History of Bundelkhand Ponds And Water Management - बुन्देलखण्ड के तालाबों एवं जल प्रबन्धन का इतिहास
History of Bundelkhand Ponds And Water Management - बुन्देलखण्ड के तालाबों एवं जल प्रबन्धन का इतिहास
बुन्देलखण्ड के तालाब :
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टीकमगढ़ जिले के तालाब (Ponds of Tikamgarh)
- छतरपुर जिले के तालाब (Ponds of Chhatarpur)
- पन्ना जिले के तालाब (Ponds of Panna)
- दमोह जिले के तालाब (Ponds of Damoh)
- सागर जिले के तालाब (Water Management System of Sagar District)
- ललितपुर जिले के तालाब (Ponds of Lalitpur)
- चन्देरी जिले के तालाब (Ponds of Chanderi)
- झांसी जिले के तालाब (Ponds of Jhansi)
- शिवपुरी जिले के तालाब (Ponds of Shivpuri)
- दतिया जिले के तालाब (Ponds of Datia)
- जालौन जिले के तालाब (Ponds of Jalaun)
- हमीरपुर जिले के तालाब (Ponds of Hamirpur)
- महोबा जिले के तालाब (Ponds of Mahoba)
- बांदा जिले के तालाब (Ponds of Banda)
- बुन्देलखण्ड के घोंघे प्यासे क्यों (Bundelkhand ke Ghonghe pyase kyo)
‘सुखी जीव, जहँ नीर अगाधा’ अर्थात जिस क्षेत्र, स्थान, ग्राम में भरपूर पानी है, किसी भी ऋतु में जहाँ पानी का संकट और अभाव नहीं है, वहाँ के मनुष्य, पशु, वन्यप्राणी और जीव-जन्तु प्रसन्न, सुखी, सम्पन्न एवं अभावहीन होते हैं।
बुन्देलखण्ड जो 23”-00 से 26”=00 उत्तरी अक्षांश एवं 77.5 से 79.5 पूर्वी देशान्तर के मध्य विन्ध्याचल पर्वत का पठारीय भूभाग है, भारत का हृदय प्रदेश है, परन्तु पहाड़ी, पठारी टौरियाऊ, ऊँचा-नीच ढालू क्षेत्र है। बुन्देलखण्ड जनपद उत्तरी भारत एवं दक्षिणी भारत का योजक सन्धि क्षेत्र है। इस पठारी क्षेत्र में पठारी नदियाँ-नाले भी बहुत हैं, गाँव-गाँव में तालाब हैं, जलाशय हैं। फिर भी लोग पानी को तरसते हैं। पानी के बिना कृषि विकसित नहीं है। कल-कारखाने नहीं हैं। पानी के अभाव में यहाँ के निवासी किसान, मजदूर सभी दुखी रहते हैं। मशक्कत भरा जीवन बिताते हैं। पानी अनमोल है। पानी महत्त्वपूर्ण है। सारा विकास पानी पर निर्भर है। पानी बिना सब कुछ शून्य है।
जबकि जल ही जीवन है। शरीर की आभा और कान्ति जल से ही है। शरीर में रक्त, पेड़ों में, फलों में, अनाजों में, पत्तों में, कन्दमूल जड़ों में जो रस प्रवाहमान है, जो स्वाद है, वह सब जल के कारण है। श्रुति के अनुसार अमृत पीने से जीव जिन्दा रहता है। अमर हो जाता है। अमृत में वह शक्ति है कि उसके पीने से मुरझाया-सा पेड़, तालु से चिपकी जीभ और रुंधे गले वाला मृत्यु की और अग्रसर मनुष्य, पशु, पक्षी जिन्दा हो जाता है।
वह अमृत क्या है? कैसा है? संसार के सभी जीव उसका नित्य पान करते हैं और उसी से जिन्दा रहते हैं। तो पानी जिसे जल भी कहते हैं, वही अमृत है। कहा जाता है कि ‘आपो ज्योति रसोSमृतम’ अर्थात जल ज्योति है, रस है, अमृत है।
जल पृथ्वी के समस्त प्राणियों का जीवन है, प्राण है। अविछिन्न सहचर है। जल नहीं तो जीवन नहीं, वनस्पति नहीं। मरणासन्न जीव को बचाने के प्रयास में ही ‘जल, गंगाजल और दूध’ पिलाये जाने की परम्परा है। यदि शरीर में पानी नहीं तो प्राणान्त हो जाता है। तात्पर्य यह कि संसार में ‘पानी बिन सब सून’। केल के पत्ते, पुष्प, चावल, हल्दी के साथ चुल्लू में जल लेकर मन्त्र पढ़ते हुए संकल्प लिया जाता है। ‘अपवित्रो पवित्राः’ जल छिड़ककर ही किया जाता है। प्राणी के दाह संस्कार के अवसर पर घड़े में जल लेकर परिक्रमा लगाते हुए, घड़े में पथरिया से छेद (टोंकौ) कर जल छितराया जाता है, जिससे कि मृतात्मा विराट सृष्टि के जल में विलीन हो जावे।
कबीरदास जी ने तो बिना लाग-लपेट कहा है कि “पानी केरा बुदबुदा अस मानस की जात।” तात्पर्य यह कि मनुष्य पानी का बुलबुला, फूँकना है, जिसका अस्तित्व पानी तक ही है। उन्होंने तो सृष्टि की उत्पत्ति ही जल से बतलाई है। लिखा है, ‘जल में कुंभ, कुंभ में जल, जल जलहि समाना’। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है- ‘जल, छिति, पावक, गगन, समीरा। पंच तत्व मिलि रचहि शरीरा।।’ अर्थात जल, पृथ्वी (मिट्टी), अग्नि, आकाश और वायु-पाँच प्राकृतिक तत्वों के मेल से शरीर की रचना हुई है, जिसमें पाँचवां वायु तत्व (ऑक्सीजन-प्राणवायु) शरीर में प्राण रूप में है। शरीर रचना में मुख्य घटक तत्व जल है जो शरीर में 90 प्रतिशत होता है, तथा लाल एवं सफेद कणों के साथ रक्त रूप में नख से शिख तक हृदय, फेफड़ों की पंपिंग व्यवस्था द्वारा मोटी-पतली सिराओं द्वारा संचरित होता है। शरीर में इस रक्त रूपी जल का संचरण ही शरीर की सजीवता है। इसी रक्त जल में वायु के कण (प्राण वायु) मिलकर शरीर को प्राणमय-जीवित बनाये रखते हैं। शरीर में जल नहीं तो शरीर निर्जीव, वायुविहीन हो जाता है जिसे हम मृत्यु कह देते हैं।
पानी बरसा तो मानव जीवन का विकास हुआ। पानी बरसने से नदी-नाले बने। भूमि पर जल बरसा तो पेड़, पौधे, घास, वनस्पति उत्पन्न हुई। पानी से मानव का जन्म हुआ तो उसने अपने जीने हेतु जल संग्रहण आवश्यक समझा और पानी रोकने के लिये बन्धियों, तालाबों एवं तलैयों का निर्माण किया।
पानी तरह है, प्रवाहमान है। ठोस (बर्फ) रूप में भी है, जो एक हिमांक पर रूपान्तरित भी होता है, तो अधिक वाष्पांक पर वाष्पीय रूप (भाप बनकर) में हवा के साथ उड़ जाता है। जल के बिना न कोई रंग है, न स्वाद है।
इस संसार में अधिकारी कोई नहीं है। यदि कोई अधिकारी है तो वह पानी है। आदमी का, पशुओं का, वनस्पति का और भूमि का स्वामी केवल पानी है। जिसने पानी की उपेक्षा की, पानी प्रबन्धन, संग्रहण में अनुशासनहीनता, उपेक्षा और उदासीनता की, उसका पतन होगा और जीवन समाप्त होगा, क्योंकि पानी के बिना जीव का जीवित रहना असम्भव ही है। आदमी का सही जीवन बनाए रखने का, विकास अथवा विनाश करने का अधिकार तो मात्र पानी को ही है। वैशेषिक दर्शन में बतलाया गया है कि जब सृष्टि नहीं थी तब भी जल था। जब सृष्टि (पृथ्वी ग्रह) पर सब कुछ है तो यह सब कुछ जल के कारण है। जल से जीवन का उदय हुआ और विकास हुआ। जीव के लिये जल मौलिक तत्व है।
जीवन के महत्त्वपूर्ण घटक जल को आदमी बना ही नहीं सकता। हाँ, जो है अथवा जो जितना मिलता है, उसे जीवन चलाने हेतु सुरक्षित रखा जा सकता है। आज का आदमी अपना जीवन तो बचाता फिरता है, परन्तु जिस पानी से जीवन प्राप्त होता है, जिससे जीवन चलता है, उसे बचाए रखने की दिशा में वह निरन्तर उदासीन होता चला जा रहा है।
पानी का गुण है ऊपर से नीचे चलना, तात्पर्य अपने मूल तल की ओर जाना। जिसके मूल तल में पानी है, वही हरा-भरा, सम्पन्न है, जीवित है। हम तालाबों, नदियों, वनों एवं पहाड़ों को बचाकर ही तो सुखी-सम्पन्न रह सकते हैं।
माँ के पेट में पानी का फूँकना (गुब्बारा-बुलबुला रूपी कनाई) बनता है और उसमें से आदमी जन्म लेता है। पानी से पैदा हुआ आदमी, पानी पर ही निर्भर है। भला पानी नहीं तो पानी में पैदा हुआ जीव जीवित कैसे रह सकता है। मनुष्य का प्रारब्ध एवं भविष्य पानी ही है। इसे यों भी जानिए कि मनुष्य, धरती एवं वनस्पति आदि सब चराचर है, जिनकी जन्म-पत्री पानी से लिखी हुई है एवं पानी पर लिखी है, जिसे प्रत्येक व्यक्ति पढ़ा-लिखा और अनपढ़ सभी बाँध सकते हैं और पानी होने अथवा न होने पर अपना भविष्य स्वयं जान सकते हैं। इसमें किसी ज्योतिषी से पूछने की जरूरत ही नहीं है। केवल ईश्वर से यह प्रार्थना करने से काम नहीं चलेगा कि वह अन्न और जल की पूर्ति करते रहे। ईश्वर तो आकाश से बादलों द्वारा पृथ्वी पर पानी बरसा देता है, परन्तु बरसाती पानी का संग्रहण तो आदमी को ही करना पड़ेगा।
पानी का संग्रह कर उससे सिंचाई कर अन्न का उत्पादन होगा। जैसे व्यक्ति अन्न का संग्रह, कुठियों, बंडों अथवा टंकियों और अन्नागारों में सुरक्षित रखकर करता है, वैसे ही जागरूकता और सावधानीपूर्वक, पूर्ववत जल का संग्रहण तालाबों, तलैयों अथवा बाँधों में करना पड़ेगा और उसे साफ एवं सुरक्षित भी रखना पड़ेगा। जल की एक बूँद भी व्यर्थ न जाए क्योंकि जैसे अन्न के दाने-दाने से बंडा भरता है, वैसे ही बूँद-बूँद से जलाशय (तालाब) भरता है। दाना-दाना बर्बाद करने से अन्न का बंडा खाली हो जाता है वैसे ही बूँद-बूँद पानी बर्बाद करने से सरोवर खाली हो सकता है।
रहीम कवि ने कहा है, ‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।’ तो पानी संसार में अजीब चीज है। यह द्रव है, ठोस है और वाष्प भी है। इसका कोई निश्चित रंग नहीं, आकार नहीं, ध्वनि नहीं। पानी का खजाना केवल समुद्र है, जिसे प्रकृति उसके खारेपन को दूर कर हमें पीने और जीने के लिये भेजती है। पानी को ही अमृत कहा गया है। यदि समुद्र पानी रूपी अमृत न भेजे तो हम सबका विनाश हो जावेगा। इस अमृत रूपी पानी के मिलने का तरीका भी बड़ा अजीब है।
सूर्य की गर्मी से समुद्र का पानी भाप बनता है। वह भाप बादल के रूप में ऊपर उठती है, जिसे हवा दूर-दूर तक उड़ा लाती है। उन उड़ते हुए बादलों को पहाड़, पेड़ एवं जंगल जहाँ जितनी ठण्डक देते हैं, तो वहीं ठण्डक पाकर ठहर जाते हैं और वहीं पानी बरसा देते हैं। जहाँ जंगल, पहाड़ी, वृक्ष नहीं होते, वहाँ बादल ठहरते ही नहीं, तो वर्षा नहीं होती। पहाड़, वन, वृक्ष रूपी वर्षा के यदि ऐंटीना न होंगे तो वर्षा न होगी अथवा जब कभी होगी तो कम होगी। अधिक वर्षा चाहिए तो अधिक जंगल चाहिए।
जल की उपलब्धता से ही सभ्यता-संस्कृति का विकास हुआ। बंजर भूमि को पानी मिला तो नमी पाकर भूमि कृषि के काबिल हुई। खेती की गई तो अन्न उत्पन्न हुआ। व्यक्ति मांसाहारी से शाकाहारी बन गया। तैत्तरीय उपनिषद में तो जल को ही अन्न बतालाय गया है, क्योंकि जल नहीं तो अन्न नहीं। यदि भूमि ढालू, पहाड़ी, पथरीली है और वहाँ बारहों मासी जलयुक्त नदियाँ, नाले नहीं हैं तो मनुष्यों ने वहाँ धरातल पर बरसाती प्रवाहित होते जाते जल के संग्रहण हेतु तालाब बना लिये। उक्त संग्रहीत जल का उपयोग अपने दैनिक जीवन के निस्तार एवं कृषि विकास जैसे सभी कार्यों में लेने की योजना गढ़ ली गई। इस प्रकार धरातलीय जल को उपयोग में लाने का सबसे बेहतर तरीका तालाबों के निर्माण का सोचा और उसे साकार किया।
‘जीवनं भुवनं जलम’ अर्थात संसार में जल ही जीवन है। जल रस है। संसार में भी जो सौन्दर्य है, कान्ति है, दीप्ति है, वह जल की रसमयता के कारण है। मनुष्य में जो आभा है, पुष्प में जो पराग है, वृक्ष की छाल में जो रस है, फलों में जो मिठास है, वह जल के कारण ही है। यदि जल नहीं तो सूखना अथवा मृत्यु विनाश है। जो जलमय होगा वही रसमय रसीला होगा। इस संसार में जल केन्द्रीय तत्व है। इस तत्व को मनीषियों ने भी स्पष्ट कर दिया था कि जल ही जीवन है। छान्दोग्योपनिषद में पृथ्वी को मूर्तिमान जल माना गया है। जो कुछ भी पृथ्वी पर है-मनुष्य, पशु, प्राणवान जीव एवं वनस्पति सभी मूर्तिमान जल है।
ग्रीक दार्शनिक थैलोज (624 ई.पू.) की मान्यता है कि हर वस्तु जल से बनी है। जर्मनी के महाकवि जोहान बुल्फांग फान गैटे ने माना है कि हर वस्तु की उत्पत्ति जल से है। अथर्वेद (4-15-5) में स्तुति है कि “हे मरुदेवो सूर्य की गर्मी के साथ आप समुद्र के ऊपर से उड़ो और महावृषभ के समान गर्जना करने वाले जल बादलों को लाकर आप भूमि को तृप्त करें, क्योंकि जब तक धरती की प्यास नहीं बुझती, उत्पत्ति, उत्पादन, आवास-निवास कुछ भी सम्भव नहीं है। धरती को जलामृत से जीवित रखना पहली आवश्यकता है, यदि धरती पर जीवन रखना है तो।” क्योंकि मनुष्य के जिन्दा रहने को, पीने को, नहाने-धोने को, साफ-सफाई रखने, भोजन पकाने को, घर-मकान निर्माण के लिये, अन्न उत्पादन हेतु सिंचाई के लिये, कल-कारखाने चलाने के लिये, बिजली बनाने के लिये, औद्योगिक क्षेत्रों के विकास के लिये, सांस्कृतिक स्थलों, देवालयों के विकास के लिये जल प्रथम आवश्यकता है। तो जल के विषय की सही समझ भी जरूरी है। जो जल भूमि पर बरसता है, उसका दुरुपयोग न हो। इसके अलावा यह कि सतही बरसाती जल को अभियान्त्रिकी तौर पर नदी-नालों पर बाँध, तालाब बनाकर ऐसा संग्रह करें कि संग्रहीत पानी को मोड़कर मितव्ययितापूर्वक कृषि एवं कल-कारखानों को दिया जा सके एवं मितव्ययिता के साथ बूँद-बूँद का उपयोग कृषि सिंचाई एवं उद्योगों में हो सके।
प्लेटो ने जलचक्र की दो परिकल्पनाएं बतलाई हैं। प्रथम भूमिगत जल के बारे में है कि पृथ्वी के भीतर एक-दूसरे से जुड़े जलमार्गों का जाल बिछा हुआ है, जो एक विशाल जलागार से जुड़ा हुआ है। वह अगाध गह्वर (टारटरस) के रूप में होता है। इस विशाल जलागार के उद्वेलन से ही गहरी नदियों में पानी रिसता, झिरता रहता है और नदियों के माध्यम से समुद्र होता हुआ पुनः जालागार में जा पहुँचता है। परन्तु भूमिगत जल प्राप्त होना एक संयोग है। यदि बोर का निशाना किसी जलमार्ग धारा पर पड़ जाए तभी सम्भव है।
प्लेटो की दूसरी परिकल्पना सतही जल के बारे में है कि वर्षा के धरातलीय प्रवाहित पानी से नदियों-नालों का निर्माण होता है। यह भी कि पृथ्वी के धरातल पर वर्षा के पानी से निर्मित नदियों-नालों का जाल सा बिछा हुआ है जो ऊँचाई से निचाई की ओर जल प्रवाहित करती हैं। यदि भूमिगत जलस्रोत प्राप्त करना असम्भव है अथवा दुविधाजनक है तो पृथ्वी के धरातल पर नदियों-नालों के प्रवाहित होते जाते जल को रोककर मानवीय विकास के उपयोग में तो लाया ही जा सकता है, जिसके लिये तालाबों का निर्माण ही सबसे सुन्दर, सांस्कृतिक, सरल एवं सस्ता उपाय है। वह भी ‘अपना हाथ जगन्नाथ’ की कहावत को चरितार्थ करता हुआ।
इटली के वैज्ञानिक लेयो नार्दो द विंची (1492-1519 ई.) ने पृथ्वी में पानी के प्रवाह की तुलना शरीर में नख से शिख तक धमनियों एवं शिराओं में प्रवाहित रक्त से करते हुए बतलाया है कि जिस प्रकार रक्त शरीर में नीचे से ऊपर एवं ऊपर से नीचे चलता रहता है, उसी प्रकार पानी भी पृथ्वी के धरातल से नीचे समुद्री तल तक जाता-रहता है। पानी समुद्र से सूर्य को तेज गर्मी पाकर भाप बनकर हवा के साथ ऊपर उठता एवं तेज हवा के वेग के साथ पृथ्वी तल की ओर आसमान में प्रवाहमान होता, जंगलों, पेड़ों एवं पहाड़ों के सान्निध्य से ठण्डा हुआ और पृथ्वी पर बरस गया। वह वर्षा का जल नदियों के द्वारा पुनः समुद्र में जा पहुँचता है, यदि मनुष्य ने अभियान्त्रिकीय प्रयासों द्वारा तालाबों, कुँओं, झीलों का निर्माण कर अपने उपयोग को उसे रोक नहीं लिया।
इसलिए यह जरूरी है कि यदि आदमी सुखपूर्वक रहना चाहता है और अपनी विकास प्रक्रिया निरन्तर जारी रखना चाहता है तो उसे बरसाती पानी की बूँद-बूँद को अमृत मानते हुए सहेजकर रखने के लिये तालाबों के निर्माण, जीर्णोद्धार एवं उनके सुधार सुरक्षा पर ध्यान देना होगा। पानी की कमी की समस्या किसी एक व्यक्ति की समस्या नहीं है बल्कि यह समस्या सभी ग्राम, क्षेत्र वासियों एवं समाज की समस्या है जिसे दूर करने के लिये सभी को बिना विभेद जुटना होगा। क्योंकि बिन पानी सब सून होगा, न जीव रहेगा और न जीवन रहेगा। मानव को विनाश से बचाने का एकमात्र उपाय है पानी को बचाना, उसका संग्रहण और संरक्षण करना। जलस्रोतों, संसाधनों को साफ-स्वच्छ रखना और उन्हें प्रदूषित न होने देना। जल के संग्रहण एवं सुरक्षित-साफ रखने का दायित्व सरकार अथवा किसी शासकीय एजेंसी पर नहीं छोड़ा जा सकता। जल प्रत्येक प्राणी की आवश्यकता है इसलिए प्रत्येक व्यक्ति, परिवार एवं समाज को एकल रूप से और समग्र समूह रूप से जल संग्रहण एवं सुरक्षा कार्यों में निरन्तर जुटा रहना चाहिए। जल का संग्रहण और संग्रहीत जल को स्वच्छ बनाये रखना, जल देव की पूजा है। जल देव एक ऐसे देव हैं कि जिसकी भक्ति एवं सेवा से सभी मनोरथ पूरे हो सकेंगे। जल एवं जल के साधनों का मन्त्र, प्रार्थना, स्तुति तो व्यक्ति स्नान करते हुए प्राचीन काल से गाता रहा है-
गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वति।
नर्मदे सिंधु कावेरी जलेSस्मिन सन्निधि कुरु।।
बुन्देलखण्ड में, वर्षा ऋतु में जितना पानी बरसता है, वह पड़ोसी राज्य राजस्थान की अपेक्षा अधिक ही है। लेकिन बड़ी विचित्र बात है कि यहाँ न पीने को पर्याप्त स्वच्छ जल मिलता है, न नहाने-धोने और कृषि सिंचाई को पर्याप्त जल मिलता है। लोग प्रदूषित जल पीते हैं, उसी से नहाते हैं और उसी से देव पूजा करते हैं। पानी को लेकर यहाँ मारामारी होती है। चाहे वह हैंडपम्प पर हो, चाहे कुँओं की जगत पर अथवा पुरानी बावड़ियों में। पीने के पानी को लेकर झगड़े होते रहते हैं। महिलाएँ, बच्चियाँ चुल्लू-चुल्लू पानी भरते-भरते लड़ पड़ती हैं। तालाबों की नहरें हों, अथवा सलूस के गेट हों अथवा चाट डौंडी से कृषि सिंचाई को जल लेने की बात हो, पानी पर विवाद होते ही रहते हैं। लट्ठ भाँजे जाते, कुल्हाड़ियाँ चलतीं, बन्दूकें, कट्टा, पिस्तौलें चलतीं। चुल्लू-चुल्लू पानी के लिये पुरुष, महिलाएँ, बच्चे, बच्चियाँ लड़ते-भिड़ते मारे जाते, लाशें बिछा दी जातीं। यहाँ खारे-मीठे पानी का झगड़ा नहीं होता, बल्कि विवाद तो पानी को लेकर होता है।
पीने के पानी एवं खेतों की सिंचाई के पानी को लेकर मौतों का होना तो बुन्देलखण्ड में सामान्य प्रक्रिया रही है। इससे पृथक विशेष बात यह है कि छतरपुर, विजावर और पन्ना परिक्षेत्रों में अनेक ग्राम ऐसे हैं, जहाँ की महिलाओं को दो-दो, तीन-तीन किलोमीटर दूरी से पहाड़ी-पथरीले मार्गों को पार कर पीने का पानी लाना पड़ता है। ऐसे पानी की कमी वाले ग्रामों में हर कोई अपनी पुत्री का ब्याह करने में भय खाता है। लड़िकयाँ भी ऐसे पानी की कमी वाले ग्रामों में शादी किये जाने का विरोध कर देती हैं। इससे ऐसे पानी की कमी वाले ग्रामों के अधिसंख्य लड़के बिन ब्याहे, क्वारे ही रह जाते हैं।
चित्रकूट परिक्षेत्र के पाठा क्षेत्र में कोल जाति के लोग बसते हैं। इस पाठा (पठारी) क्षेत्र में पीने का पानी महिलाओं को ऊँचा-नीचा पथरीला मार्ग पार करते हुए दूर-दूर से मिट्टी के घड़े सिर पर रखकर लाना पड़ता है। पानी लाने में महिलाएँ अपार कष्ट भोगती हैं। वहाँ एक गगरी (घड़ा) पानी का महत्व तो पति से भी अधिक है। पाठा क्षेत्र की कोल महिला पानी भरने के दुख की पीड़ा से पीड़ितावस्था में कह उठती है-
धौरा तेरो पानी गजब कर जाय।
गगरी न फूटे, पिया मर जाय।
कवि चन्द्रिका प्रसाद दीक्षित ‘ललित’ ने लिखा है-
खसम मरे गगरी न फूटे, घटे न धौरा ताल।
तैर रही फटी आँखों में, जले सदा ये सवाल।।
बादल बरसे नदी किनारे, तरसें कोल मड़इया।
बिन पानी के सून जवानी, हा दइया, हा मइया।।
यह पाठा के कोल-प्यास भरा इतिहास है। भूख भरा भूगोल है।।
बुन्देलखण्ड में अवर्षा का अकाल (सूखा) तो मानो अतिथि की तरह आता ही रहता है। कभी समूचे परिक्षेत्र में तो कभी इस क्षेत्र में और कभी उस क्षेत्र में। पानी के अकाल का कारण है कि पानी का उपयोग करने वाले पानी के प्रति जागरुक नहीं हैं। जिन कारणों से पानी बरसता है, लोग उन कारणों को ही नष्ट कर रहे हैं। पहाड़ नष्ट किये जा रहे हैं, जिस कारण उन पर खड़ी वृक्षावलियां नष्ट हो रही हैं। पहाड़ों एवं जंगलों के विनाश से पानी कम बरसने लगता है। यहाँ नदियाँ सदाबहार नहीं रहीं। बुन्देलखण्ड में जल के प्रमुख स्रोत केवल तालाब ही हैं। यदि उनका जीर्णोद्धार नहीं हुआ और नए जलस्रोत विकसित नहीं किए गए तो बुन्देलखण्ड में विशेषकर दक्षिणी बुन्देलखण्ड में सम्पन्नता, खुशहाली कभी आ ही नहीं सकती। केवल अपराधियों, चोरों, लुटेरों का विकास होगा। आबादी बढ़ती रहेगी। लोग भाग्यवाद एवं अन्धविश्वास में जीवन व्यतीत करने को मजबूर रहेंगे। तात्पर्य यह कि, यहाँ के लोग आर्थिक दासत्व भोगते ही रहेंगे।
पानी के संग्रहण एवं सुरक्षा के प्रति प्रत्येक उपयोगकर्ता का जागरूक होना आवश्यक है। केवल सरकार और सरकारी एजेंसी पर पानी के लिये आश्रित रहना अकर्मण्यता, दासता और पराश्रयता है। यदि आत्मनिर्भर बनना है तो पानी के साधन तालाबों की सुरक्षा, जीर्णोद्धार, रख-रखाव एवं स्वच्छता की जिम्मेदारी प्रत्येक व्यक्ति को लेनी होगी।
तालाबों के निर्माण एवं जीर्णोद्धार कार्य से क्षेत्र के लोगों की रोजी-रोटी एवं जल की समस्या तो हल होगी ही और यदि कहीं स्वर्ग है तो स्वर्ग का सुख भी प्राप्त होगा। श्री हरिविष्णु अवस्थी ने ‘बुन्देलखण्ड की विरासत (ओरछा)’ में पृष्ठ 63 पर अपने आलेख में उल्लेख किया है कि-
कूपाराम प्रयाकारी तथा वृक्षस्य रोपकः।
कन्या प्रदः सेतुकारी स्वर्ग मात्रोत्य संशयम्।।
अर्थात कुँआ, तालाब एवं पुर (गाँव) का निर्माण करने वाला वृक्ष एवं उद्यान लगाने वाला, कन्यादान करने वाला निश्चय ही स्वर्ग प्राप्त करने का अधिकारी बनता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी पानी के साधनों कुँआ, बावड़ी, तालाबों की उपयोगिता पर रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड में लिखा है-
वापी तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहहीं।
आराम रम्य पिकादि खग रब जनु कूजहि पथिक हंकारहीं।।
फिर यदि बादल में जीने के लिये जल बरसा भी दें तो उसके संग्रहण-सुरक्षा एवं स्वच्छता के प्रति हम सभी को निरन्तर जागरूक रहना होगा। जल संसाधनों की सुरक्षा-चौकसी, धन-सम्पत्ति के कोष से अधिक करनी होगी क्योंकि धन के बिना तो हम जीवित रह लेंगे लेकिन अमृत रूपी जल के बिना किसी प्राणी का जीवित रहना असम्भव है। इसलिए-
ऐसी हो सब की इच्छा।
बूँद बूँद की, की जावे रक्षा।।
बुन्देलखण्ड 30 लाख हेक्टेयर भूमि का क्षेत्र है, जिसमें से लगभग 25 लाख हेक्टेयर में कृषि की जाती है। परन्तु सिंचाई के जलाभाव के कारण कृषि अविकसित ही रहती रही है। पूर्वकालिक चन्देलों एवं बुन्देला राजाओं ने अपनी प्रजा की जलापूर्ति हेतु गाँव-गाँव तालाबों का निर्माण कराकर वर्षा के बहते धरातलीय जल का संग्रहण कर दिया था। उन प्राचीन तालाबों में निरन्तर मिट्टी, बालू, गोंद एवं गौड़र जमा होती रहती है, जिससे उनकी जल भण्डारण क्षमता उत्तरोत्तर कम होती जा रही है। तालाबों के बाँधों से पानी रिस-रिस (झिर-झिर) कर बाहर निकलता रहता है। कुछ तालाब टूट-फूट गए, जिनमें बाहुबली, धनबली एवं राज्य सरकारों के संरक्षित कृपापात्र दबंग खेती करने लगे। कुछ गरीब पिछड़े परन्तु चतुर लोग तालाबों के जल भराव क्षेत्र (भण्डार) में रबी (उन्हारी) की फसल बोकर लाभ कमाने के लालच में बाँध फोड़कर, सलूस तोड़कर रातोंरात तालाबों का पानी निकाल देते और तालाब के भराव क्षेत्र में खेती करने के लालच में सम्पूर्ण ग्राम समाज को जलविहीन कर देते हैं। वे गरीब ग्राम निवासियों एवं पशुओं को बूँद-बूँद जल को तरसा देते हैं।
वैसे चन्देला एवं बुन्देला राजत्वकाल से बुन्देलखण्ड में जल संग्रहण व्यवस्था सम्पूर्ण भारत देश के अन्य भूभागों की तुलना में अच्छी रही। गाँव का पानी गाँव के तालाबों में संग्रह होता रहा। यहाँ गाँव-गाँव में ऊपर से नीचे की ओर, गाँव के चारों ओर सांकल तालाबों के निर्माण की परम्परा रही, कि ऊपर का तालाब भरे और यदि पानी वेशी है तो वह व्यर्थ न बहता जाए, बल्कि क्रमशः नीचे के संलग्न तालाबों में भरता रहे। यहाँ जो पानी बरसता है, यदि लोग चौकस, चौकन्ने रहकर बरसाती धरातलीय जल को संग्रहीत कर लें तो जलाभाव नहीं रहेगा। लोगों में सामूहिक रूप से जल संग्रहण की चेतना नहीं है। वे सोचते हैं एवं कहते हैं कि ‘मेरी ही क्या अटकी है।’ बुन्देलखण्ड के लोग बरसात में पौर के चबूतरा की पट्टी पर पिछौरा ओढ़े मुँह ढाँके लेटे रहते हैं, पानी बरसता रहता है और बरस कर व्यर्थ बहता चला जाता है। कुँआ, तालाब खाली पड़े रहते हैं। उनमें पानी संग्रह करने के उपाय नहीं करते। बरसाती पानी की बर्बादी बैठे-बैठे, सोते-सोते करते रहते हैं, फिर आठ माह चिल्लाते हैं कि खेती को पानी नहीं है, पीने को पानी नहीं है। यहाँ पानी के अभाव को लोग अपनी उदासीनता, अकर्मण्यता और अज्ञानता के कारण नहीं मानते हैं।
बुन्देलखण्ड में लगभग हर गाँव में तालाब है। किन्हीं-किन्हीं में तो एक से अधिक पाँच-सात तक तालाब हैं। यह तालाब विन्ध्य भूमि के गौरव हैं, वैभव, सौन्दर्य के आगार हैं। अभियान्त्रिकी कला के नमूने हैं। लोगों की धार्मिक आस्था, उपासना के केन्द्र हैं। ग्राम समाज के अमृतकुण्ड हैं। सैलानियों, पर्यटकों के आकर्षण केन्द्र हैं। तालाबों का क्षेत्र होने पर भी यहाँ के लोग पानी को तरसते हैं। लोगों को न पीने को स्वच्छ जल प्राप्त होता है और न खेती की सिंचाई के लिये पर्याप्त पानी। जलस्रोतों, साधनों के बन्धानों-पालों पर बसा, बैठा, खड़ा यहाँ का आदमी पानी का रोना रो रहा है। इसी समस्या के निराकरण हेतु मैंने ‘बुन्देलखण्ड के तालाबों एवं जल प्रबन्धन का इतिहास’ शीर्षक से प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना का प्रयास किया है। यदि निष्ठापूर्वक, ईमानदारी से सरकार एवं ग्राम समाज जागरूकतापूर्वक, ‘मेरा तालाब, मेरा पानी, मेरे प्राण’ जैसी भावना से बुन्देलखण्ड के सभी छोटे-बड़े तालाबों का जीर्णोद्धार, गहरीकरण सुधार कराकर, पुराना भराव वैभव पुनः स्थापित कर दें, तो यहाँ के लोगों का पानी एवं रोटी के लिये रोना, तरसना एवं भटकना रुक जाएगा और यही बात मेरी सफलता का मापदण्ड होगा।
Courtesy: डॉ. काशीप्रसाद त्रिपाठी