(Article) बदलते हालात ने इन्हें भिखारी बना दिया
बदलते हालात ने इन्हें भिखारी बना दिया
बांदा/बुन्देलखण्ड : यूं तो शहर और गांवों की पगडण्डियों और ग्रामीण, शहरी लोगों की किस्मत और उनकी बदहाली को सजाने सवांरने के लिये अनगिनत प्रयास किये जा रहे हैं। लेकिन हैरत तब होती है जब अपने शहर की चन्द कदम की दूरी से एवं शहर के वी.आई.पी. परिक्षेत्र में भूख से टूटती जीवन प्रत्याशा को देखते हैं। बांदा जनपद के वन विभाग, सिविल लाइन्स के नुक्कड़ में रहने वाली इन दो बुजुर्ग महिलाओं की जीवन कहानी भी किसी उपन्यास के कथानक से कम नहीं है।
कुसुमकली, उम्र 80 वर्ष थाना कबरई की निवासी है जाति से विष्वकर्मा (लोहार) ओ0बी0सी0 से ताल्लुक रखती है। पिछले 15 वर्ष पूर्व उसका पलायन कबरई से बांदा हुआ था। कभी चलती ट्रेनों में भीख मांगकर गुजारा करने वाली इस निरीह महिला के पीछे अब जवान भतीजों की युवा पीढ़ी है। जिन्हें न तो खून के रिष्तों का एहसास है और न ही उसके बूढ़े हृदय में पनप रहे दर्द की परवाह। कुसुमकली के पिता गज्जी का इन्तकाल वर्षों पहले हो चुका है। पिता के कुछ वर्ष गुजर जाने के बाद मां भी इस दुनिया से चल बसी अपने भाई किषोरी के सहारे इस महिला ने जीवन को काटने का साहस किया पर बड़े भाई की शादी होते ही घर आई नई नवेली भाभी के तानों और उत्पीड़न को बर्दाश्त करने की क्षमता से टूट चुकी यह महिला लगातार 10 वर्षों तक चलती ट्रेनों में भीख मांगकर जिन्दगी बसर करने लगी। लेकिन भूख बड़ी हत्यारन होती है, थक हारकर इसका बांदा आना हुआ। घरों में काम करना और इसके बदले 100-150 रूपये मासिक मिलने के बाद जो कुछ बचता वह उसी किस्मत का हिस्सा बनता। शहर के इन्दिरा नगर, वन विभाग, बिजली खेड़ा के घरों में बर्तन मांजने वाली कुसुमकली बाई के रूप में जानी जाने लगी।
आशीष सागर बताते हैं कि कभी उसने हमारे यहां भी बर्तन मांजने का काम किया था। जब कभी मुहल्ले में शादी ब्याह होता तो उसकी किस्मत थोड़ी मेहरबान होती। मसलन बारात का बचा हुआ खाना और परजों को मिलने वाली हल्की धोती से उसका बदन ढक जाता। इस बीच रिष्तों को समझने वाली यह बाई जो कुछ भी जोड़ती उसे अपने भईया भाभी को कबरई में दे आती थी। लोगों के लाख समझाने के बाद भी इसकी ममता ने बूढ़ी काकी के पैरों को नहीं रोक पायी। शरीर जर्जर हो गया और घरों में काम करना बुढ़ापे एवं आंखो की कम होती रोषनी के साथ छूटता चला गया। अभी कुछ दिन पहले ही वो कबरई गयी थी। लेकिन अब पीहर में पूंछता कौन है ? भतीजों ने मार पीटकर घर से चलता कर दिया। कल जब धर से निकलते हुए इस बदहवास महिला को अपनी टूटी हुई झोपड़ी बनाते देखा तो सहसा कदम आंगे नहीं बढ़े, उसने बुझी आंखो से जो कुछ भी दिल का गुबार था कह डाला। इस दरम्यान वह अपने हाथों में दो लीटर की प्लास्टिक की बाल्टी इस तरह से थामे रही की मानो उसे कोई छीनकर ले जायेगा। चलते चलते उसका यह शब्द अब भी मेरे कानों के आसपास गूंजता है कि- ‘‘बिटवा मोर कौनो निहाय, सब मर गये हैं कोऊ खांवै का नहीं देत आय।’’ जब एक बार फिर उसे अपनी ही टूटी झोपड़ी और वक्त के साथ टूटते रिश्तों के बीच उसकी हालत को शहर के वी.आई.पी. क्षेत्र में देखते हैं, तो बरबस ही सबसे पहले यह सोंचना पड़ता है कि वृद्धा अवस्था पेंशन आखिर क्यों और किनके लिये बनी है। भले ही इसकी बीमारी और लाचारी का अब कोई पूंछने वाला न हो लेकिन कहीं न कहीं एक मौन प्रश्न रह जाता है समाज में तिरस्कृत हुए उन तमाम बुजुर्गों की ओर से जो गांवो और शहर के बीच की दूरी नापकर स्वयं के मातृत्व मोह में अपने परिवार से दूर ही नहीं जाना चाहते लेकिन विषम परिस्थितियां और बदलते हालात ही उन्हे भिखारी बना देते हैं, उन्ही लोगों के कारण जिनके लिये उन्होने सारा जीवन अर्पित कर दिया।
तिन्दवारी ब्लाक के गांव पिपरहरी की मूल निवासी - शिवदेवी बिधवा महावीर तिवारी इसके तीन पुत्र क्रमषः- रमेष, सागर और तीसरा वह जिसका उसे नाम तक याद नहीं है। मेरे जहन में ऐसा पहली बार घटा है कि एक मां को अपने ही बेटे का नाम याद नहीं है। पिछले 45 वर्ष की जीवन लीला को याद करते हुए वो बताती है कि वर्ष 1995-96 में गांवो के ही दबंग रिश्तेदारों से आजिज आकर उसे गांव से शहर पलायन करना पड़ा। उसका मृतक पति उस समय बांदा में ही रिक्शा चालक था। हमने स्वयं भी कभी शहर की गलियों में उसे कई मर्तबा झुकी हुयी कमर के साथ आर्थिक तंगी को ढोते रिक्षा चलाते हुए देखा था। वह अपने तीनों लडकों और पति के साथ इसी वन विभाग के नुक्कड़ पर बनी झोपड़ी में रहा करती थी। मगर समय की रफ्तार और बढ़ती हुयी मंहगाई से उसके रिक्षे की रफ्तार पीछे छूटती चली गयी। बड़ा लड़का जब ब्याह की उम्र का हुआ तो वापस गांव की ओर लौटकर पड़ोस की ही एक लड़की के साथ घर बसा लिया। फिर दोबारा कभी उसने मां-बाप की ओर नहीं देखा।
शिवदेवी का दूसरा पुत्र रमेश पास के ही हरिजन बस्ती में रहने वाले वे बहुतेरे रिक्शा चालक जो अब मौसमी साधुओं का चोला चढ़ायें हैं और अमावस्या व पूर्णमासी को चित्रकूट के अलावा करीबी धार्मिक स्थानों में जाकर भोली भाली जनता को ठगी और गोरख धन्धे का शिकार बनाते हैं। इसके बदले होने वाली मोटी कमाई से उनकी गांजे और शराब की लतें पूरी होती हैं का सदस्य बन चुका है। वह अब कभी मां की तरफ नहीं निहारता क्योंकि उसे खुद के धार्मिक कार्यों से फ़ुर्सत नहीं है। शिवदेवी का तीसरा लड़का जो पांच-छः वर्ष पूर्व दिल्ली या सूरत जा चुका है। उसका नाम पूंछने पर वो बुजुर्ग महिला सहम उठती है और बहती हुयी आंखो से निकला हुआ शब्द कहता है कि मुझे उसका नाम याद नहीं है।
ये दोनों ही वृद्ध महिलायें अपने पास आयी हुये हर उस अन्जान व्यक्ति से मदद की गुहार करती हुयी नजर आती हैं और तब तक उसे जाने नहीं देना चाहती कि जब तक वह व्यक्ति भगवान की पदवी से नवाजा न जा चुका हो पर हाथ और शहर के प्रत्येक व्यक्ति का दिल इतना गरीब हो चुका है कि मदद के लिये उठता ही नहीं बहुत दूर नहीं जब हमारे गाहे-बगाहे ही इस तरह से रिश्तों और मनुष्यता का कत्ल हो रहा हो, तो आप गांव से दूर जा रहे प्रत्येक ग्रामीण परिवार की हृदय वेदना व मानवीय संवेदना का अनुमान सहज ही लगा सकते हैं। भूख से टूटते और गरीबी से बिलखते बुन्देलखण्ड के इन निरीह और असहाय बुजुर्गों को बुढ़ापे की लाठियां चाहिए, घरों की छत व खून के रिश्तों की महक चाहिए ताकि जीवन के अन्तिम सोपानों में सफर कर रहे ये लोग सुकून के साथ कब्रगाह का सफर तय कर सकें।
आषीष सागर, प्रवास, बुन्देलखण्ड
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Comments
bundhelkhand for right to food
Guhaar
जिंदगी का रंग अगर इतना ही दहसत भरा होता है तो या खुदा किसी को ज़िन्दगी न दे , कफ़न दे दे मगर इस तरह की बदनसीबी न दे................
I totaly agree with subhan singh because from 2 years I have also breating in same situation in Gujarat and Pinching by Relianc( Mukesh Ambani Group), Our family have reached on the door of Genocide(Mukesh Ambani Group-RELIANCE). Please help us!
Dr.Ashok Kumar Tiwari
दिले-नादाँ मुकद्दर को बराबर
दिले-नादाँ मुकद्दर को बराबर कोसता है क्यूँ ,
गमे-हयात में कौन सिकंदर है मुकद्दर का |
''अभिज्ञानी ''