला पुरूष मतदाता एवं फटेहाल कुपोषण के शिकार, अधनंगे बदन बच्चों को देखकर कलेजा मुंह को आता है। ये तो वही बात हुयी कि हादसा मेरे घर में है और खबर पहरेदार को नहीं है।

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मनरेगा जैसी केन्द्र सरकार की रोजगार परक योजना भी इन बस्तियों की बदहाली में दम तोड़ती नजर आती हैं। पूरी बस्ती के बीच रहने वाला प्रधान का खासम खास जगरूप कपड़िया जाब कार्ड धारक अपनी दो मंजिला भवन के साथ घास फूस से बनी झोपडियों का मजाक उड़ाता है। जहां इन्दिरा आवास योजना में इस बस्ती के कुल चार लोगों को आधे अधूरे आवास निर्गत किये गये हैं। उनमें आवास धारक राजू, सिपहिया, मुन्ना, बाबूलाल टूटी झोपड़ी के साथ देहरी पे बैठकर महंगाई में ईंट और सीमेन्ट का रास्ता देखते हैं। जब बस्ती में विद्यालय नहीं तो बच्चों की मिड्-डे मील योजना कैसे नजर आये। सर्व शिक्षा अभियान का माखौल पूरी तरह से इस मजरे में देखने को मिलता है। पूरी बस्ती में सर्वाधिक रूप से पढ़े लिखे व्यक्तियों में जंगबहादुर, जगरूप, भोला, रंजीत, मृतक सुरघलाल ही आंशिक रूप से साक्षर हैं जिनमें जंगबहादुर सर्वाधिक कक्षा- 8 पास है शेष 0 से 14 वर्ष के सभी बच्चे शिक्षा के अधिकार से बेदखल हैं।

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बाल विकास परियोजना (आई0सी0डी0एस0) में प्राथमिक स्वास्थ्य चिकित्सा केन्द्र, आंगनवाड़ी जैसे बुनियादी स्वास्थ्य केन्द्रों की पहुंच इन गांवों में नहीं है। बड़ोखर बुजुर्ग में ही एक मात्र आंगनवाड़ी केन्द्र है, जो कि कभी-  कभार सरकारी प्रशासनिक अधिकारियों के भ्रमण के समय ही खुलता है और आंकड़े दर्ज होने के बाद नजरबन्द हो जाता है। इस बस्ती के बीच पुराना जर्जर एक कुंआ जिसकी तलहटी में बचे हुये पानी से ये 700 लोग अपनी प्यास बुझाते हैं, जो कि पूरी तरह फ्लोराइड युक्त है। जिसके चलते महिलाओं और बच्चों के दांतों में पायरिया जैसा संक्रामक रोग उनके पीले और बदबूदार दांतों का सबब है। विद्युतीकरण जैसी कोई स्कीम यहंा के लोगांे को अभी तक लाभ नहीं पहुंचा सकी है। किसी भी व्यक्ति के पास अपनी निजी जमीन नहीं है तो सिर्फ पशु और मवेसियों जैसी टूटी झोपड़ी अध्ययन के दौरान इस बस्ती के लालाराम, सुखदेव, गयाप्रसाद, सज्जन, मुन्ना, चुनबाद, जगदीष, राजकुमार, बन्नी, उर्मिला, इन्द्रजीत, फूलकली, गिरजा, सन्ती, मनिया, लीला, सिपहिया, देषराज, चन्दी ने अपने बयानों मे यह बात स्पष्ट रूप से व्यक्त की है कि किसी के पास बी0पी0एल0 कार्ड उपलब्ध नहीं है। कुछ लोगों के पास बने हुये पीले राशन कार्ड में तेल ही दिया जाता है। जब बांदा के नजदीकी सीमावर्ती क्षेत्र से लगे इस मजरे को देखते हैं तो विकास के उन पायदानों में सुराख नजर आता है जिसकी दुहाई सरकारी आवाम नहीं देती है। ताजा घटना क्रम मंे इस मजरे की दो महत्वपूर्ण दुर्घटनायें एक कड़वी हकीकत हो सकती है कि सच को इस बस्ती में किस कदर पर्दे के पीछे खड़ा किया गया है।

 

1. 28 फरवरी 2010 को भूख से जूझते मजदूर ऋषिपाल ने अपने पीछे विधवा पत्नी मिल्ला देवी के साथ चार मासूम छोटे बच्चे जिनमें दो लड़के और दो लड़कियां हैं को छोड़कर आत्म हत्या कर ली। लेकिन ग्राम प्रधान अशोक श्रीवास ने इसकी कानोकान खबर तक किसी को नहीं लगने दी और आनन फानन में पोस्टमार्टम कराते हुए लाश को दफन कर दिया। पूरी तरह से कर्ज से लिप्त यह भूमिहीन परिवार आज एक सरकारी मदद को तरस रहा है। इस क्षेत्र में काम कर रहे तमाम स्वयं सेवी संगठन जो इनके लिये ही बनाई गयी लाभकारी स्कीमों से मालामाल हुये हैं वे भी इनकी तंगहाली से मुंह चुराते नजर आते हैं।

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2. पिछले दस दिन पहले इसी मजरे के युवा राजाराम (35 वर्ष) की पैगम्बरपुर से साइकिल द्वारा भटपुरवा लौटते समय ट्रैक्टर से टकराकर मृत्यु हो गयी। ट्रैक्टर नं0 डी0आई0-35/यू0पी0 90 सी0 (4210) सोनालिका वाहन आज तक पकड़ा नहीं गया और न ही इस मृतक परिवार को किसी भी प्रकार की सहायता प्राप्त हुयी विधवा प्यारीबाई के साथ छः छोटे बच्चे जिनमें तीन लड़के तीन लड़कियां और बूढ़े मां बाप परिवार चलाने की जिम्मेदारी का मात्र जरिया स्वयं प्यारीबाई है। ये तस्वीर है उस भुखमरी से कराह रहे बुन्देलखण्ड की जहां के ये आदिवासी एक मात्र खजूर की झाड़ू बनाने का पेशा करते हैं इसके लिये इन्हे गांव से 25 किलोमीटर दूर प्रतिदिन गिरवां, अजीतपुर, जरर, खोही, मनीपुर खजूर लेने जाना पड़ता है। आधुनिक झाड़ुओं की चकाचैंध में कच्ची मिट्टी की राख साफ करने वाली खजूर को झाड़ू को पूंछता कौन है। इसी बस्ती के आठ परिवार गांव से रोजगार की तलाश में पलायन कर चुके हैं। भ्रमण के समय कहीं पर जवान होती बिटिया की शादी की चिन्ता और कहीं पर रोजीरोटी की मारामारी साफ देखी जा सकती है।

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अगर यह सच है आधुनिक भारत का तो क्यों चलायी जाती हैं ग्राम विकास की योजनायें, आखिर किसके लिये बनाया जाता है भोजन और शिक्षा का अधिकार ?

आशीष सागर 
प्रवास, बुंदेलखंड