(Report) पत्थरों में जान डालने वालों की जान खतरे में

अपने छोटे से आशियाने में परिवार संग मूर्तियां गढ़ता रमेश

"पत्थरों में जान डालने वालों की जान खतरे में "
[Azhar Khan]

महोबा: पत्थरों को तराश कर देवी प्रतिमाएं गढ़ने वाले जिले के संगतराशो की जान जोखिम में है। पेट की आग बुझाने की खातिर पुश्तों से यह काम कर रहे संगतराशों के फेफड़ों में इन्हीं पत्थरों का पाउडर समाता जा रहा है। नतीजतन सिलिकोसिस की चपेट में आकर एक दर्जन से अधिक कारीगर चल बसे वहीं तमाम अभी भी जान जोखिम में डाल देवी मूर्तियों को जीवंत कर रहे हैं। नगर के मुहल्ला छजमनपुरा में सड़क किनारे अपना आशियाना बनाये एक दर्जन परिवारों की आजीविका का प्रमुख जरिया संगतराशी है। सधे हाथों से किसी भी पत्थर में जान डालना ही इनके काम की खासियत है। यह इन कलाकारों की अंगुलियों का जादू ही है कि अनगढ़ पत्थर से तराशी गई प्रतिमा भी बोल उठती है। मूल रूप से फतेहपुर जिले के पथरकटा चैराहा निवासी रमेश का कहना है कि अब घरेलू इस्तेमाल की पत्थर की बनी वस्तुएं लोग कम ही खरीदते हैं। वहीं मेहनत का वाजिब दाम भी नहीं मिलता है। मूर्तियों में अधिकतर हनुमान जी की मूर्तियां ही बिकती हैं। यह मूर्तियां टीकमगढ़, झांसी, ग्वालियर, दिल्ली, भोपाल जैसे शहरों को भी भेजी जाती हैं। रमेश का कहना है कि इस पेशे से सिर्फ दो वक्त की रोटी ही जुटाई जा सकती है।

STONE CRAFTING

रात दिन मेहनत कर अपने परिवारों का पेट पाल रहे इन कलाकारों को बदले में सांस की बीमारी भी मिल रही है। पूरे जिले में ऐसे 46 परिवार हैं जो देवी प्रतिमाएं बना रहे हैं। आर्थिक तंगी के चलते महंगा इलाज करा पाने में भी यह असमर्थ हैं। संगतराश घातक सिलिकोसिस बीमारी के शिकार होकर मौत के मुंह में समाते जा रहे हैं। बीमार होने के बावजूद रात दिन छेनी हथौड़े के साथ इन्हीं पत्थरों के साथ जूझना इनकी मजबूरी भी है क्योंकि रोजी रोटी  का कोई और साधन नहीं है। न रहने का ठिकाना न भरपेट भोजन। कुपोषण के शिकार इन परिवारों की हालत बहुत दिनों से एक जगह पर बसे होने के बावजूद घुमंतू जैसी है। पत्थरों पर छैनी हथौड़ा चलाते समय इससे निकली डस्ट फेफड़े में पहुंचकर सिलिकोसिस जैसी घातक बीमारी पैदा कर रही है।

मुकम्मल घरौंदा भी इनके पास नहीं है, लिहाजा जमीन पर ही इनकी पूरी गृहस्थी रहती है। इनके परिवार कुपोषण के शिकार हैं। रमेश का कहना है कि छह माह पहले उसका भाई बीमारी से मर गया। बचपन से लेकर आज तक कई परिजनों को उसने इस बीमारी से मरते देखा है। पुश्तैनी पेशा न छोड़ पाना भी इनकी मजबूरी है। रात दिन हाड़ तोड़ मेहनत के बावजूद बदले में यह जानलेवा रोग मिल रहा है। इस संबंध में जिले के वरिष्ठ चिकित्सक डा0 अजमल सगीर का कहना है कि दरअसल रोग बढ़ने पर ही यह लोग इलाज को आते हैं डाक्टर इस रोग को शुरू में टीबी समझकर इलाज करते हैं। बीमारी को समझते-समझते काफी देर हो चुकी होती है। जिले में स्टोन डस्ट एवं उसके दुष्परिणामों पर सर्वे कर चुके वीरभूमि सहयोग संस्थान के जफर खान के मुताबिक पिछले पांच साल में जिले में सिलिकोसिस से 27 मौतें हो चुकी हैं। कमजोर आर्थिक हालत की वजह से यह डाक्टर तक भी नहीं पहुंच पाते नतीजतन इन्हें मालूम ही नहीं होता कि इन्हें


[Azhar Khan]

 आखिर रोग क्या है?..