(Report) मनरेगा का सच - MNREGA ka Sach
मनरेगा का सच
मनरेगा के 843 करोड के पैकेज से नहीं सुधरी बुन्देलखण्ड की तस्वीर
- गावों में काम नहीं, परदेश को पलायन
- विकास को धता बता रहे खाली तसले
- ग्रामीणो ने किया वोट का बहिष्कार
- क्रिकेट का मैदान बने लाखो के माॅडल तालाब
प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री से मिलकर केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जय रामरमेश ने भले ही उनसे मनरेगा योजना की सीबीआई जांच की मांग की हो लेकिन बुन्देलखण्ड की तस्वीर इस जांच से भी सुधरने वाली नहीं है। तमाम गांवो के मजदूरो को मनरेगा में जहां काम नहीं मिल रहा है वहीं प्रशासनिक अमला मनरेगा के करोड़ो रूपयो के पैकेज से काम दिलाने का दम भर रहा है। योजना का भारी भरकम रूपया खर्च न कर पाने की चलते बीते वित्तीय वर्ष 2010-11 में ही मनरेगा योजना से मिले केन्द्र सरकार के 843.67 लाख रूपये मे से महज 685.59 लाख रूपये ही खर्च हो पाये है। लक्ष्य पूरा न कर पाने के कारण 158 करोड रूपया बुन्देलखण्ड की बंजर जमीन से वापस लौट गया।
गांव में काम नहीं मिलने के चलते जहां ताजा सर्वे के आंकडो पर गौर करे तो विधानसभा चुनाव 2012 में ही तकरीबन 4 लाख मतदाता शहरो की तरफ पलायन कर चुका है। निर्वाचन आयोग के मतदाता जागरूकता कार्यक्रम और सरकारी स्कूलो के माध्यम से निकाली जा रही जनजागरण रैलियां भी परदेशी बाबू को घर लौट आने का संदेश नहीं दे सकी। लाखो की तादाद में बुन्देलखण्ड के किसान गरीबी के चलते परदेश में मजदूर बनने को लाचार होते है। विभिन्न सरकारी योजनायें जहां उनके विकास का दावा करती है वहीं बुन्देलखण्ड का किसान हर सरकारी योजना की मण्डी बनकर रह जाता है। मनरेगा के बजट को जिलो के अफसर खर्च नहीं कर पा रहे है। सातो जनपदो को दी गयी वर्ष 2010-11 की मनरेगा धनराशि पर गौर किया जाये तो सरकारी मिश्नरी पर सवालियां निशान खड़ा हो जाता है। कहीं न कहीं मनरेगा योजना भी और योजनओ की तरह आंकडो की बाजीगरी में सिमट कर रह गयी है। बुन्देलखण्ड के सात जनपदो में बांदा, चित्रकूट, महोबा, हमीरपुर, झांसी, ललितपुर, जालौन को कुल 843.67 लाख रूपये दिया गया था। खर्च हुआ सिर्फ 685.59 लाख। कितने ही गांव ऐसे है जहां अगर मनरेगा की गाइड लाइन ही उठा लें तो एक भी गांव कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा। यहां यह भी बतलाना है कि मनरेगा सिर्फ योजना ही नहीं केन्द्र सरकार के द्वारा पारित कराया गया काम के अधिकार से निकला मनरेगा अधिनियम भी है। भारत वर्ष में अगर राजस्थान को छोड़ दिया जाये तो अन्य प्रदेशो में मनरेगा योजना खासकर बुन्देलखण्ड के संदर्भ में विकास की योजनाओ पर फटे हुये कपड़े के ऊपर थिंगरा लगा देने जैसी बात है। जहां मनरेगा कार्य स्थल पर करवाये जा रहे काम का बोर्ड लगा होना चाहिये वहीं बोर्ड के ऊपर कुल बजट, कुल मजदूर, जाॅब कार्ड होल्डर, मैट का नाम, कार्य दिवस की अवधि के साथ-साथ सामग्री और अन्य चीजो पर किये गये पूरा ब्योरा लिखा होना चाहिये। वहीं बुन्देलखण्ड के किसी भी जनपद में मनरेगा की गाइड लाइन के दिये गये शासनादेश देखने को नहीं मिलते। जिले पर बैठे मुख्य विकास अधिकारी से लेकर मनरेगा के अन्तिम पायदान पर खड़े गांव के दबंग मैट यकीनन मनरेगा योजनाओ को भ्रष्टाचार की भेंट चढा रहे है। बानगी स्वरूप जनपद बांदा की ग्राम पंचायत मटौंध ग्रामीण के मजरा पटना को ही देखें तो हाल ही में सम्पन्न हुये चैथे चरण के विधानसभा चुनाव में विकास न होने के चलते पटना के रहवासियो ने सामूहिक रूप से लोकतंत्र को चुनौती दी। पटना मजरे में मौजूद 520 मतदाताओ ने पहली बार बुन्देलखण्ड में वोटों का बहिष्कार कर दिया। पटना गांव के प्रगतिशील किसान बृजेश सिंह चुन्नू बताते है कि वर्ष 1985 के बाद से मैने कई बसन्त देखें और कई बार प्रशासन को लिखित रूप से पटना की दास्तान सुनाई मगर विकास के नाम पर पटना के हिस्से में साल दर साल चुने हुये ग्राम प्रधान और विधायक ही आये। जनप्रतिनिधियो ने जहां पटना मजरे के लिये दिये गये विकास के धन पर लूट खसोट की मनरेगा योजना से बनने वाले माॅडल तालाब, मेडबन्धी, औषधीय पौधो की बागबानी, सड़क निर्माण कार्य नहीं कराये गये। बकौल बृजेश सिंह विकास नहीं तो वोट नहीं ये है मनरेगा का सच। तिन्दवारी विधानसभा की चुनाव प्रेक्षक श्रीमती एम0बी0 सावित्री, सेक्टर मजिस्ट्रेट व सदर एस0डी0एम0 बांदा अमित सिंह अपने लाव लश्कर के साथ पटना गांव के ग्रामीणों द्वारा वोटों के बहिष्कार की सूचना मिलते ही आठ ट्रकों में फौज फाटा लेकर पटना पहुंचे। तकरीबन एक घण्टे की प्रशासनिक तू-तू-मै-मै के बाद भी बात नहीं बनी और अधिकारियों को वापस लौटना पड़ा। एक पटना ही नहीं विधान सभा चुनाव 2012 के पांचवे चरण के सम्पन्न हुए चुनावों में जनपद हमीरपुर के कस्बा कुरारा में भी बेरी गांव के ग्रामीणों ने सामूहिक रूप से मतदान का बहिष्कार किया है। मुद्दा वही है विकास नहीं तो वोट भी नहीं। बेरी गांव में शामिल तमाम छोेटे मजरों के ग्रामीणों ने भी पोलिंग पार्टियों को दिनभर खाली बैठाकर मतदान नहीं करके खूब छकाया। छोटे मजरों में इन्द्रपुरी, बिन्दपुरी, बरौली आदि में एक भी मतदाता ने वोट नहीं किया। ग्रामीणों की मानें तो इस गांव में भी पटना गांव की तरह ही बुनियादी समस्यायें सिर उठाये खड़ी हैं। पीने को पानी नहीं, चलने को सड़क नहीं, हाथ को काम नहीं और युवा पलायन की मार झेल रहा है। गांव के राजेश सिंह, विजय सिंह, आदित्य तिवारी, संगम शिवहरे, भरत सिंह, नफीस, निहाल खान आदि का कहना है कि पिछले वर्षों के चुने हुए और विधायकों ने उनके हिस्से में विकास की एक किरण नहीं लिखी।
बेरी गांव में आज भी ढिबरी (दिया) की रोशनी में प्राथमिक पाठशाला की पढ़ाई करते हैं। गांव की पगडण्डियों से चलकर मजलूम किसान काम से खाली तसलों को देखकर सिहर उठता है। प्रधान की प्रधानी से परेशान गांव के जागरूक मतदाता राजेश सिंह दो टूक कहते हैं कि ‘‘जब सब कुछ हमें ही करना है तो इन नेताओं को वोट क्यों दिया जाय ? क्या हम मतदाता पांच वर्ष के चुनावों मंे सम्पन्न हुए वोटों की मण्डी हैं ? अगर विकास नहीं मिलता है तो हम वोट क्यों करें ?’’ कुरारा के एस0डी0एम0 एच0जी0एस0 पुंडीर, ए0एस0पी0 एस0पी0 उपाध्याय, एस0डी0एम0 सदर प्रबुद्ध सिंह की काफी जद्दो जहद और मान मनउवल के बावजूद ग्रामीणों ने वोट नहीं डाले और अधिकारियों को बैरंग लौटा दिया।
चालू वर्ष 2011-12 में मनरेगा योजना से बांदा जनपद को कुल 6310 लाख रूपये प्राप्त हुये इसमें से 197 लाख रू0 प्रशासनिक व्यय, 1925 लाख सामग्री व्यय, 36 लाख कुशल मानव श्रम पर, 4151 लाख अकुशल मानव श्रम पर शेष 192 लाख रू0 आवर्ती व्यय मदो पर खर्च किया गया है। किताबी आंकडो में मनरेगा के रूपये का बन्दरबांट मसूर जमीनी शायर अदम गोंडवी की पंक्तियां कहने को मजबूर करता है कि ’’तुम्हारी फाइलो में गांव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकडे झूठे है ये दावा किताबी है।’’
बांदा में वर्ष 2011-12 के लिये प्राप्त बजट |
|||
ब्लाक | प्राप्त बजट | खर्च | शेष (लाख रू0में) |
बबेरू | 992.66 लाख | 795.15 लाख | 197.51 |
बडोखर | 931-068 | 792-12 | 159-055 |
बिसंडा | 875-24 | 624-83 | 230-40 |
जसपुरा | 558-72 | 412-82 | 145-89 |
कमासिन | 721-13 | 593-055 | 128-080 |
महुवा | 776-52 | 704-60 | 71-91 |
नरैनी | 1298-59 | 996-15 | 302-44 |
तिंदवारी | 895-58 | 652-39 | 242.99 लाख रू0 |
बुन्देलखण्ड में 2010-11 में जिलों का बजट और खर्च |
||
जिला | बजट | खर्च (करोड़ रूपये में) |
बांदा | 120-41 | 109-33 |
चित्रकूट | 98-35 | 71-54 |
हमीरपुर | 134-75 | 114-37 |
महोबा | 33-79 | 57-98 |
झांसी | 142-14 | 105-92 |
जालौन | 157-21 | 135-05 |
ललितपुर | 107-02 | 91-40 |
योग | 843-67 | 685-59 |
सदर विधायक बांदा एवं कांगे्रस के प्रदेश मीडिया प्रभारी विवेक सिंह ने मनरेगा योजना में किये जा रहे जनपद बांदा के भ्रष्टाचार को आड़े हाथो लेकर प्रदेश की माया सरकार पर फब्तियां कसी। उन्होने कहा कि अगर वे पुनः 2012 में विधायक बनकर आते है तो केन्द्र सरकार से कह कर योजना में किये गये घपलों की जांच करवायी जायेगी। केन्द्र सरकार के ड्रीम प्रोजेक्ट को प्रदेश की बसपा सरकार ने जमकर लूटा है बंुदेलखंड पैकेज में की गयी धांधली इस बात की नजीर है। वही दूसरी तरफ बांदा के जिला ग्राम विकास अभिकरण में नियुक्त परियोजना निदेशक ने विधायक विवेक सिंह से असहमत होते हुये कहा है कि बंुदेलखंड की जलवायु में किसान के अंदर काम करने की शारीरिक क्षमता ही नही है। यहां रहने वाले बासिंदो को देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे कितना काम कर सकते है। परियोजना निदेशक कहते है कि मनरेगा में अन्य कामो को छोड़कर माॅडल तालाब की खुदाई के लिये मजदूरो के साथ साथ जेसीबी मशीन का भी इस्तेमाल किया जाना चाहिये। उनका मानना है कि मजदूर के तसलो से भरी हुयी मिट्टी से कहीं अधिक जेसीबी की मशीन में मिट्टी निकालने की कूबत होती है ये बात और है कि मनरेगा अधिनियम के तहत मशीन से काम करवाये जाने पर प्रतिबंध है। हाल ही के कुछ वर्षो में बंुदेलखंड प्रदेश ही नहीं देश की सियासत में भी चर्चित हुआ है। चाहें देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का बीते वर्ष 2011 में बांदा की सरजमीं पर दौरा रहा हो या फिर चुनावी तापमान को गरमाने वाली सम्पन्न हुई रैलियों में राहुल गांधी, उमा भारती, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान, कांग्रेस के उ0प्र0 प्रभारी दिग्विजय सिंह, सपा मुख्यिा मुलायम सिंह, शिवपाल सिंह यादव, 87 करोड़ की दलित मायावती, भाजपा की स्टार प्रचारक सुशमा स्वराज, बसपा के बागी नेता बाबू सिंह कुशवाहा रहे हो या फिर गाहे बगाहे सियासत के मंच पर फिल्मी डायलाग बोलने वाले बिहारी बाबू शत्रुघन सिन्हा, रबीना टंडन, राज बब्बर ही क्यो न हो सभी ने मतदाताओ को अपने-अपने पाले में करने की कवायत की है। लेकिन लम्बे चैड़े भाषणो में मंच से बुन्देलखण्ड के गरीब किसान, सिंचाई के टूटते साधन, खेती किसानी को पुर्न जीवित करने के मुद्दे दिखायी नहीं पड़े। आखिर क्यो किसी भी पार्टी के चुनावी एजेण्डे में मनरेगा के भ्रष्टाचार को उजागर नहीं किया गया यह और बात है कि राहुल गांधी ने बाहें समेटकर केन्द्र सरकार को मनरेगा योजना चलाने का श्रेय दे डाला। बांदा समेत महोबा, चित्रकूट, हमीरपुर, जालौन से ही कई गांवो में काम न मिलने के कारण युुवा, किसान भाई बड़े शहरो में प्रवास करते है। जहां हाड़ तोड़ मेहनत करने के बाद उन्हे बमुश्किल काम के बदले पेट भरने के लिये रोटी नसीब होती है। लेकिन विडम्बना है कि कुछ पाटियो के नेता चुनावी मंचो से बुन्देलखण्ड के किसानो को भिखारी कहने का माद्दा रखते है। क्या अपने ही मुल्क में काम करना भींख मांगना है ? यदि हां तो क्यों नहीं गरीब, युवा, किसान भाईयो को उनके ही गांवो में रोजगार दिला पाने का साहस किया गया। बुन्देलखण्ड में रोजगार न मिलने से पीड़ित छोटे किसान के लिए अपने परिवार के भोजन को जुटा पाने की भारी चिन्ता रहती है। जहां आज भी बुन्देलखण्ड में खासकर ग्रामीण इलाकों में संयुक्त परिवार का बोलबाला है वहीं एक परिवार में अमूमन 6 से 7 सदस्य आम तौर पर होते हैं। यदि परिवार का बटवारा न हुआ हो और दो पीढ़ियां साथ-साथ रहती हों तो इसी संयुक्त परिवार की जनसंख्या 12 से 15 सदस्यों के बीच आंकी जा सकती है।
मनरेगा योजना में जहां सरकार ने 100 दिन के काम को बढ़ाकर 120 दिन कर दिया है। मगर फिर भी मजदूरों की मजदूरी नहीं बढ़ी। मंहगाई बढ़ती गयी साग सब्जी और रोज मर्रा की जरूरतों के खर्च भी बढ़े। लेकिन बुन्देलखण्ड जैसे बीहड़ों में जिन्दगी बसर करने वाले अशिक्षित और कम पढ़े लिखे आम आदमी के लिए रोजगार की तलाश कर पाना मुश्किल होता है। केन्द्र सरकार की बहु आयामी मनरेगा योजना के ख्वाबों से बुन्देलखण्ड के किसानों को उड़ने के पंख नहीं मिले। काम की तलाश में बड़े शहरों की तरफ भटकते हुए बेकार युवा गांव को छोड़कर महानगरों की चकाचैंध में अपने साथ संस्कृति के विलोपन को भी तीज त्योहारों में घर वापस ले आते हैं। विड़म्बना यह होती है कि महानगरों के प्रदूषण और आबो हवा के गुबार से संयुक्त परिवारों की जिन्दगी अब बुन्देलखण्ड में भी बटाई, बटवारा और कचेहरी के मुकदमों में ही गुजरने को मजबूर है। जनपद बांदा में नरैनी क्षेत्र के सामाजिक कार्यकर्ता राजाभइया यादव का कहना है कि बुन्देलखण्ड में मनरेगा योजना से हर साल करोड़ों के वारे न्यारे होते हैं। कामगार को काम नहीं मिलता और जरूरत मंदों को जाॅब कार्ड नहीं मिलता। यहां तक की मुर्दों के भी जाॅब कार्ड बना दिये जाते हैं। नरैनी क्षेत्र के कोलावल रायपुर, शहबाजपुर, पुकारी, गोबरी, निहालपुर जैसे सुदूरवर्ती गांव विकास की मुख्य धारा से अछूते हैं। केन्द्र सरकार के ग्रामीण विकास राज्यमंत्री प्रदीप जैन आदित्य बुन्देलखण्ड की सरजमीं से आते हैं। जनपद झांसी से निर्वाचित प्रदीप जैन आदित्य कई मर्तबा राहुल गांधी के साथ बुन्देलखण्ड के गांव का दौरा कर चुके हैं। आम जनसभा और चुनावी मंचों से उन्होंने न सिर्फ कई बार मनरेगा योजना में किए जा रहे भ्रष्टाचार की बात कही है बल्कि यह भी स्वीकारा है कि केन्द्र सरकार से भेजे जाने वाले पैसे को पत्थर का हाथी खा जाता है। मनरेगा योजना निगरानी समिति के संजय दीक्षित ने बीते दिनों चित्रकूट जनपद में मौजूद पत्रकार वार्ता में खुलकर कहा कि उत्तर प्रदेश सरकार ने मनरेगा योजना से मिलने वाले गरीब किसानों के पैसों लखनऊ की सड़कों में पत्थर की मूर्तियां लगवाकर और जातीय सामाजिक रैलियों में खर्च किया है।
राजनेताओं के द्वारा लगाये जा रहे आरोप प्रत्यारोप कितने सच हैं। यह तो आने वाली सरकार की तय करेगी लेकिन जमीनी हकीकत है कि बुन्देलखण्ड के किसान को मनरेगा योजना भी रोजगार नहीं दे सकी।
By: आशीष सागर
- Anonymous's blog
- Log in to post comments