(Report) सूखे का स्वेत पत्र
सूखे का स्वेत पत्र
(आमुख)
प्रकृति और प्राणी दोनों ही एक दूसरे के सहचर हैं। दोनों मे से किसी एक के भी द्वारा पैदा किए गए असन्तुलन से दोनों को ही अस्वाभाविक परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। प्राणियों में खासकर मानव के द्वारा लिप्सा बस प्रकृति के साथ निरन्तर की जा रही नाजायज छेड़-छाड़ भीषण प्राकृतिक असंतुलन का सामना धरती के विभिन्न भागों को करना पड़ता है। ऐसे प्राकृतिक असंतुलन कभी अवर्षण (सूखा) तो कभी अतिवर्षण (बाढ़) तो कभी भूकम्प के रूप में तबाही मचाते रहे हैं। ऐसे तमाम असंतुलन को दैवी आपदा अथवा दैवी प्रकोप के नाम से परिभाषित किया जाता रहा है।
किन्तु मानव के कथित बौद्धिक अथवा लिप्सा विकास के कारण उसने अपनी परिस्थितिकी के साथ निरन्तर ही बड़े पैमाने पर छेड़-छाड़ की है जिसके चलते यह दैवी आपदाएं अब मानव कृत हो गयी है साथ ही आवर्ती भी। ऐसी दशा में दोनों ही सहचर परिस्थितिकी और प्राणी व्यथित ही रहते हैं। यह व्यथा उन्हें और भी अधिक व्यथित करती हैं जो आपदाएं में एक दूसरे के साथ अधिक घनिष्ठता के सम्बन्ध रखते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो जिस भू-भाग का मानव प्रकृति के साथ जितनी नजदीकी बनाकर रखता है उतना ही बुरा प्रभव ऐसी आपदाओं का उस पर पड़ता है। बुन्देलखण्ड का भाग ऐसा ही एक महत्वपूर्ण भाग है। यहां के लोगों की आजीविका का प्रमुखतः श्रोत कृषी है और यहां की कृषि वर्षा पर ही आधारित है।
बुन्देलखण्ड में चित्रकूट मण्डल भी इसी परम्परा का एक भाग है। यहां कभी सूखा तो कभी बाढ़ आवर्ती रूप से अपनी हाजिरी देते हैं। बाढ़ तो आती है और झकझोरती हुयी निकल जाती है। किन्तु सूखा जिसके तो कभी-कभी पद चाप भी नहीं सुनाई पड़ते लेकिन वह यहां के बाशिन्दों को इनके आधार से हिलाकर ही फेंक देता है ऐसा सूखा जिसके आने पर शोर शराबा होता है उसकी तो अलग बात है किन्तु वह सूखा जिसके पदचाप भी नहीं सुनाई पड़ते उसने तो गांवों में गांव के प्रति ग्रामीणों में गहरा अविश्वास ही पैदा कर दिया है। कुछ गांवों को अगर छोड़ दिया जाये तो चित्रकूट मण्डल जनपद के प्रत्येक गांव में वहां के वाशिंदों के मन में अपने ही गांव के प्रति गहरे अविश्वास के प्रतीक स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ जायेंगे।
जनपद में कोई ही गांव ऐसा हो जिसके एक तिहाई घर उजड़कर खण्डहर न हो गए हों तथा जहां के आधे से अधिक नौजवान रोजगार की तलाश में पलायन न कर जाती हो। बाहर रोजगार में यदि उन्हें लाभ होता है तब वह अपना परिवार लेकर वहीं बस जाते हैं अपने जन्म भूमि अपने गांव को वह भूल जाते हैं।
हमारी सरकारों और हमारे प्रशासन ने हमेशा ही ऐसी विभीषिकाओं से निपटने की ढेर सारी योजनाएं बनाई हैं उन पर अमल भी किया है किन्तु ऐसी योजना में जनाधार के अभाव के कारण जन सहभागिता नहीं विकसित हो सकी परिणाम स्वरूप ऐसी योजनाएं तात्कालिक बचाव और राहत के रूप में तोे खूब कारगर रही किन्तु समग्र दैवी आपदा प्रबंधन कि दिशा में असरकारी साबित नहीं हो सकी।
उपरोक्त तथ्यों के मद्देनजर राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय वालण्टरी हेल्थ एसोसिएशन (विहाई) तथा वाण्टरी ऐक्शन नेटवर्क इंडिया के (वानी) संयुक्त प्रयासों से ..........................(पदम) तथा उत्तर प्रदेश में उत्तर प्रदेश वालण्टरी ऐक्शन नेटवर्क (उपवन) ने सूखा प्रबन्धन प्रकोष्ठ का गठन कर शासन तथा प्रशासन को जनाधार तथा जनसहभागिता के क्षेत्र में मदद करने की योजना बनाई है। जिसके प्रथम चरण में जनपद प्रदेश तथा राष्ट्रीय स्तर पर सूखे के संदर्भ में स्वैच्छिक स्वेत पत्र जारी करने की योजना है।
कार्यक्षेत्र की दृष्टि से पंचायत अध्ययन संदर्भ केन्द्र (पास्क) बाँदा की जिम्मेदारी थी कि बुन्देलखण्ड स्तर पर ऐसा स्वेत पत्र जारी किया जाता, किन्तु संसाधनों की विपन्नता के कारण चित्रकूट मण्डल से यह प्रयास प्रारम्भ किया गया है।
आखिर सूखे का पैमाना क्या है
सूखे की स्थिति के प्रति जो धारणा बनती जा रही है उससे तो ऐसा प्रतीत होता है
कि आने वाले समय में यह सोंचा जायेगा कि माह जून से सितम्बर तक पानी नहीं बरसा और
नवम्बर से जनवरी तक पानी झमा-झम बरस गया तो सूखा समाप्त। दूसरी तरफ सरकार के द्वारा
स्थापित किए गए वर्षा मापी यंत्रों के ऊपर यदि पानी बरस गया तब तो प्रमाणिक तौर पर
सूखा समाप्त हो ही गया।
जब की वास्तविकता ऐसी नहीं है। चित्रकूट मण्डल में गांवों के निरक्षर किसान मजदूरों के तथ्यों में गणितीय आंकड़े भले नहीं है किन्तु उनके तथ्य अन्तर्राष्ट्रीय सूखे के मानको के आधार पर एक दम खरे उतरते हैं। सूखे के अन्तर्राष्ट्रीय मानक निम्न प्रकार हैं।
सूखे के अन्तर्राष्ट्रीय मानक
1. पल्मर (संयुक्त राज्य अमेरिका) के अनुसार ’समय का वह अन्तराल जो समान्यतः
महीनों अथवा वर्ष का हो जिससे वास्तविक आद्रता स्थान पर जलवायु की सामान्य आद्रता
से काफी न्यून होती है।’
2. संयुक्त राज्य मौसम ब्यूरो के अनुसार ’सूखा एक शुष्क मौसम का वह सुवीर्य अन्तराल
है जिसमें फसल की हानि होती है।’
3. कार्नवेट के अनुसार ’सूखा एक ऐसी दशा है जब वांछित पानी की मात्रा मिट्टी में
पानी की मात्रा से ज्यादा होती है।’
4. ब्रिटिश वर्षा संगठन के अनुसार ’एक व्यवहारिक सूखा लगभग 28 या अधिक दिनों का
अन्तराल है जिससे प्रतिदिन होने वाली वर्षा बहुत कम होती है और परम (एबस्ल्यूट) सूखा
लगातार 15 दिनों का वह अन्तराल है जिसमें वर्षा 0-25 मिमी. से अधिक नहीं होता है।’
5. आस्ट्रेलियन मेट्रोलाजी ब्यूरो के अनुसार सूखे को किसी विशेष उद्देश्य के लिए
न्यूनतम आवश्यकता के सिद्धान्त पर परिभाषित किया जा सकता है। इस संस्था के अनुसार
’सूखा तभी पड़ता है जब वर्षा, समय अन्तराल में न्यूनतम वर्षा, जलावश्यकता से कम होती
है।’
6. यू.एस.एस.आर. में सूखा 10 दिवस का वह समय अन्तराल माना जाता रहा है जिसमें कुल
वर्षा 5 मिमी से अधिक नहीं होती है।
7. सूखा शोध यूनिट, आई.एम.डी. पूना द्वारा सूखा क्षेत्र की परिभाषा इस प्रकार की गयी
है ’सूखा वह स्थिति है जब किसी क्षेत्र में वर्ष में वार्षिक वर्षा सामान्य वर्षा
से 75 प्रतिशत से कम होती है और वर्षा में जब जल की कमी सामान्य से 50 प्रतिशत से
अधिक होती है तो इसे गंभीर सूखा की संज्ञा दी जाती है।’ जिस क्षेत्र में वर्षा के
दौरान सूखे का प्रभाव 20 प्रतिशत होता है, वह क्षेत्र ’सूखा क्षेत्र’ कहा जाता है।
यहां इसका प्रभाव वर्ष में 40 प्रतिशत पड़ता है वह क्षेत्र ’अंतिम सूखा क्षेत्र’ माना
जाता है।
सूखे का वर्गीकरणः-
सूखे का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता हैः-
1. मेट्रोलाजिकल सूखाः- यह तब होता है जब किसी क्षेत्र विशेष में सामान्य
अवक्षेपण में सार्थक (95 प्रतिशत से अधिक) गिरावट आती है।
2. हाईड्रोलाजिकल सूखाः- मेट्रोलाजिकल सूखे का समय अन्तराल जब अधिक लम्बा हो
जाता है तो वह हाईड्रोलाजिकल सूखा कहलाता है। इसमें भूमि के सतह पर स्थित जल में
अधिक कमी हो जाती है। नदी, नाले, झरने आदि सूख जाते हैं एवं अभीष्ट जल स्तर में
अत्याधिक कमी हो जाती है। मौसमी वर्षा न पड़ने के कारण जल विद्युत परियोजनाओं पर
प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है एवं उद्योग एवं कृषि प्रक्षेत्र उल्लेखनीय रूप से प्रभावित
होते हैं।
3. कृषि संबंधी सूखाः- यह तब घटित होता है जब फसल की वृद्धि के दौरान में
मिट्टी में नमी की अत्याधिक कमी एवं वर्षा का प्रभाव फसलों को पकने के पूर्व ही सुखा
देता है, कृषि संबंधी सूखा कहलाता है। सूखे की घटना उस समय घटित होती है जब सप्ताह
भर की वर्षा सामान्य वर्षा की आधी या उससे कम होती है।
सूखे के परिणामः-
- प्रति हेक्टेयर उपज का अपेक्षा से कम होना।
- पेदावार प्रतिवर्ष परिवर्तित होना-घटना या बढ़ना।
- कृषकों की सामाजार्थिक स्थिति सामान्यतः अच्छी न होना।
- कृषि श्रमिकों की स्थिति दयनीय होना।
चित्रकूट मण्डल के आंकड़े
सूखे की वास्तविक स्थिति जानने के लिए इसके दो तरह के आंकड़े देखने की आवश्यकता है। एक तो वह आंकड़े जो जन सामान्य की ओर से प्रस्तुत किये जाते हैं यानी जमीनी हकीकत से सम्बन्ध रखते हैं। जो सूखे के वास्तविक प्रभावों को दर्शातें हैं। तथा दूसरे वह आंकड़े जो सरकार के निर्देशन पर प्रशासन एकत्र करता है। जिनका उपयोग प्रशासन अपने स्तर पर अपने ढंग से अपने लिए एकत्र करता है और इन्हें गोपनीय बताया जाता है।
लोगों के आंकड़ें
गांवों के आम आदमी के पास अपनी कोई आवाज नहीं है अतः इसके अपने आंकड़े प्राथमिक तौर पर उजागर ही नहीं हो पाते। किन्तु समाचार पत्र निश्चित रूप से ऐसे ग्रामीणों की आवाज बनने की कोशि करते हैं किन्तु यहाॅं भी पहुंच का संकट है। फिर भी कुछ बातें आवश्यक उजागर हो जाती हैं।
कथन
श्री नरेन्द्र कुमार पालीवाल
ग्राम भरखरी तहसील हमीरपुर जिला हमीरपुर
इस वर्ष 2002 के माह जून-जुलाई में वर्षा न होने तथा अधिक तेज धूप निकलने के
कारण तापमान बढ़ने से जहां एक ओर दुधारू पशुओं का दूध घटकर एक चैथाई हो गया वहीं बैलों
द्वारा खेती करने वाले किसानों को भूसा भी समाप्त हो गया है क्योंकि हरा चारा न मिल
पाने के कारण पशुओं के लिए सिर्फ भूसा ही भोजन रह गया है। ट्रैक्टर से खेती करने
वाले किसानों को भी रबी की फसल में दोहरी मेहनत तथा दोहरा खर्च वहन करना पड़ेगा। ऐसी
स्थिति में यह कहना कि सूखा समाप्त हो गया है एकदम बेमानी है।
श्री प्रकाश चन्द्र निषाद (लघु कृषक)
ग्राम पढ़ोरी तह. मौदहा जि. हमीरपुर
समय से पानी न बरसने के कारण हम छोटे किसानों के जानवरों को तो कष्ट है ही हमारे
परिवारों को भी ज्वार, मूंग, तिली, उड़द एवं अरहर आदि के अभाव के कारण भारी कठिनाइयां
झेलनी पड़ेगी। चूंकि खरीफ की फसल से मिलने वाली उपज हमारे जीवन का अवलम्ब है। इसके
अभाव में हमें तथा बच्चों को पूरे वर्ष भर गेहूं की रोटी चटनी के साथ खानी पड़ेगी।
क्योंकि हम गरीब लोग दालें तथा सब्जी खरीद कर नहीं खा सकते। अब वर्षा होने से रबी
की फसल होने की उम्मीद बंध गयी है फिर भी खरीफ की फसल की भरपाई कैसे हो सकती है?
श्री नरेन्द्र कुमार निगम
ग्राम टीहर विकास खण्ड मुस्करा तह. मौदहा जिला हमीरपुर
छोटे किसानों के लिए खरीफ की फसल बहुत बड़ा आधार होती है। इस वर्ष वर्षा के अभाव
में यह फसल बर्बाद हो चुकी है। यह कहना कि अब पानी बरसने से सूखा नहीं रह गया सरासर
अन्याय है। सरकार को चाहिये कि छोटे किसानों की बरबाद हुई खरीफ की फसल की भरपाई करें।
क्योंकि यहाॅं का किसान रबी की फसल की बुआई करने का समय भी नहीं रह गया है।
श्री उदयभान सिंह
ग्राम पिपरौंदा तह. मौदहा जि. हमीरपुर
बुन्देलखण्डी कहावत ’का वर्षा जब कृषि सुखाने’ इस वर्ष चरितार्थ हो गयी है।
हमारी यहां खेतों में एक ही फसल ली जाती है। खरीफ या रबी की। खरीफ की फसल नष्ट होने
के बाद छोटे किसानों का आधार ही समाप्त हो गया है। अब वर्षा होने से रबी की फसल की
उम्मीद तो की जा सकती है किन्तु पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता। सरकार को चाहिये कि
खरीफ की फसल का नुकसान का मुआवजा दे।
सरकारी आंकड़े
सरकार के आंकड़े वैज्ञानिक उपकरणों के माध्यम से वैज्ञानिक पद्धति द्वारा एकत्र किए जाते हैं अतः यह देखने में सुन्दर, क्रमबद्ध तथा खेल खेलने के लिए तो उपयुक्त होते हैं किन्तु मनुष्य की भावनाओं को परिभाषित करने में सर्वथा असफल रहते हैं। बावजूद इसके अपनी क्रमबद्धता एकरूपता की वजह से यह अपनी ख्याति पर्याप्त बना चुके हैं। इतना ही नहीं जमीनी हकीकत को सत्यापित करने में यह कभी-कभी बहुत मदद भी करते हैं। इसलिये सूखे के क्षेत्र मे इन आंकड़ों का भी पर्याप्त महत्व है।
By: Mr. Awadhesh Gautam, Banda (Uttar Pradesh)
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